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Magazine - Year 1980 - Version 2

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सन 81 के सौर स्फोट और उनका धरती प्रर प्रभाव !

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पृथ्वी और सूर्य की मध्यवर्ती आधार श्रृखंला का सभी को ज्ञान है। सूर्य के उदय होते ही प्राणियों की हलचलें आरम्भ होती है और उसके अस्त होते ही अन्धकार बढ़ने और आलस्य छाने लगता है। पशु-पक्षियों से लेकर मनुष्य तक सभी निद्रा के अंचल में पड़े हुए अर्धमृतक जैसी स्थिति में पड़े दृष्टिगोचर होते है। पेड़-पौधे स्तब्ध हो जाते है। फूल तक खिलते है जब दिन निकलता है सूर्यमुखी का तो नाम ही इस आधार पर हुआ है। कि उस का फूल सूर्य की ओर ही मुँह किए अपना रुख बदलता रहता है।

सूर्य का प्रकाश पुरुषार्थ का बोधक है। रात्रि में तो निशाचर ही अपने दाव-घात लगाते रहते है। उत्पादन निर्माण से लेकर अन्यान्य सभी महत्पूर्ण कार्यों का समय दि नहीं है। सूर्य की उपस्थिति में ही प्राणियों द्वारा अपने पुरुषार्थ का प्रमाण प्रस्तुत किया जाता है। जब सूर्य पृथ्वी से दूर निकल जाता है तो सर्दी बढ़त है और लोग सिमटे ठिठुरे बैठे रहते है। गर्मी ही ऊर्जा के बिना कोई यन्त्र है उसे प्रकारान्तर से सूर्य का अनुग्रह अनुदान ही कहा जाता सकता है। श्रृति में सूर्य को ही इस जगत की आत्मा कहा है।

यह सामान्य जानकारी हुई। विशेष ज्ञातव्य यह है। कि पृथ्वी के वातावरण पर सुर्य की स्थिति का भारी प्रभाव पड़ता है। जब सूर्य की स्थिति का भारी प्रभाव पड़ता है। जब सुर्य की स्थिति में थोड़ा भी अन्तर आता है तो उसका प्रभाव पृथ्वी के वातावरण पर पड़ता है और उस परिवर्तन से प्राणियों की पदार्थों की स्थिति बुरी तरह प्रभावित होती है। इतना ही नहीं जीवधारियों की मनःस्थिति में भी भारी अन्तर उपस्थित होता है और वे कुछ से कुछ सोचने और कुछ से कुछ करने लगते है।

इससे भी बड़ी बात यह है कि मनुष्यों के स्वभाव और क्रिया कलाप में कुछ ऐसे अन्तर आते है जिससे सामान्य लोक जीवन लड़खड़ाने लगता है और ऐसे विग्रह उपद्रव उठ खड़े होते है जिनकी सामान्यतः कोई आवश्यकता नहीं थीं।

प्रकृति प्रकोप के रुप में भी ऐसी अप्रत्याक्षित घटनाएँ घटित होती है जिनसे मनुष्यों तथा इतर प्राणियों को बिना किसी अपराध के विपत्ति में फँसना पड़ता है सूर्य की सामान्य स्थिति जहाँ संसार के लिए सुखद परिस्थितियों का निर्माण करती रहती है वहाँ यह विचित्रता भी देखी गई है जब वह किसी कारणवश असामान्य स्थिति में विपत्ति में होता है तो स्वयं ही विक्षुब्ध नहीं होता वरन् अपने संकट में अपने सर्म्पक क्षेत्र को धरातल के प्राणियों और पदार्थों को लपेट लेता है।

विपत्ति सब पर आती है। सूर्य पर भी। आवश्यक नहीं कि संकटों के कारण जान बूझ कर किये गये कर्म ही हों। प्रारब्ध से लेकर दैवी प्रकोप भी इस सर्न्दभ में अपना काम करते है और आगत संकट को दैवी दुर्बिपाक मान कर ही सहन करना पड़ता है।

सूर्य पर आने वाले संकटों से धर्म भीरु लोग ग्रहणों की गणना करते है, पर विज्ञानी उस पर उभरने वाले धब्बों को न्हे सामन्यतः स्पाट या कलंक का जाता है को एक विशिष्ट विक्षोभ मानते है और कहते है कि उस स्थिति में सूर्य की स्थिति अपने कलेवर के भीतर असाधारण हो जाती है और उसकी विद्रपूता डरावनी प्रतीत होती है। उसका भयंकर प्रभाव दूर-दूर तक सौरमण्डल के साथ जुड़े हुए समस्त ग्रह-उपग्रहों पर पड़ता है। पृथ्वी सूर्य पर सर्वाधिक निर्भर है। इस संकट में भी उसी को साझीदार भी होना पड़ता है। साझेदारी का सिद्धान्त ही यह है कि उसमें दुःख सुख में-हानि लाभ दोनो में ही समान रुप से भागीदार रहना पड़ता है। सूर्य की विपन्नता, पृथ्वी को कष्ट न दे यह कैसे हो सकता है ?

सूर्य में धब्बे क्यों आते है ? उनमें उतार-चढ़ाव क्यों आता है ? नियत अवधि के उपरान्त ही लौट-लौट कर उत्तर खोजने में विज्ञान संलग्न है। पर अभी उसे उत्साहवर्धक सफलता नहीं मिली है। अभी कल्पनाओं, परिकल्पनाओं का ऊहापोह ही चल रहा है। खण्डन प्रतिपादन की उलट-पुलट का क्रम अभी समाप्त होता नहीं दीखता किसी सुनिश्चित तथ्य, निर्ष्कष तक पहुँचने का समय कभी आवेगा तो सही, पर अभी उसमें कुछ देर लगती प्रतीत होती है।

अब तक जो निश्चित रुप से जाना जा सका है, वह इतना ही है कि जब सूर्य पर धब्बे उभरते है तो उसकी स्थिति आमाम्य हो जाती है। उसके अन्तराल में भंयकर आँधी तूफान उठते है और लाखों मील के दायरे में अग्नि ज्वालाएँ लपलपाती है। इसे विस्फोट तो नहीं विक्षोभ कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है। उस विषम स्थिति से सारा सौर मण्डल प्रभावित होता है। पृथ्वी के बीच आदान-प्रदान का विशिष्ट सूत्र सम्बन्ध जुड़ा हुआ है, इसलिए उस पर इस विषमता का प्रभाव भी अधिक पड़ता है। सामान्य स्थिति बदल जाती है और उत्पन्न पड़ता है। सामान्य स्थिति बदल जाती है और उत्पन्न विपन्नता ऐसे दृश्य और अदृश्य प्रभाव उत्पन्न करती है जिनसे हितकम और अहित अधिक होता है। सूर्य कलंको का उभरना भारतीय ज्योतिश शास्त्र में अशुभ माना गया है। इस सर्न्दभ में विज्ञान भी पुर्णतया सहमत है। अस्तु जब भी ऐसी स्थिति आती है तो सुक्ष्मदर्शी चिन्तित होते है और अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार आगत विपत्ति से बचने का उपाय भी करते है।

अलेक्जेंडर मारशेक ने अपनी पुस्तक ‘अर्थ एण्ड होराइजन” के पृष्ठ 185 में लिखा है कि भले ही पृथ्वी में घटने वाली घटनओं का सूर्य के अन्तर्विग्रह से प्रत्यक्ष सम्बन्ध न जोड़ा जा सके किंतु साँख्यिकी दृष्टि से उनका पृथ्वी से सम्बन्ध निर्विवाद सिद्ध हो गया है जब-जब यह सौर सक्रियता बढ़ती है वर्षा तथा तुफानों की बाढ़ आती है, वनस्पति में वृद्धि, ग्रीष्म की वृद्धि के साथ कहीं कहीं अकाल, सड़क दुर्घटनायें, वायुयान दुर्घटनाएँ युद्ध तथा रक्तताप बढ़ता है। अमरीका के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एन्डूई डगलस ने इनका सम्बन्ध पौधो की वृद्धि से भी बताया और सेक्वेइया नामक एक वृक्ष क वलय से गैलीलियों के समय के सूर्य कलंक का भी अध्ययन किया था और लिखा था कि सूर्य कलंक का भी अध्ययन किया था और लिखा था कि सूर्य कलंक का भी अध्ययन किया था और लिखा था कि सूर्य हमारी प्रकृति में इतना व्याप्त हो चुका है कि प्रत्येक कण से लाखों वर्ष पूर्व के इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

इस अवधि में न केवल भीषण भू चुम्बकीय उत्पात अर्थात भूकम्प, ज्वाला मुखी विस्फोट होते है अपित मेरु प्रकाश की असामान्य दिव्य चमक भी देखे में आई है उसका वैज्ञानिक उसकी तत्परता पूर्वक खोज करने में लगे है।

सोवियत संघ की जल-मौसम वैज्ञानिक संस्था ने दावा किया है कि सूर्य सक्रियता का उत्तरी व दक्षिणी दोनों धू्रवों के जलवायु परिवर्तन तथा बर्फ की मात्रा से स्पष्ट सम्बन्ध है।

1952 की 24 फरवरी को सूर्य की सतह पर एक सामान्य विस्फोट देखा गया। पराबैंगन किरणों की विराट्, सेना पृथ्वी की ओर चल पड़ी। उसके पीछे कुछ ऐसे तत्व थे जिनका अभी तक वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं कर सके। अगले वर्षों में भू भौतिक शास्त्री विशेष कर पूर्ण सूय्र ग्रहण के अवसरों पर विशेष अध्ययन की तैयारी कर रहे है तब शायद वे कुछ अधिक ज्ञात कर सकें। इस छोटे से विस्फोट के कारण ही ग्रीनलैंड, कनाडा, अलास्का, अटलाँलिक तथा बर्लिन में दो सप्ताह तक तूफानों का गतिचक्र तेजी से घूमता रहा । ऐसे ही 1955 में हुए एक विस्फोट का अध्ययन अमेरिका वैज्ञानिक डा. वाल्टर तथा राबर्टस ने किया और लिखा कि स्फोट से 13 वें दिन ऋतु परिवर्तन का क्रम सामान्य से असामान्य हो गया । रेडियो प्रसारण बन्द हो गये। तेज वर्षा, वायु, उत्पात और बिजली कड़कने की आवाजें कई दिनों तक गूँजती और छोटी प्रलय के से दृश्य उपस्थित करती रही। तब से निरन्तर यह अध्ययन किया जा रहा है कि सूर्य के इन स्फोटजन्य प्रवाहों का पृथ्वी के प्राणियों के जीवन से क्या सम्बन्ध है। प्रसिद्ध अमेरिकन मौसम वैज्ञानिक डा. वेक्सलर ने तो इन्हें मनुष्य ने अतंरग जीवन में अचानक और विलक्षण हस्तक्षेप की संज्ञा दी है। और नियमित उत्सर्जित ऊर्जा के साथ इस असामान्य क्रिया के तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता प्रतिपादित की है। हवा उन अदृश्य कणों को अवशोषण किस प्रकार करती और किस तरह असामान्य आचरण करने को विवश होते है इस पर गम्भीर खोजें चल रही है।

जब सौर कंलक उत्पन्न होते है तब पृथ्वी पर रेडियो व्यवहार में रुकावट पैदा होती है। इसका कारण सौरकलंक के समय अग्निमशालाओं में से निकलने वाली प्रबल किरणें है। पृथ्वी से छूटने की वाली रेडियों तरंगे अयनमण्डल से टकरा कर पृथ्वी की ओर लौट आती है। जिस दिन सूर्य पर बड़ा कलंक उभरता है उस समय सूर्य की अग्निमशालों से छूटने वाला रेडियो विकिरण अयनमंडल को छिन्न-भिन्न कर देता है। मिनटों के भीतर ही यह आवरण छिन्न-भिन्न हो जाता है और कभी-कभी लम्बे अरसे तक यह विलुप्त ही रहता है। सूर्य के धरातल पर सौर कलंक उत्पन्न होते ही वहाँ से रेडियो तरगें छूटना आरम्भ हो जाती है और बाद में लम्बी तरंगे भी छूटने लगती है। सूर्य के कैरोना को वेध क रवह 1600 किलो मीटर के वेग से दौड़ते है और 24 से 26 घण्टे के समय में पृथ्वी तक पहुँच जाती है। उसके पृथ्वी तक पहुँचते ही वहाँ की रेडियो तरंगो की लम्बाई भी ज्यादा रहती है।

