
जीवन का अन्त या नये जीवन की तैयारी
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एक दृष्टि से देखा जाये तो मृत्यु जीवन का अन्त है और जन्म जीवन का आरम्भ । दूसरी दृष्टि के विचार करने पर यही बात उलट जाती है और मृत्यु नये जीवन की तैयारी है तथा जन्म मृत्यु की ओर बढ़ ने लगता है, जीवन के जो गिने चुने क्षण या वर्ष प्राणी को मिलते है, वे एक-एक कर चुकने लगते है तथा मृत्यु के साथ ह नये जन्म की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। मनुष्य नया जीवन ग्रहण करने की तैयारी करने लगते है।
जन्म और मृत्यु वस्तुतः जीवन के दो पड़ाव है। उन्हें दो छोर कहना भी गलत होगा क्योंकि एक छोर से आरंभ कर दूसरे छोर पर अन्त हो जाता है। लेकिन जन्म और मृत्यु के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है। जन्म लेने के बाद मनुष्य या प्राणी को निश्चित रुप से मरना पड़ता है। मरने के बाद पुनः जन्म होता है अथवा नहीं इस संबंध में मतभेद है। विभिन्न धर्मों की अलग अलग मान्यताएँ है पर जो तथ्य और प्रमाण मिलते है उससे पुनर्जन्म के सिद्धान्त की पुष्टि होती है।
सन 1929 की घटना है। दिल्ली में जन्मी तीन वर्षीया लड़की जिसका नाम शाँतिदेवी था, जैसे ही बोलने लगी वैसे ही अपने घर वालों से कहने लगी कि वह पिछले जन्म में मथुरा रहती थी, उसके पति का नाम केदारनाथ है आदि आदि। आरम्भ में इस बात पर घर वालों ने विशेष ध्यान नहीं दिया पर जैसे-जैसे लड़की बड़ी होने लगी वह इसी बात को कई बार दुहराती और अपने घर तथा घरवालों के बारे में बताती। नौ साल की होते होते वह अपने माता-पिता से जिद करने लगी कि उसे मथुरा ले जाया जाय ताकि वह अपने घरवालों से मिल सकें।
बहुत जिद करने पर शाँति के माता-पिता ने उसके बताये पते पर केदारनाथ जी को लिखा और आग्रह किया कि वे किसी दिन दिल्ली आये। एक दिन केदारनाथजी बिना कोई पूर्व सूचना दिये दिल्ली पहुँच गये। नौ वर्ष की लड़की उन्हें देखते ही पहचान गई और अपनी माँ को कासीफल का साग, आलु बड़े तथा पराठे बनाने के लिए कहा। यह केदारनाथ जी का प्रिय भोजन था। चौबैज ने शाँतिदेवी से कई ऐसे प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर उनकी पत्नी जिवित होने पर ही दे सकती थी। शाँतिदेवी ने उन सभी प्रश्नों के ठीक ठीक उत्तर दिये। भोजन परोसते समय शाँतिदेवी ने अपने पूर्वजन्म के पति को उलाहना भी दिया कि तुमने तो वायदा किया था कि मेरे मरने के बाद दूसरा विवाह नहीं करोगे फिर क्यों विवाह कर लिया।
शाँतिदेवी के पुनर्जन्म का यह समाचार जब अखबारों में प्रकाशित हुआ तो इसे लेकर कई प्रतिक्रियाएँ हुई कईयों ने इसे पुनर्जन्म की घटना भी बताया और अनेकों ने मात्र स्तर कहा। वास्तविकता को परखने के लिए दिल्ली के तीन प्रतिष्ठित व्यक्ति जिनमें एक गाँधीजी के निकटतम मित्र पत्रकार, एक प्रसिद्ध वकील और एक बड़े व्यापारी थे शाँति को साथ लेकर मथुरा गये। वहाँ पहुँच कर उन्होंने स्टेशन पर ही शाँति को तरह-तरह से भुलावे दिये लेकिन शाँतिदेवी ने तमाम भुलावों में न आकर अपने श्वसुर, पुत्र, जेठ और घर के अन्य सदस्यों को पहचान लिया तथा यह प्रमाणित कर दिया कि पिछले जन्म में वह इस घर की कुल वधू थी। अमेरिका के डा. र्स्वावेन्सन जो पुनर्जन्म के मामलों का अध्ययन और शोध कर रहे थे, उन्होंने भी सन् 1951 में इस मामले की दुबारा जाँच की और तथ्यों को सही बताया।
सन् 1951 में सहारनपुर में भी ऐसी ही एक घटना घटी। इस घटना का विवरण धर्मयुग और नवनीत के भूतपूर्व संपादक श्री सत्यकाम विद्यालंकार ने नवनीत में प्रकाशित किया था श्रीमती वंदना का परिवार सहानपुर के सम्पन्न और प्रतिष्ठित परिवारों में से एक था। एक दिन उन्हें डाक से चिट्ठी मिली कि दो साल की एक लड़की बार बार आपके परिवार से संबंधित होने की बात कहती है। उसके माता पिता संकोच वश कुछ कहना नहीं चाहते लेकिन मुझे विश्वास है कि यह पुर्नजन्म का मामला है। पत्र में उस परिवार से सर्म्पक करने पर निवेदन भी किया गया था। पहले तो श्रीमती वंदना ने इसे फ्राड समझा और पत्र पर कोइ्र ध्यान नहीं दिया। एक बार जब वे हारनपर के ही एक महिलाश्रम को कार्यक्रम में सम्मिलित होने जा रही तो बालिका उनके पास आई, साथ में उसकी माँ थी। उस बालिका ने वंदनाजी की ओर इशारा कर कहा यह रही मेरी भाभी और यह गुड्डी है। श्रीमती वंदना जानती थी कि दो ही लड़कियाँ उन्हें भाभी कहती थीं एक तो उनकी स्वर्गीय लड़की सुधा, जिसकी 21 वर्ष की आयु में चार साल पहले मृत्यु हो चुकी थी और दूसरी जयमाला, जिसे बालिका ने गुड्डी कहा था और उस समय वह श्रीमती वंदना के पास ही बैठी थी। गुड्डी जयमाला का बचपन का नाम था, अब उसे सभी जयमाला कर कर पुकारते थे। श्रीमती वंदना को यकायक कुछ दिनों पहले मिली चिट्ठी की याद आ गई पर उनका मन इस बात पर विश्वास करने को नहीं हो रहा था। उक्त बालिका जिस का नाम, सरला था, वंदनाजी की गोदी में आकर बैठ गई। सरला की माँ उस समय महिलाश्रम द्वारा चलाये जा रहे स्कुल के प्रबंधकों में से थे। कई तरहों के सवाल जवाब के बाद वंदनाजी सरला को अपनी कोठी ले गई ताकि वास्तविकता का पता लगाया जा सके। वंदनाजी की कार जैसे ही कोठी के सामने पहुँची वैसे ही सरला ने अपनी सीट पर से उतरते हुए कहा आ गई मेरी कोठी कार में से सबसे पहले भी सरला ही उतरी। उतरते ही वह कोठी के अन्दर तेजी से इस तहर दौड़ती चली गई जैसे वह कोठी उसकी जानी पहचानी हो। सरला ने कोठी में पिछले जन्म की अपनी अलमारी, पुस्तकों कपड़ों और अन्य वस्तुओं के बारे में बताया जो अक्षरशः सत्य निकली।
नौ साल की आयु तक सरला को अपने पिछले जन्म की सभी बातें याद रहीं बाद में वह उन बातों को धीरे धीरे भूलने लगी। इस घटना का विवरण लिखते हुए श्री विद्यालंकार ने लिख है, पिछले दिनों यात्रा में मुझे श्रीमती वंदना, जिनकी आयु लगभ 60 वर्ष थी मिली। उन्होंने मुझे वह घटना बताई। यह घटना आत्मा की जन्म जन्मान्तरों में होने वाली यात्रा का समर्थन करती है। पूर्व जन्म संबंधी इस घटना के ये अनुभव पूरी तरह प्रामाणिक है ऐसा मेरा विश्वास है। क्योंकि श्रीमती वंदना से मैं स्वयं बहुत अच्छी तरह परिचित हूँ।
तुर्की के दक्षिण पूर्व इलाके में अदना नायक स्थान पर मारे गये एक व्यक्ति की आत्मा ने महमुद अतलिंकलिक केघर में पुत्र के रुप में जन्म लिया। लड़के का नाम इस्माइल रखा गया। एक दिन स्माइल अपने पिता क साथ बैठा हुआ था तभी एक फेरी वाला वहाँ से निकला। स्माइल ने उसे आवाज दी। पिता ने समझा कि बेदा शायद कोई खाने पीने की चीज खरीदना चाहता होगा। फेरीवाल भी यही समझा, पर दोनों ही उस समय दंग रह गये जब इस्माइल ने कहा कि, अरे महमूद! तुमने अपना धन्धा कबसे बदल दिया। तुम तो पहले साग सब्जी बेचा करते थे।
बात एक दम सही थी, पर फेरीवाल ताज्जुब में आ गया। चार वर्ष के इस लड़के को, जिसे पहले कभी नहीं देखा और न ही उसके परिवार से कोई जान-पहचन थी कैसे यह मालूम हुआ कि वह पहले सब्जी बेचता था। उसने पूछा-पर साहबजादे तुम्हें कैसे मालूम कि मैं पहले साग सब्जी बेचा करता था। इस पर स्माइल ने कहा, मालूम कैसे नहीं। तुम मुझसे ही तो साग सब्जी खरीदा करते थे। मेरा नाम आबिद है। महमूद को याद आया कि वह आबिद से ही सब्जी खरीदा करता था पर आर्श्चय और संदेह के मारे उसका बुरा हाल था। उसने कहा, “जहाँ तक मुझे याद है आबिद तो छः साल पहले कत्ल हो चुका है। आप वह कैसे हो सकते हो ?”
