• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • अभीष्ट को अन्तरंग में खोजें
    • चरित्र निष्ठा सर्वोपरि संजीवनी
    • भगवान मनुष्य की अन्तरात्मा में ओत-प्रोत है!
    • आचार्य रामानुज (kahani)
    • अन्तर्जगत के सन्देशवाहक-पूर्वाभास
    • कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर (kahani)
    • प्रतिकूलताओं और अभावों की भी उपयोगिता है।
    • भाग रे भाग! शरीर में आग!
    • आत्म समर्पण की साधना और उसका प्रतिफल
    • सर विश्वेश्वरैया (kahani)
    • हार आखिर आदमी की हुई
    • श्रद्धा व्यक्तित्व के परिष्कार का एकमात्र अवलम्बन
    • शिष्य सम्राट सिकन्दर (kahani)
    • विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय निश्चित
    • महात्मा गाँधी
    • शील शालीनता का महत्त्व घटने न दें।
    • Quotation
    • साधना से सिद्धि का कारण और दर्शन
    • शब्द ब्रह्म की साधना वाक् शक्ति से
    • विकृत चिन्तन का दुर्भाग्यपूर्ण अभिशाप
    • दिव्य केन्द्र सहस्रार एवं ब्रह्मरंध्र
    • Quotation
    • प्राणाग्नि का उद्दीपन कुण्डलिनी जागरण के लिए
    • तीर्थ यात्रा हमारी महान धर्म परम्परा
    • मोमबत्ती क्यों बुझी हुई है (Kahani))
    • साहस करें आगे बढ़ें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • अभीष्ट को अन्तरंग में खोजें
    • चरित्र निष्ठा सर्वोपरि संजीवनी
    • भगवान मनुष्य की अन्तरात्मा में ओत-प्रोत है!
    • आचार्य रामानुज (kahani)
    • अन्तर्जगत के सन्देशवाहक-पूर्वाभास
    • कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर (kahani)
    • प्रतिकूलताओं और अभावों की भी उपयोगिता है।
    • भाग रे भाग! शरीर में आग!
    • आत्म समर्पण की साधना और उसका प्रतिफल
    • सर विश्वेश्वरैया (kahani)
    • हार आखिर आदमी की हुई
    • श्रद्धा व्यक्तित्व के परिष्कार का एकमात्र अवलम्बन
    • शिष्य सम्राट सिकन्दर (kahani)
    • विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय निश्चित
    • महात्मा गाँधी
    • शील शालीनता का महत्त्व घटने न दें।
    • Quotation
    • साधना से सिद्धि का कारण और दर्शन
    • शब्द ब्रह्म की साधना वाक् शक्ति से
    • विकृत चिन्तन का दुर्भाग्यपूर्ण अभिशाप
    • दिव्य केन्द्र सहस्रार एवं ब्रह्मरंध्र
    • Quotation
    • प्राणाग्नि का उद्दीपन कुण्डलिनी जागरण के लिए
    • तीर्थ यात्रा हमारी महान धर्म परम्परा
    • मोमबत्ती क्यों बुझी हुई है (Kahani))
    • साहस करें आगे बढ़ें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


तीर्थ यात्रा हमारी महान धर्म परम्परा

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 23 25 Last
प्राचीन काल में ब्राह्मण ज्ञान के लिए क्षत्रिय राज्य के लिए, यात्रा करते थे। वैश्य व्यापार के लिए यात्रा करता था। यात्रा के महत्त्व से इंकार नहीं किया जा सकता - 15 वीं, 16 वीं सदी से ही यूरोप के विविध देशों में ज्ञान पिपासा, नये नये देशों की खोज और ज्योतिष, भूगर्भ शास्त्र, भौतिक विज्ञान, रसायन तथा चिकित्सा आदि विविध क्षेत्रों में अनुसंधान की होड़ सी लग गई है। सत्य के ज्ञान और प्रकृति के रहस्यों के उद्घाटन के लिए वैज्ञानिकों और दूसरे यात्रियों ने अपने प्राण संकट में डालकर दुस्साहस के अनेक कार्य किये थे। साहसी यात्रियों की गौरव गाथाएँ सर्वत्र गाई जाती है।

प्रगतिशीलता का दूसरा नाम यात्रा है। वस्तुतः जीवन की की पुकार ही “ चरैवेति , चरैवेति” चलना है चलना है, सब चलते हैं, जीवन गतिमान है।

