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Magazine - Year 1978 - Version 2

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युग-क्रान्ति में गायत्री यज्ञों की भूमिका

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किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भले ही व्यक्तिगत हो, अथवा सामूहिक, केवल चिन्तन भी एकांगी है और केवल कर्म भी अपूर्ण। उसके लिए चिन्तन और कर्म दोनों का ही समन्वित स्वरूप सम्पूर्ण होता है। बिजली के दोनों तार अलग-अलग हों तो विद्युत धारा का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता है। दोनों तारों के जुड़ने पर ही विद्युत धारा प्रवाहित होना सम्भव है।

इसके साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि संसार में जब भी कोई बड़े परिवर्तन होना अभीष्ट होते हैं तो उसमें ईश्वरीय शक्तियाँ मानवी चेतना के रूप में ही सक्रिय भाग लेती हैं। अकेले राम ने लंका विजय, आसुरी आतंक की समाप्ति और दिव्य सत्प्रवृत्तियों की स्थापना नहीं की थी, उसके साथ रीछ-बानरों का सहयोग संगठित किया था। कंस के संहार, कौरव-अनीति के उन्मूलन में भी अकेले कृष्ण ने ही भाग नहीं लिया था बल्कि उसके लिए ग्वाल-बालों को संगठित किया था। वर्तमान परिस्थितियों में परिवर्तन अभीष्ट है- यह स्पष्ट है। उसकी दिव्य चेतना युगशक्ति के रूप में अवतरित हुई है- यह भी अनुभव किया जा सकता है। उसके लिए रीछ बानरों की तरह ग्वाल-बालों की तरह सामान्य व्यक्ति किस प्रकार सहयोग कर सकते हैं यह समझना और समझाया जाना चाहिए।

युग-परिवर्तन का प्रयोजन सामूहिक सहयोग से ही पूरा किया जाना चाहिए। इसके लिए गायत्री साधना के द्वारा चिन्तन परिष्कार और यज्ञ अभियान के द्वारा कर्म शोधन की प्रक्रिया को जन-जन तक पहुँचाना चाहिए। युग शक्ति के रूप में जिस गायत्री चेतना के अवतरण की बात कही जाती रही है उसके दो रूप हैं। पहला है परोक्ष, जिसे चिंतन परक कहा जा सकता है। तथा दूसरा है प्रत्यक्ष, जिसे कर्म परक कहा जाना चाहिए। परोक्ष स्वरूप में जप, ध्यान धारणा, लय तथा तत्वज्ञान, योगाभ्यास का समावेश किया गया है तथा कर्म परक-प्रत्यक्ष अभियान में यज्ञ आन्दोलन का।

इस तरह के प्रयास व्यक्तिगत रूप से तो लम्बे समय से किये जाते रहे हैं-परन्तु अब इनमें सामूहिकता का समावेश किया गया है, जिसे अपने युग की नवीनता और विशेषता कहा जा सकता है। गायत्री और यज्ञ का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। दोनों एक दूसरे के पूरक है। बिजली के दोनों तारों की तरह दोनों का सम्मिलित समन्वित स्वरूप ही अभीष्ट युग चेतना उत्पन्न करने में समर्थ हो सकेगा। गायत्री और यज्ञ को भारतीय संस्कृति का माता-पिता कहा गया है इसका भी यही अर्थ है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

अभी से नहीं अनादिकाल से ही यह सम्बन्ध चला आ रहा है। शास्त्रों में द्विजों के लिए संध्यावंदन के साथ नित्य यज्ञ का भी निर्देश दिया गया है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए वह सम्भव नहीं रहा तो बलि वैश्वदेव का विधान किया गया। बलिवैश्वदेव अर्थात् भोजन से पहले पाँच ग्रासों की अग्नि में आहुति।

