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Magazine - Year 1982 - Version 2

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Language: HINDI
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सस्ते खोखले में भरा बहुमूल्य भाण्डागार

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काय संरचना के सम्बन्ध में मोटी जानकारी इतनी ही सीखी सिखाई जाती है कि अस्थि, माँस, नाड़ी संस्थान, पाचन तन्त्र, रक्त नाचरण, मस्तिष्क आदि अवयवों का स्वरूप और क्रिया−कलाप क्या है? इससे आगे जलकर उसकी सूक्ष्म संरचना जानने का जिन्हें अवसर मिलता है वे आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि सामान्य से काय कलेवर के प्रत्येक छोटे बड़े घटक का निर्माण कितनी विशिष्टताओं, कुशलताओं और सम्भावनाओं से ओत−प्रोत बनाया गया है। देखने में लिबलिबे अस्थि मज्जे से बने हुए अंग अवयव माँस पिण्ड लगते भर हैं उनके अन्तराल में इतनी विचित्रताएँ—विविधताएँ, क्षमताएँ और सम्भावनाएँ भरी पड़ी हैं कि उनकी महान परिणति का अनुमान लगाने में कोई विशेष कठिनाई नहीं रह जाती।

डॉ. केनिव राँसले की पर्यवेक्षण रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य के गुर्दे 200 वर्ष तक, हृदय 300 वर्ष तक, चमड़ी 1000 वर्ष तक, फेफड़े 1500 वर्ष तक और हड्डियाँ 4000 वर्ष तक जीवित रह सकने योग्य मसाले से बनी हैं। यदि उन्हें सम्भाल कर रखा जाय तो वे इतने समय तक अपना अस्तित्व भली प्रकार बनाए रख सकती हैं। इनके जल्दी खराब होने के कारण दो ही हैं—उनसे लगातार काम लिया जाना और बीच−बीच में मरम्मत का अवसर न मिलना।

सहयोग की भावना के आधार पर ही खरबों कोश मिलकर एक शरीर बनाते हैं। सहयोग के आधार पर ही सारे कोश अपने को ऊतकों में वर्गीकृत कर लेते हैं। ऊतक पूरे सहयोग से अवयव बनाते हैं और अवयव मिलकर एक तन्त्र बनाते हैं। फिर विभिन्न तन्त्र पूर्ण सहयोग से पूरी मानवी काया बनाते हैं। इस प्रकार लगभग साढ़े सात सौ खरब इकाइयों (कोशों) का एक शरीर बनता है।

सहयोग व सहकार शरीर की हर इकाई का गुण है। अनेकों एन्जाइम मिलकर भोजन पचाते हैं। भोजन पचाने में हर एन्जाइम जो वस्तुतः एक प्रोटीन होता है, का बनना स्वयं सैकड़ों एन्जाइमों पर निर्भर करता है। इस प्रकार मात्र भोजन पचाने में कई सौ एन्जाइमों का योगदान होता है। यदि इनमें से कोई भी अपना काम न करे तो शरीर स्वस्थ नहीं रह सकता।

स्वस्थ शरीर एक ऐसे किले के समान है जिसे घातक से घातक एवं प्रबल सामर्थ्यवान जीवाणु−विषाणु कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। स्वस्थ शरीर की संरचना−पर जब एक दृष्टि डालते हैं तो एक अद्भुत चमत्कारी संस्थान के दर्शन होते हैं। जीवाणु, जो शरीर पर व अन्दर जमे बैठे है, से संघर्ष व सहयोग की प्रक्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती है, कैसे काया के विभिन्न घटक इन आक्रमणकारियों से जूझते हैं अथवा तालमेल बिठाते हैं−इसकी भी अपने आप में एक गौरव गाथा है।

यदि किसी व्यक्ति का एक गुर्दा या एक फेफड़ा पूर्णरूप से निकाल भी दिया जाये तो भी वह इन परिस्थितियों से तालमेल बिठा लेगा और बचा हुआ दूसरा गुर्दा या फेफड़ा शरीर का वह सारा काम अकेला कर लेगा जो दो अवयव कर पाते थे। बचा हुआ अवयव फैलकर बड़ा हो जायेगा और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देगा।

हृदय 250 ग्राम का एक माँस पिण्ड होते हुये भी प्रतिदिन छियानवे हजार किलोमीटर लम्बी रक्त वाहिनियों में सतत् रक्त को चलायमान रखता है।