यात्रा से मनुष्य की दृष्टि विस्तृत होकर उदार होती है। यात्रा से मस्तिष्क विराट होता है और हृदय विशाल।

प्राचीन काल में इसी दृष्टि से 12 वर्ष गुरुकुल में अध्ययन करने के बाद 2 वर्ष देश भ्रमण करने की व्यवस्था रहती थी। प्रकृति की विविधता उसके सौंदर्य और भयानकता से जहाँ यात्री आनन्द प्राप्त करता है। वहाँ ज्ञान की वृद्धि भी होती है। इस प्राकृतिक आदान प्रदान से मनुष्य में आध्यात्मिकता की शक्ति एवं सत्यं शिव सुंदरम् की भावना जागृत होती है।

वैदिक ऋषि ने गाया है- “जो व्यक्ति चलते रहते हैं। उनकी जंघाओं में फूल खिलते हैं। उन की आत्मा में फलों के गुच्छे लगते हैं। उनके पाप थककर सो जाते हैं, इसलिए चलते रहो, चलते रहो।” तीर्थ यात्रा मातृभूमि के प्रति उत्कट प्रेम की सर्वथा अभिव्यक्ति है। यह देश पूजा की ऐसी विधि है जिससे धार्मिक भावों को बल मिलता है। साथ ही भौगोलिक चेतना बढ़ती है। तीर्थ यात्रा से मिलने वाले पुण्य लाभ के पीछे और भी कितने ही लाभ छिपे है।

यात्रा केवल चरणों से ही नहीं की जाती वरन् मन, बुद्धि, चित्त सभी यात्रा करते हैं। यह सृष्टि का विकास है। तन, मन सब धुल कर निखर जाते हैं।

स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में कहा गया है कि तीर्थों के दो भेद है। मानस तीर्थ और भौम तीर्थ। जिनके मन शुद्ध है जो आचारवान, ज्ञानी और तपस्वी है ऐसे लोग मानस तीर्थ है, जितेन्द्रिय जहाँ रहते हैं वही वे तीर्थ बनाते हैं। भौम तीर्थ चार प्रकार के है-

(1) अर्थ तीर्थ-नदियों के तट और संगम पर व्यापार केन्द्र। (2) धर्म तीर्थ- प्रजाओं के धर्म पालन के निमित्त पवित्र धर्म नीति के केन्द्र (3) काम तीर्थ-कला और सौंदर्य साधना के केन्द्र (4) मोक्ष तीर्थ-विद्या ज्ञान और अध्यात्म के केन्द्र।

जहाँ इन चारों का समुदाय हो और जीवन की बहुमुखी प्रवृत्तियों के सूत्र मिलते हों, वे बड़े तीर्थ महा पुरियों के रूप में प्रसिद्ध हो जाते हैं। जैसे काशी, प्रयाग, मथुरा, उज्जयिनी आदि।

महाभारतकार ने बन पर्व 80।34-40 में कहा है कि ऋषियों ने वेदों में बहुत से यज्ञ कहे है। उनका फल जीते जी और मरकर लोगों को मिलता है। लेकिन दरिद्र जनता को वह फल कैसे मिल सकता है ? यज्ञों हेतु विद्वान, विधि विशेषज्ञ एवं साधन सामग्री की आवश्यकता होती है, निर्धन लोग अकेले बिना बहुत व्यय के यज्ञों का फल पा सके इसकी युक्ति तीर्थ यात्रा है। तीर्थों में जाने का पुण्य यज्ञों से भी अधिक है।

इस प्रकार जनता को साँस्कृतिक आन्दोलन में सम्मिलित करने हेतु तीर्थ यात्रा बड़ी सहायक हुई। सुदूर क्षेत्रों, ग्रामों, जंगलों में रहने वाले लोग जो धर्म, संस्कृति, क्रिया सदाचार की प्रवृत्तियों से अपरिचित रहते थे वे भी तीर्थयात्रा के निमित्त स्वेच्छा से तीर्थ केन्द्रों में आते और उनके संस्कार ले जाते थे।

ऋषियों की जीवन प्रक्रिया का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि उनका अधिकांश समय परिभ्रमण में बीता। यही कारण है कि जहाँ अन्य वर्ग के महापुरुषों के स्थान, स्मारकों के चिह्न मिलते हैं वहाँ ऋषियों के इतने महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व होते हुए भी न तो किसी स्थान विशेष पर टिके और न उनके स्थान बने। मध्यकालीन सन्तों में से प्रायः प्रत्येक की क्रिया प्रक्रिया यही रही है। उन्होंने अध्ययन एवं विशिष्ट तप साधना के लिए जितने समय जहाँ रुकना आवश्यक समझा वहाँ रुके और इसके पश्चात् परिभ्रमण के लिए निकल पड़े । सिखाना और सीखना यही उनकी प्रधान प्रवृत्ति रही है।

