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Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा

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एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य अपनी शान्ति, सुस्थिरता और सन्तुलन के लिए बहुत कुछ समाज पर निर्भर करता है। व्यक्ति न तो स्वतः बुरा होता है और न ही कष्ट तोषी। फिर भी समाज में भिन्न भिन्न वृत्ति और अलग अलग प्रकृति के लोगों के संपर्क में आने से वह व्यथित तो होता ही रहता है। बाहरी परिस्थितियाँ, लोगों के व्यवहार, उनकी प्रवृत्ति का कष्टदायी पहलू देख देखकर वह उत्पीड़ित होता रहता है। इसलिए कहा गया है कि जो संसार में रहते हुए भी उससे अलग रहे, जल में कमल के पत्ते के समान अछूता रहे वह सुख और शान्ति को प्राप्त कर सकता है।

समाज में रहते हुए भी अपने आस पास के लोगों से अप्रभावित रहना बहुत कठिन है। इस स्थिति को हर कोई प्राप्त नहीं कर सकता। पर ऐसे नियम हैं जरूर जिन्हें अपनाकर बाहरी व्यक्तियों से अछूता रहा जा सकता है। इसी व्यवहार का स्वर्णिम सूत्र लिखते हुए महर्षि पातंजली ने अपने ग्रन्थ योगदर्शन में कहा है-

मैत्री करुणा मुदितोपेक्षणां सुखदुःख पुण्यापुण्य विषयाणां भावनात्पश्चित प्रसादनम्।

अर्थात् सुखी दुःखी पुण्यात्मा और दुष्टात्मा लोगों के प्रति मैत्री, करुणा ,प्रफुल्लता ओर उपेक्षा का भाव रखने से चित्त को अखण्ड प्रसन्नता मिलती है।

स्वामी विवेकानन्द ने इस सूत्र का अर्थ खोलते हुए लिखा है-मन को इस प्रकार के विभिन्न भावों को ग्रहण करने में असमर्थता के कारण हमारे दैनिक जीवन में अधिकांशतः गड़बड़ी एवं अशान्ति होती है। मान लो, किसी ने मेरे प्रति कोई अनुचित व्यवहार किया तो मैं तुरन्त उसका प्रतिकार करने के लिए उद्यत हो जाता हूँ और इस प्रकार बदला लेने की यह भावना दर्शा देती है कि हम चित्त को दबा रखने में असमर्थ हो रहे हैं। वह उस वस्तु की ओर तरंगाकार में प्रवाहित होता है और बस हम अपनी मन की शान्ति खो बैठते हैं। हमारे मन में घृणा अथवा दूसरों का अनिष्ट करने की प्रवृत्ति के रूप में जो प्रतिक्रिया होती है वह मन की शक्ति का क्षय मात्र है। दूसरी ओर यदि किसी अशुभ विचार या घृणा प्रसूत कार्य अथवा किसी प्रकार की प्रतिक्रिया की भावना का दमन किया जाय तो उससे शुभकारी शक्ति उत्पन्न होकर हमारे ही उपकार के लिए संचित रहती है।"

चित्त का प्रधान गुण है प्रतिक्रिया करना। वह एक फोटोग्राफ की भाँति है जिसमें भले बुरे भावों की वैसी ही फोटो आती है। फोटोग्राफर अच्छी तरह जानते हैं कि किस कोण पर खड़ा होने से तस्वीर अच्छी आयेगी और किस कोण पर भद्दी फोटो आयेगी। इस कोण को समझने और वहीं से चित्र लेने के कारण वे कुरूप से कुरूप वस्तु का भी अच्छा और सुन्दर चित्र खींच लेते हैं। चित्त के सम्बन्ध में भी यही सत्य है। उसे जिस कोण पर सामने रखा जाएगा वहाँ से वह उसी तरह की तस्वीर खींचेगा। फोटोग्राफर को तो तस्वीर खींचने के लिए फिर भी कैमरे का बटन दबाना पड़ता है। पर मन तो सामने आते ही तस्वीर खींच लेता है और चित्त पर अंकित कर देता है।

प्रतिक्रियाओं से रहित हो जाना उन्हीं के लिए सम्भव है जो चित्त क्षय की आध्यात्मिक भूमिका में पहुँच चुके हों। पर सामान्य व्यक्तियों के लिए अपने कैमरे को ठीक कोण पर रखना ही एकमात्र उपाय है जिससे बाहर की घटनाओं का चित्त पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। तत्त्ववेत्ताओं का कहना है कि मनुष्य मूलतः राग और द्वेष के द्वन्द्वों में जीता है। ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ अनर्थकारी कही गयी है। जिसके प्रति हमें राग हो, वह आयु पूरी कर लेने के बाद समाप्त हो जाता है, तो राग भंग होने का अवसाद मिलता है। प्रतिकूल परिस्थितियाँ या घटनायें व्यक्ति को अप्रिय होती हैं। वह उनके संपर्क में नहीं रहना चाहता। इसलिए उनसे घृणा होती है और यह घृणा ही द्वेष बन जाती है। संयोगवश उनका संपर्क होता है तो भी दुःख मिलता है।

