
शील शालीनता का महत्त्व घटने न दें।
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शील के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए पुराणकार ने एक सुन्दर कथा के द्वारा उसे समझाया है। प्रहलाद जब सम्राट बने, तब रात्रि उनके सामने एक ज्योति-प्रतिमा प्रकट हुई। वे लक्ष्मी जी थीं। उन्होंने कहा- मैं एक स्थान पर अधिक समय नहीं रहना पसन्द करती, अतः जाती हैं। प्रहलाद ने प्रणाम कर कहा-जैसी देवी की इच्छा, यहाँ जब चाहें, पुनः आएँ, स्वागत रहेगा। अभी जा रही हैं, तो भी स्वागत है, प्रणाम है। लक्ष्मी जी चली गई। उनके जाने के बाद कीर्ति, प्रतिष्ठा, महिमा आदि कई देवि मूर्तियाँ भी क्रमशः प्रकट हुई। लक्ष्मी के चले जाने पर उनने भी बिदा होने की बात कही और प्रह्लाद ने सभी से विनम्रतापूर्वक प्रणाम करते हुये उन्हें विदा दी। फिर ऐश्वर्य, विभूति, सुख, प्रमोद आदि पुरुष, प्रतिमाएँ भी एक-एक कर प्रकट हुई और विदा हो गई अन्त में एक प्रशान्त आभामण्डल के साथ प्रकट हुए शील। उन्होंने भी जाने की बात कही तो प्रहलाद ने कहा-आप कैसे जा सकते है? क्या में आज तक कभी भी शील से विचलित हुआ हूँ? क्षण भर को भी क्या मैंने आपका स्मरण छोड़ा है?” निरुत्तर ‘शील’ देवता वही रुक गये। थोड़े ही समय बाद एक-एक कर सभी देव व देवी प्रतिमाएँ वापिस आती गईं और “जहाँ शील है, वहाँ से हम जा ही कैसे सकते हैं-कहकर वहीं पुनः वे सब निवास करने लगे। स्पष्ट है कि यह कथा शील के महत्त्व का ही प्रतिपादन करने वाली है।
भौतिक सुख-साधनों की अभिवृद्धि की और तो आज हर किसी का ध्यान केन्द्रित है, पर सदाशयता-शालीनता के विकास की कौन कहे, निरन्तर ह्रास के ही दृश्य आज चारों और देखने को मिलते हैं। अधिकांश लोगों का व्यक्तिगत जीवन आज सौ वर्ष पुरानी स्थिति की तुलना में कहीं अधिक सुविधा-साधनों से भरपूर है , पर घर की अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त शरीर रुग्ण-क्षीण मन अशान्त-विक्षुब्ध पारिवारिक व्यवस्था विघटित विश्रृंखलित ही दिखाई पड़ती है। लोगों को सामाजिक व्यवस्था से शिकायतें ही शिकायतें है। शीर्षस्थ कहे-माने जाने वाले लोगों की चापलूसी-चाटुकारिता तो अत्यधिक की जाती है, पर उनके चरित्र और चिन्तन के स्तर के प्रति जैसे सभी को यही विश्वास है कि वह सामान्य से भी कुछ निष्कृष्ट ही होगा, उत्कृष्ट नहीं। व्यक्तिगत जीवन में जिस दुर्बुद्धि के साम्राज्य में कुंठा, कलह, कुत्सा और कायरता बढ़ रही है, समष्टि क्षेत्र में उसी के विस्तार ने अणु-आयुध जैवीय संहार-पिण्ड घातक गैसें, मृत्यु-किरण प्रक्षेपास्त्र आदि का विशाल सरंजाम जुटा दिया है, जिससे किसी उन्मत्त मूर्ख की एक धृष्टता देखते-देखते इस सुन्दर संसार को महा-श्मशान बनाकर रख दे सकती है।
साधनहीनता और विपत्ति के कारण उठाए जाने वाले कष्टों की बात तो समझा में आती है, पर सुविधाओं के बाहुल्य से उपजी विकृति की क्या व्याख्या की जाए? कारण खोजने पर तो एक ही निष्कर्ष प्राप्त होता है कि विकास की कल्पना पदार्थों से चिपटकर सिमटती ही चली जा रही है। आन्तरिक विपन्नता को अनदेखा ही किया जा रहा है, यद्यपि इससे वह और अधिक उभर आई स्पष्ट दिखती है। चरित्र और चिन्तन के परिष्कार का विचार ही विस्मृति कर दिया गया है, सद्भावनाओं सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन की चर्चा भी झण्ट-झमेले जैसी लगने लगी है और शेष रह गया है, उथला, आडम्बरी, छत्रा, शिष्टाचार। जीवन-रस सूख गया है और सामाजिक व्यवहार एक रेतीला विस्तार बनकर रह गया है। इस शुष्क, निष्प्राण वातावरण में मनुष्य को क्या रस मिलेगा? वह अतृप्त और व्यस्त-त्रस्त रहते हुए दुर्वह भार से मनःस्थिति निरन्तर दुर्बलतम होती जा रही है। यों इसके अपवाद भी मौजूद है। सज्जनता पूर्णतया मर गई होती तो यह दुनिया रहने लायक ही न होती। सत्प्रवृत्तियों का घटते जाना और दुष्प्रवृत्तियों का उभरना यही है, अपने युग के चारित्रिक विश्लेषण का दुःखद निष्कर्ष ।