तीर्थयात्रा का पुण्य उस प्रयोजन के लिए बने नगरों, देवालयों एवं नदी सरोवरों से जोड़कर भूल की गई है। वस्तुतः तीर्थ यात्रा धर्म प्रचार की एक सुव्यवस्थित योजना है। जिसमें विराम विश्राम के लिए प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व के स्थानों को चुना गया है। इन यात्रियों के लिए कई तरह की सुविधाएँ यहाँ साधन सम्पन्न लोग जुटा दिया करते थे। भोजन, वस्त्र, पात्र, मार्ग व्यय, पुस्तक, पूजा उपकरण, औषधि, आदि जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती वे सभी तीर्थ मठों में संचित रहती थी। धर्म प्रचारकों को आवश्यकतानुसार वे साधन सरलतापूर्वक मिल जाते थे। सत्संग, शिक्षण और अन्य ज्ञातव्य साधन यहाँ रहते थे और आगे की यात्रा के लिए साथियों, सहयोगियों का हेर फेर भी यहीं बन जाता था। इन्हीं कारणों से अमुक स्थान तीर्थ घोषित किये गये। उन विराम स्थलों पर प्रचारकों का पारस्परिक मिलन, सम्पर्क एवं कई तरह का आदान प्रदान भी होता रहता था। जंक्शन की तरह कितने ही मार्गों के यात्री उधर से गुजरते और अनेक प्रकार के पारस्परिक सम्पर्क साधते हुए लाभान्वित होते थे। स्थानों को महत्त्व मिलने के ऐसे ही कुछ कारण है। इतने पर भी स्थान विशेष पर जाकर कुछ देखने करने को नहीं, धर्म प्रचार के लिए पैदल यात्रा को ही तीर्थ यात्रा का लक्ष्य एवं प्रयोजन माना गया है। व उद्देश्य यहाँ न बन पड़े तो समझना चाहिए कि मात्र प्राण विहीन कलेवर ही लटक रहा है।

प्राचीन काल की तीर्थ यात्रा मण्डलियों में दो वर्ग के लोग रहते थे। एक वे मनीषी जो अपने साथियों तथा सम्पर्क क्षेत्रों को अपने ज्ञान तथा अनुभवों का लाभ पहुँचाते चलते थे। दूसरे वे जिज्ञासु जो मण्डली के वातावरण में अपने को श्रेष्ठता के लिए प्रशिक्षित करते थे, ताकि भविष्य में वे वे इस आधार पर उपार्जित किये चरित्र ज्ञान एवं कौशल के आधार पर प्रचारकों की अगली भूमिका निभा सकें। यात्रा में कई व्यक्ति रहने से सुविधा भी रहती है और शोभा भी। भोजन आदि की दैनिक व्यवस्था और किसी के रुग्ण हो जाने पर परिचर्या, सुविधा का लाभ भी मण्डली में ही बन पड़ता है। सम्पर्क में कई प्रकार के कितने ही लोगों से वार्त्तालाप आदान प्रदान करना पड़ता है इसमें कई व्यक्तियों का होना ही उपयुक्त रहता है। एक या दो व्यक्ति हों तो निजी व्यवस्था एवं सम्पर्क जन्य समस्याओं का निपटारा कठिन पड़ जाय। ऐसे ही अनेक कारणों को ध्यान में रखते हुए तीर्थयात्रा एकाकी नहीं वरन् टोलियों के रूप में निकलती थी। यो निषेध एकाकी का भी नहीं है। द्रुतगामी वाहनों के उपयोग से शारीरिक सुविधा तो रहती है पर अधिक लोगों से अधिक सम्पर्क उस जल्दबाजी में बन ही नहीं पड़ता है। पैदल चलते हुए तो मार्ग में भी कितनों से ही बातें होती चलती है। वाहनारूढ़ व्यक्ति के लिए वैसा कर सकना सम्भव नहीं है।

