• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • उपार्जन का सदुपयोग भी
    • सुखी जीवन का एक मात्र आधार धर्म
    • पूर्ण से पूर्ण ही उत्पन्न हुआ
    • अतीन्द्रिय शक्ति और उसकी पृष्ठभूमि
    • स्थूल शरीर की सूक्ष्म साधना
    • प्रेतात्माओं का अस्तित्व विज्ञान की कसौटी पर
    • आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध
    • Quotation
    • शक्तियों का दुरुपयोग रोका जाय
    • साधु, ब्राह्मण की परम्परा पुनर्जीवित की जाय
    • यश और धन तब भयंकर दैत्य बन जाते हैं
    • शब्द ब्रह्म की साधना के दो चरण!
    • जीवन का लक्ष्य स्वरूप और उद्देश्य
    • ध्यान-योग द्वारा आत्म-बल का संवर्द्धन
    • आलस और परावलम्बन (kahani)
    • हम अपना देवत्व विकसित कर सकते हैं।
    • विकृत चिन्तन से शरीर ओर मन की अपार क्षति
    • तीर्थ यात्रा उच्च स्तरीय पुण्य परमार्थ
    • मुस्कान, वैज्ञानिक क्या कहते है?
    • कन्द-कुण्ड की ज्योति-ज्वाला कुण्डलिनी
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • उपार्जन का सदुपयोग भी
    • सुखी जीवन का एक मात्र आधार धर्म
    • पूर्ण से पूर्ण ही उत्पन्न हुआ
    • अतीन्द्रिय शक्ति और उसकी पृष्ठभूमि
    • स्थूल शरीर की सूक्ष्म साधना
    • प्रेतात्माओं का अस्तित्व विज्ञान की कसौटी पर
    • आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध
    • Quotation
    • शक्तियों का दुरुपयोग रोका जाय
    • साधु, ब्राह्मण की परम्परा पुनर्जीवित की जाय
    • यश और धन तब भयंकर दैत्य बन जाते हैं
    • शब्द ब्रह्म की साधना के दो चरण!
    • जीवन का लक्ष्य स्वरूप और उद्देश्य
    • ध्यान-योग द्वारा आत्म-बल का संवर्द्धन
    • आलस और परावलम्बन (kahani)
    • हम अपना देवत्व विकसित कर सकते हैं।
    • विकृत चिन्तन से शरीर ओर मन की अपार क्षति
    • तीर्थ यात्रा उच्च स्तरीय पुण्य परमार्थ
    • मुस्कान, वैज्ञानिक क्या कहते है?
    • कन्द-कुण्ड की ज्योति-ज्वाला कुण्डलिनी
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1977 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


साधु, ब्राह्मण की परम्परा पुनर्जीवित की जाय

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 9 11 Last
जो स्थान शरीर में हृदय और मस्तिष्क का हैं वही विश्व मानव की स्थिरता के लिए साधु और ब्राह्मण का हैं। साधु हृदय हैं और ब्राह्मण मस्तिष्क । यों दोनों ही एक लक्ष्य के पथिक हैं, पर स्थिति में थोड़ा-सा अन्तर हैं। हृदय भावनाओं का केन्द्र माना जाता है, करुणा, कोमलता, ममता, सेवा जैसे भाव-भरे कृत्य उसी के हैं। इसी लिए उदार, परमार्थ-परायण स्नेह सौजन्य भरे लोगों को सहृदय या सुहृद कहते हैं। साधु का स्वरूप यही हैं। वह भाव-भरा होता है। दूसरों का कष्ट उससे देखा नहीं जाता। पीड़ा और पतन उसे असह्य हैं। उसके पास जो कुछ हैं उसे पीड़ित मानवता की प्यास बुझाने के लिए ले दौड़ता है। वह भूल जाता है कि अपने लिए कुछ बचेगा या नहीं। सन्त एकनाथ ने प्यास से भरते हुए गधे की प्यास बुझाने के लिए अपनी वह गंगाजली उड़ेल दी थी जो रामेश्वरम् पर चढ़ाए जाने के उपरान्त स्वर्ग मिलने की आशा बँधाती थीं प्यासे गधे को मरते देख कर उनकी करुणा तिलमिलाई और स्वर्ग की तुलना में सहृदयता को बना लेना उन्होंने उचित समझा।