जितना रक्त वह दिन भर में पम्प करता है, उतना 18000 लीटर के एक टैंक को भरने के लिए काफी है। ऐसा अनुमान है कि चालीस वर्ष की उम्र तक यह करीब 300000 टन रक्त को पम्प कर चुका होता है।

औसतन साठ किलोग्राम के एक व्यक्ति के 7 किलोग्राम वजनी अस्थि शृंखलाओं से युक्त संस्थान, सवा बारह मीटर लम्बे पाचन संस्थान, एवं अगणित कोशों को घेरे 14 लीटर के करीब स्थान को अपने प्रवाह द्वारा निरन्तर निर्मल बनाये रखना, इस आध पौंड के जीवन्त अंग हृदय का ही कार्य है।

इसकी एक दिन की शक्ति द्वारा दस हजार किलोग्राम वजन एक मीटर की ऊँचाई तक बिना किसी कठिनाई के उठा सकते हैं और यदि मनुष्य की पूरी जिन्दगी के औसत सत्तर वर्ष मात्र ले लिए जायें तो फिर दो लाख टन रक्त को लगभग छियानवे हजार मीटर की ऊँचाई तक चढ़ाया जा सकता है।

यह एक ऐसी ट्राँसपोर्ट व्यवस्था है जिसका कार्यक्षेत्र 1 लाख 20 हजार किलोमीटर लम्बा है। 5॥ फुट लम्बी काया में इतना बड़ा जंजाल बिखरा पड़ा है जो छह सौ अरब जीवकोश रूपी सदस्यों तक अपना सन्देश पहुँचाता है। सारे विश्व की हवाई उड़ानों के परिपथ की कुल लम्बाई को जोड़ दिया जाये तो भी रक्त वाहिनी नलियों की कुल लम्बाई से कम ही होगा।

एक डबल सेट पम्प एक दिन में 3250 गैलन पानी फेंकता है, किन्तु उसे दिन भर बिना एक—आध घण्टा विश्राम दिये चलाये रखा जाये तो मशीन इतनी गर्म हो जायेगी कि उसके जल उठने या फट जाने का संकट उत्पन्न हो उठेगा। इसीलिए मशीन वाले लोग उसे दिन में एक बार विश्राम दे लेते हैं। हमारे शरीर में हृदय ही एक ऐसा शक्ति स्रोत है, जो जीवन भर एक पल को भी विश्राम किये बिना काम करता रहता है, जीवन भर 6 लीटर रक्त सारे शरीर में दौड़ता रहता है। अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए हृदय 1 सेकेंड की नींद तक नहीं लेता। यह अपने आप में एक कर्मयोगी की समतुल्य भूमिका है जिसे हम मानवी काया के अतिरिक्त और कहीं नहीं देखते। कभी कहीं कोई स्थान कट जाता या चोट लग जाती है, तो हृदय अपनी कुछ विशेष धमनियों को चलाकर उस स्थान में पहले से बहुत अधिक मात्रा में तब रक्त पहुँचाता रहेगा जब तक उतने रक्त की आवश्यकता बनी रहेगी।

मस्तिष्क—सारे जीवन का केंद्र बिन्दु एवं प्राण है। उसे प्रतिपल शुद्धतम रक्त की आवश्यकता होती है। हृदय उसे शुद्ध से शुद्ध रक्त देता है।

कहने को तो हृदय सारे शरीर को रक्त पम्प करता है। वह 99 प्रतिशत तो समस्त शरीर को बाँट देता है, पर एक प्रतिशत अपने पोषण के लिए भी बचाकर ‘कोरोनरी’ धमनियों द्वारा स्वयं का पोषण भी कर लेता है। जीवन जीने की यह स्वर्णिम समन्वय नीति है।

एक धड़कन एक मिनट के 72 वें भाग में सेकेंड के पाँच बटे छः भाग में सम्पन्न होती है। इस अल्प अवधि में ही असंख्य विद्युत तरंगें उस संस्थान से प्रवाहित होती हैं। इन तरंगों के विद्युत आवेशों की इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम के माध्यम से रिकार्ड करके हृदय की स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है।

सारे शरीर में रक्त की एक परिक्रमा प्रायः डेढ़ मिनट में पूरी हो जाती है। हृदय और फेफड़े के बीच की दूरी पार करने में उसे मात्र 6 सेकेंड लगते हैं जबकि उसे मस्तिष्क तक रक्त पहुँचने में 8 सेकेंड लग जाते हैं। रक्त प्रवाह रुक जाने पर हृदय भी 6 मिनट जी लेता है, पर मस्तिष्क तीन मिनट में ही बुझ जाता है। हृदय फेल होने की मृत्युओं में प्रधान कारण धमनियों से रक्त की सप्लाई रुक जाना ही होता है। औसत दर्जे के मनुष्य शरीर में पाँच से छः लीटर तक खून रहता है। इसमें से 5 लीटर तो निरन्तर गतिशील रहता है और एक लीटर आपत्ति कालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है। 24 घण्टे में हृदय को 13 हजार लीटर खून का आयात निर्यात करना पड़ता है। 10 वर्ष में इतना खून फेंका समेटा जाता है जिसे यदि एक बार भी इकट्ठा कर लिया जाय तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में ही भरा जा सकेगा। इतना श्रम यदि एक बार ही करना पड़े तो उसमें इतनी शक्ति लगानी पड़ेगी जितनी कि दस टन बोझा जमीन से 50 हजार फुट तक उठा ले जाने में लगानी पड़ती है।

रक्त के लाल कण शरीर के प्रत्येक अंश−तन्तु और कोश को आहार एवं आक्सीजन पहुँचाते हैं। मल रूप निकली कार्बनडाइ आक्साइड गैस को ढोकर फेफड़ों तक ले जाते हैं, ताकि वहाँ से साँस द्वारा उसे बाहर निकाला जा सके।

सफेद कण वस्तुतः कोशाणु हैं। उनकी संख्या कम ही होती है। 650 लाल कणों के पीछे एक। इन्हें शत्रु रोगाणुओं से लड़ने वाले सैनिक कहा जा सकता है। शरीर के किसी भाग में यदि रोग कीट हमला करदें तो यह श्वेत कण उनसे लड़ने को तत्काल जा पहुँचते हैं। साधारणतया प्रति घन मिली मीटर रक्त में 5 से 10 हजार तक श्वेत कण होते हैं। लाल रक्त कण इनसे छोटे होते हैं। यदि 3000 की संख्या में उन्हें सीधे एक लाइन में रख दिये जाँय तो एक इंच से भी कम लम्बाई में रख दिये जाँय तो एक इंच से भी कम लम्बाई बन सकेगी। युवा मनुष्य के शरीर में 25000000000000 लाल रक्त कण होते हैं वे चार महीने जीवित रहकर मर जाते हैं और उनका स्थान लेने के लिए नये पैदा हो जाते हैं। रक्त की चाल धमनियों में प्रति घण्टा 35 किलोमीटर की है।

लाल रक्त कणिकायें प्रायः 4 महीने में लगभग 1500 चक्कर सारे शरीर में लगा देने के बाद बूढ़ी होकर मर जाती हैं। इन 2500 करोड़ लाल रक्त कणों को यदि एक सीधी पंक्ति से सटाकर बिठा दिया जाय तो इतना छोटा आकार रहते हुए भी वे इतनी बड़ी लाइन में होंगे जो समस्त पृथ्वी की चार बार परिक्रमा कर सकें।

हृदय के समान ही फेफड़े भी आजीवन कभी विश्राम नहीं करते 20 से 30 इंच घन हवा को बार−बार भरते और शरीर को ताजगी प्रदान करते रहते हैं। प्रति मिनट 17 बार के हिसाब से यह आजीवन धौंकते रहते हैं।