नित्य कर्मों में गायत्री और यज्ञ को रूप में सम्मिलित करने के अतिरिक्त शक्ति अर्जन के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों की पूर्णाहुति में यज्ञ अनिवार्य है। भारतीय धर्मानुयायी के जीवन की कोई भी महत्वपूर्ण घटना गायत्री और यज्ञ के बिना आयोजित नहीं की जाती। बालक का विद्यारम्भ संस्कार कराते समय उसे यज्ञ भगवान की साक्षी में गुरुमन्त्र के रूप में गायत्री मन्त्र दिया जाता है, सिर पर शिखा स्थापन के समय ऋतम्भरा प्रज्ञा की ही प्रतिष्ठापना की जाती है और सत्कर्मों की प्रतिमा धारण करने के रूप में यज्ञोपवीत संस्कार कराया जाता है। इन संस्कारों में भी गायत्री यज्ञ किये जाते हैं तथा गायत्री और यज्ञ को प्रतीक रूप में अपने शरीर पर धारण किया जाता है, उन्हें जीवन क्रम में सम्मिलित करने का संकल्प लिया जाता है।

षोडश संस्कारों में कोई भी संस्कार सम्पन्न किया जाता है तो उसमें यज्ञ अनिवार्य रूप से आयोजित किया जाता है। गर्भाधान पुंसवन सीमांतोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन चूड़ाकर्म, कर्णवेध, उपनयन, वेदारम्भ, विवाह, समावर्तन, वानप्रस्थ, संन्यास और अन्त्येष्टि में से एक भी संस्कार यज्ञ के बिना पूरा नहीं किया जाता।

यही नहीं सार्वजनिक पर्व-आयोजनों में भी यज्ञ की प्रधानता रहती है। होली तो सामूहिक रूप से किया जाने वाला यज्ञ ही है। आज उसका चाहे जो स्वरूप बन गया है पर नवधान्न सस्योष्टि के रूप में नयी फसल आने पर उसका उपयोग आरम्भ करने से पूर्व उसे यज्ञ संस्कारित करने की ही परम्परा विशुद्ध रूप में बनी और चली है। युगान्तरीय चेतना के व्यापक विस्तार में गायत्री उपासना की तरह यज्ञ आयोजनों का भी व्यापक प्रचलन किया जाना चाहिए। गायत्री साधना में जिस प्रकार सामूहिक जप का अभिनव प्रयोग है उसी प्रकार यज्ञ आयोजनों में भी सामूहिक सहयोग की, सामूहिकता की नीति अपनायी जानी चाहिए।

पहले कोई एक व्यक्ति अपने स्वयं के व्यय और प्रयासों से छोटे बड़े यज्ञ कराते रहे हैं। पर युग शक्ति के विस्तार में सामूहिक यज्ञों की पद्धति ही अपनायी जानी चाहिए। इससे जन साधारण में भी आयोजन के प्रति अपनेपन का भाव रहेगा, क्योंकि उनमें उसका भी सहयोग रहता है। सामूहिक जप से, जैसे वातावरण की आवश्यकता पूरी होती है वैसे ही सामूहिक यज्ञों से जनमानस के परिष्कार की। अपने यज्ञों के साथ जुड़े हुए लोक शिक्षण के कार्यक्रम-जिन्हें युग निर्माण सम्मेलन भी कहा जाता है इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं और इससे सामूहिक सहयोग जुटाया ही जाना चाहिए। सामूहिकता का यह समावेश भी अपने आप में लोकशिक्षण का एक प्रभावशाली कार्यक्रम बन जाता है।

सामूहिक श्रमदान से यज्ञशाला का निर्माण, प्रचार व्यवस्था आदि कार्य किये जाते हैं। इनसे उत्पन्न हुई समस्वरता, अनुशासन की भावना नवयुग में भौतिक प्रगति के मूलभूत आधार हैं। युग शक्ति के अवतरण में सृजन सेनानियों को अपनी भूमिका सामूहिक जप में भाग लेकर उसकी अंश आहुति के लिए सामूहिक यज्ञों में करनी चाहिए तथा इसके लिए कुण्ड निर्माण से लेकर व्यवस्था, आयोजन, कार्यक्रम सबमें सामूहिकता, समस्वरता, अनुशासन का परिचय देना चाहिए।