साधुता, सहृदयता पर्यायवाची शब्द हैं। करुणार्द्र आत्मा अपने सुख साधनों को पिछड़े, पीड़ित और पतितों पर निछावर करती रही हैं। देवत्व के परिपोषण के लिए दधीचियों को अस्थि दान देने पड़े हैं। विश्वामित्र की युग परिवर्तन प्रक्रिया को सार्थक बनाने के लिए हरिश्चन्द्र ने न केवल राजपाट वरन् अपना परिवार बेचकर भी उस वट वृक्ष को सींचा था, जिसकी छाया में संतप्त जन समाज को तत्कालीन छाया प्राप्त करने का सहारा मिलने वाला था। साधु अपनी शारीरिक वासनाओं को-मानसिक तृष्णाओं को-दुत्कारता हुआ जो मिलता है उस समस्त वैभव को जनता-जनार्दन के चरणों पर चढ़ा देता है। संयम और बलिदान का दूसरा नाम ही तप हैं। तपस्वी ही आदर्शों को सजीव रखने वाले प्रकाश स्तम्भ होते हैं। लोग उन्हीं से श्रेय पथ पर अनुगमन करने का साहस उत्पन्न करने वाली प्रेरणा प्राप्त करते हैं। इन साधु तपस्वियों से-मानवता को-अपने मस्तक ऊँचा करने का अवसर मिलता है। देवत्व उन्हीं के कारण जीवित रहता है।

समाज शरीर का दूसरा आधार हैं-मस्तक-ब्राह्मण। ब्राह्मण और साधु की स्थिति में थोड़ा अन्तर होता है। ब्राह्मण एक स्थान पर रह कर बुद्धि प्रधान कार्य करने को अपने लिए उपयुक्त देखता है इसलिए वह घर परिवार भी बना लेता है। ज्ञान साधन में संलग्न होता है। पढ़ता है और पढ़ाता है। नियत स्थान पर रहकर नियत क्षेत्र में, नियत व्यक्तियों का पौरोहित्य करता है और उस सीमित क्षेत्र में उत्कृष्टता आदर्शवादिता बनाये रहने के लिए सतत् सेवा संलग्न रहता है।

साधु परिव्राजक होता है। घर न तो बनाता है न बसाता है। यदि बस गया या बन गया था तो तब तक उसका निर्वाह करता है जब तक कि आश्रित व्यक्ति स्वावलम्बी न हो जाएँ आरम्भ में ही जिनकी भावनाएँ उमड़ पड़ती हैं वे बिना गृहस्थ में प्रवेश किये सीधे साधु बन जाते हैं और जिनका घर बस गया वे उपयुक्त अवसर आने तक ठहरते हैं। इसके पश्चात वे समस्त विश्व को अपना घर-समस्त मानव जाति को अपना परिवार मानकर ससीमता के बंधन तोड़ते हुए असीमता में प्रवेश करते हैं और जीवन मुक्ति का इसी जन्म में लाभ लेते हैं। लोक मंगल ही उनका लक्ष्य होता है। बादलों की तरह वे हर प्यासी भूमि पर पानी बरसाते हैं। रुकने में न उनकी रुचि होती हैं न आवश्यकता।

ब्राह्मणत्व सुविधाजनक हैं, साधुता बाह्य दृष्टि से कष्ट कारक। ब्राह्मण यथा शक्ति चलता है और साधु दुस्साहस का आदर्श प्रस्तुत करता है। इसलिए साधु को ब्राह्मण से श्रेष्ठ माना गया है और ऊँचा सम्मान दिया गया है। यह ऊँचा दर्जा न केवल साधु की तपस्या को देखते हुए दिया गया हैं, वरन् यह भी देखा गया है कि उनकी सेवा साधना की उपयोगिता भी अत्यधिक हैं। न्यूनतम निर्वाह में वे अधिक व्यापक अधिक महत्त्वपूर्ण सेवाएँ कर सकते हैं जो कि सीमा क्षेत्र में बँधे हुए के ब्राह्मण के लिए सम्भव नहीं हैं।

