
जीवन का लक्ष्य स्वरूप और उद्देश्य
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
महामनीषी टॉलस्टाय जब जीवन के अन्तिम दिनों में साहित्य से विराग लेकर धार्मिकता की गोद में-ईश्वर चिन्तन में अपने को लीन कर देने के लिए लालायित हो रहे थे तब उनके अभिन्न मित्र तुर्गनेव ने एक पत्र लिखकर यह अनुरोध किया था कि ‘ओ’ सरस्वती साधक मेरी अन्तिम इच्छा यह है कि आप अपनी परिपक्व प्रतिभा के निर्णायक बरस धार्मिकता में बरबाद न करें, क्योंकि यह वर्तमान दुनिया के लिए निरर्थक एवं अनुपयोगी है। मेरी बार-बार प्रार्थना है कि आप पुनः साहित्य के क्षेत्र में लौट आयें। “टॉलस्टाय ने उनकी बिनती सुनी हो या न सुनी हो परन्तु इसका उत्तर देने से पहले ही तुर्गनेव इस संसार से कूच कर गये थे।
टॉलस्टाय ने इसका उत्तर देना भी उचित नहीं समझा क्योंकि किसी दम्भ या आवेश से प्रेरित होकर वह ईश्वर चिन्तन की और नहीं झुके थे। संसार के इन्द्रिय भोगों को जितना उसने भोगा शायद ही किसी दूसरे का वह सौभाग्य मिला हो। आत्म विश्वास और निश्चिन्तता का जीवन व्यतीत करने वाले उस लेखक को कौन सा ऐसा आघात लगा, जिसने उसकी जीवन दिशा को ईश्वर-चिन्तन की और मोड़ दिया। अब तक वह ‘जीवन’ का क्या उद्देश्य है?” इन प्रश्न को नहीं समझ सके थे।
शापेनहार, प्लेटो कान्ट और पास्कल के दार्शनिक सिद्धांत भी उनके इन प्रश्नों का उत्तर न दे सके कि “ मैं क्यों जी रहा हूँ?” “मुझे कैसे जीवित रहना चाहिए?” अन्त में महात्मा टॉलस्टाय ने भगवान से प्रार्थना की थी-हे ईश्वर! मुझे धर्म प्रदान करो और मुझे शक्ति दो ताकि मैं दूसरे लोगों को भी सुख-शान्तिमय जीवन व्यतीत करने में सहायता कर सकूँ?
क्या ईश्वरीय शक्ति के ग्रहण करने की क्षमता हमारे अन्दर है? यदि वह शक्ति हमारे अन्दर पहले ही विद्यमान है तो उसका स्वरूप क्या है? आदि प्रश्नों के उत्तर पाने की जिज्ञासा न केवल महात्मा टॉलस्टाय के अन्दर उत्पन्न हुई वरन् संसार के दूसरे विचारकों ने भी उसे अपनी अपनी तरह से सोचा परन्तु उस चिन्तन का व्यावहारिक उपयोग न होने के कारण वह युग धर्म न बन सका।
जीव के अन्दर ईश्वरीय अनुदान ग्रहण करने की क्षमता उसकी आत्मा में है। आत्मा इस शरीर रूपी रथ का रथी है जिस प्रकार रथ को चलाने के लिए अश्वों की आवश्यकता होती है उसी प्रकार हमारी पाँचों कर्मेन्द्रियाँ और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ कुल दस इस शरीर रूपी रथ के घोड़े है। विधा और कर्म ये दोनों इस रथ के पहिये है, क्योंकि संसार में आत्मा की जो कुछ गति हमें दिखाई देती है वह सब कर्म के द्वारा ही सम्भव है। जीना, मरना, सन्तान उत्पन्न करना, खाना-पीना आदि कर्म आत्मा के बहिरंग स्वरूप को व्यक्त करते हैं। सद्विचारों से आत्मा को बल प्राप्त होता है तथा कुविचारों एवं कुकर्मों से उसकी शक्ति का ह्रास होता है।
“आत्मा की ज्योति” के सम्बन्ध में योगिराज अरविन्द के निम्न विचार दृष्टव्य है।
“सतर्कता, जागरूकता और चैतन्यता आत्मा की त्रिकुटी ज्योति है जिसके प्रकाश में मानव जीवन का लक्ष्य दृष्टिगोचर होता है। आत्मा की त्रिमूर्तिमयी ज्योति को जागृत करने वाला अनायास ही परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है।”
इसके विपरीत संशय, अविश्वास और अन्ध विश्वास मानव मन की त्रिधा तमसा है जिसकी उपस्थिति में ठीक मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति भी पय-भ्रान्त होकर अपने लक्ष्य से दूर जा पड़ता है।
संसार के समस्त दुःखों की जड़ बन्धन है और यह बन्धन माया जन्य है। जिस प्रकार बँधा हुआ पानी दुर्गन्ध से युक्त होकर अपनी गतिशीलता खो बैठता है, उसी तरह संसार के प्रलोभनों में बँधा हुआ यह मनुष्य जड़ और शक्तिहीन हो जाता है। उसके लिए बाह्य बन्धन उतने घातक नहीं है जितने कि आन्तरिक बन्धन। व्यक्ति स्वयं अपने को न बाँधे तो किसी में भी इसे बाँध कर रख सकने की क्षमता नहीं है। क्योंकि जीवन चैतन्य स्वरूप है और उसके सारे बन्धन जड़ है। जड़ चैतन्य को बाँध ही कैसे सकता है? जब तक स्वयं अपने को न बँधाये।
मनुष्य स्वयं ही ममता, अज्ञान, अहंकार या भय वश अपने को बाँध लेता है। फलस्वरूप साँसारिक कष्टों से ऊबकर वह फिर मृत्यु की याचना करता हुआ देखा जाता है। जीवन का अर्थ या जीने की कला का सम्यक् ज्ञान न होने से ही उसे यह सब दुःखद अनुभव होने लगते हैं।
इस बन्धन से मुक्ति प्राप्त करना जब मनुष्य का लक्ष्य निर्धारित हो जाता है तब उसे सभी कुछ बेकार और निरर्थक लगने लगता है। झूठे ममत्व का मोह इस प्रकार विलुप्त होने लगता है, जिस प्रकार के सूर्य के निकलने पर अन्धकार। पूर्णता प्राप्त करने वाले साधक को सभी बन्धन तोड़ देने चाहिए। उसे ने किसी जाति का मोह, न परिवार का मोह, न किसी संघ या संस्था का मोह अपने मार्ग से विचलित कर सकता है। यदि वह किसी व्यक्ति विशेष के साथ अपना अविवेकपूर्ण लगाव अधिक रखता है, तो यह उसका हृदय- दौर्बल्य ही कहा जायेगा। उसके लिए तो प्राणी मात्र समान है। सभी के अन्दर एक ही ब्रह्म शक्ति का वास होने के कारण न कोई उसके लिए छोटा है और न बड़ा।” “आत्मवतृ सर्वभूते षुयः पश्यति सः पश्यति।” के आधार पर तो वह जीवन विश्व मानव की एक इकाई बनकर रह जाता है। ऐसा व्यक्ति समस्त विश्व के कल्याण के लिए अपने को बलिदान करके ही चैन की साँस लेता है। यदि उसकी यह कामना इस जीवन में पूरी न हुई, तो चाहे इसके लिए अनेक जन्म धारण करना पड़े, उसकी लगन और कार्य-निष्ठ में कोई कमी नहीं आ सकती है। इस प्रकार की तपस्या का नाम ही ‘अध्यात्म ‘ है। जो किसी के साथ छल नहीं करता, प्राणिमात्र के साथ समान व्यवहार करता है वही वास्तव में आत्मा के सच्चे स्वरूप को पहचान लेता है और मैं क्यों जीवित हूँ? इस प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त कर लेता है।
उपर्युक्त भावना को बदलती बनाने के लिए उसके पास दृढ़ संकल्प शक्ति का होना अनिवार्य है। संकल्प शक्ति में समाहित बल का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। संकल्प के बल पर ही भगवान ने इस सृष्टि की रचना की है, ऐसा हमारे आर्ष ग्रन्थों में उल्लेख है।
तृष्णा, वासना की और निशि दिन दौड़ लगाने वाले मन पर विवेक बुद्धि से अनुशासन बनाये रखने से ही जीवन की अधिकांश समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। अपने ऊपर स्वयं का जितना कठोर अनुशासन होगा उतना ही श्रेष्ठ और विकसित जीवन बना रहेगा।
मानसिक नियमन के उच्च सन्तुलन के द्वारा मनुष्य की शक्तियाँ संगठित हो जाती है। एकाग्रता अथवा ‘तन्मयता’ से उत्पन्न होने वाली शक्ति का अन्दाज नहीं लगाया जा सकता है। एकाग्रता का बल, संयम, इन्द्रिय निग्रह और अपने ऊपर कठोर अनुशासन रखने से ही प्राप्त होता है।
मानसिक दुर्बलता, आन्तरिक अस्त-व्यस्तता के कारण ही मन सदैव इधर-उधर दौड़ता रहता है यदि हमारी इच्छाएँ, वासनाएँ विवेक बुद्धि के कठोर नियन्त्रण में बनी रहें तो निश्चय ही हमारी उन्नति होगी अन्यथा शक्तियों के ह्रास होने पर ‘जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
जीने की कला सीखने के पहले हमें सद्गुण चिन्तन कारी एवं स्वाध्यायी बनना चाहिए। हमें अपने विचार दृढ़ बनाना चाहिए, “मैं मन, वचन तथा कर्म से पवित्र हूँ। दूसरों के सुख-दुःख मेरे ही सुख दुःख है, संसार की सभी दिशाओं से मुझे प्यार ही मिल रहा है।” ऐसे विचार जब मन में दृढ़ होंगे तब हमें संसार में कोई दूसरा दिखाई ही नहीं पड़ेगा और “आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की भावना ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की और ले जाने में समर्थ होगी। यही है ‘जीवन का अर्थ’ जिसके लिए महात्मा टॉलस्टाय का हृदय विक्षुब्ध हुआ था और उन्होंने साहित्य से विरत होकर ईश्वर’-चिन्तन में ही आत्म-कल्याण करने की प्रेरणा प्राप्त की थी।