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Magazine - Year 1980 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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संसार केवल मनुष्य के लिये ही नहीं है।

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First 16 18 Last
परमात्मा ने मनुष्य को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक बुद्धि, अधिक प्रतिभा और अधिक मेघा क्या प्रदान कि वह अपने को सृष्टि का अधिपति ही समझने लगा। जबकि यह सिवा मिथ्याभिमान के कुछ नहीं है। स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह संसार मनुष्य के लिए ही नहीं है। इसमें अनेक प्राणियों के निवास और निर्वाह की व्यवस्था तथा परिस्थितियाँ में अन्य प्राणी भी अपनी आवश्यकता पूरी करते है। एक संयुक्त परिवार में जैसे सदयों की अलग-अलग इच्छाएँ पूरी करने के लिए अलग-अलग व्यवस्था की जाती है और सभी सदस्यों को अधिकतम सुविधाएँ प्राप्त हों यह ध्यान रखा जाता है, इसी प्रकार परमात्मा ने अपने प्राणी परिवार के लिए संयुक्त व्यवस्था की है। उस व्यवस्था से किसी का शिकवा शिकायत करना अनुचित है।

पृथ्वी पर करीब चार अरब मनुष्य रहते है। यह संख्या अपने आप में बहुत बड़ी दिखती है लेकिन अन्य प्राणियों को देखते है कि उनकी संख्या का पता चलता है तो मनुष्य एक अल्पसंख्यक प्राणि भर है। सभी देशों में रहने वाले समस्त धर्मानुयायी, भाषा भाषी और विभिन्न संस्कृतियों वाले मनुष्यों की इस संख्या से हजारों गुना चींटी, मक्खी, मच्छर, जैसे कीड़े थोड़े से क्षेत्र में ही मिल जायेंगे। ये तो छोटे-छोटे प्राणी है। बड़े और विशाल काय प्राणियों में हाथी, गेंडा, सिंह, हरिण जैसे प्राणी भी मनुष्य की अपेक्षा कहरी अधिक है। अन्य पशु पक्षियों का तो कहना ही क्या ? उड़ने वाली चिड़ियाओं की जाति और संख्या मनुष्य की सभी जातियों और समाज संख्यायों की अपेक्षा कहीं अधिक है।

इस स्थिति में यह सोचना और समझना कि इस पृथ्वी पर केवल मनुष्य का ही अधिकारी है, सृष्टि के विधान को परमात्मा के नियमों को चुनौती देने जैसा है। अपने आपको सबसे बड़ा सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ समझना तथा सृष्टि पर केवल अपना ही एकाधिकार मान कर उसके अनुसार व्यवहार करना उद्धत अंहकार के अतिरिक्त और कुछ हो नहीं सकता। अपने सोचने समझने के ढंग में परिवर्तन करना चाहिए और रीति-नीति में तथ्य तथा विवेक का समन्वय करना चाहिए यह मानना चाहिए कि मनुष्य भी परमात्मा के अगणित असंख्य पुत्रों में से एक है उसे अन्य प्राणियों की अपेक्षा कुछ विशेषताएँ, कुछ सुविधाएँ, कुछ योग्यताएँ अधिक मिलीं, यह बात सच है । इन कारणों से उसे ज्येष्ठ और श्रेष्ठ कहा जा सकता है, पर इस श्रेष्ठता की सार्थकता उत्कृष्ट सौजन्यता में है न कि उद्धत अंहकार में। छोटे भाई के प्रति बड़े भाई के जो कर्तव्य होते है, अग्रज को अनुज के प्रति जिस उदारता मनुष्य को भी अपन छोटे भाइयों से बरतनी चाहिए इसी मनुष्य का बड़प्पन, उसकी श्रेष्ठता का परिचय छिपा हुआ है। उसका बड़प्पन, उसक मनुजता के साथ जुड़ा हुआ है और वह सहयोग तथा विवेक जैसी सत्प्रवृत्तियाँ अपनाकर ही श्रेय भाजन बन सकता है।

यदि संख्या, शक्ति और क्षेत्र की दृष्टि से मनुष्य का मूल्याँकन किया जाय और पृथ्वी पर यह अपने अधिकार का दावा करे तो औचित्य की दृष्टि से, अपन मापदण्डो के ही आधार पर वह सृष्टि के कई प्राणियों से पिछड़ जायेगा। बुद्धि के अलावा मनुष्य में ऐसी और कौन सी विशेषता है, जिसके आधार पर वह अन्य प्राणियों की तुलना में इक्कीस सिद्ध हो सके। सही बात तो वह है कि छोटे-छोटे कीड़े मकोड़ो में भी ऐसी अगणित विशेषताएँ है जो अपने क्षेत्र में कई तरह से मनुष्य को भी चुनौतियाँ दे सकती है और मनुष्य को पिछड़ा हुआ सिद्ध करती है।