आज साधु और ब्राह्मण की दोनों ही परम्पराएँ नष्ट हो गई। प्रायः दोनों का ही वंश नाश हुआ दिखाई पड़ता है। यों वंश के ब्राह्मण और वेश के साधु दोनों मिलकर एक करोड़ के लगभग जा पहुँचे हैं। पर इनसे कुछ बनता नहीं उपहास ही होता है। स्वार्थ सिद्धि के लिए मुक्त खोरी ही जिनका लक्ष्य होगा, वे स्वयं भी गिरेंगे और उन्हें पकड़े होगे उन्हें भी साथ ले गिरेंगे। पंडा पुरोहित धन लूटने में और साधु बाबा स्वर्ग,मुक्ति और चमत्कार सिद्धि लूटने में लगें हैं। दोनों को ही सम्मान चाहिए, पैसा चाहिए। बदले में अपने शिष्य यजमानों को कुछ ऐसे जादू मन्त्र ही सिखा सकते हैं जिनसे उन बेचारों का समय और धन नष्ट होने वाला हैं। इस वर्ग में देश धर्म समाज संस्कृति के लिए दर्द होता तो वे अपना कार्य क्षेत्र प्राचीन काल के ऋषि मुनियों की तरह लोकमंगल का बनाते-जन कल्याण में जुटते। अपने को उसका अधिकारी बनाने पर उस स्तर की इच्छा तक उन्हें छूकर नहीं गई हैं। ऐसी दशा में यह आशा करना व्यर्थ हैं कि इन वेश और वंश के आधार पर पूजने वाली निर्जीव प्रतिमाओं से कोई प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा। जन मानस में सद्विचारणाएँ भरने वाले ब्राह्मण और लोक अन्तःकरण में सद्भावनाएँ विकसित करने वाले साधु यों देश में कुछ तो होंगे ही पर उनकी संख्या जलते तवे पर पड़ने वाली थोड़ी-सी पानी की बूँदों से अधिक नहीं हो सकती।

प्रत्येक दुर्भिक्ष प्राणघातक संकट उत्पन्न करता है। वर्षा न होने से सूखा पड़ता है, अनाज और चारा न उपजने से, पीने का पानी कम पड़ने से अगणित मनुष्य पशु एवं वन्य प्राणी भूख प्यास से तड़पते हुए प्राण त्यागते हैं। सद्ज्ञान की वर्षा न होने से इससे भी बड़ा दुर्भिक्ष पड़ता है। शरीर भूखा मरे तो भी आत्मा के स्तर को आँच नहीं आती। किन्तु यदि सद्ज्ञान की वर्षा बन्द हो जाए तो मनुष्य की आत्मा ही मरती हैं। विचारणा और भावना का स्तर गिर जाने का स्वाभाविक परिणाम कुकर्मों का-दुष्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन होता है। इस दुर्भिक्ष से पीड़ित जनमानस संकीर्ण स्वार्थ भरे व्यक्तिवादी दल-दल में फँसता है। अनाचारों और अपराधों में लाभ देखता है और प्रकट-अप्रकट रूप से ऐसी गतिविधियाँ अपनाता है जिससे मनुष्य को असुर रूप में देखा जा सके और सामाजिक जीवन में नारकीय परिस्थितियाँ उफन चलें। आज यही दृश्य सामने हैं। इस दुर्गति के लिए गरीबी अशिक्षा आदि को दोष देना व्यर्थ है। यह सब तो चिन्तन भ्रष्टता की, विष बेल पर लगने वाले छोटे-छोटे फल मात्र हैं।