व्यवहार क्षेत्र में हम राग और द्वेष को व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी देख सकते हैं। कुछ व्यक्ति होते हैं जो प्रिय होते हैं, कुछ के सान्निध्य में रहने पर आकर्षण होता है, कुछ को देखने का मन नहीं करता और कुछ से वित्त बुरी तरह क्षुब्ध हो उठता है। योग दर्शनकार ने इन्हें ही सुखी, पुण्यात्मा,दुःखी और दुष्ट कहा है। छोटे छोटे वर्गीकरण न किये जाय तो हमारे आस पास यह चार तरह के व्यक्ति ही भरे पड़े हैं। एक वे होते हैं जो हमारी अपेक्षा अधिक साधन सम्पन्न, बुद्धिमान, प्रतिभाशाली और सुखी होते हैं। उनकी स्थिति हमसे अच्छी होने के कारण प्रिय तो लगती है, पर चूँकि वही स्थितियाँ हमारे साथ नहीं होती इसलिए उन व्यक्तियों से ईर्ष्या होती है।

ईर्ष्या दाहकारी मनोविकार है। इस मनोविकार से ग्रस्त व्यक्ति स्वयं उत्कर्ष करने के स्थान पर अपनी मानसिक शान्ति को ही नष्ट भ्रष्ट करता रहता है। ऐसा होना नहीं चाहिए। अच्छा तो यह हो कि उन व्यक्तियों को भी प्रेम किया जाय और प्रेरणा ग्रहण की जाय। पर अहं कहता है कि उस स्थिति के पात्र हम हैं और उस पर हमारा ही अधिकार रहना चाहिए। प्रगति का नियम है कि जो परिश्रम करता है और पुरुषार्थी बनने के रास्ते पर चलता है वही तरक्की करता है। ईर्ष्या से कभी किसी की प्रगति नहीं हुई है और न ही चाहने पर किसी का पतन होता है। उल्टे ईर्ष्या स्वयं अपने लिए ही हानिकर बन जाती है। शास्त्रकारों ने उन्नति के रास्ते में रोड़ा अटकाने वाले इस विकार को दूर करने का उपाय बताया है-मैत्री मैत्री का अर्थ है सद्भावनापूर्ण आत्मीयता। आत्मीयता के सम्बन्ध जिससे भी स्थापित किये जाये वह सहयोगी बन जाता है और सहयोग व्यक्ति के विकास में सहायक ही बनता है। देखा जाय तो दुनिया में जितने भी लोग आगे बढ़े ओर ऊँचे उठें उन्होंने जितना स्वयं के उत्कर्ष हेतु प्रयत्न किया उतना ही प्रयत्न अपने से अच्छी स्थिति वालों का सहयोग प्राप्त करने के लिए भी किया।

प्रगति की मंजिल इतनी दूर है और साधन तथा समय इतने स्वल्प होते हैं कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से ही मंजिल तक नहीं पहुँच सकता। स्वयं के द्वारा ही यदि कोई व्यक्ति मोटर चलाना सीखना चाहे, किसी की मदद लेना पसन्द न करे तो उसे मोटर की रचना प्रक्रिया समझने से लेकर उन्हें ड्राइव करना सीखने तक इतनी मेहनत करनी पड़ेगी तथा इतना समय लगाना पड़ेगा कि सारा जीवन ही लग सकता है। इससे हासिल कुछ नहीं होता। अगर होता भी है तो बड़ी मुश्किल से। इसलिए अनुभवी प्रशिक्षकों की मदद लेनी पड़ती है। अपने से अच्छी स्थिति वाले लोगों की मैत्री का अर्थ है उनसे सहयोग प्राप्त करने ओर उनके अनुभवों का लाभ उठाने का मार्ग तलाशना।