नदियों, पर्वतों, पुण्य क्षेत्रों की परिक्रमाएँ अभी भी होती है नर्मदा के उद्गम से लेकर अन्त तक की परिक्रमा हर साल निकलती है। गिरनार और गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा का पुण्य है। ब्रज चौरासी कोस, प्रयाग की पंचकोशी परिक्रमाएँ प्रसिद्ध है। शिवरात्रि पर लोग कन्धों पर गंगाजल की ‘काँवरें’ उठाते हैं और अमुक शिवालय पर उन्हें चढ़ाते हैं। मार्ग में यह यात्री लोग भजन कीर्तन गाते हुए चलते हैं ताकि चलते चलते भी उद्बोधन का प्रयोजन पूरा होता चले। अब चिह्न पूजा प्रधान और लक्ष्य तिरोहित हो गया है। यदि लक्ष्य को प्रधान और चिह्न पूजा को आवश्यकतानुरूप बना लिया जाय तो तीर्थ यात्रा की पुण्य परम्परा अपने युग की आवश्यकता पूरी करने में भी प्राचीन काल की तरह ही अतीव श्रेयस्कर सिद्ध हो सकती है।

भक्ति और तीर्थ यात्रा प्राचीन काल में परस्पर सघनतापूर्वक जुड़ी रही है। तपश्चर्याओं में उसे प्रधान माना गया है। तितीक्षा के अन्य साधन भी तप के रूप में बताये गये है, पर तीर्थ यात्रा के साथ जो व्यक्ति एवं समाज का विविध विधि हित साधन होता है उसे ध्यान में रखते हुए इसका प्रचलन बहुत हुआ है और महत्त्व अधिक मिला है। प्रख्यात धर्म पुरुषों में से अधिकांश ने अपनी कार्य पद्धति में तीर्थ यात्रा तप को प्रधान रूप से सम्मिलित रखा है। छोटे या बड़े सन्तों की जीवन चर्या पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट रूप से सामने आ खड़ा होता है।

देवर्षि नारद जी निरन्तर यात्रा निरत रहे। कहते हैं दो घड़ी से अधिक कहीं न ठहरने का उन्हें अभिशाप था। नित्य परिव्राजक है, उनका काम ही है अपनी वीणा की मनोहर झंकार के साथ भगवान के गुणों का गान करते हुए सदा यात्रा करना। भक्ति सूत्र निर्माता नारद जी के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी-सम्पूर्ण पृथ्वी पर धर धर में एवं जन जन में भक्ति की स्थापना करना।

दक्षिण में असुरों के बढ़ते हुए अत्याचार को रोकने के लिए अगस्त्य ऋषि ने दक्षिण की यात्रा कर वहाँ अपना आश्रम बनाया। लक्ष्मण को अगस्त्याश्रम का परिचय देते हुए राम कहते है:-

यदा प्रभृति चक्रान्ता दिगियं पुण्य कर्मणा। त्दा प्रभृति निर्वेराः प्रशान्ता रजनी चराः॥ वाल्मी0 रामा0

उन पुण्यकर्मा महर्षि अगस्त्य ने जब से इस दक्षिण दिशा में पदार्पण किया है, तब से यहाँ के राक्षस शान्त हो गये है तथा उन्होंने दूसरों से बैर विरोध करना छोड़ दिया है।

भगवान श्री राम का तीर्थ यात्रा प्रेम अद्भुत था। उनकी तीर्थ यात्रा के बारे में स्कन्ध, पद्म, अग्नि ब्रह्म, गरुड तथा वायु आदि पुराणों में विस्तार से बताया गया है।

योग वाशिष्ठ में राम के बचपन में ही वशिष्ठ आदि ब्राह्मणों के साथ अनेकों नदियों तथा प्रयाग, धर्मारण्य गया, काशी, श्री शैल, केदार, पुष्कर तथा मानसरोवर आदि तीर्थों में भ्रमण करने का विस्तार से वर्णन है।

आनन्द रामायण में भगवान राम की अपने अनुचरों के साथ की गई तीर्थ यात्रा का “यात्रा काण्ड” में विस्तार से वर्णन किया गया है। इस यात्रा में भगवान राम सारे जीवन, यात्रा ही करते रहे। इस यात्रा में पुराने तीर्थों का उद्धार, नये तीर्थों की स्थापना धर्म प्रचार, दुष्टता का उन्मूलन आदि अनेक उद्देश्य निहित थे।

चौदह वर्ष के वनवास काल में भगवान जहाँ जहाँ गये वे स्थान तीर्थ बन गये।

वनवास गतो रामो यत्र यत्र व्यवस्थितः। तानि चोक्तानि तीर्थानि शतभष्टोत्तर क्षितों-कूर्म पुराण