23 फरवरी 1956 को रुस और अमेरिका की कुछ अन्तरिक्ष प्रयोगशालाओं में कास्मिक रेडियो विकिरण में अचानक वृद्धि देखी गईं आयोनाउण्ड कैमरों तथा कणों की गणना करने वाले यन्त्रों से लैस दूरबीनों की सहायता से कास्मिक किरणों में असाधारण वृद्धि देखी गई। फ्रीबर्ग तथा स्वीजलैंड के पर्वतीय स्टेशन में यह वृद्धि अचानक छह गुना हो गई और 4 घण्टे से भी अधिक समय तक बनी रही। इसके बाद धीरे-धीरे विकिरण घटने लगा। इसी प्रकार रोम में यह विकिरण तीन गुन बढ़ा आरिट्रया में तो विकिरण इतना बढा कि उसे मापने में कोई यन्त्र ही समर्थ नहीं हुआ। यह विकिरण सूर्य में उत्पन्न होने वाले धब्बों के कारण पृथ्वी के अध्यनमण्डल को बेध कर धरती तक आ पहुँचा था।

सूर्य कलंको के आस-पास वाले क्षेत्र में कलंक के दिनों सूर्य की चमक अचानक बहुत बढ़ जाती है। यह चमक सूर्य के अन्य स्थानों पर होने वाली चमक से अधिक होती है। इस चमक को सौर ज्वाला कहते है, इसमें से कई प्रकार के कण धीमे एवं तेजगति से निकलते है।

अब तक इनके वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि ये ज्वालाएँ चुम्बकीय क्षेत्र में गड़बड़ के कारण उत्पन्न होती है। इनके कारण रेडियो एवं टेलीविजन प्रसारणों में भी बाधा पड़ती है। इन ज्वालाओं से बड़ी तेज गति से निकलते है, उनकी शक्ति भी अपरीमित होती है ये कण ओजोन मंडल को पार कर पृथ्वी की सतह तक पहुँचजाते है और उनके मस्तिष्क को प्रभावित करते है। यही कारण है कि देखा गया है जब सूर्य कलंक बढ़ते है और उनके कारण सौर ज्वालाओं से प्रक्षेपित होकर ऊर्जा कण पृथ्वी पर जीव धारियों तक पहुँचते है तो उन के मानस पटल पर असाधारण प्रभाव डालते है और इस कारण बड़े-बड़े व्यक्तियों तक ही विचार धाराएँ प्रभावित होती है। इन कारणों से संसार में विभिन्न समस्याएँ पैदा होती है।

इन दिनों पुनः सूर्य कलंक का चक्र अपनी चरम स्थिति की ओर। सन् 80-81 में इनकी संख्या बढ़ना आरम्भ होगी और संभवतः 83 तक बढ़ती रहेगी। इस बार कलंको की संख्या 200 से भी अधिक होने की संभावना है। स्मणीय है द्धितीय विश्वयुद्ध के समय सूर्य कलंको की संख 150 से अधिक ही थी। अब जबकि इनकी संख्या 200 के आस-पास पहुँचने वाली है तब संसार में भयंकर उथल-पुथल होने की संभावना है। इस उथल-पुथल के लक्षण देखे भी जा रहे है। कुछ समय पहले चीन वियतनाम युद्ध हो चुका है, ईरान में भी भंयकर क्राँति हुई है। शक्ति संतुलन और महादेशों की नई-नई गुटबंदिया बन बिगड़ रही है। सन् 1983 में सूर्य पर पड़ने वाले कलंको की संख्या सबसे अधिक होगीं

सूर्य पृथ्वी पर प्राणियों की जीवन ऊर्जा का स्त्रोत है, सर्वविदित है। वैज्ञानिकों ने अध्ययन निष्कर्षो के दौरान यह विस्मय जनक तथ्य सामने आता है कि इन सूर्य कलंक वर्षों का मानव जाति के विश्व इतिहास की घटनाओ से बहुत गहरा सम्बन्ध है। जिस वर्ष कलंकों संख्या बढ़ जाती है उस वर्ष पृथ्वी पर जीवन असाधारण रुप से असामान्य हो उठता है। विश्व इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएँ इन्हीं कलंक वर्षों में घटित होती रही है। जब-जब सूर्य पर कलंको की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई तब-तब संसार बड़े-बड़े युद्ध, विश्वयुद्ध और महान क्राँतियाँ हुईं।

सन् 1986 में फ्राँस की प्रसिद्ध, राज्य क्राँति हुई जिसने विश्व इतिहास को नया मोड़ दिया। इस समय सूर्यकलंक अपने चरमवर्ष में थे। सन् 1805 में ट्रैफलगर और सन् 1815 में वाटरलू की लड़ाइयाँ ने यूरोपीय इतिहास को एक नया मोड़ दिया।

सन् 1857 में भारतीय स्वाधीनता संग्राम लड़ा गया उस वर्ष भी सूर्य पर कलंको की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। यह कोई आवश्यक नहीं है कलंक 11 वर्ष बाद ही उत्पन्न होते हो और बीच में नहीं 11 वर्ष बाद तो इन कलंको की संख्या बढ़ती ही है बीच की अवधि में कभी भी ये बढ़ और रुक सकते है। 1861 से 1865 तक अमेरिका में चला युद्ध इन्ही कलंको की वृद्धि के वर्षों में चला सन् 1870 में फ्राँस और जर्मनी के बीच हुआ भयंकर युद्ध आदि लड़ाइयाँ जिन दिनों लड़ी गयी, उन दिनों सूर्यकलंक अपनी चरम स्थिति में थे,

सन् 1915 से 18 तक हुए प्रथम विश्वयुद्ध के दिनों में सूर्य के कलंक अपनी चरम संख्या में थे। स्मरणीय है इन्हीं दिनों प्रथम युद्ध के साथ-साथ रुस में भी लेनिन के नेतृत्व में साम्यवादी क्राँति हुई। सन् 1939 से 45 तक का समय विश्व इतिहास में फिर उथल-पुथल मचाने वाला बना। दूसरा विश्वयुद्ध इन्हीं दिनों आरम्भ हुआ और सूर्य कलंको का चक्र दिनोंदिन तीव्र होता जा रहा था।सन् 1847 में सूर्य कलंको की संख्या करीब 160 थी। उस वर्ष भारत को स्वतंत्रता मिली, चीन में भी इन्हीं दिनो जन क्राँति हुई। सूर्य कलंको की यह संख्या सन् 1750 से तब तक हुए कलंको की संख्या में सबसे ज्यादा थीं।

आज से 370 वर्ष पूर्व अन्तरिक्ष विज्ञानी गैलीलियो ने इस सौर सक्रियता का प्रत्यक्ष दर्शन और प्रतिपादन सन् 1610-11 में किया था इसके बाद यह प्रचण्डता 1947 में आरम्भ हुई और उसने अन्तरिक्ष के 6300000000 वर्ग मील अर्थात पृथ्वी के आकार से लगभग 100 गुने क्षेत्र को प्रभावित किया। मध्य सौर ज्वालाएँ ढाई लाख मील ऊँची उठती और उतनी ऊँचाई तक मात्र 30 मिनट में पहुँचती देखी गई। इसका प्रभाव तब से लेकर अब तक धीरे-धीरे ही कम होता आया है। कुछ तो अभी तक बना हुआ है।

अब यह सूर्य का नया दौर सन् 1981-82 में तथा 82-83 में होने वाला है। यह प्रकोप अब तक क सभी स्फोटों से अधिक भंयकर होने का गणित लगाया गया है। जो इस सर्न्दभ में अधिक जानते है वे कहते है कि यह दुर्दिन धरती निवासियों को विशेषतया मनुष्यों के लिए अतीव कष्ट कारक होगा। इस आशंका में अपना बचाव कैसे हो सकता है यह प्रश्न ही मुख्य और महत्वपूर्ण है। प्रकृति प्रवाह का तो मनुष्य में कुछ न कुछ सोचने और कुछ न कुछ करने के लिए चिन्तन एवं प्रयास तो चल ही पड़ता है। वही सम्भव है।

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