दूसरे प्रकार के लोग वे होते हैं जो कष्टकारी स्थिति में हैं, दुःखी हैं। गिरे हुए अवनति में पड़े और पिछड़े लोगों का कष्ट देखकर मन में पीड़ा होती है। यह पीड़ा ही घनीभूत होकर घृणा में भी बदल जाती है। जो लोग दुःखी, दरिद्रों को देखकर नाक भौं सिकोड़ते हैं इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें दुःखी जनों से वैर है। इसका कुल कारण यही है कि मन में होने वाली पीड़ा घनीभूत होकर घृणा में बदल गयी है। शरीर में लगे घावों को देखकर, उसकी सड़न, बदबू पीव और मवाद देखकर भी आँखें फेर लेने को जी चाहता है। पर इसीलिए तो लोग उस अंग को कष्ट नहीं देते। यह नाक भौं सिकोड़ना तो इसी बात का प्रतीक है कि वह स्थिति सहन नहीं हो रही है, उसे देखने का साहस नहीं जुट पा रहा है।

शरीर के सड़े हुए घाव की चिकित्सा करना जिस तरह हम आवश्यक समझते हैं, उसी तरह यह भी आवश्यक है कि समाज में जहाँ कही भी कष्ट और पीड़ा दिखाई दे उसके निवारण का भी उपाय करें। इसलिए शास्त्रकार ने दुःखीजनों के प्रति करुणा का दृष्टिकोण अपनाने का निर्देश दिया है। शरीर के किसी अंग विशेष में पीड़ा होने पर हाथ, आँखें, मस्तिष्क और पाँव जिस तरह उसे दूर करने में लग जाते हैं। उसी प्रकार दुःखी लोगों की सेवा सुश्रूषा में भी तत्परता बरतनी चाहिए। जुगुप्सा करने और नाक, भौं सिकोड़ने से तो हमारे चित्त में भी वह अवसाद निःसृत होकर आ जाता है। जबकि कष्ट निवारण के लिए किये गये प्रयत्नों के फलस्वरूप हार्दिक सन्तोष अनुभव होता है।

अपने आस पास दृष्टि डालने पर ऐसे लोग भी दिखाई पड़ते हैं-जो प्रगति के लिए प्रबल प्रयत्न करने में जुटे हुए हैं। ऐसे भी हैं जो समाज के लिए अपनी शक्तियों और क्षमताओं का उपयोग करने में प्रवृत्त हैं। उनके प्रयासों को सराहनीय मानकर प्रमुदित होना तथा उन्हें प्रोत्साहित करना एक ऐसा गुण है जो अन्धकार के वातावरण में भी आशा की ज्योति जलाता है। संसार में अच्छाइयाँ भी है और बुराइयाँ भी। ईमानदार लोग भी हैं तथा बेईमान भी। इन दोनों तरह के लोगों में से किसी भी एक वर्ग पर ही दृष्टि गड़ाई जा सकती है और प्रफुल्लित होने के साथ साथ खिन्न तथा निराश भी हुआ जा सकता है। यह ठीक है कि दुनिया में बुरे तत्व भी हैं पर न उनसे निराश होने की आवश्यकता है और न ही भयभीत होने की । महर्षि पातंजली ने दोनों तरह के लोगों के बीच निर्द्वन्द्व रहने और अच्छाई का सहयोग देने की प्रेरणा देते हुए कहा है-अच्छाइयों को देखकर प्रसन्न होओ, उन्हें प्रोत्साहन दो, व बुराइयों की उपेक्षा करो उन्हें निरुत्साहित करो। अच्छाइयों को देखकर प्रसन्न होने पर यह चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि दुनिया में बुराई बहुत बढ़ गयी है। अच्छे लोगों का जीना भी दूभर हो गया है। ऐसे में किस प्रकार शान्त रहा जाय।”

जहाँ भी शुभ दृष्टि रखेंगे वही अच्छे तत्व जरूर मिल जायेंगे। बुरे लोगों में भी कुछ न कुछ अच्छाइयाँ जरूर होती हैं। उन्हीं का उपयोग कर लोग कुशल संगठन कर्ता बनकर महामानव तक बन जाते हैं और अशुभ दृष्टि से ही सब जगह देखा जाय तो न कहीं आशा बँधती दीखती है और न ही प्रकाश दिखाई देता है। अच्छाई जहाँ भी हो उसे उभारकर सुखप्रद परिस्थितियाँ निर्मित की जा सकती है। यदि बुराई को देख देखकर ही चिन्तित होते रहा जाय तो जो थोड़ी बहुत सम्भावना रहती है वह भी जाती रहती है।

सामाजिक दृष्टि से जो भी परिणाम हो पर व्यक्तिगत रूप में भी शुभ की उपेक्षा और अशुभ को तिल का ताड़ बनाकर देखने की आदत से अपनी ही शान्ति भंग होती है। इस प्रकार मैत्री, करुणा और मुदिता उपेक्षा द्वारा हम व्यक्तिगत जीवन में शान्ति सन्तुलन बना सकते हैं तथा सामाजिक सुव्यवस्था के निर्माण में भी सहयोगी बन सकते हैं।

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