वनवास के समय राम जहाँ जहाँ रहे वहीं तीर्थ बन गये, ऐसे तीर्थों की संख्या 108 हो गई थी।

लोक कल्याण के व्रती महात्मा बुद्ध ने लगातार 45 वर्ष तक देश भर में भ्रमण करके जनता को सत्य धर्म का उपदेश दिया और उन्हें अनेकों कुरीतियों और अन्धविश्वासों से छुड़ाकर कल्याणकारी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।

सम्राट अशोक ने तेईस वर्ष तक राज्य करने के उपरान्त ईसा पूर्व 249 में उन ने अपने राज्य के तीर्थ स्थानों का भ्रमण किया। पाँच लाटों में अंकित वृत से यह पता चलता है कि वे मुजफ्फरपुर और चम्पारन होते हुए हिमालय की तराई तक गये और वहाँ से पश्चिम की और मुड़कर लुम्बिनी बन पहुँचे जहाँ तथागत का जन्म हुआ था। अपनी यात्रा के स्मारक के रूप में उन्होंने लुम्बिनी वन में भी एक लाट स्थापित की थी। आचार्य उपगुप्त के साथ फिर कपिलवस्तु, सारनाथ श्रावस्ती, गये। इस प्रकार बौद्ध तीर्थों की यात्रा करते करते सम्राट अशोक कुशीनगर पहुँचे। तीर्थयात्रा के उपरान्त अशोक ने संन्यास धारण कर लिया एवं सारा समय धर्म चर्या एवं धर्मोपदेश में बिताया।

जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य ने दिग्विजय का समारम्भ किया। अनन्तशयनद्व अयोध्याद्व इन्द्रप्रस्थपुर, उज्जयिनी, कर्नाटक, काँची, चिदम्बर, बदरी, प्रयाग आदि तीर्थ क्षेत्रों और महानगरों में आत्मज्ञान और धर्म का प्रचार किया। काश्मीर से रामेश्वर तक की विद्वत्मण्डली ने उनकी विद्वत्ता का लोहा मान लिया। उन्होंने पदयात्रा के अंतर्गत दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन, पश्चिम द्वारिका में शारदा और उत्तर बदरिकाश्रम में ज्योतिर्मठ की स्थापना की।

सन्त ज्ञानेश्वर ने अलन्दी से, नेवा से वापिस आने पर पन्द्रह वर्ष की आयु में सं0 1647 वि0 में ‘ज्ञानेश्वरी गीता’ का प्रणयन किया तदुपरान्त तीर्थयात्रा आरम्भ की। उनके साथ निवृत्तिनाथ सोपानदेव, मुक्ताबाई, नरहरि सोनार, चोखामेंला आदि तत्कालीन सन्त थे। वे पण्ढरपुर गये। वहाँ से सन्त नामदेव उनके साथ हो गये। फिर उक्त सन्त मण्डली ने उज्जैन, प्रयाग, काशी अयोध्या, गया, गोकुल, वृन्दावन, गिरिनार आदि तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा की। लोगों को अपने सत्संग से सचेत कर जागरण का सर्वत्र सन्देश सुनाया। सन्त ज्ञानेश्वर की इस ऐतिहासिक, लोक-शिक्षण परक तीर्थयात्रा की बड़ी ख्याति सुदूर क्षेत्रों में फैल गई। वे मारवाड़ और पंजाब की और भी गये। तीर्थयात्रा से लौटने पर पण्ढरपुर में सन्त नामदेव ने इस यात्रा-यज्ञ की पूर्ति स्वरूप एक विशाल उत्सव का आयोजन किया।

सन्त एकनाथ अपने अनुष्ठान की पूर्ति के बाद गुरु आज्ञा से तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े । उनकी तीर्थयात्रा में जनार्दन पन्त ने नासिक त्र्यम्बकेश्वर तक उनका साथ दिया। ब्रह्मगिरि की परिक्रमा के उपरान्त गोदावरी ताप्ती, गंगा और यमुना का स्नान किया। आठों विनायक और बारह ज्योतिर्लिंग के दर्शन किये। वृन्दावन, काशी, प्रयाग, गया, बदरिकाश्रम एवं द्वारका की यात्रा की। सन्त एकनाथ ने 13 साल तक यात्रा की। 21 वर्ष की अवस्था में वे पैठठा लौट आये।