वैसे भी महायज्ञ जैसे बड़े कार्यक्रम एकाकी प्रयासों से असम्भव हैं, उसका व्यय भार भले ही कोई एक व्यक्ति ग्रहण कर ले पर यज्ञशाला, कुण्ड निर्माण, समिधा चयन के लिए तो दूसरों का सहयोग प्राप्त करना ही होगा। माना कि यह कार्य भी स्वयं सम्पन्न कर लिए गये पर यजमान, यजमान पत्नी, अध्वर्यु, उद्गाता, ब्रह्मा, आचार्य आदि की नियुक्ति के लिए तो दूसरों का सहयोग प्राप्त करना ही पड़ेगा। इसके बिना काम चलाना तो किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है।

महायज्ञों में समस्वरता और एकरूपता बनाये रखने के लिए ब्रह्मा, आचार्य की नियुक्ति की जाती है। अस्तव्यस्तता को निरस्त करने वाले सतर्कता अधिकारी के रूप में ब्रह्मा आचार्य अपना दायित्व निवाहते हैं। सब लोग समवेत स्वरों में मन्त्र पाठ करें, एक साथ आहुतियाँ डालें, एक समान वेश हो, किसी के पास कोई सामग्री कम तो नहीं पड़ रही है आदि बातों की देख−रेख के लिए इस प्रकार के कार्यकर्ता नियुक्त करने चाहिए। यह सारी व्यवस्थाएं यज्ञ करने वालों को और प्रदक्षिणा करने वालों को अनुशासन की शिक्षा देती हैं। कर्मकाण्डों की एकरूपता रखने की एक ही प्रेरणा है-अनुशासन।

यज्ञ शब्द के तीन अर्थ हैं (1) दान, उदारता (2) संगतिकरण-संगठन (3) देवपूजन-उत्कृष्टता का वरण समर्थन, दान उदारता को दूसरे शब्दों में त्याग बलिदान भी कहा जा सकता है। प्रकृति का स्वभाव यज्ञ परम्परा के अनुरूप है। समुद्र बादलों को उदारता पूर्वक जल देता है, बादल उसे एक स्थान से ढोकर दूसरे स्थान तक ले जाते हैं और बरसाते हैं। नदी नाले वह कर भूमि को सींचते तथा प्राणियों की प्यास बुझाते हैं। वृक्ष वनस्पतियाँ अपने अस्तित्व का लाभ पुष्प, फल के रूप में दूसरों को ही देते है। पशुओं का दूध, चर्म बाल एवं सन्तान का लाभ मनुष्यों को ही मिलता है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि की गतिशीलता उनके अपने लाभ के लिए वरन् दूसरों के लिए है। शरीर का प्रत्येक अंग अपने निज के लिए नहीं समाज शरीर के लाभ के लिए ही अनवरत गति से कार्य करता है। जिधर भी देखिये दान, उदारता, त्याग, बलिदान की यज्ञ परम्परा ही विद्यमान है।

यज्ञीय कर्मकाण्डों में भी इसी की प्रेरणा छिपी पड़ी है। अपने प्रिय खाद्य पदार्थों तथा पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि एवं वायु के माध्यम से समाज, संसार के लिए वितरित किया जाता है। उसमें जड़ी बूटियों से बनी हवन सामग्री की आहुति वायुभूत होकर वायुशोधन द्वारा सबको आरोग्यवर्धक श्वांस लेने का अवसर देती हैं। कर्मकाण्डों में प्रयुक्त किये जाने वाले वेद मन्त्र अपनी पुनीत शब्द-ध्वनि से आकाश में व्यापक हो जनमानस को शुद्ध सात्विक बनाते हैं।