उदाहरण के लिए मधुमक्खियों के जीवन क्रम का ही बारीकी से अध्ययन किया जाय तो उनकी बुद्धिमत्ता और क्रिया कुशलता को देखकर दाँतो तले अँगुली दबानी पड़ेगीं पहाड़ी मधुमक्खी मैदानी मधुमक्खी की अपेक्षा बड़ी होती है, उनके छत्ते भी बड़े होते हे। एक छत्ता प्रायः 7 फुट लम्बा और 4 फीट चौड़ा होता है। उन छत्तों में वर्ष भर में 25 से 40 किलोग्राम तक शहद प्राप्त होता है। सबसे छोटी मधुमक्खी जिन्हें ‘लिटिलबीज’ कहा जाता है, हथेली के बराबर छत्ता बनता है। एक वर्ष में उनसे अधिकतम एक पौंड शहद मिलता है। अब आइये देखे इनका परिवार और परिवार की व्यवस्था। बड़े छत्ते में लगभग 20 हजार मक्खियाँ रहती है। ये सभी मक्खियाँ रानी मक्खी का अनुशासन मानती है। वही प्रजनन और परिवार की बुद्धि का काम करती है। जब रानी मक्खी बूढ़ी हो जाती है। तो वह अण्डे देना बन्द कर देती है। और उसे अपना सिंहासन खाली करना पड़ता है। नई रानी के कार्य और अभिषेक का दायित्व भी बुढ़ी रानी ही निवाहती है। जब तक वह अण्डे देती रहती है तब सूतिका गृह में ही रहती है। अण्डे देना बन्द करने के बाद वह पहली बार सूतिका गृह छोड़कर बाहर आती है और यह देखती है कि 20 हजार मक्खियों के इस परिवार में कौन सी मक्खी निरन्तर अण्डे देते रहने की क्षमता से सम्पन्न है। यह चुनाव वह लगभग दस दिन में पूरा करती है।

रानी मक्खी एक दिन में लगभग 1000 अण्डे देती है और अधिकतम दो वर्ष तक जीवित रहती है। प्रौढ़ होते ही वह प्रतिदिन अण्डे देने लगती है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे प्रतिदिन भ नर समागम करना पड़ता है। रानी मक्खी जीवन में केवल एक बार ही नर समागम करती है और उसी में प्राप्त शुक्राणुओं को अपने पेट की विशिष्ट थैली में रख लेती है। अण्डे देने के बाद रानी का दायित्व समाप्त हो जाता है उनके पालनपोषण का काम अन्य मक्खियाँ सम्हालती है। रानी के लिए तो अण्डे भर देने का काम होता है। अण्डा तीन दिन के बाद लारवा बनता है। उसके हाथ पैर, मुँह आदि कुछ नहीं होते। इन लारवाओं को दाई मक्खियाँ अपने सिर की ग्रंथियों से निकलने वाला दूध पिलाकर पालती है। लारवा तीन दिन के बाद प्यूपा बन जाता है और उसमें से मक्खी निकल आती है।

इस प्रकार मधुमक्खियों का परिवार निरन्तर बढ़ता रहता है और उसका प्रत्येक सदस्य छत्ते का विस्तार करने में लगा रहता है। खोजी मक्खियाँ दुर दुर तक जा कर यह पता लगाती है कि इस समय कहाँ पर शहद देने योग्य फूल खिले है ? उसकी सूचना वे छत्ते की अन्य मक्खियों को भी देती है और तभी यह तय हो जाता है कि अगले दिन कहाँ और किस दिशा में शहद इकट्ठा करने के लिए जाना है। मधु संचय के अतिरिक्त यह मक्खियाँ छत्ते को छेड़ने वाले शत्रुओं पर हमला करती है। छोटे मोटे शत्रु तो इन हमलों में अपने प्राण ही गवाँ बेठते है। इतनी बुद्धिमता, सूझ बूझ, संगठन और एकता मनुष्य में आ जाएँ तो सम्भवतः सुव्यवस्थिति शासन स्थापित कर ले।

किसी ठीक ठिकाने पर रहने और योजन पूर्वक अपनी बस्ती बसाने में मनुष्य या मधुमक्खी ही सक्षम नहीं है, टरमाइडस् जाति का एक कीड़ा आथेपादा जमीन के भीतर बहुत ही कुशलता के साथ घर बसा कर रहता है। यह कीड़ा जमीन के भीतर शहर बसा कर रहता है। वह चींटी और दीमक से भी बुद्धिमान है इस जाति के कीड़ो लाखों की संख्या में इकट्ठे रहते है, और इतने सुयोजित ढंग से कि क्या मजाल तनिक भी अव्यवस्था फैल जाए। ये अपने समुदाय की रानी के आदेश निर्देशों का पालन करते है। कुछ कीड़े भोजन एकत्रित करने का काम करते है, कुछ निर्माण कार्य में लगते है, और किन्हीं को प्रजनन का कार्य सौंपा जाता है।

चींटियों की एक जाति खेती का काम करती है और उसी से अपना गुजारा चलाती है। यह पढ़ सुन कर शायद किसी को विश्वास न हो ,किन्तु यह सच है कि इस जाति की चींटियाँ हरी पत्तियों को तोड़ तोड़ कर अपने बिलों के पास दूर तक बिछा देती है इन पत्तियों पर फफूँदी लगती रहती है और ये चीटियाँ फफूँद खाकर ही लम्बे समय तक गुजारा चलाती है। सूखे पत्तों को हटाना और उन्हें जमा करना उनके दैनिक जीवन क्रम में सम्मिलित रहता है इसलिए उन्हें खाने पीने की चीजों की कमी नहीं पड़ती। दीमक लकड़ी खाती है किन्तु उसे पंचापाना दीमक के वश की बात नहीं होती। इस कार्य में सहयोग करता है एक अति सुक्ष्म जाति का जंतु फलेजीमर जो उसके पेट में घुस पैठ की जानकारी रहती है और वह फलेजीमेर का निरविरोध आँतो में घुसने देती है। उसे पता रहता है कि यह जन्तु आँतो में है अथवा नहीं ? यदि फलेजीमेर आँतो में न हो तो दीमक लकड़ी न खा कर और कोई वस्तुएँ चाट कर अपनी क्षुधा बुझाती है। मनुष्यों में से किये यह पता होता है कि उसके पेट में या आँतो में क्या है ?

समय की पाँबदी का कोई व्यक्ति शायद ही इतना ध्यान रखता है जितन कि ये छोटे छोटे जन्तु प्रत्येक कार्य समय पर करते है। मधुमक्खी निशिचत समय पर अपने छत्ते से शहद इकट्ठा करने क लिए उड़ती है उसमे एक मिनट भी आगे पीछे नहीं होते। मनुष्य समझता है, कि उसमे देखने समझने की अधिक क्षमता है, उसकी इन्द्रिय चेतना अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक तेजस्वी है लेकिन कई प्राणी इन्द्रिय संवेदना के क्षेत्र में मनुष्य को बहुत पीछे छोड़ देते है। उदाहरण के लिए कुछ कीड़ो की आँखे उनकी आँखो में हजारों लैंस लगे होते है। उनके द्वारा पृथक् पृथक बिम्ब मस्तिष्क में उतरते है, उनका सम्मिलित अनुभव कर कीड़े मनुष्यों से भी ज्यादा व्यापक क्षेत्र में देख और समझ लेते है, कीड़ो के कान नहीं होते, वे कान का काम अगली टाँगों के जोड़ो में रहने वाली ध्वनि ग्रहण शक्ति द्वारा पूरा कर लेते है। तितलियाँ पंखों से सुनने का काम लेती है। झिगुरों की आवाज उन के मुँह से नहीं टाँगों के रगड़ने से उत्पन्न होती है । स्वाद ग्रहण करने में तितलियाँ मनुष्य से कई गुना अधिक आगे है। वे नमक और चीनी के स्वाद को मनुष्य की तुलना में दो सौ गुना अधिक बारीकी से समझ लेती है।

अब से 20 करोड़ वर्ष पहले इस पृथ्वी पर पंतगे ही पंतगे भरे पड़े थे। अन्य जीवों की उत्पत्ति तो बहुत पीछे जाकर हुई। अभी समस्त प्राणियों में छोटे-छोटे जीव जन्तुओं की संख्या, कुल प्राणियों की संख्या का अस्सी प्रतिशत है। हिमाच्छादित पर्वत शिखरों से लेकर जलते हुए रेगिस्तानों तक में एक जैसे सूक्ष्म और छोटे छोटे जीव जन्तुपाये जाते है। ये प्राणी उत्तरी ध्रुव की ठंडक और उबलते झरनों के जल छिद्रों में रहने योग्य स्थिति आर्श्चयजनक ढंग से बना लेते है। मनुष्य में कहाँ वैसी क्षमता ? वह कहाँ विभिन्न ऋतुओं के अनुरुप अपने को रख सकता है या जी सकता है ?

प्रकृति ने अन्य अनेक तरह के प्राणियों को भी इस तरह की विशेषताएँ विभुतियाँ दे रखी है जो सामान्यतः मनुष्य के पास नहीं होती। मनुष्य को यह गुमान नहीं करना चाहिए कि नियति ने उसे ही समस्त विभूतियाँ और सम्पदाएँ दे रखी है। उसने आवश्यकतानुसार सभी को उपयुक्त शक्तियाँ विशेषताएँ बाँट रखी है। मनुष्य इसी अर्थो में श्रेष्ठ हो सकता है कि उसमें चेतना के विकास की अपूर्ण संभावनाएँ है। यदि इस चेतना को ससीम से असीम बनाया जा सके और आत्मविस्तार की यह उदात्त दृष्टि अपनाई जा सके तो प्रतीत होगा कि यह सुन्दर संसार केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं जीवधारियों के लिए भी बना है। इन्हीं जीवों में से एक मनुष्य भी है।

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