चैतन्य महाप्रभु ने भी सामूहिक एवं एकाकी रूप से अनेक स्थलों का परिभ्रमण किया। गया गये, फिर नील्काचल के उपरान्त दक्षिण की यात्रा की। अपने भक्त, और अनुचर गोविन्द को लेकर वे हाजीपुर मिदनापुर होते नयनगढ़ गये। चैतन्य ने अलौकिक प्रेम भाव का ही उपदेश दिया। ढलेश्वर, जलेश्वर, हरिहरपुर, बलशोर होते हुए नीलगढ़ गये। अपनी तीर्थयात्रा में उन्होंने जनमानस का परिष्कार किया। सत्याबाई और कमलाबाई वेश्यायों का हृदय परिवर्तन किया। महाप्रभु काँचीपुरम गये, शिव काँची, पक्षी तीर्थ, काल तीर्थ, सन्धि तीर्थ आदि पवित्र तीर्थों के दर्शन करते हुए वे तिरुचिरापल्ली पहुँचे। तज्जाबूर, कुन्ती, कर्ण पड़ा, पद्यकोट, त्रिपत्र, श्रीरंगम, रामेश्वर आदि दक्षिण भारत के अनेक तीर्थों का महाप्रभु ने भ्रमण किया। महाराष्ट्र के बाद गुजरात। द्वारका, सोमनाथ, जूनागढ़ प्रभास क्षेत्र होते हुए मध्यभारत के अनेक स्थलों के दर्शनार्थ गये। अन्त में उत्तर भारत की यात्रा अकेले पैदल की। मथुरा वृन्दावन, प्रयाग, काशी गये। काशी का मन जीत श्री चैतन्य ने भारत का मन जीत लिया। मात्र 48 वर्ष के आयु पाकर ही। उन्होंने तीर्थ यात्रा द्वारा लाखों पतित पददलितों का उद्धार किया। जो समाज में पदच्युत थे उन्हें नई हैसियत दी। समग्र समाज को जीने के लिए एक नहीं आस्था प्रदान की।

गोस्वामी तुलसीदास ने 14 वर्ष तक तीर्थ यात्राएँ की। वे प्रयाग, जगन्नाथ, रामेश्वर, द्वारिका, बदरिकाश्रम आदि पावन स्थलों के दर्शनार्थ गये । तीर्थयात्रा के बाद वे काशी में रहकर सन्तों का संग और राम की कथा कहने लगे।

सन्त तुकाराम ने तत्कालीन महाराष्ट्र को ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्र को आत्मदर्शन एवं भगवद् दर्शन प्रदान किया। पण्ढरी की यात्रा का उन्होंने आजीवन पालन किया।

गुरु नानक जी लगभग तीस वर्ष की आयु में साँसारिक बन्धनों से मुक्त होकर भटकती हुई मानवता को सत्य मार्ग का उपदेश देने निकल पड़े । गुरु नानक ने देश विदेश की व्यापक यात्राएँ की। उन्होंने 15 वर्ष तक भारतवर्ष की चारों दिशाओं में सभी प्रमुख स्थानों की यात्राएँ की और अन्त में अफगानिस्तान, ईरान, अरब, और ईराक तक गये।

समर्थ गुरु रामदास ने 12 वर्ष के तप के उपरान्त 12 वर्ष तक तीर्थयात्रा की एवं सं0 1701 के वैशाख मास में कृष्णा नदी के तट पर आये। तीर्थ यात्रा के प्रसंग में श्री समर्थ जहाँ जहाँ गये, वहाँ वहाँ इन्होंने मठ स्थापित किये। लोक कल्याण की भावना से धर्म स्थापनार्थ उस युग में जब रेल, तार, जहाज, अखबार, प्रेस आदि का सर्वथा अभाव था, समस्त देश में घूमे। वे सर्वप्रथम काशी गये। फिर मथुरा-वृन्दावन से पंजाब, श्रीनगर एवं काश्मीर पहुँचे। वहाँ से चलकर हिमालय में केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा की। उत्तराखण्ड के उपरान्त जगन्नाथ गये। लंका से वापिस होते हुए केरल, मैसूर, फिर महाराष्ट्र आ गये। यहाँ उन्होंने गोकर्ण, वैक्टेश, मल्लिकार्जुन बालनरसिंह, पालन नरसिंह का दर्शन किया, इसके बाद पठद्यसर, शिष्यमूक, करबीर क्षेत्र पंढरपुर आदि होकर पंचवटी लौट आये।