यज्ञ का दूसरा अर्थ है संगतिकरण। संगतिकरण अर्थात् संगठन। यज्ञ का एक प्रमुख उद्देश्य धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को संगठित कर उन्हें सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करना भी है। इस युग में संघ शक्ति ही प्रमुख है। कहा भी गया है। संघे शक्ति कलियुगौ। परास्त देवताओं को पुनः विजयी बनाने के लिए ब्रह्मा ने उनकी शक्तियों को संगठित कर दुर्गा का प्रादुर्भाव किया था जिसके बल पर देव शक्तियाँ पुनः विजयी हो सकीं तथा उनके संकट दूर हुए। मानव जाति की हर समस्या का हल सामूहिकता में है। और यज्ञ अपने माध्यम से उसी तथ्य की प्रेरणा देता है, फिर अपने यज्ञों में तो सामूहिकता का समावेश करने के लिए विशेष प्रयास किये जाते हैं।

कर्मकाण्डों और अतिरिक्त कार्यक्रमों के माध्यम से दिये जाने वाले शिक्षण का बारीकी से अध्ययन किया जाय, उनका विश्लेषण किया जाय तो यज्ञ से बढ़कर लोक शिक्षण का दूसरा कोई माध्यम नहीं जिसके बल पर देव वृत्तियों को प्रोत्साहन दिया जा सके। अग्निहोत्र के एक-एक कर्मकाण्ड में अमूल्य शिक्षायें भरी पड़ी हैं। इसीलिए ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र में अग्नि को पुरोहित कहा गया है।

यह तो हुआ यज्ञ का शिक्षण -पक्ष, ज्ञान-पक्ष जिसके लाभ त्रिवेणी संगम में स्नान के वर्णित लाभों से जरा भी कम नहीं है। कहा गया है- मज्जन फल देखिय तत्काला। काक होहिं पिक बकउ मराला। अर्थात् उसमें स्नान का फल तत्काल देखा जा सकता है कि कौआ कोयल और बगुला हंस बन जाता है। यज्ञ दर्शन को भली भाँति समझने से वृत्तियों का तुरन्त रूपान्तरण एकदम सहज सम्भव है। उपरोक्त तीनों अर्थों में व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण, बौद्धिक-क्रान्ति, नैतिक क्रांति, सामाजिक-क्रान्ति, भाव-ज्ञान-कर्म का प्रगतिशील लोक शिक्षण किया जा सकता है।

यज्ञ के ज्ञान पक्ष की तरह उसका विज्ञान पक्ष और भी अधिक सामर्थ्यवान है। एक तरह से यह पक्ष विलुप्त ही हो गया है। जिसकी शोध की जाती है, पर प्रत्यक्ष रूप से मन्त्र शक्ति के प्रभाव, विशिष्ट शाकल्यों से आहुति और रहस्यमय विधि-विधान की प्रतिक्रिया सत्प्रयत्नों की परिणति के रूप में देखी जा सकती है। गीता में इस विज्ञान पक्ष का एक संकेत इस प्रकार किया गया है।

सह यज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्यमेव वोऽस्तिष्ट कामधुक्॥ अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्न संम्भव। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्ववः॥

अर्थात्- ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुम लोगों की इच्छित कामनाओं को देने वाला हो।

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है तथा वह यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।

यज्ञ के ज्ञान और विज्ञान पक्ष के अपने लाभ हैं। यह अवश्य अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि सूक्ष्म जिनकी विस्तार से चर्चा करने का समय यहाँ नहीं है। जगत के परिशोधन में यज्ञों का असाधारण महत्व है और युगशक्ति के अवतरण में, उसके विस्तार में यज्ञ के ज्ञान तथा विज्ञान पक्ष का उपयोग अनिवार्य रूप से किया जाना चाहिए।

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