इस तथ्य को हमें हजार बार समझना चाहिए कि मनुष्य, हाड़-माँस का पुतला नहीं हैं। वह एक चेतना हैं। भूख चेतना की भी होती हैं। विषाक्त आहार से शरीर मर जाता है और भ्रष्ट चिन्तन से आत्मा की दुर्गति होती हैं। प्रकाश न होगा तो अन्धकार का साम्राज्य ही होना हैं। सद्ज्ञान का आलोक बुझ जाएगा तो अनाचार की व्यापकता बढ़ेंगी ही। भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट कर्तव्य का परिणाम व्यक्ति और समाज की भयानक दुर्दशा के रूप में ही सामने आ सकता है। यह सिद्धान्त मात्र नहीं -प्रत्यक्ष तथ्य हैं। आज हम चारों और आँख उठाकर यही सब देख रहे हैं। रोटी कपड़े के बिना कोई नहीं मर रहा हैं-निर्वाह की आवश्यकता किसी की भी रुकी नहीं पड़ी हैं फिर भी हर व्यक्ति वैसा सोच रहा हैं-वैसा कर रहा हैं जिससे मनुष्यता का गौरव नहीं बढ़ता। समाज में शान्ति का वातावरण नहीं बनता। इस विपत्ति का कारण मानवी चेतना को सद्ज्ञान का पोषण न मिलना ही एक मात्र कारण हैं। यदि यह दुर्भिक्ष न पड़ा होता तो भौतिक साधनों की इतनी कमी नहीं होती, जिसके कारण दसों-दिशाओं में त्राहि-त्राहि गुँजाने वाला करुण क्रन्दन उठ रहा है।

अपने युग की इस महान विपत्ति की दूर करने के लिए सद्ज्ञान की गंगा का अवतरण पुनः करना होगा। अब 60 हजार नहीं 60 करोड़ सगर पुत्र नरक की आग में जल रहे हैं। इन्हें शान्ति देने के लिए स्वर्ग से धरती पर गंगा अवतरण वाली पौराणिक गाथा की जीवन्त पुनरावृत्ति होनी चाहिए। इसके लिए भाव-भरे भागीरथों को कठोर तप साधन के लिए आगे आना चाहिए। इससे कम में वृभ वेदना को शान्त न किया जा सकेगा। विनाश का सर्वभक्षी वृत्तासुर दधीचियों की अस्थियों के वज्र के अतिरिक्त किसी शस्त्र से मरेगा नहीं।

साधु और ब्राह्मण की परम्पराओं का पुनर्जीवन हमारा प्रधान लक्ष्य है। मनुष्य की गरिमा को सुस्थिर बनाये रहने और ऊँचा उठाते चलने के लिए यही दो भुजाएँ दैवी प्रयोजन पूरा करती रही हैं- कर सकती हैं।

अखण्ड-ज्योति प्रयत्न यह भी करती रही है कि वंश और वेश धारण करने वाले लोगों को उनके कर्तव्य उत्तरदायित्वों का बोध कराया जाय और उन्हें कर्तव्य पालन करने के लिए कहा जाय जिसके नाम पर उन्हें पीढ़ियों से प्रचुर धन सम्मान मिलता चला आ रहा है। ऋण चुकाने के नाम पर भी उन्हें कुछ करना चाहिए था, देव लक्ष्य पूरा करने की भावना जगती तब तो बात ही क्या थी; पर हमें अत्यन्त दुःख के साथ अपनी असफलता स्वीकार करनी पड़ती हैं कि परम्परा गत साधु ब्राह्मणों के दरवाजे पर पूरी तरह लम्बे समय से सिर फोड़ते रहने पर भी उन्हें पिघलाना सम्भव न हो सका। जिन्हें मुफ्त का धन और मान मिल रहा है उन्हें ऐसे झंझट में पड़ना जरा भी नहीं सुहाया जिसमें उन्हें स्वयं कष्ट साध्य आदर्शवादी अपनाना पड़ता और लोक सेवा पथ पर चलते हुए पग-पग पर तप-तितीक्षा का परिचय देना पड़ता।

नव युग-निर्माण के लिए नये सिरे से अपने प्रयत्न आरम्भ हुए है। इस भवन का निर्माण साधु और ब्राह्मणों के ईंट-चूने से ही सम्भव होगा। इनकी आवश्यकता कहीं से भी-किसी भी मूल्य पर पूरी करनी पड़ेगी। युग की इस महती आवश्यकता के साधन जुटाने के लिए हम कितने प्यासे फिर रहे हैं- कितने छटपटाते हैं इसे कोई भी हमारे समीप आकर हमारे भीतर घुस कर देख सकता है।