शरीर में उत्पन्न दूषित वायु कार्बनडाइ−आक्साइड को शरीर पोषण के लिए उपलब्ध कराना यह दुहरा उत्तरदायित्व फेफड़ों को निबाहना पड़ता है। फेफड़ों में आँख से भी न दीख पड़ने वाली बहुत पतली वायु नलिकाएँ बहती हैं। इन 40 नलिकाओं के मिलने से एक वायुकोष्ठ एयरसैक बनता है। यही सघन होकर फेफड़े का रूप लेते है। इनकी संख्या प्रायः 1600 होती है। इन्हें श्वास विभाग के सफाई कर्मचारी भी कहा जा सकता है। इन वायुकोष्ठों की लचक अद्भुत है। इन्हें पूरी तरह फूलने का अवसर मिले तो वे समूचे शरीर से 55 गुने विस्तार में फैल सकते हैं। एक मनुष्य एक मिनट में 17 से 20 बार साँस लेता है। प्रत्येक साँस के साथ 300 से 500 क्यूविक सेण्टीमीटर हवा 1 पौण्ड वजनी फेफड़ों में भर जाती हैं। फेफड़ों की सूक्ष्म इकाइयाँ बुलबुलों के आकार के वायु कोष्ठ (एलब्रियोलाइ) हैं जिनकी संख्या लगभग 25 करोड़ होती है और जिनकी दीवारों का बाहरी क्षेत्रफल साठ वर्ग मीटर होता है। साधारण साँस लेने वाला व्यक्ति जब 100 मीटर की लम्बी दौड़ में भाग लेता है तो एक सौ अस्सी लीटर हवा श्वास के माध्यम से खींचता है। लचीले स्पंज जैसे ऊतकों के बने हुए ये विलक्षण फेफड़े परिस्थितियों के अनुसार आठ गुना तक फैल जाते हैं।

शरीर का ढोल चमड़ी से मढ़ा है। यह देखने में पिटारी-सा लगता है जिसमें भीतर चित्र−विचित्र कबाड़ खाना भरा पड़ा है। किन्तु उस लिफाफे की संरचना पर दृष्टिगत करने से प्रतीत होता है कि वह इतना साधारण नहीं जितना कि दीखता या समझा जाता है। बारीकी समझने के प्रयत्न करने पर प्रतीत होता है कि सामान्य-सी दीखने वाली त्वचा कितनी विचित्र—कितनी रहस्यमयी है।

शरीर पर चमड़ी का क्षेत्रफल लगभग 250 वर्ग फुट होता है। वजन 6 पौण्ड। सबसे पतली वह पलकों पर होती है। 0.5 मिलीमीटर। पैर के तलवों में सबसे मोटी होती है—6 मिलीमीटर। साधारणतया उसकी मोटाई 0.3 से 3 मिलीमीटर की होती है। उसमें बारीक−बारीक अगणित छेद होते हैं जो खुर्दबीन की सहायता से देखे जा सकते हैं। इन छंदों से दिन−रात से औसतन 10 छटाँक पसीना बाहर निकलता है। गर्मी पड़ने पर या अधिक परिश्रम करने पर जब शरीर का इंजन गरम हो उठता है तो उसे ठण्डा करने के लिए स्वेद ग्रन्थियाँ तेजी से पसीना बाहर निकालती हैं और बदन ठण्डा कर देती हैं। पर सर्दियों में शरीर को गरम रखने की जरूरत पड़ती है इसलिए वे छेद सिकुड़ जाते हैं। भीतर की गर्मी रुकी रहती है और ठण्ड से बचाव हो जाता है। इस तरह त्वचा की संरचना शरीर को “एअर कन्डीशन” बनाये रहती है।

त्वचा−छिद्र पसीना ही नहीं निकालते, वे एक प्रकार से साँस भी लेते रहते हैं। वाष्प की तरह कुछ चीजें निकलती रहती है और जरूरत की चीजें भीतर घुसती रहती है।

त्वचा के भीतर बिखरे हुए ज्ञान तन्तुओं की लम्बाई 45 मील कूती गई है। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के तन्तु भी हैं जो दृश्य, गन्ध, ध्वनि, दबाव, स्वाद, सर्दी−गर्मी की आँख, नाक, कान, जीभ आदि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से विशिष्ट प्रकार की अनुभूतियाँ कराने में योगदान करते हैं।

त्वचा में एक विशेष तेल रहता है जो “कोरियम” कहलाता है। शरीर पर इसी चिकनाई की चमक रहने से सौंदर्य बढ़ता है और तेजस्विता झलकती है। इसी प्रकार त्वचा की रंजक कोशिकाएँ—’मेलानिक’ नामक रंग उत्पन्न करती हैं। इन्हीं के कारण गोरा, काला, गेहुँआ, पीला आदि रंग मनुष्य का होता है।

एक वर्ग फुट त्वचा में लगभग 72 फुट लम्बी तन्त्रिकाएँ जाल की तरह बिछी हुई हैं। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई लगभग 12 फुट बैठती है। शरीर की गर्मी को जब बाहर निकालना आवश्यक होता है तो वे फैल जाती हैं और जब ठण्ड लगती है तो भीतर की गर्मी बाहर न निकलने देने से शरीर को गरम बनाए रखने के लिए वे सिकुड़ जाती है।

