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Magazine - Year 1977 - Version 2

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प्रेतात्माओं का अस्तित्व विज्ञान की कसौटी पर

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जीव चेतना का शरीर मरण के साथ ही अन्त नहीं हो जाता। वरन् उसका अस्तित्व पीछे भी बना रहता है इसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी बहुधा मिलते रहते हैं। पिछले दिनों यह तथ्य परम्परागत मान्यताओं एवं कथा पुराणों के प्रतिपादनों पर ही निर्भर था कि मरणोत्तर काल में भी जीवात्मा का अस्तित्व बना रहता है। उसे परलोक में रहना पड़ता है। स्वर्ग-नरक भुगतना पड़ता है एवं पुनर्जन्म के चक्र में भ्रमण करना पड़ता है।

इस बुद्धिवादी युग ने परम्परागत मान्यताओं को अविश्वस्त ठहरा दिया है और हर आधार को प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर करने की बात आवश्यक समझी गई है। अब कोई बात इसी आधार पर गले उतरती है तब उसकी प्रामाणिकता के सन्दर्भ में प्रत्यक्ष की साक्षियाँ प्रस्तुत की जाए। मरणोत्तर जीवन के अस्तित्व के सम्बन्ध में भी इसी प्रत्यक्षवाद की कसौटी प्रस्तुत की जाती है।

इस संदर्भ में अब तक के अन्वेषणों ने कई अनोखे तथ्य प्रतिपादित किये है। मरने के उपरान्त अनेकों को शान्ति मिलती है और वे प्रत्यक्ष जीवन में अहिर्निश श्रम करने की थकान को दूर करने के लिए परलोक की गुफा में विश्राम लेने लगते हैं। इसी निद्रा काल में स्वर्ग नरक जैसे स्वप्न दिखाई पड़ते रहते होंगे। थकान उतरने पर जीव पुनः क्षमता सम्पन्न बनता है और अपने संग्रहित संस्कारों के खिचाव से रुचिकर परिस्थितियों के इर्द-गिर्द मण्डराने लगता है वहीं किसी के घर उनका जन्म हो जाता है।

कभी-कभी कोई मनुष्य प्रेत योनि प्राप्त करते हैं। यह न जीवित स्थिति कही जा सकती है और न पूर्ण मृतक ही। जीवित इसलिए नहीं कि स्थूल शरीर न होने के कारण वे कोई वैसा कर्म तथा उपभोग नहीं कर सकते जो इन्द्रियों की सहायता से ही सम्भव हो सकते हैं। मृतक उन्हें इसलिए नहीं कह सकते कि वासनाओं और आवेशों से अत्यधिक ग्रसित होने के कारण उनका सूक्ष्म शरीर काम करने लगता है अस्तु वे अपने अस्तित्व का परिचय यत्र-तत्र देते फिरते हैं। इस विचित्र स्थिति में पड़े होने के कारण वे किसी का लाभ एवं सहयोग तो कदाचित ही कर सकते हैं, हाँ डराने या हानि पहुँचाने का कार्य वे सरलता पूर्वक सम्पन्न कर सकते हैं। इसी कारण आमतौर से लोग प्रेतों से डरते हैं और उनका अस्तित्व अपने समीप अनुभव करते ही उन्हें भगाने का प्रयत्न करते हैं। प्रेतों के प्रति किसी का आकर्षण नहीं होता वरन् उससे भयभीत रहते और बचते ही रहते हैं। वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से-वस्तुस्थिति जानने एवं कौतूहल निवारण की दृष्टि से कोई उस क्षेत्र में प्रवेश करके तथ्यों की जानकारी के लिए प्रयत्न करें तो यह दूसरी बात है।

प्रेतात्माओं द्वारा अपने अस्तित्व का परिचय दिये जाने अमुक व्यक्तियों का अपना माध्यम बनाकर त्रास देने की घटनाओं का वर्णन करना इन पंक्तियों में अभीष्ट नहीं। जन श्रुतियों से लेकर सरकारी रिकार्ड में दर्ज और परामनोविज्ञान के अन्वेषकों द्वारा मान्यता प्राप्त ऐसी असंख्यों घटनाएँ सामने आती रहती है, जिनसे प्रेतात्माओं के अस्तित्व की पुष्टि होती है। यहाँ तो चर्चा यह की जानी है कि क्या प्रेत योनि में सभी को जाना पड़ता है। अथवा किसी विशेष स्थिति में व्यक्ति ही उसमें प्रवेश करते हैं। उत्तर स्पष्ट है। उद्विग्न, विक्षुब्ध, आतुर, अशान्त, क्रुद्ध, कामनाग्रस्त, अतृप्त लोगों को ही प्रायः प्रेत बनना पड़ता है शान्तचित्त सौम्य एवं सज्जन प्रकृति के लोग सीधी सादी जनम मरण की प्रक्रिया पूरी करते रहते हैं।

