
चरित्र निष्ठा सर्वोपरि संजीवनी
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देवता अपने गुणों के आधार पर जब-जब उन्नति के शिखर पर पहुँचते, उनकी विलासिता तब तब उनके पतन का कारण बनती जाती। निर्बल तन, दुर्बल मन, देवताओं पर आसुरी शक्तियाँ आक्रमण करती और वे बार-बार परास्त हो जाते हैं। यह देखकर देवताओं के गुरु बृहस्पति को बड़ी चिन्ता हुई। अत्यधिक विचार के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मृतप्राय देवताओं में पुनः नवजीवन संचार के लिए उन्हें संजीवनी विद्या के प्रशिक्षण की आवश्यकता है, किन्तु अब समस्या यहाँ अटक गई कि यह कार्य सम्पन्न कौन करे?
देव-परिषद की बैठक में इस प्रश्न पर कई दिन तक विचार हुआ। अन्ततः निर्णय सर्वमान्य रहा कि उसके लिये देव गुरु बृहस्पति के पुत्र कच ही सर्वथा योग्य है। यह भी सुनिश्चित था कि इस विद्या में निष्णात, मात्र शुक्राचार्य है।
शिष्य की पात्रता के दो प्रमुख गुण है-अडिग विश्वास और लक्ष्य प्राप्ति के अविचलित तप तितीक्षा की भावना। शुक्राचार्य असुरों के गुरु थे तो क्या? थे तो गुरु-अर्थात् हर प्राणी का कल्याण करने की भावनाओं का शक्ति पुँज। सत्पात्र विजातीय है तो क्या? उसकी पात्रता खरी है तो उसे विद्या क्यों न दी जाये? कच शुक्राचार्य के आश्रम में रहकर संजीवनी विद्या का प्रशिक्षण ग्रहण करने लगे।
शुक्राचार्य अपनी पुत्री को भी विद्याध्ययन करते थे। समान वय होने के कारण उनकी पुत्री देवयानी भी कच के ही साथ अभ्यास करती थी। प्रारम्भिक परिचय धीरे-धीरे घनिष्ठता में परिणत होता गया। दोनों साथ-साथ पढ़ते तथा साथ-साथ दोनों आश्रम की व्यवस्था में हाथ बँटाते । इन अन्तरंग क्षणों ने देवयानी की नारी सुलभ कोमल भावनाओं में प्रणय का रंग उभार दिया, वह कच को सम्पूर्ण हृदय से प्यार करने लगी।
पाठशाला में असुर समुदाय के भी छात्रगण थे। उनके लिए सर्वप्रथम तो कच का विद्यालय में प्रवेश ही असह्य था, उस पर देवयानी का उसकी ओर आकर्षित होना उनके लिए जलती आग में घृत बन गया। उन्होंने सामूहिक रूप से कच को मार डालने के सभी सम्भव उपाय किये किन्तु देवयानी की कृपा भाजन होने के कारण उनकी दाल नहीं गल सकी। उधर अपने गहन अध्यवसाय से कच ने वह सारी विद्या सीख ली जो मनुष्य जीवन के भौतिक और आत्मिक विकास के लिए आवश्यक होती है।
अध्ययन काल समाप्त हुआ। कच वापस लौटने की तैयारी करने लगे उधर देवयानी की अधीरता बढ़ी तो उसने अपने पिता शुक्राचार्य से अपनी पीड़ा कह सुनाई शुक्राचार्य कच की प्रतिभा से पहले ही प्रभावित थे। पुत्री का प्रस्ताव मानने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी, किन्तु उसके लिए कच की सहमति भी आवश्यक थी सो उनने एक दिन देवयानी की उपस्थिति में कच को साग्रह देवयानी का हाथ कच को सौंपने की इच्छा व्यक्त की। कच ने उत्तर दिया-गुरुवर मेरे हृदय में देवयानी के लिये असीम स्नेह है। उससे अलग होते मुझे स्वयं बेचैनी अनुभव हो रही है। किन्तु यह प्यार अपनी भगिनी के लिए प्यार के अतिरिक्त कुछ नहीं। पिता, केवल जन्म देने और पोषण करने वाली ही नहीं होता, आत्मिक संस्कार देने और उन्हें शक्ति प्रदान करने वाले आप-गुरुदेव भी मेरे पिता है और देवयानी मेरी सहोदरा के समान है, तब फिर मैं उनसे विवाह किस तरह कर सकता हूँ।
कच के इस उत्तर पर देवयानी का हृदय टूट गया। उन्होंने क्रुद्ध होकर शाप दे या-कच मैंने अगणित बार तुम्हारी जीवन रक्षा की फिर भी तुमने मेरा अपमान किया अतएव मैं शाप देती हूँ तुम मेरे पिता द्वारा दी गई विद्या भूल जाओगे।
कच ने शाप अंगीकार कर लिया किन्तु वे सिद्धान्त से रत्तीभर डगमग न हुए। उनकी यह चरित्रनिष्ठा ही देवों के लिये वरदान और विजय का आधार बन गई।