अपने 40 वर्षों के प्रयास में अखण्ड-ज्योति ने ब्राह्मण संस्था का एक छोटा ढाँचा खड़ा करने में थोड़ी सफलता प्राप्त की है। युग निर्माण परिवार के कर्मठ कार्यकर्ता सद्ज्ञान सम्पदा के निर्माण एवं वितरण की आवश्यकता समझते हैं। वे संयमी ब्राह्मणों की तरह अपनी निजी सुख-सुविधा में कटौती करके जो समय, मनोयोग, पैसा बचाते हैं उसे ज्ञान देवता के युग यज्ञ में भावनापूर्वक झूमते रहते हैं। यही है वह आलोक जिसे देखकर हमारी आँखों में आशा की ज्योति जलती रहती है।

ब्राह्मण घर परिवार में रहता है और अपनी गृहस्थी के निर्वाह में न्यूनतम शक्ति नियोजित करने के पश्चात् जो कुछ बचता है उसे लोक मंगल में लगा देता है। अपने कर्मठ कार्यकर्ता यही करते हैं। पेट पालने के लिए परिवार पोषण के लिए जितनी न्यूनतम शक्ति खर्च करने से काम चलता है; उतने से ही काम चलाते हैं। अमीर बनने, दौलत जमा करने और बड़े आदमी होने की लिप्सा छोड़ देने और किसी प्रकार निर्वाह चलने से सन्तुष्ट रहने की, मनोभूमि बना लेने के उपरान्त ही उनके लिए इतना कुछ कर सकना संभव हुआ है जिससे नवयुग का अरुणोदय होता हुआ दिखाई पड़ रहा है। इसे इन कर्मवीर युग निर्माताओं के तप त्याग का-ब्राह्मणत्व का-अनुदान ही कहा जा सकता है।

आपत्ति धर्म के रूप में ब्राह्मणत्व और साधु परम्परा को पुनर्जीवित कराने के लिए अपने प्रयास सामयिक हैं। इससे कुछ तो काम चलता ही है, पर वह बात नहीं बनती जो पूरा समय लगाने वाले साधु ब्राह्मणों द्वारा बनती थी-बन सकती है। हमारे अगले प्रयास इसी दिशा में होने चाहिए और साधु ब्राह्मणों की गरिमा को मूर्तिमान करने में अपना समूचा जीवन समर्पित करने वाले उदाहरण आगे आने चाहिए। यह प्रयोजन अखण्ड-ज्योति परिवार के लोगों को ही पूरा करना होगा। अब उसमें इतनी भावना और क्षमता उत्पन्न होनी चाहिए कि साधु और ब्राह्मणों को आधे अधूरे नहीं पूरे परिपक्व प्रतीकों को युग देवता के चरणों में प्रस्तुत कर सकें। अपने परिवार ने बालपन समाप्त करके प्रौढ़ता में प्रवेश पा लिया; इसका यही प्रमाण हो सकता है-कि वह साधु और ब्राह्मणों की युग आवश्यकता को पूरा करके दिखाये।

First 9 11 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • उपार्जन का सदुपयोग भी
  • सुखी जीवन का एक मात्र आधार धर्म
  • पूर्ण से पूर्ण ही उत्पन्न हुआ
  • अतीन्द्रिय शक्ति और उसकी पृष्ठभूमि
  • स्थूल शरीर की सूक्ष्म साधना
  • प्रेतात्माओं का अस्तित्व विज्ञान की कसौटी पर
  • आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध
  • Quotation
  • शक्तियों का दुरुपयोग रोका जाय
  • साधु, ब्राह्मण की परम्परा पुनर्जीवित की जाय
  • यश और धन तब भयंकर दैत्य बन जाते हैं
  • शब्द ब्रह्म की साधना के दो चरण!
  • जीवन का लक्ष्य स्वरूप और उद्देश्य
  • ध्यान-योग द्वारा आत्म-बल का संवर्द्धन
  • आलस और परावलम्बन (kahani)
  • हम अपना देवत्व विकसित कर सकते हैं।
  • विकृत चिन्तन से शरीर ओर मन की अपार क्षति
  • तीर्थ यात्रा उच्च स्तरीय पुण्य परमार्थ
  • मुस्कान, वैज्ञानिक क्या कहते है?
  • कन्द-कुण्ड की ज्योति-ज्वाला कुण्डलिनी
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj