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Magazine - Year 1977 - Version 2

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न केवल चेतन समुदाय अपितु सृष्टि का प्रत्येक कण पूर्णता के लिए लालायित और गतिशील है। भौतिक-जीवन में जिसके पास स्वल्प सम्पदा है वह और अधिक की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है; पर जो धनाढ्य हैं उन्हें भी सन्तोष नहीं। उसी के परिणाम में वह और अधिक प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील दिखाई देता है। बड़े-बड़े सम्राट तक अपनी इस अपूर्णता को पाटने के लिए आपाधापी मचाते और दूसरे साम्राज्यों की लूटपाट करते पाये जाते हैं तो लगता है सृष्टि का हर प्राणी साधनों दृष्टि से अपूर्ण है इस दिशा में पूर्णता प्राप्त करने की हुड़क हर किसी में चढ़ी बैठी दिखाई देती है।

इतिहास का विद्यार्थी अपने आपको गणित में शून्य पाता है तो वह अपने आपको अपूर्ण अनुभव करता है, भूगोल का चप्पा छान डालने वाले को संगीत के स्वर बेचैन कर देते हैं उसे अपना ज्ञान थोथा दिखाई देने लगता है, बड़े-बड़े चतुर वकील और बैरिस्टरों को जब रोग बीमारी के कारण डाक्टरों की शरण जाना पड़ता है तब तो उनका अपने ज्ञान का-अभिमान चकनाचूर हो जाता है। बौद्धिक दृष्टि से हर प्राणी समिति है और हर कोई अगाध ज्ञान का पण्डित बनने को तत्पर दिखाई देता है।

नदियाँ अपनी अपूर्णता को दूर करने के लिए सागर की और भागती है; वृक्ष आकाश छूने दौड़ते हैं, धरती स्वयं भी अपने आपको नचाती हुई न जाने कि गन्तव्य की और अधर आकाश में भागी जा रही है, अपूर्णता की इस दौड़ में समूचा सौर-मंडल और उससे परे का अदृश्य संसार सम्मिलित है। पूर्णता प्राप्ति की बेचैनी न होती तो सम्भवतः संसार में रत्ती भर की सक्रियता न होती सर्वत्र नरव सुनवार पड़ा होता, न समुद्र उबलता, न मेघ बरसते, न वृक्ष उगते, न तारागण चमकते और न ही वे विराट् की प्रदक्षिणा में मारे-मारे घूमते?

जीवन की सार्थकता पूर्णता प्राप्ति में है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि अभी हम अपूर्ण है, असत्य है, अन्धकार में है। हमारे सामने मृत्यु मुँह बाए खड़ी है। अन्धकार असत्य और मृत्यु पर जीत प्राप्त करने के लिए हम प्रकाश, सत्य और अमरता की और अग्रसर होना चाहते हैं। पर हो कोई नहीं पाता। हर कोई अपने आपको अशक्त और असहाय पाता है अज्ञान के अन्धकार में हाथ-पैर पटकता रहता है।

इस अपूर्णता पर जब कभी विचार जाता है तब एक ही तथ्य सामने आता है और वह है “परमात्मा” अर्थात् एक ऐसी सर्वोपरि सर्वशक्तिमान सत्ता जिसके लिए कुछ भी अपूर्ण नहीं है। वह सर्वज्ञ है, सर्वव्यापी, सर्वदृष्टा, नियामक और एकमात्र अपनी इच्छा से सम्पूर्ण सृष्टि में संचरण कर सकने की क्षमता से ओत-प्रोत है।

तैत्तिरीयोपनिषद् की तृतीय बल्ली-भृगु अपने पिता वरुण के पास जाकर कहते हैं। “अधीहि भगवो ब्रह्मोति” हे तात! मुझे ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दीजिये। वरुण परीक्षा के लिए अपने पुत्र के रूप, सौंदर्य स्वास्थ्य, अपार सम्पत्ति और सुन्दर स्त्रियाँ माँगने को कहते हैं, पर भृगु प्रश्न करते हैं, क्या अपार सौंदर्य पाने के बाद मैं मृत्यु से बच सकता हूँ? क्या सम्पत्ति मुझे अमर बना सकती है? क्या बनिताधिक भोग मुझे नष्ट होने से बचा लेंगे? यदि नहीं तो यह सब कुछ मुझे नहीं चाहिए, जिससे किसी प्रकार की कामनाएँ शेष न रहे मुझे वह ज्ञान दीजिए।”

इस पर प्रसन्न होकर वरुण कहते हैं-

“यतो वा इतानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति तत्प्रन्त्यमिसं विशति तद्धि जिज्ञासस्वतद् ब्रह्योति।”

अर्थात् हे भृगु! जिससे समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं और अन्त में उसी में विलीन हो जाते हैं।

विकासवाद के जनक डार्विन ने यह सिद्धान्त तो प्रतिपादित कर दिया कि प्रारम्भ में एक कोशीय जीव अमीबा की उत्पत्ति हुई यही अमीबा फिर “हाइड्रा” में विकसित हुआ, हाइड्रा मछली, मेंढक, सर्पणशील पक्षी, स्तनधारी जीवों आदि की श्रेणियों में विकसित होता हुआ वह बन्दर की शक्ल तक पहुँचा, आज का विकसित मनुष्य शरीर इसी बन्दर की सन्तान है। इसके लिए शरीर रचना के कुछ खाँचे भी मिलाये गये। जहाँ नहीं मिले वहाँ यह मान लिया गया कि वह कड़ियाँ लुप्त हैं और कभी समय पर उनकी भी जानकारी हो सकती है।

