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Magazine - Year 1978 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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कुछ है, जो इन्द्रिय चेतना से परे है।

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शरीर और मस्तिष्क की शक्तियाँ प्रत्यक्ष और सर्वविदित हैं। शरीर में श्रम और मस्तिष्क में सोचने समझने की, विचार करने की शक्तियों को भी सभी कोई जानते, मानते और विश्वास करते हैं। विज्ञान ने इन शक्तियों को अपनी भाषा में अद्भुत और विलक्षण कहा है तथा इन प्रत्यक्ष शक्तियों को ही देखकर प्रकृति के कौशल को अद्वितीय बताया है। भौतिक विज्ञान इतना ही जानता है, परन्तु वह इस बात को नहीं जान पाया है कि मनुष्य और अन्य प्राणियों में अतीन्द्रिय चेतना भी विद्यमान है। भौतिक शक्तियाँ तो स्थूल नियमों से परिचालित होती हैं। विज्ञान उन नियमों की परिभाषा करने में भी सफल हुआ है, पर अतीन्द्रिय शक्तियाँ जिन सूक्ष्म नियमों के अनुसार काम करती हैं, उनकी व्याख्या कर पाना अभी सम्भव नहीं हो सका है।

हाड़-मांस की बनी काया उन्हीं नियमों का पालन करेगी जो उसके लिए निर्धारित है। इसी प्रकार मस्तिष्क भी उतना ही सोचेगा जो उसने सीखा है। परन्तु सामान्य लौकिक ज्ञान की सीमा से परे कई बार ऐसा कुछ भी देखने को मिलता है, जिससे विदित होता है कि स्थूल शरीर और ज्ञात मस्तिष्क से अलग भी शरीर के भीतर अन्तरंग चेतना में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जो शारीरिक मर्यादाओं से प्राप्त न हो सकने वाली जानकारी प्राप्त कर लेती हैं। इस जानकारी का आधार मनुष्य और जीवधारियों में विद्यमान उस चेतना को बताया जाता है, जिसे अतीन्द्रिय कहते हैं। उसे झुठलाया नहीं जा सकता।

यदि भौतिक विज्ञान के अनुसार जीवधारी को जड़ प्रकृति का ही एक स्थूल उत्पादन कहा जाय तो अतीन्द्रिय चेतना का कोई आधार नहीं मिल सकेगा। क्योंकि तब तो प्राणी एक ‘चलता -फिरता वृक्ष’ ही ठहरा और उसकी शारीरिक मानसिक हलचलें शरीर के नियमों से बाहर कैसे जा सकती हैं। लेकिन विज्ञान की यह मान्यता भी ध्वस्त होने लगी है। जार्जिया विज्ञान एकेडमी के शरीर शास्त्री डॉ॰ आई॰ एस॰ बेकेताश्विली ने एक काकेशिया-यीकुत्ते ‘त्स्वाला’ की गतिविधियों और क्रियाकलापों का अध्ययन करने के बाद कहा कि प्राणधारियों में एक ऐसी चेतन सत्ता भी है जो शरीर के नियमों से बँधी हुई नहीं है और वह इन्द्रियों का प्रत्यक्ष सहारा लिए बिना भी काम कर सकती है। ऐसे काम, जो आँख-कान के बिना सम्भव नहीं होते, वे भी उस चेतन सत्ता के द्वारा सम्पन्न हो जाते हैं।

‘त्स्वाला’ की कथा जार्जिया (रूस) निवासियों के घर-घर में प्रचलित है। वह इतना स्वामिभक्त और कर्त्तव्यपरायण था कि लोग उसकी तुलना वफादार घरेलू नौकरों से किया करते थे। त्स्वाला कुत्ता अपने मालिक के जानवरों को चराने प्रायः जंगल में अकेला ही जाया करता था। जानवरों को कहाँ चरना है, कहाँ बैठना है, कहाँ पानी पीना है, कोई जानवर झुण्ड से बाहर निकल कर इधर-उधर बिछुड़ न जाय इस बात का पूरा ध्यान रखता। जिस क्षेत्र में वह अपने मालिक के साथ रहता था उसमें भेड़िये और तेंदुए भेड़-बकरियों की घात लगाये रहते थे। त्स्वाला उनसे जूझने के लिए सदैव मुस्तैद रहता था और जब भी ऐसा अवसर आता था तो वह आक्रमणकारी हिंस्र पशु का डटकर मुकाबला करके या तो उसे भगा देता अथवा मार गिराता।

एक बार किसी दूर के पशु फार्म पर ‘त्स्वाला’ की जरूरत पड़ी। मालिक ने उसे वहाँ भेज दिया। त्स्वाला वहाँ जाने में अड़ियलपने से काम ले रहा था इसलिए उसे एक ट्रक में बन्द कर सैकड़ों मील दूर स्थित उस नये फार्म में ले जाया गया। वहाँ उसे बाँधकर रखा गया लेकिन त्स्वाला का बुरा हाल था। न उसने खाना खाया, न कुछ पिया, केवल रोता रहा और एक दिन मौका देखकर रस्सी तुड़ाकर भाग निकला। यद्यपि उसे आँखें बाँधकर एक ट्रक में डालकर लाया गया था फिर भी उसने अन्तःप्रेरणा के आधार पर दौड़ लगायी और सैकड़ों मील दूर अपने मालिक के पास तिब्लिसी क्षेत्र में आ गया।

कुत्ते ने न रास्ता देखा था न वह मार्ग के चिह्नों को ही पहचानता था फिर किस प्रकार वह इतनी दूर आ गया। डॉ॰ बेकेताश्विली को किसी प्रकार इस घटना का पता चला तो उन्हें लगा कि प्राणधारियों में कोई ऐसी अतीन्द्रिय चेतना भी होती है जिसके सहारे वे प्रधान ज्ञानेन्द्रिय आँख का काम बिना आँख के भी कर लेते हैं। इस घटना से तो स्पष्ट ही यह निष्कर्ष निकलता है। फिर भी इसकी पुष्टि के लिए डॉ॰ बेकेताश्विली ने एक बिल्ली पाली और उसका नाम रखा ‘ल्योबा’।

ल्योबा को नियत समय पर खाना दिया जाता। उसके खाने की तश्तरी कमरे के एक कोने पर दूर रख दी जाती। आँख बाँधकर ल्योबा उस कमरे में छोड़ दी जाती। शुरू में तो उसे गन्ध के आधार पर भोजन तक पहुँचने में कुछ कठिनाई होती। पीछे वह बिना किसी कठिनाई के अपने भोजन तक पहुँच जाती थी।

गन्ध के आधार पर ही वह ऐसा कर रही है। यह बात वैज्ञानिक जानते थे। अतः उन्होंने ल्योबा के अतीन्द्रिय ज्ञान की परीक्षा के लिए तश्तरी में कुछ पत्थर के टुकड़े भी रखे। आँखें बाँध दी गयी थीं और सोचा यह गया था कि गन्ध तो सारे प्लेट में से उठती थी, इसलिए बिल्ली उसमें रखी हुई किसी भी चीज को मुँह मार सकती है। लेकिन देखा गया कि ल्योबा ने बहुत ही सम्हलकर अपना खाना खाया और पत्थर के टुकड़ों को चाटा तक नहीं। इसी प्रकार कुछ दिन में ही वह रास्ते में रखी हुई कुर्सी, सन्दूक आदि को बचाकर इस तरह अपना रास्ता निकालने लगी कि उसमें से किसी के गिरकर टूटने या चोट पहुँचने का डर न रहे। स्मरण रहे इन प्रयोगों में भोजन की तश्तरी अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग कमरों में रखी गयी। बिल्ली सभी स्थानों पर पहुँच जाती।

बेकेताश्विली ने यही प्रयोग ‘जिल्डा’ नामक एक कुत्ते पर और किया। जिल्डा की आँखों पर भी पट्टी बाँध दी जाती और उसे प्रयोगशाला में छोड़ दिया जाता। जिल्डा कुछ ही दिनों में सारी बातें ताड़ गया और बिना किसी वस्तु से टकराये बुलाई गयी, आवाज पर पहुँचने लगा।

इन सब प्रयोगों से एक ही निष्कर्ष प्रतिपादित किया जा सकता है कि प्राणधारियों में विद्यमान चेतन सत्ता इन्द्रियों की दास नहीं है। इन्द्रियाँ तो उसके लिए उपकरण मात्र का काम करती हैं, वह उन पर निर्भर नहीं हैं। सामान्य जीवन में भी देखा जा सकता है कि अन्धे व्यक्ति छड़ी के सहारे नेत्रवालों की ही तरह चलने लगते हैं, लंगड़े या अपंग व्यक्तियों की भुजाएँ और लोगों की अपेक्षा बलिष्ठ होती हैं और वे उनके द्वारा लाठी या बैसाखियों का सहारा बड़ी आसानी से लेकर चल लेते हैं। जन्मजात गूँगे, बहरे व्यक्ति किसी के चेहरे और हाव-भाव को देखकर ही उसके मन्तव्य को समझने लगते हैं। यह सब इस बात का प्रतीक है कि चेतना इन्द्रियों की दास या उन पर आश्रित नहीं है। बल्कि इन्द्रियाँ उसके उपकरण हैं, जिनका अभाव होने पर चेतना ज्ञान के लिए दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था भी कर लेती है। अतीन्द्रिय ज्ञान का यही आधार भूत सिद्धान्त है। डॉ॰ बेकेताश्विली ने लिखा है कि - ‘यह क्षमता हर प्राणी में विद्यमान रहती है। किसी में कुछ कम तो किसी में कुछ अधिक। कुछ लोग इस तरह की क्षमताएँ जन्म-जात लेकर आते हैं और कुछ प्रयत्न करके उन्हें जगा या बढ़ा लेते हैं।

अमेरिका के विख्यात मौसम विशेषज्ञ डॉ॰ लागन इस दिशा में वर्षों से परिश्रम कर रहे हैं। उनका कहना है कि भूकम्प से पहले पशु-पक्षियों के व्यवहार में आये परिवर्तनों को सही ढंग से पहचान लिया जाय तो घण्टों नहीं दिनों पहले उससे होने वाले नुकसान से बचाव के प्रयास किये जा सकते हैं।

चीन में भी इस विषय में काफी शोधकार्य हुआ है, क्योंकि वहाँ के कई क्षेत्रों में एक वर्ष में पाँच-पाँच, छः-छः बार भूकम्प आते हैं। इन मौसम विशेषज्ञों ने विधिवत् एक चार्ट तैयार किया है जिसमें यह बताया गया है कि कौन-कौन से पशु पक्षी भूकम्प के समय अपना व्यवहार बदल लेते हैं और उनके व्यवहार में किस प्रकार का परिवर्तन होता है। चार्ट में कहा गया है कि- ‘जब भूकम्प आने की सम्भावना होती है तब गाय, भैंस, घोड़े, भेड़, गधे आदि चौपाये बाड़े में नहीं जाते। बाड़े में जाने के स्थान पर वे उल्टे भागने लगते हैं। एकाध तरह का चौपाया तो कभी भी ऐसा कर सकता है, परन्तु जब अधिकांश या सभी चौपाये बाहर भागने लगे तो भूकम्प की सम्भावना रहती है। उस समय चूहे और साँप भी अपना बिल छोड़कर भागने लगते हैं, सहमे हुए कबूतर निरन्तर आकाश में उड़ाने भरने लगते हैं और वापिस अपने घोंसलों में नहीं जाते। मछलियाँ भयभीत हो जाती हैं तथा पानी की ऊपरी सतह पर तैरने लगती हैं। खरगोश अपने कान खड़े कर लेते हैं और अकारण उछलने कूदने लगते हैं।

जापान भी भूकम्पों का देश है और वहाँ किये गये परीक्षणों तथा अध्ययन में भी पशु-पक्षियों के व्यवहार में इसी प्रकार के परिवर्तन नोट किये गये। अमेरिका, इटली तथा ग्वाटेमाला के वैज्ञानिक भी इन परिवर्तनों की पुष्टि करते हैं। उनका कहना है कि भूकम्प आने के पहले पृथ्वी का चुम्बकीय आकर्षण वायु-मण्डल को प्रभावित करने लगता है। हवाओं की गति और तापमान में अन्तर आ जाता है। धरती और आकाश के बीच का दबाव बढ़ जाता है। ये परिवर्तन बहुत सूक्ष्म होते हैं जिन्हें पशु-पक्षी ही पहचान पाते हैं तथा वे अपनी सुरक्षा की व्यवस्था करने लगते हैं।

यह तो सच है कि बहुत सूक्ष्म परिवर्तन स्थूल परिवर्तनों का बोध इन्द्रियों के माध्यम से नहीं होता या सूक्ष्म तरंगें इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आतीं उन्हें इन्द्रियाँ पहचानने में असमर्थ होती हैं। इसीलिए जिन व्यक्तियों को इनका आभास होता है वे अतीन्द्रिय सामर्थ्य से सम्पन्न कहे जाते हैं। पशु-पक्षियों में यह सामर्थ्य मनुष्यों की तुलना में अधिक बढ़ी-चढ़ी रहती हैं, क्योंकि वे प्रकृति के समीप रहते हैं, प्राकृतिक जीवन जीते हैं और मनुष्यों की तुलना में कम बुद्धिमान हैं। सम्भवतः इसी कारण प्रकृति ने अपने इन नन्हे लाडलों को यह विशेष सामर्थ्य दी है, जो भी हो, यह तो मानना ही पड़ेगा कि कुछ है जो इन्द्रिय चेतना से परे, अतीन्द्रिय सामर्थ्य से सम्पन्न है।

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