काल के अनन्त प्रवाह में बह रही जीवनधारा का प्रेत योनि एक नया मोड़ मात्र है। हमारे सीमित बोध-जगत के लिए भले ही वह जीवनधारा खो गई प्रतीत होती हो, पर वह सर्वदा अविच्छिन्न रहती है और हमारा संस्कार-क्षेत्र मरणोत्तर जीवन में सक्रिय रहता है, अन्तःकरण चतुष्टय मृत्यु के उपरान्त भी यथावत् बना रहता है अशान्त विक्षुब्ध मनःस्थिति भी अपना स्वभाव उस रूप में ही बनाए रखती हैं दुष्ट और दुरात्मा जीवनक्रम की यह स्वाभाविक परिणति जीवात्मा को जिस अशान्त दशा में रहने को बाध्य करती है, उसका ही नाम प्रेत दशा है। अपनी दुर्दशा से सामान्यतः प्रेतों को दुःख ही होता है, पर अत्यन्त कलुषित अनाचारी व्यक्तियों की हिंसक मनोवृत्तियाँ प्रेत जीवन पाकर भी अपनी क्रूर आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहती है और लोगों को अनायास सताती रहती हैं पर अपना आतंक वे उन्हीं पर जमा पाती है, जिनका आत्मबल अविकसित हो।

प्यार का अभाव, असुरक्षा की आशंका, मूर्खतापूर्ण कठोरता से भरा नियन्त्रण, आत्यन्तिक चिन्ता, कुसंग से उत्पन्न विकृतियाँ व्यक्ति के विकासक्रम को जब बालकपन से ही तोड़-मरोड़ देती है, तो आत्मबल का सम्यक् विकास नहीं हो पाता। ऐसी विघटित मनःस्थिति ही प्रेतात्माओं को अपना उपयुक्त क्रीड़ा क्षेत्र लगा करती हैं प्रेतात्माएं उसे अपना क्रीड़ा-क्षेत्र न भी बनाएँ तो क्या, मनोवृत्तियों का झुण्ड एकत्र होकर मानसिक रोगों का रूप ले लेता है या अन्य प्रकार से उन्मत्त आचरण के लिए प्रेरित व बाध्य करता है उत्कृष्ट लक्ष्यों के लिए साहस, उल्लास और स्फूर्ति से भरपूर मनःस्थिति जहाँ मनुष्य की सामर्थ्य को अधिकाधिक विकसित एवं ऊर्ध्वगामी बनाते हुए उसे महामानवों-देवमानवों की कोटि में पहुँचा देती है, वहीं दुर्बल-दूषित मनःस्थिति जीवन भर हताशा, आक्रोश और आत्मग्लानि के नरक में तो जलाती ही है, मरणोत्तर जीवन में भी अन्तश्चेतना की अविच्छिन्नता के कारण उसी स्तर की गतिविधियों का क्रम चलते रहने से प्राणी को क्षण भर भी चैन नहीं लेने देती। लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है ये अशान्त आत्माएँ या मनोदशाएँ उन्हीं लोगों पर अपना त्रास पूर्ण प्रभाव डाल सकने में समर्थ हो पाती है, जिनकी स्वयं की मनःस्थिति दुर्बल-विश्रृंखल हो।

प्रेतात्माएं हर किसी के संपर्क में नहीं आती। वे दुर्बल मनोभूमि के व्यक्तियों को चुनौती देती है और उन्हीं को अपना वाहन बनाती हैं मनस्वी लोग सदा जागरूक रहते हैं। द्विजातीय तत्त्वों से लड़ने के लिए जिस प्रकार रक्त के श्वेत कण अपनी संघर्ष शीलता का परिचय देते हैं, ठीक उसी प्रकार प्रतिभा और प्रखरता के धनी अपनी साहसिकता के बल पर प्रेतात्माओं को समीप नहीं आने देते, आती है तो उन्हें धकेल कर दूर फेंक देते हैं। दुर्बल मनोभूमि के, अथवा प्रेतात्माओं में विशेष रुचि लेने वाले ‘भूत भक्तों’ को उनका वाहन बनते देखा गया है। जिनके शिर पर आये दिन भूत झूमते रहते हैं उन्हें इंग्लिश में ‘मीडियम’ कहा जाता है। साधारणतया उन्हें प्रेत वाहन नाम दिया जय तो अनुपयुक्त न होगा।

प्रेतात्मा प्रमाणिक व्यक्ति के भीतर से एक सूक्ष्म पदार्थ-प्रवाह निकलता है, जिसे ‘टेलीप्लाज्म’ व्यक्ति-चित्त में विद्यमान उस अतीत के व्यक्ति-विशेष या वस्तु-विशेष (जिसे प्रेत कहते है) की छवि के संवेदनात्मक प्रतिबिम्बों के अनुरूप आकार ग्रहण कर लेता है यह माध्यम-व्यक्ति के शरीर से स्वयं को पृथक कर सकता है और इस प्रकार प्रेत की प्रतिच्छाया या छवि स्पष्ट दिखाई दे सकती हैं

डा0सी0डी0 ब्रोड समेत अनेक वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिकों ने ‘मीडियम’ (प्रेत प्रभावित व्यक्ति) के बारे में एक अन्य सिद्धान्त प्रस्तुत किया है उनका कहना है कि मस्तिष्क की संरचना जटिल है। वह शरीर के सम्मिलित संयोग का उत्पादन है, जिसमें एक अभौतिक तत्त्व भी सम्मिलित है, जिसे वे “साइकिक फैक्टर” कहते हैं। जब व्यक्ति मरता है तो उसका शरीर रूपी यह संयोग बिखर कर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार उस शरीर में अवस्थित मस्तिष्क का भी अस्तित्व समाप्त हो जाता है। किन्तु “साइकिक फैक्टर” कोई भौतिक द्रव्य (मैटर) नहीं है, अतः वह विनष्ट नहीं हो सकता। यह अवशिष्ट “साइकिक फैक्टर” इधर-उधर भ्रमण करता रहता है। फिर ऐसे व्यक्ति के मस्तिष्क को पाते ही वह प्रविष्ट हो जाता है जो इन पिरब्राजक ‘साइकिक फैक्टर’ के प्रति ग्रहण-शील हो। ऐसा ही व्यक्ति “मीडियम” प्रेत वाहन बना करते हैं। “साइकिक फैक्टर” कोई व्यक्ति तो होते नहीं, वे पूरे मस्तिष्क के भी प्रतिनिधि नहीं होते। अपितु मस्तिष्क का “पदार्थ से परे एक अंश विशेष” होते हैं। अतः “साइकिक फैक्टर” एक पूर्ण मस्तिष्क की तरह काम नहीं कर सकते।

प्रेतात्मा के नाम पर घटित होने वाली अगणित घटनाओं में से प्रायः आधी ऐसी होती हैं, जिन्हें आवेश ग्रस्त मस्तिष्कीय रोग की संज्ञा दी जा सकती है। उन्माद के-स्नायु, दुर्बलता के, भीरुता जन्य, आत्म-हीनता के, दबे असन्तोष की प्रतिक्रिया के कितने ही कारण ऐसे होते हैं जिनसे मनुष्यों की मानसिक स्थिति गड़बड़ा जाती है। उस स्थिति में शरीरगत और मनोगत तनाव बढ़ता है। वह एक प्रकार के कम्पन, रोमांच, ज्वर एवं आवेश जैसा होता है। ऐसा विचित्र रोग पहले अनुभव में नहीं आया था। अस्तु उसकी सीधी तुक प्रेत आक्रमण से लगा ली जाती है। रोगी के मन में यही मान्यता दृढ़ होती है और दर्शकों, सम्बन्धियों में से अधिकांश प्रेत उपचार के सरंजाम इकट्ठे करके रोगी की भ्रम ग्रस्तता को पूरी तरह परिपुष्ट कर देते हैं। आमतौर से प्रेत आक्रमण इसी स्तर के होते हैं।