इस्माइल ने और भी ऐसी कई बाते बताई ‘जिनके कारण यह विश्वास करना पड़ा कि आबिद ने ही इस्माइल के रुप में फिर जन्म लिया था। जब आबिद की हत्या हुई तब उसके तीन बच्चे थे, गुलशरा, जैकी और हिकमत। आबिद की हत्या के बाद उसके दो बच्चों को भी हत्यारों ने मार दिया था। पुनर्जन्म के इस मामले ने तुर्की में तहलका सा मचा दिया था। सामान्यतः मुसलमान देशों में पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं किया जाता, इसलिए इस घटना की खूब छानबीन की गई, पत्रकारों से लेकर धर्मगुरुओं तक ने इस्माइल की तरह-तरह से परीक्षा ली। पर यह न मानने को कोई सूत्र हाथ में नहीं आया कि इस्माइल पूर्वजन्म में आबिद था। इस्तब्बल (तुर्की) की आत्मविधा तथा वैज्ञानिक अनुसंधान परिषद ने इस घटना की जाँच की और कहा, “यह स्पष्ट ही जीवात्मा के देहातंरंण का मामला है। हम इस मामले की रिपोर्ट अध्यात्म वेत्ताओं की अन्तर्राष्ट्रीय परिषद में देंगे।
सन 1953-54 में अमेरिका के मर्सर नाम कस्बे में एक साधारण परिवार में जुड़वा लड़कियों ने जन्म लिया। दोनों को ही खेलन कूदने का बड़ा शौक था और पढ़ाई लिखाई में उनका कम ही मन लगता था। पर जैसे-जैसे दोनों बड़ी होने लगी, गेल गम्भीर रहने लगी और ऐसी बाते कहने लगी जो उसने न तो कभी पड़ी थी और न ही सुनी है। उदाहरण के लिए वह कुछ यहूदियों के नाम लेती। आरंभ में तो वह अपनी बहन से ही इस तरह की बातें करती परन्तु पिता को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने पूछा, “तम इन लोगों को कैसे जानती हो। यहाँ आस-पास तो कोई यहूदी नहीं है।” गेले ने बताया कि ये लोग जर्मनी के है और पिछले जन्म में उसके साथ रहे थे। इन लोगों के साथ वह हिटलर के यातना शिविर में रही थी और उस शिविर में ही उनकी मृत्यु हो गई थी।
गेले बार बार इस तरह की बात दोहराती तो उसके पिता ने अमेरिका के एक पुनर्जन्म विशेषज्ञ को यह सब बताया। परामनोविज्ञान शास्त्री डा. जूलहर्ट ने इस मामले की गम्भीरता से जाँच की और पाया कि गेले जो बातें कहती है वे सब सही है। तथ्यों के रुप में उन के प्रमाण भी प्राप्त हुए है। आर्श्चय की बात तो यह कि ईसाई परिवार में जन्म लेने के बावजूद भी गेले अपने को यहूदी मानती थी। 18 साल की आयु में भी उस पर पिछले जन्म केक संस्कार इतने प्रभावशाली थे कि वह अपने कस्बे के गिरजे में न आकर वहाँ से 15 मील दूर स्थित यहूदियों के उपासनाग्रह में जाती थी।
पुनर्जन्म के प्रभाव स्वरुप ऐसी एक नहीं असंख्यो घटनाएँ है। आये दिन इस तरह की एक न एक घटना प्रकाश में आती ही रहती है और इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि मृत्यु जीवन का अंत नहीं है वरन् जीवन यात्रा मील का एक पत्थर है जिसे पार करने के बाद यात्रा की ओर भी मंजिले आती है। अस्तु, मृत्यु से डरने का कोई कारण नहीं है।
यह निशिचत है कि एक बार जन्म लिया है तो मृत्यु निश्चित रुप से आयेगी ही। मृत्यु को निश्चित और अनिवार्य जानकर उससे भयभीत होने का न तो कोई कारण है और नहीं उससे घबड़ाने की आवश्यकता है जन्म और मरण का युग्म है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते
हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वें नेभे जनाधियाँः । न चैव भविष्यामः सर्वे व्यमतः पद्म॥
देहिनो ऽसिमन्यथा देहे कौमार यौवन जरा। तथा देहान्तर प्राप्तिधीरस्थित न मुर्ह्मात॥ अध्याय 2/12/13
अर्थात कदाचित मै नहीं था ऐसी बात नहीं है और तुम नहीं थे ऐसी भी बात नहीं है। और ये राजा भी नहीं थे, ऐसी बात नहीं। इतना ही नहीं, इसके बाद हम सभी नहीं होंगे, ऐसी बात नहीं, जिस प्रकार इस देह में कमार युवा और वृद्धावस्था होती है उसी प्रकार इस आत्मा को दूसरी देह प्राप्त होती है।
इस धु्रव सत्य को जान कर मृत्यु के प्रति निर्भय और निश्चित रहते हुए जीवन को उल्लास के साथ जिया जा सकता है और उत्सव की तरह जीवन पर्व मनाया जा सकता है।