जीवन में आवेशों की अभिवृद्धि वर्तमान वातावरण में स्वाभाविक ही है। जब भीतर स्नेह सौजन्य रहा नहीं, घोर निर्ममता ही छाई है। किसी को किसी के सहारे की आशा रही नहीं और वह रही भी, तो समय आने पर निराशाजनक ही सिद्ध होती है। मनुष्य भीतर बाहर से रिक्त खोखला होता जा रहा है, बाहरी चमक-दमक रीझने रिझाने की चेष्टाएँ स्वयं को भरमाए बहलाए रखने का बहाना बन गई है, पर यह ओछा आधार मन को आश्वस्त नहीं कर पाता। कुंठा और हताशा बढ़ती जाती है, नशे के सहारे या अश्लील उत्तेजनाओं के तरीके खोज खोजकर जिन्दगी की लाश में क्षण दो क्षण की गर्मी पैदा की जाती है। ऐसे में रोष-क्षोभ की ज्वालाओं में झुलसते रहने के अतिरिक्त और चारा ही क्या है? जब सारा ध्यान पदार्थों में केन्द्रित है, तो दूसरों की भावनाओं के सम्मान का किसे वक्त ? शील का अर्थ है-मनुष्यों की विचारधारा, रुचि, प्रकृति एवं मनःस्थिति की प्रकृति प्रदत्त भिन्नता को ध्यान में रखते हुए औरों के विचारों निर्णयों के प्रति भी सम्मान का भाव रखना, उन्हें समझने का प्रयास करना और असहमत होने पर भी सहिष्णुता बरतना। क्रोध-आवेश उसी मनोभूमि में उत्पन्न होते हैं जो अपनी ही मर्जी के अनुसार दूसरों को सोचने करने के लिए बाध्य करना चाहती है। इस मनोभूमि के परामर्श शैली अपनाने का धैर्य और कोमलता बनाए रखने का संयम उत्पन्न ही नहीं हो पाता। परिस्थितियों से धैर्य और औचित्य के आधार पर निपटने का कर्तव्य याद ही नहीं आ पाता।
इस स्थिति को बदला तभी जा सकता है, जब शील की पुनः प्रतिष्ठा हो। भौतिक सम्पन्नता के साथ आन्तरिक शालीनता भी बढ़े। मृदुलता और तृप्ति के भीतरी साधन स्रोतों की ओर भी ध्यान दिया जाय। पदार्थों में भावसंवेदना उत्पन्न करने की सामर्थ्य कहाँ ? जिन रुचिर वस्तुओं के लिए मनुष्य का मन आतुर उद्विग्न बना रहता है, वे वस्तुतः अपनेपन की भाव-सम्वेदना के आरोपण से ही आकर्षक एवं सुखद प्रतीत होती है। अपनत्व के रंगीन चश्मे से देखने पर ही जिस-जिस वस्तु में आकर्षण की प्रतीति होने लगती है। यह तथ्य यदि भली-भाँति समझ में आ जाय, तो वस्तुओं के पीछे भागते फिरने की व्यर्थता और दृष्टिकोण को परिष्कृत करने की आवश्यकता स्पष्ट हो जाय।
परिष्कृत दृष्टिकोण सदा आत्मीयता की परिधि को विस्तृत करता चलता है। इस परिधि विस्तार से ही मनुष्य शील-सम्पन्न बनता है भारतीय विचारकों ऋषियों ने इस तत्त्व को समझा था और सदा आत्म विस्तार पर बल दिया था। अध्यात्म का तत्त्वज्ञान आत्म भाव के विस्तार से ही प्रारम्भ होता है। जिसने जितना आत्मविस्तार कर लिया आध्यात्मिक दृष्टि से उसे उतना ही विकसित माना जाता है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अनुभूति तथा ‘विश्वबन्धुत्व’ का व्यवहार ही आध्यात्मिक तत्त्व ज्ञान की आचरण परक निष्पत्ति है। यह व्यवहार ही शील है।
वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में शील की प्रतिष्ठा से ही व्यक्तिगत महानता और सामाजिक समस्वरता टिकाऊ बन सकती है। भावनात्मक उत्कृष्टता का महत्त्व समझने पर ही अन्तर्बाह्य सम्पन्नता सम्भव हो सकती है।
महात्मा गाँधी ने शील की व्याख्या करते हुए उसे ‘चरित्र की धारावाहिकता’ कहा है। इसका अर्थ है चरित्र की निरन्तर उत्कृष्टता। उस पुण्य प्रवाह में कभी भी अवरोध न उपस्थित होने देना। प्रतिकूलताओं के बीच भी अपने उच्च चारित्रिक स्तर को बनाए रखना। विश्व जीवन में इसी शील-शालीनता का समावेश करना होगा, तभी सुख शान्ति और आनन्द उल्लास की बढ़ी चढ़ी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकेंगी।