
सत्प्रयत्न संयुक्त रुप से किए जायें!
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हिमालय के सभी लधु काय आत्मज निजी महत्वाकाँक्षा का परित्याग करके समवेत होते है और मिल जुलकर एक महान् उद्देश्य के लिए संयुक्त प्रयास करते है। इस सद्भाव सम्पन्न सहकारिता का नाम गंगा है। गंगा जब गोमुख से निकलती है, तब उसका स्वरुप बहुत छोटा होता है। उद्गम से प्रकट होने वाला उपहासास्पद बहुत छोटा होता है। उद्गम से प्रकट होने वाला उपहासास्पद निर्झर जब अग्रगामी होता है तो लगता है-उसकी पतली-सी जलराशि को सुखा धरती द्वारा बहुत आगे तक न चलने दी जायेगी और उसकी स्वरुप सम्पदा को कुछ ही मील का भूखण्ड आत्मसात कर लेगा। हवा के झोंके उस छोटी-सी जलराशि को सुखा देने और उड़ा देने में देर न लगने देंगें। उद्गम पर खड़ा व्यक्ति ऐसे ही अनुमान लगा सकता है। उद्भूत जल-प्रवाह का छोटा-सा अस्तित्व किसी बड़ी सम्भावना का आश्वासन नहीं देता।
वस्तु स्थिति में भारी परिवर्तन होता है। निर्झर उदार चेता बनते है। महान् उद्देश्य के लिए समवेत होने की देव-परम्परा स्वीकार करते है और अपने नाम रुप का-पृथक अस्तित्व के मोह का विसर्जन करके पुण्य प्रयोजन के लिए संयुक्त प्रयत्न करने की अपनाते है। हिम-प्रदेश के अनेकानेक निर्झरों की संघवद्ध प्रक्रिया अग्रगामी बनती है तो विशाल कलेवर धारण करती है। गंगा क्रमशः थोड़ी गहरी और गतिगामिनी बनती है। समर्पण और समन्वय यही है-वह तत्वज्ञान जिसके आधार पर महान् प्रयोजन सधते रहे है। आशंका र्व्यथ सिद्ध होती है। उस जल-धार को न भूमि सोख पाती है और न हवा को सुखाने में सफलता मिलती है यद्यपी दोनों की चुनौती और चेष्टा में कोई कमी नहीं आती। उनका वश चलता तो उस नन्ही-सी जलधारा का अस्तित्व देर तक, दूर तक ठहर ही न पाता। एक ही तीसरी चुनौती और भी बड़ी है। यदि हिम-पुत्रों की व्यक्ति महत्वाकाँक्षा अपना अलग अस्तित्व बनाये रहने, स्वयं सम्पन्न रहने और यशस्वी होने के लिए मचलती तो अवरोध निश्चित था। संकीर्ण-स्वार्थपरती व्यक्तिवादी अहमन्यता उन्हें समविन्त न होने देती। हर निर्झर अपने निजी वैभव की बात सोचता और गमाने के लिए, कमाने के लिए ही आग्रह करता। ऐसी दशा में गंगा की विशालता तो बनती ही नहीं। संकट यह भी था कि वे क्षुद निर्झर अपन अस्तित्व तक बनाये न रह पाते। यदि यह अवरोध बनता तो इस गंगा, हिमालय और निर्झर समुदाय पर दर्शकों को आँसू ही बहाने पड़ते। सुखाने वाली शक्तियाँ अट्टहास करती और धरती को हरितमा, सुषमा का और जन-समुदाय को जो पवित्रता, प्रसन्नता का सुअवसर मिलता है, उसका कही दर्शन भी न हो पाता।
जलनदों की छोटी-छोटी इकाइयाँ मिलती चली जाती है। हिमालय छोड़ने तक गंगा गौरवशालिनी बन जाती है मैदानी नदियाँ भी इस नीति को अपनाती है और गंगा के सहकार में घाटा नहीं, लाभ सोचती है। समन्वय क्रम चला है। गंगा का आकर, विस्तार बढ़ता है और उस समर्थता से संसार लाभाविन्त होता है। घटता कुछ नहीं, वैभव बढ़ता ही बढ़ता है। गंगा बिहार प्रान्त में पहुँचकर मूल उद्गम की तुलना में हजारों गुनी बढ़ जाती है। अजस्त्र अनुदानों के कारण जिसे घाटे की आँशका थी, वह निर्मूल हो जाती है। बंगाल में पहुँचने पर गंगा हजार रुपों में विभाजित होती है और वह समस्त भूखण्ड हरितमा और सम्पन्न्ता से शोभायान होता है। निरीक्षक देखता है और इसे सदुददेश्य के लिए समर्पण की गरिमा के रुप में प्रतिपादित करता है। गंगाजल प्रवाह का नाम नही, उस उदार सदाशयता का नाम है, जिसे अपनाकर, प्रत्येक जल-नद की श्रद्वा का पात्र बना। कृपण अहमन्यता को अवसर मिला होता और संकीर्ण-स्वार्थपरता को अवसर मिला होता तो यह समन्वय सम्भव न हो पाता और गंगा नाम की गरिमा का अस्तित्व तक दृष्टिगोचर न होता।