
यज्ञों के भेद−उपभेद और शाखा−प्रशाखाएँ
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प्रयोजन एवं विधान भेद से एक ही यज्ञ तत्व के अनेक भेद उपभेद हो जाते हैं। अनेकों शाखा प्रशाखाएँ फूटती हैं। तद्नुसार उनके प्रयोग परिचय जानने की सुविधा को ध्यान में रखते हुए नामकरण भी पृथक−पृथक किये गये हैं। इतने पर भी उन सबको एक−दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ समझा जा सकता है। शरीर के विभिन्न अवयवों की बनावट तथा कार्य क्षमता पृथक−पृथक हैं। इतने पर भी वे सब किसी एक सूत्र शृंखला में पिरोये हुए हैं और सभी का समन्वय एक समग्र शरीर बनता है। यह बात भिन्न−भिन्न नामों से जाने गये यज्ञों की मूलभूत एकात्मता बनी ही रहती है। भले ही उनकी प्रयोग प्रक्रिया पृथक−पृथक ही क्यों न दृष्टिगोचर होती हो।
सूत्र ग्रन्थ में यज्ञ के कितने ही भेद उपभेद बताये गये हैं और उनके विधान तथा प्रयोजनों का उल्लेख किया गया है। इस विभाजन को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है। एक श्रौत यज्ञ दूसरे “स्मार्त यज्ञ” इस वर्गीकरण में ‘गोपथ ब्राह्मण’ गौतम धर्म सूत्र और कात्यायन श्रौत सूत्र के आधार पर किये गये विभाजनों को अधिक मान्यता मिली है। यों अन्य ऋषियों एवं शास्त्रकारों ने भी अपने−अपने मतानुसार कई अन्य प्रकार से भी वर्गीकरण किये हैं।
गोपथ ब्राह्मण के असार श्रौत यज्ञों के में अनन्याधेय अग्निहोत्र—दर्श—गौणमास—चातुर्मास्य नव सस्येष्टि और पशु बन्ध को हविर्यज्ञ माना है। उसमें अग्निष्टोम—अत्यग्निष्टोम—उक्थ्य—षोडशी−वाजपेय−अतिरात्र, और आप्तोर्याम का प्रावधान है।
गोपय ब्राह्मण के दूसरे विभाजन को ‘स्मार्त यज्ञ’ कहा गया है। इनका एक नाम पाक यज्ञ—चरुयज्ञ भी है। इस विभाग में जिनका विधान है वे यह है—प्रातः होम—सायंहोम—स्थाली पाक—बलि वैश्य, पितृयशअष्टका।
गौतम धर्म सूत्र में भी आधारभूत विभाजन तो श्रौत यज्ञ और स्मार्त यज्ञ दो रेखाओं के अंतर्गत ही हुआ है, पर उनके नामों में तथा विभाजनों में यत्किंचित् अन्तर है। वे भी श्रौत यज्ञों के दो भेद करते हैं हविर्यज्ञ और सोम यज्ञ। स्मार्त यज्ञ तो उनने भी एक ही वर्ग में रखे हैं। इस प्रकार उनका विभाजन भी गोपथ की तरह ही तीन विभागों में ही बँट जाता है। उनका विभाजन इस प्रकार है−
(1) हविर्यज्ञ−अग्नि होत्र, दर्श पूर्णमास आग्रयण−चातुर्मास्यय−निरुद−सौत्रामणि−पिण्ड पितृ।
(2) सोमयज्ञ−अग्निष्टोम−अति अग्निष्टोम−उक्थ्य−षोडशी−वाजपेय−अतिरात्र− आप्तोर्याम।
(3) स्मार्तयज्ञ−औपासन−वैश्यदेव−पार्षण−अष्टका− श्राद्ध− श्रवणा−शूल गव।
कात्यायन श्रौतसूत्र में निर्दिष्ट याग−अग्न्याधान अग्निहोत्र, दर्शपीर्णभास दाक्षायण यज्ञ, आग्रयणेष्टि, दर्विहोम (क्रैडिनीयेृष्टि, आदित्येष्टि, मित्रविन्देष्टि), चातुर्मास्य, निरुद पशुबन्ध, सोमयाग, एकाह, द्वादशाह सत्र (द्वादशाह), पुरुषमेध, अभिचारबाग, अहीन−अतिरात्र, सत्र (द्वादशाह से सहस्रसंवत्सरपर्यन्त) और प्रवर्ग्य।
कुछ अन्य स्मार्त्त यज्ञ इस प्रकार हैं—
ब्रह्मयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ और मनुष्य यज्ञ। यज्ञों का एक अन्य वर्गीकरण इस प्रकार भी है। सात्विक−राजसिक तामसिक−नित्य−नैमित्तिक और काम्प।
अन्यान्य पौराणिक याग—विष्णुयाग, रुद्रयाग, सूर्ययाग, गणेशयाग लक्ष्मीयाग, मृत्युँजयाग, शतचण्डी, सहस्रचण्डी, लक्षचण्डीयाग, महाशान्तियाग भागवत सप्ताह यज्ञ इत्यादि।
आत्म−कल्याण और लोक−कल्याण की दृष्टि से किये गये समस्त श्रेष्ठ कार्य यज्ञ की कोटि में आते हैं। इनमें कुछ तात्विक भेद भी होता है। कुछ कर्म पूर्णतया स्थूल पदार्थों से सम्बद्ध होते हैं। कुछ भावनात्मक स्तर पर होते हैं और कुछ आत्मिक स्तर पर होते हैं। इन विभिन्न स्तरों पर सम्पन्न होने वाले कार्य विभिन्न यज्ञों के नाम से जाने जाते हैं—
(1) द्रव्यात्मक यज्ञ (हविष्य होम)
(2) भावनात्मक यज्ञ (ध्यान धारणा)
(3) केवलात्मक यज्ञ (समर्पण, एकात्म, विलय)
जिस यज्ञ का सम्बन्ध स्थूल पदार्थों से होता है, उन्हें द्रव्यात्मक यज्ञ या पदार्थात्मक यज्ञ कहा जाता है। व्यक्ति जिन भौतिक आकर्षणों में फँसा है, उसे जब वह भगवदर्पण करता है, तो यह यज्ञ सम्पन्न हुआ माना जाता है। द्रव्य और पदार्थ का तात्पर्य ही होता है चित्त को द्रवीभूत आकर्षित करने वाला और भगवान (पद) का प्रकाश या विग्रह (अर्थ) सभी पदार्थ भगवान की विभूति ही तो है। इन पदार्थों को स्वार्थ से हटाकर परमार्थ में नियोजित करना−भगवान तक समष्टि तक पहुँचाना पदार्थ यज्ञ है।
भावनात्मक यज्ञ में स्थूल हविष्यों का प्रयोग नहीं होता है। इसमें अपने अन्तःकरण को समस्त कामना−वासना−आसक्ति −स्वार्थ−सुख− स्पृह्य —अहंकार−प्रतिष्ठा का मोह इत्यादि से खाली करना होता है, दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि इन दुर्भावनाओं की आहुति प्रदान करके, हृदय को निर्मल स्वच्छ एवं द्वन्द्वातीत अवस्था में पहुँचा दिया जाता है। इस स्थिति में चित्त को भगवान भाव से पूर्णकर सर्वत्र भगवद्−दर्शन−भगत सेवा के लिए तैयार किया जाता है।
सभी प्राणियों एवं पदार्थों में ईश्वर की−देवता की− अनुभूति करना भावनात्मक यज्ञ कहा जाता है। जब यह स्थिति पराकाष्ठा पर पहुँचती है और प्राणिभेद −पदार्थ भेद का अन्तर ही मिट जाता है, एकमात्र ब्रह्म ही सर्वत्र विद्यमान है ऐसा अनुभव होने लगता है, तब इसे केवलात्मक यज्ञ की संज्ञा प्रदान की जाती है।
‘सर्व खिल्विदं ब्रह्म’ की अनुभूति केवलात्मक यज्ञ की ही परिणति कही जा सकती है। इसी को ‘एकमेवाद्वितीयं’ मन्त्र द्वारा भी स्पष्ट किया गया है।
योगों का एक विभाजन कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग के रूप में है। इस संदर्भ में तीन यज्ञों का भी उल्लेख है—कर्म यज्ञ, ज्ञानयज्ञ, देव यज्ञ।
सिद्धान्तों को योग और प्रयोगों का यज्ञ कहा गया है। निर्धारण और विधि−व्यवस्था के मिलने से ही एक पूरी बात बनती है। इस प्रकार योग और यज्ञ भी परस्पर पूरक बन जाते हैं।
निघण्टु 3.।17 में यज्ञ के विविध 15 नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं—यज्ञ, बेन, अध्वर, मेध, विदध, नार्थ, सवन, होत्र, इष्टि, देवताता, मख, विष्णु, इंद्र, प्रजापति और धर्म।
जिस प्रकार एक ही चिकित्सा विज्ञान के अंतर्गत रोगियों की स्थिति एवं आवश्यकता को देखते हुए कई प्रकार के उपचार निर्धारण किये जाते हैं उसी प्रकार विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यज्ञ विज्ञान के विभिन्न निर्धारण प्रयुक्त होते हैं। अस्पताल एक ही होता है। प्रवेश करने वाले भी सभी रोगी कहलाते हैं। किन्तु उन सब की चिकित्सा प्रक्रिया एक जैसी नहीं होती। रोगियों की स्थिति और आवश्यकता को देखते हुए उपचार की अनेक शाखाओं का प्रयोग किया जाता है। पीने की खाने की, लगाने की दवाओं का स्वरूप और विधान अलग−अलग होता है। इन्जेक्शन, आपरेशन, मेकएनीमा, कथेडर आदि उपचारों की प्रक्रियाएँ भी एक−दूसरे से भिन्न होती है। कारखाना एक ही होने पर भी उसमें कितने ही प्रकार के काम होते रहते हैं। उनकी हलचलें एक−दूसरे से भिन्न होती हैं इतने पर भी सभी का सम्मिलित उद्देश्य एक ही रहता है। अस्पताल रोग−मुक्ति का—कारखाने उत्पादन का—लक्ष्य लेकर चलते हैं। अभीष्ट प्रयोजन का पूर्ति के लिए आवश्यकतानुसार व्यवस्था बनाने और बदलते रहते हैं। यही बात विभिन्न यज्ञ निर्धारणों में भी व्यक्ति और समाज और वातावरण की स्थिति सुधारने के लिए विभिन्न नाम रूप वाले यज्ञों को निर्धारण करने वाले अन्तर के सम्बन्ध में भी समझा जाना चाहिए। नाम रूप पृथक होते हुए भी वे सभी मिलकर सर्वतोमुखी उत्कर्ष की विधि−व्यवस्था बनाते हैं।