सम्पूर्ण शरीर की त्वचा में लगभग दो लाख स्वेद ग्रन्थियाँ हैं इनमें से पसीने के रूप में शरीर के हानिकारक पदार्थ बराबर बाहर निकलते रहते हैं।

एक वर्ग सेंटीमीटर चमड़ी में 15 तेल ग्रन्थियाँ, 10 रोएँ, 30 लाख कोशिकाएँ, 4 ताप सूचक तन्त्र, 200 दर्द सूचक स्नायु छोर, 25 स्पर्शानुभूति तन्त्र, 4 गज स्नायु, 3 हजार सम्वेदना ग्राहक कोशिकाएँ, 100 स्वेद ग्रन्थि, 3 फुट रक्त वाहिनियाँ होती है।

त्वचा का कोई भी भाग ऐसा नहीं है जिस पर प्रति वर्ग इंच करोड़ों जीवाणु अच्छे मित्र की तरह शान्ति और सौहार्द के वातावरण में मनुष्य के साथ जीवन पर्यन्त न रहते हों। ये जीवाणु शरीर का द्विपक्षीय लाभ करते हैं—एक तो ये सतत् समाप्त होते रहने वाले कोशों को खाकर उनकी सफाई करते हैं, साथ ही अपना पेट भी भरते हैं, तथा दूसरे ये किसी बाह्य जाति के जीवाणु को घुसने नहीं देते। स्वयं में निरापद इन जीवाणुओं को सहभोजी (कमेन्सल) या सहजीवी (सिम्बीयोटिक) कहते हैं।

शरीर रात दिन में 160 से 180 लाख कैलोरी ऊष्मा नित्य फेंकता रहता है। बिजली के छोटे हीटर भी प्रायः इतना ही तापमान उत्पन्न करते हैं शरीर में यह गर्मी घर्षणात्मक हलचलों से उत्पन्न होती है।

यह एक दो अवयवों की चर्चा हुई। इनके अतिरिक्त गुर्दे, आमाशय, यकृत, प्रजनन तन्त्र, मेरुदण्ड जैसे घटकों पर दृष्टि डाली जाय तो वे सभी अपने आप में एक समूचे तिलस्म जैसे दीखते हैं। मस्तिष्क की संरचना इन सबसे अद्भुत है। उसके छोटे घटकों—जीवकोशों, न्यूरानों की बनावट के सम्बन्ध में तो सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों की सहायता से बहुत कुछ जाना जा चुका है परन्तु उनकी गतिविधियों और रहस्यमयी परतों के सम्बन्ध से तो तनिक-सी ही जानकारी मिल सकी है। विज्ञान में मस्तिष्कीय क्रिया−कलापों के सम्बन्ध में जो जाना उसे समग्र की तुलना में सात प्रतिशत ही कहा गया है जो जानना शेष है उसे 93 प्रतिशत कहना चाहिए। सामान्य व्यवहार में जो अंश काम में आता है—वह स्वल्प है। अतीन्द्रिय क्षमताओं से भरा−पूरा कार्यक्षेत्र जो तिलस्म से भरा है उसे तो अचेतन, अब चेतन, सुपर चेतन कहकर अविज्ञात की संज्ञा में ही धकेल दिया जाता है।

यह काया की भौतिक संरचना के उस भाग की चर्चा हुई जिसे खुली आँखों से नहीं वरन् यन्त्र उपकरणों की सहायता से ही देखा जाना जा सकता है। आत्मा और उसकी क्षमता का क्षेत्र इससे आगे का है। इसी काया में उसकी स्थिति उपस्थिति होने के कारण, समूचा तिलस्म और भी अधिक सुविस्तृत एवं रहस्यमय बन जाता है। इतने पर भी जो सूक्ष्म आँखों से दीखता है और प्रत्यक्ष क्रिया−कलाप में प्रयुक्त है अत्यन्त ही तुच्छ है। उसका बाजारू मूल्य इतना कम है कि यह देखते हुए हैरानी होती है कि इतने सस्ते खीखले में इतना बहुमूल्य भण्डार भरने का और भी अधिक कौतूहल कौतुक किसने किया? क्यों किया?

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