पुष्टीमार्गी सन्त गोस्वामी विट्ठलनाथ ने गुजरात तथा दक्षिण और मध्यभारत के तीर्थों की यात्रा की। बादशाह अकबर, मानसिंह, बीरबल, महारानी दुर्गावती, राजा आसकरण आदि उन्हे बड़े सम्मान एवं आदर की दृष्टि से देखते थे।

कृष्णोपासक सन्त दयारामभाई ने तीर्थ यात्रा सम्पादित की। दयाराम भाई श्रीनाथ द्वारा से काँकरीली गये। काँकरोली से मथुरा, वृन्दावन, गोकुल आदि की यात्रा की। उन्होंने सम्पूर्ण व्रज मण्डल चौरासी कोस की परिक्रमा की। तीर्थयात्रा से लौटने पर दयाराम भाई ने बड़ौदा के गोस्वामी श्रीवल्लभ लाल जी महाराज से ब्रह्म सम्बन्ध लिया।

सन 1888 में स्वामी विवेकानन्द देश भ्रमण के लिए निकले उन्होंने लगातार कई वर्ष तक देश व्यापी यात्रा परिभ्रमण किया। इस यात्रा से उन्होंने भारतीय विभिन्न वर्गों की अच्छी जानकारी प्राप्त की। राजस्थान में पहले वे अलवर गये। घूमते-घूमते ज्ञानोपदेश करते लिम्बड़ी काठियाबाड़ गये। फिर मैसूर पहुँचे। फिर वे रामेश्वर होकर कन्याकुमारी पहुँचे। वाद में अमेरिका इंग्लैण्ड एवं अन्य पाश्चात्य देशों की यात्रा की।

स्वामी रामतीर्थ ने अपनी देश विदेश की यात्राओं में अध्यात्म का सच्चा स्वरूप प्रतिपादित किया। सनातन धर्म सभा के प्रसिद्ध उपदेशक दीनदयाल शर्मा के साथ उन्होंने ब्रज, प्रयाग, और काशी की तीर्थयात्रा की। उत्तराखण्ड की भी यात्रा की। हिमालय के अंचल से मैदान में उतर कर उन्होंने, मथुरा, फैजाबाद, लखनऊ, आदि की यात्रा कर वेदान्त पर महत्त्वपूर्ण भाषण दिया। स्वामी रामतीर्थ ने अमेरिका, जापान तथा मिश्र आदि देशों की जनता को सत्य, शान्ति और प्रेम का सन्देश दिया।

स्वामी दयानन्द विद्याध्ययन के उपरान्त प्रायः परिभ्रमण ही करते रहे। आर्य समाजों की स्थापना, उन्हें गति देना, शास्त्रार्थ, साहित्य लेखन आदि सभी कार्य उन्होंने अपने प्रवास कार्य के साथ ही सम्पन्न किये थे।

कवीन्द्र रवीन्द्र नाथ टैगोर ने विलायत से लौटकर तीर्थ यात्रा की। उन्होंने देश के गरीबों की स्थिति का अध्ययन करने हेतु कलकत्ते से पेशावर तक बैलगाड़ी में यात्रा की। यद्यपि उस समय रेलगाड़ी चल निकली थी किन्तु रेल यात्रा से पिछड़े हुए गाँवों और भूखे-नंगे कृषकों की अवस्था का क्या पता लग सकता था ?

अफ्रीका से लौटने पर गाँधी जी ने एक वर्ष तक समस्त देश का भ्रमण किया। एक वर्ष तक देश की यात्रा करने के उपरांत गाँधी जी अहमदाबाद लौटे और वहाँ साबरमती नदी के किनारे उन्होंने अपने सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की। उनकी डाँडी नमक सत्याग्रह यात्रा एवं नोआखाली की साम्प्रदायिक सद्भाव यात्रा तो प्रसिद्ध ही है।

सन्त विनोबा ने पूरे देश में पैदल घूम घूमकर लाखों गरीबों की जीविका की व्यवस्था करने के साथ भारतीय जनता की दशा का निरीक्षण किया और उसकी समस्या को समझा। पाकिस्तान की भी पदयात्रा की। चौदह वर्ष सन् 1951 से 1934 तक लगभग 43 लाख मील की पैदल यात्रा करके विनोबा ने जब पुनः अपने आश्रम में प्रवेश किया तो उस समय उनको 4,236-827 एकड़ जमीन भूदान में मिली ओर 7560 ग्राम दान में मिले।