संस्कार-जगत में प्रेतात्माओं का आतंक अंकित रहा, तो आवेश-ग्रस्त, ड़ड़ड़ड़ व्यक्ति अपनी स्थिति की संगति भूत-प्रेतों, देवी-देवताओं के आक्रमण के साथ बैठाकर उसी प्रवाह में स्वयं को बहाने लगता है। इससे ऐसे लक्षण प्रकट होते हैं, मानो सचमुच ही कोई भूत-बैताल उस व्यक्ति को दबोच बैठा हो। वस्तुतः यह ‘एंक्जाइटी न्यूरोसिस’ तथा ‘हिस्टरिक न्यूरोसिस’ की स्थिति होती है। ‘हैवीफ्रनिक शिजोफ्रेनिया’ की स्थिति भी ऐसी ही रुग्ण मनोदशा का परिणाम है। इस बीमारी में कई व्यक्तियों को लगने लगता है कि उन्होंने सचमुच कुछ आवाजें सुनी हैं। पेट में बैठकर या सिर पर चढ़कर कोई कुछ बोल रहा है। भूत-पलीतों,-देवी-देवताओं के कथित सन्देशों निर्देशों की अनुभूतियों की यही स्थिति है। अपने इष्ट देवों का ‘दर्शन’ करने वाले अनेक भक्त जन भी इसी मनःस्थिति में विभिन्न कौतूहलवर्धक दृश्य देखा करते हैं। जिनके प्रियजन हाल ही में और असमय में मरे हो, उन्हें भी झपकी आते ही मृतात्मा निकट आकर बात करती दिखाई पड़ती है। हैं ये सब मानसिक अस्त-व्यस्तता के ही परिणाम। सुनिश्चित सुनियोजित महत्त्वाकाँक्षाएँ व्यक्तित्व को ओजस्वी, गतिशील, प्रखर और प्रभावी बनाती हैं, तो आकाश-कुसुम वत आकांक्षाओं का अनपेक्षित विस्तार व्यक्तित्व को विभाजित कर देता है। विभाजित व्यक्तित्व मानसिक रोगों का सुरक्षित भण्डार बनता जाता है। व्यक्तित्व का यह विभाजन अनेक बार प्रेत बाधाओं के रूप में भी सामने आता है। जब आकांक्षाएँ शक्ति ने सर्वथा विलग और विसंगत हो जाती हैं तब वे स्वाभाविक न रहकर अस्वाभाविक हो जाती हैं, उनकी पूर्ति सम्भव न होने से उनका दमन करना पड़ता है। दमित आकांक्षाएँ पाप-पिशाच का रूप लेती जाती हैं। वे विकृत और वीभत्स रूप में त्रास एवं दण्ड देती हैं।

भूत बाधाएँ दो तरह से व्यक्ति को अपनी चपेट में लेती हैं-एक प्रकार की बाधा में रोगी के सिर पर भूत ‘आता’ है, वह अनर्गल प्रलाप और असंगत चेष्टाएँ करता है। रोग की इस स्थिति में रोगी की सामान्य चेतना विश्रृंखलित हो जाती है और यह विश्रृंखलित चेतना ही उसके व्यक्तित्व को घेरे रहती है।

दूसरे प्रकार की बाधा में ‘भूत’ रोगी के शरीर में भीतर समा जाता है। वह निरन्तर व्यग्र, त्रस्त, विक्षिप्त सा रहने लगता है। कभी-कभी अंग-विशेष में पीड़ा भी होती है तथा यह पीड़ा अपना स्थान बदलती रहती है। ऐसे रोगों का शारीरिक कारण ढूँढ़ने पर भी मिल नहीं पाता।

भूत-बाधा-पीड़ित व्यक्ति को आकस्मिक रूप से असह्य वेदना का अनुभव होने लगता है, कभी हाथ पैर ठंडे हो जाते हैं, दाँत-बँध जाते हैं और इस तरह की अन्य शारीरिक प्रतिक्रियाएँ स्पष्ट दिखने लगती हैं।

ये सभी प्रभाव मन में बैठी भय और अपराध की ग्रन्थियों के हैं। इसीलिए इनकी चिकित्सा किसी भी औषधि द्वारा नहीं हो पाती।

मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में प्रेत बाधा के अधिकांश मामले ‘हिस्टीरिया’ रोग का ही दूसरा नाम मात्र होते हैं। ऐसे रोगियों का व्यक्तित्व विभाजित होता है तथा उनके सामान्य व्यक्तित्व साथ ही उनमें एक विशेष व्यक्तित्व भी समाहित हो जाता है। मनोवैज्ञानिकों का यह भी निष्कर्ष है कि मानसिक विभाजन को स्थिति संक्रामक होती है। इसीलिए देखा यह गया है कि जब कोई भूत पीड़ित स्त्री झूमने लगती है तो उसके इर्द-गिर्द बैठी स्त्रियों के झुण्ड में से भी दस-पाँच स्त्रियाँ झूमने लगती हैं।

विभिन्न आकृतियों-प्रकृतियों वाले अनेकानेक मानसिक विक्षोभ वस्तुतः मानसिक असन्तुलन के परिणाम हैं। इसके लिए आवश्यक है परिस्थितियों के साथ ताल-मेल बिठाने की सूझबूझ तथा प्रतिकूल परिस्थितियों को परिवर्तित कर डालने का साहस। विकसित मनोबल और परिष्कृत दृष्टिकोण द्वारा ही यह सम्भव है।

प्रेत प्रभाव के दो कारणों की चर्चा ऊपर की जा चुकी है, एक मृतात्माओं की उद्विग्न एवं आक्रामक सत्ता। दूसरे मनोरोगों के सन्दर्भ में प्रेत कल्पना की प्रतिक्रिया। इन दो के अतिरिक्त एक तीसरा कारण और भी है किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों की निजी चेतना में ही ऐसे उभार उत्पन्न हो जाते हैं जो भूतों की करतूत जैसे विलक्षण परिचय देने लगते हैं। यह व्यक्तित्व में विशिष्ट ऊर्जा का आकस्मिक उदय होना कहा जा सकता है। यही अपने समीपवर्ती क्षेत्र को प्रभावित करती है। इससे दर्शकों को लगता है यहाँ कोई प्रेतात्मा विद्यमान हैं और अपने अस्तित्व का परिचय देने के लिए उलट-पुलट कर रही है।

प्रेत बाधाओं के स्वरूप को भी वैज्ञानिकों ने समझने का प्रयास किया है। ऐसे स्पष्ट प्रमाण मिले हैं कि किसी नर या स्थान विशेष में आकस्मिक रूप से घण्टियाँ बज उठेंगी, चीजें इधर-उधर बिखरने लगेंगी, पत्थर, धूलिकण, आदि बरसने लगेंगे, किवाड़ खिड़कियाँ स्वयं ही खुलने बन्द होने लगेंगी और ऐसा बिना किसी भी व्यक्ति या यन्त्र की गतिविधि के होगा। ऐसी घटनाएँ अब भली-भाँति परखी जा चुकी हैं और वैज्ञानिकों द्वारा सत्य पाई गई हैं। इसका अभी तक वैज्ञानिक यही स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर सके हैं कि प्रेत बाधा सम्बन्धी समस्त घटनाएँ उस क्षेत्र के आस-पास किसी जीवित देहधारी की ही उपस्थिति में घटित होती हैं। इसका अर्थ है कि उपस्थित व्यक्ति का अवचेतन अपनी आन्तरिक ऊर्जा को वहाँ प्रक्षिप्त करता है, भले ही वह स्वयं सचेतन रूप में इस क्रिया से अवगत नहीं रहता। पर जीवित व्यक्ति की मानसिक ऊर्जा के उपयोग से ही ये घटनाएँ घटित हो पाती हैं। यह सिद्धान्त व्यक्ति में निहित असीम सम्भावनाओं तथा अपार मानसिक ऊर्जा की धारण की ही पुष्टि करता है। इस मानसिक ऊर्जा को ही मनोबल, आत्मबल आदि कहा गया है।

वस्तुओं तथा व्यक्तियों के सहसा हवा में ऊपर उठ जाने तथा तैरने, व्यक्ति का थोड़े समय के लिए अत्यधिक लम्बा-ऊँचा हो जाने, अन्तर्धान होने, आकाश-संचरण आदि की घटनाएँ भी वैज्ञानिकों द्वारा नियन्त्रित वातावरण में स्पष्ट देखी-परखी गई हैं। सर डगलस होम ने अनेक वैज्ञानिकों के सामने कुर्सी समेत हवा में ऊपर उठ जाने, कई फुट लम्बे हो जाने, मेज आदि को ऊपर उठा देने के अनेक प्रदर्शन किये थे और भी कई प्रयोगकर्ता ऐसे प्रदर्शन कर चुके व कर रहे हैं। इनकी कैसी भी व्याख्या अभी तक वैज्ञानिक नहीं कर पाये हैं।

प्रेतात्मा के अस्तित्व सम्बन्धी जो घटनाएँ सामने आती हैं उनके अधिक गम्भीर अन्वेषण किये जाने की आवश्यकता है। इन शोधों से मानव तत्त्व की कितनी ही विशेषताओं पर प्रकाश पड़ेगा और यह जाना जा सकेगा कि मरणोत्तर जीवन में मनुष्य को किन परिस्थितियों में होकर गुजरना पड़ता है ? इस तथ्य का जितना ही रहस्योद्घाटन होगा उतना ही यह स्पष्ट होता जाएगा कि जीवन अनन्त है और उसकी सम्भावनाएँ असीम हैं। वर्तमान दृश्य जीवन तो उसका एक छोटा-सा अंग मात्र है।

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