इस प्रतिपादन में डार्विन और इस सिद्धान्त के अध्येता यह भूल गये कि अमीबा से ही नर-मादा दो श्रेणियाँ कैसे विकसित हुई। अमीबा एक कोशीय या उससे दो कोशीय हाइड्रा पैदा हुआ क्या अन्य सभी जीव इसी गुणोत्तर श्रेणी में आ सकते हैं यदि सर्पणशील जीवनों से परधारी जीव विकसित हुये तो वह कृमि जैसे चोटें, पतिंगे, मच्छर आदि कृमि जो उड़ लेते हैं, वे किसी विकास प्रक्रिया में रखे जायेंगे? पक्षी, जल-जन्तु और कीड़े सभी माँस खाते हैं। स्तनधारी उन्हीं से विकसित हुए तो गाय, भैंस, बकरी, हाथी आदि माँस क्यों नहीं खाते। हाथी के दाँत होते हैं हथनियों के नहीं, मुर्गे में कलगी होती है मुर्गी में नहीं। मोर के रंग-बिरंगे पंख और मोरनियाँ बिना पंख वाली, विकास प्रक्रिया में एक ही जीव श्रेणी में यह अन्तर क्यों? प्राणियों में दाँतों की संख्या, आकृति, प्रकृति में अन्तर पाया जाता है। घोड़े के स्तर नहीं होते बैल के अण्डकोश के पास स्तर होते हैं। पक्षियों की अपेक्षा सर्प और कछुए हजारों वर्ष की आयु वाले होते हैं, यह सभी असमानताएँ इस बात का प्रमाण है कि सृष्टि रचना किसी विकास का परिणाम नहीं अपितु किसी स्वयंभू सत्ता द्वारा विधिवत् रची गई कलाकृति है।

विकासवाद के सिद्धान्त के समर्थक यह कहते हैं कि अपने सुविधापूर्ण जीवन के लिए इच्छा ने उन जीवों के शरीर संस्थानों में अन्तर किया और यह अन्तर स्पष्ट होते-होते एक जीव से दूसरी किस्म का उसी से मिलता हुआ जीवन विकसित होता गया। थोड़ी देर के लिए यह बात मान लें और मनुष्य शरीर को इस कसौटी पर कसें तो भी बात विकासवाद के विपरीत ही बैठेगी। मनुष्य कब से पक्षियों को देखकर आकाश में स्वतंत्र उड़ने को लालायित है, किन्तु उसके शरीर में ही कोई पंख उगा क्या, समुद्र में तैरते जहाज देखकर हर किसी का मन करने लगता है कि हम भी गोता लगायें और मछलियों की तरह कहीं से कहीं जाकर धूम आयें, पर वह डूबने से बच पायेगा क्या?

यह प्रश्न अब उन लोगों की भी विपरीत दिशा में सोचने और परमात्मा-सत्ता के अस्तित्व में होने की बात मानने की विवश करते हैं जो कभी इस सिद्धान्त के समर्थक रहे हैं। राबर्ट ए मिल्लीकान का कथन है-विकासवाद के सिद्धान्त से पता चलता है कि जिस तरह प्रकृति अपने गुणों और नियमों के अनुसार पदार्थ पैदा करती है, उससे विपरीत परमात्मा में ही वह शक्ति है कि वह अपनी इच्छा से सृष्टि का निर्माण करता है। प्रकृति बीज से सजातीय पौधा पैदा करती है आम की बीज से इमली पैदा करने की शक्ति प्रकृति में नहीं है। इस तरह के बीच और ऊपर वर्णित विलक्षण रचनाएँ पैदा करने वाली सत्ता एकमात्र परमात्मा ही हो सकता है। वही अपने आप में एक परिपूर्ण सत्ता है और वही विभिन्न इच्छाओं, अनुभूतियों, गुण तथा धर्म वाली परिपूर्ण रचनाएँ सृजन करता है।

क्रमिक विकास को नहीं भारतीय दर्शन पूर्णता से पूर्णता की उत्पत्ति मानता है। श्रुति कहती है।

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

अर्थात्-पूर्ण परम ब्रह्म परमात्मा से पूर्ण जगत-पूर्ण मानव की उत्पत्ति हुई। पूर्ण से पूर्ण निकाल देने से पूर्ण ही शेष रहता है।

नदी का एक किनारा समुद्र से जुड़ा रहता है और दूसरा किनारा उससे दूर होता है। दूर होते हुए भी नदी समुद्र से अलग नहीं। नदी को जल समुद्र द्वारा प्राप्त होता है और पुनः समुद्र में मिल जाता है। जगत उस पूर्ण ब्रह्म से अलग नहीं। मनुष्य उसी पूर्ण ब्रह्म से उत्पन्न हुआ इस लिए अपने में स्वयं पूर्ण है यदि इस पूर्णता का भान नहीं होता, यदि मनुष्य कष्ट और दुखों से त्राण नहीं पाता, तो इसका एकमात्र कारण उसका अज्ञान और अहंकार में पड़े रहना ही हो सकता है। इतने पर भी पूर्णता हर मनुष्य की आन्तरिक अभिलाषा है और वह नैसर्गिक रूप से हर किसी में विद्यमान रहती है।

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