ईसामसीह ने अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासा की पूर्ति के लिए विदेशों की यात्रा की थी। डाँ0 नोटोविच की कृति ईसामसीह का अज्ञात जीवन चरित्र के अनुसार चौदह वर्ष की आयु में ईसा सौदागरों के एक दल के साथ भारत (सिंध) आ पहुँचे। इसके बाद वे जगन्नाथ गये। वहाँ उन्होंने वेद शास्त्र का अध्ययन किया। फिर बनारस आदि स्थानों की यात्रा में 6 वर्ष व्यतीत हो गये। फिर कपिल वस्तु पहुँचे। बौद्ध शास्त्रों का भी उन्होंने अध्ययन किया। उसके पश्चात वे नेपाल और हिमालय से होते हुए ईरान पहुँच गये। तदुपरान्त स्वदेश पहुँचकर स्वजातीय भाइयों में उस आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करने लगे जो उन्होंने इतने वर्ष के अध्ययन और स्वानुभव से प्राप्त किया था।

अन्यान्य धर्म संस्थापकों ने भी यही किया है। इस्लाम धर्म के पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब ने अपनी धर्म प्रचार यात्रा जारी रखी। पारसी, यहूदी, ताओ आदि संसार के प्रधान धर्म सम्प्रदायों के ‘संस्थापकों एवं प्रचारकों को अपना अधिकांश समय धर्म प्रचार को तीर्थ यात्राओं में ही व्यतीत करना पड़ा है। यह तो कुछ उदाहरण मात्र है। इसी गणना की जाय और सूची बनाई जाय तो ऐसे प्रख्यात धर्मात्मा कहे जाने वाले प्रायः सभी लोग धर्म प्रचार की तीर्थ यात्रा को अपनाये हुए मिलेंगे। जिन्हें एक स्थान पर बैठकर शोध, लेखन शिक्षण आदि कार्य करने पड़े है उसने भी कभी न कभी लम्बी तीर्थयात्राओं का पुण्य सम्पादित किया है। सामान्य गृहस्थ भी अपनी व्यस्तता में से भी अवकाश निकाल कर एक पुण्य लाभ के लिए समय निकालते रहे है। स्व-पर कल्याण का इससे अच्छा रोचक एवं उपयोगी धर्म कृत्य दूसरा कोई भी नहीं है।

तीर्थ यात्रा के नाम पर स्थान दर्शन को आज महत्त्व मिल गया है। इस भगदड़ में मात्र निहित स्वार्थों को ही धन बटोरने का अवसर मिलता है। पर्यटन अपनी जगह पर कायम रहे, पर तीर्थ यात्रा का नाम न मिले। इन विडम्बनाओं को बदला जा सके और युग की आवश्यकता पूरी कर सकने वाली तीर्थयात्रा प्रक्रिया को योजनाबद्ध रीति से सुनियोजित किया जा सके तो यह महान धर्म परम्परा आज की स्थिति में भी पूर्व काल की तरह ही व्यक्ति और समाज के लिए सब प्रकार हित कारक सिद्ध हो सकती है।

First 23 25 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • अभीष्ट को अन्तरंग में खोजें
  • चरित्र निष्ठा सर्वोपरि संजीवनी
  • भगवान मनुष्य की अन्तरात्मा में ओत-प्रोत है!
  • आचार्य रामानुज (kahani)
  • अन्तर्जगत के सन्देशवाहक-पूर्वाभास
  • कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर (kahani)
  • प्रतिकूलताओं और अभावों की भी उपयोगिता है।
  • भाग रे भाग! शरीर में आग!
  • आत्म समर्पण की साधना और उसका प्रतिफल
  • सर विश्वेश्वरैया (kahani)
  • हार आखिर आदमी की हुई
  • श्रद्धा व्यक्तित्व के परिष्कार का एकमात्र अवलम्बन
  • शिष्य सम्राट सिकन्दर (kahani)
  • विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय निश्चित
  • महात्मा गाँधी
  • शील शालीनता का महत्त्व घटने न दें।
  • Quotation
  • साधना से सिद्धि का कारण और दर्शन
  • शब्द ब्रह्म की साधना वाक् शक्ति से
  • विकृत चिन्तन का दुर्भाग्यपूर्ण अभिशाप
  • दिव्य केन्द्र सहस्रार एवं ब्रह्मरंध्र
  • Quotation
  • प्राणाग्नि का उद्दीपन कुण्डलिनी जागरण के लिए
  • तीर्थ यात्रा हमारी महान धर्म परम्परा
  • मोमबत्ती क्यों बुझी हुई है (Kahani))
  • साहस करें आगे बढ़ें
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj