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Magazine - Year 1982 - Version 2

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अन्तराल की सम्पदा खोज निकालने का उपयुक्त समय

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अभी तक विकास के उतने ही चरण उठे और साधन जुटे हैं जिसने आदिम बन मानुस को सभ्यता के युग में प्रवेश करने का अवसर मिल सके। सुविधा साधनों का दृष्टि से अन्य प्राणियों को अभावग्रस्त समझा और मनुष्य को साधन सम्पन्न कहा जा सकता है। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मानवी गरिमा का स्वरूप एवं महत्व अनुभव अभ्यास में आ गया। उस उपलब्धि के लिये सच्चे मन से प्रयत्न भी नहीं चले हैं। धर्म और अध्यात्म की चर्चा भर जोर−शोर से होती है, किन्तु उसे हृदयंगम करने तथा व्यवहार में उतारने का कोई ठोस एवं कारगर प्रयत्न नहीं होता। आवश्यकता इस बात की है कि अब नये अध्याय का शुभारम्भ किया जाए।

वन मानुष ने सभ्य कहलवाने की मंजिलें पूरी कर ली, पर यह तो एक विराम मात्र हुआ। पूर्णता तक पहुँचने के लिए मनुष्य में देवत्व का उदय करना होगा। यही है वह आधार जिसे योजनाबद्ध रूप से कार्यान्वित किया जाना चाहिए। उपार्जित कौशल एवं वैभव का सदुपयोग बन पड़े, इसके लिये स्तर का विकास परिष्कार इन्हीं दिनों चाहिए। सम्पदा की आवश्यकता समझी गई और उसे उपार्जित करने में सफलता भी पाई गई, पर इतने भर से काम नहीं चलेगा? बीच रास्ते में बैठ जाने से, मझधार में लंगर डालने से बात कहाँ बनेगी। अब तो पार जाने और लक्ष्य तक पहुँचने की तैयारी की जानी चाहिए।

प्रकृति सम्पदा की निर्वाह भर की मात्रा की प्राणियों को हजम होती है। यदि इससे अधिक कमा लिया गया है या कमाया जाता है तो यह भी समझा जाना चाहिए कि बारूद के खिलौने बनाने वाले जैसी सावधानी बरतते हैं ठीक वैसी ही आज के मनुष्य को बरतनी होगी। इस सावधानी के लिए जिस दूरदर्शिता की आवश्यकता है उसे प्राप्त करने के लिये मानवी चेतना के अन्तस्थल को कुरेदा, उभारा और उर्वर बनाया जाए।

पुरातन युग में यह कार्य धीमी गति से चलते रहने की गुंजाइश थी, क्योंकि तब तक सभ्यता और सुविधा प्राप्त करके आदिम कालीन पिछड़ेपन से छुटकारा पाना ही लक्ष्य था, पर अब वैसी स्थिति नहीं रही शक्ति और साधनों की इतनी मात्रा एकत्रित हो गई है कि उनका सदुपयोग सम्भव हो सके। शक्ति दुधारी तलवार है उससे आत्म−रक्षा ही नहीं आत्मघात का संकट भी खड़ा हो सकता है। इन दिनों आत्मघात की दिशा में बढ़ रहे लोक प्रवाह को आत्म रक्षा के लिये नियोजित करने की आवश्यकता जितनी अधिक अनुभव की जा रही है, उनकी इससे पूर्व कभी नहीं की गई।

पिछले दिनों मानवी तत्परता ने भौतिक क्षेत्र के सभी क्षेत्र को मथ डाला है जहाँ से जो कुछ हस्तगत हो सका है उसे उपलब्ध करने में कभी नहीं छोड़ी गई। भूमि की ऊपरी परत से लेकर अत्यधिक गहराई तक खोदकर उसकी खनिज सम्पदा तक के दोहन में कमी नहीं रही, प्राणि जगत के हर वर्ग को अपने आधिपत्य में ले लिया गया है और जिससे जो प्रयोजन सध सकता था साधा गया है, समुद्र, सरोवरों और नदी, निर्झरों में से जिससे जितना लाभ लिया जा सकता था लिया गया, आकाश पर आधिपत्य जमाने की घुड़दौड़ इन दिनों तेजी से चल रही है। बिजली, रेडियो, लेसर आदि प्रकृति के रहस्यों को बहुत हद तक कुरेद लिया गया है, अन्तर्ग्रही धावे बोले जा रहे हैं। उद्योग, विज्ञान, शिक्षा, कला आदि के क्षेत्रों में भी आश्चर्यजनक प्रगति हुई है, कूटनीति का हर जगह बोलबाला है।

अछूत क्षेत्र एक ही रह गया है मानवी गरिमा के अन्तराल का पुनर्निरीक्षण और पुनर्जीवन। प्राचीनकाल में इस दिशा में समुचित ध्यान दिया गया था और मनुष्य में देवत्व तथा धरती पर स्वर्ग का प्रत्यक्ष दर्शन किया गया था, अब मध्यकालीन भटकाव को दूर करने और मानवी आस्था तथा आत्मा को जगाने की फिर से आवश्यकता अनुभव की गई है। युग चेतना की इस माँग को पूरा करने के लिए हमें तथ्यों पर अधिक गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए और समय की माँग को पूरा करने में प्रमोद नहीं बरतना चाहिए।

योगी अरविन्द कहते हैं–’युग समस्याएँ विकट से विकट होती जा रही हैं, इनके समाधान के छुटपुट प्रयास भर चलते रहते हैं। उन्हें उत्साही लोग ‘क्रान्ति’ के नाम से सम्बोधन करते रहते हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक क्रांतियों की चर्चा आयेदिन सुनी जाती है। पर तथ्यतः यह सभी पैबन्द मात्र हैं, इस समय का वास्तविक कार्य तो यह है कि समूची मनुष्य जाति को कोई नया वस्त्र दिया जाय। नया वस्त्र अर्थात् स्थिति का समग्र रूपांतरण अर्थात् जीवनचर्या के साथ जुड़े हुए दृष्टिकोण एवं क्रिया−कलाप में उत्कृष्टता का सर्वतोमुखी समावेश। इसकी पृष्ठभूमि अन्तःकरण में अध्यात्मवादी आस्थाओं को जमाने वाली प्रक्रिया अपनाने से ही सम्भव हो सकेगी। प्रसिद्ध नीतिज्ञ स्माइले वायेन्टन का कथन है–’मनुष्य के ओछे और बौने रह जाने का एक ही कारण है कि वह अपने गहन अन्तराल तक पहुँचने का प्रयत्न नहीं करता। वैभव के खिलौनों से खेलने और अचिन्त्य चिन्तन के जंजाल में फँसे रहने के अतिरिक्त उससे एक कदम आगे बढ़ना ही नहीं बन पड़ता। यदि उच्च चेतना से भरे−पूरे आस्था संस्थान के साथ संपर्क साधा जा सके और उसे अनुकूल बनाया जा सके तो हर कोई यह अनुभव कर सकता है कि अपनी गरिमा को ऊँचा उठाने के कितने आधार उसके पास मौजूद हैं, प्रशंसा पाने के लिये तरह−तरह के आडम्बर रखने वालों को यह प्रतीत नहीं होता कि वे अन्तःकरण को भारी भरकम बना सके तो असंख्यों द्वारा सम्मान पाने और श्रद्धास्पद बनने का अवसर उन्हें सहज ही मिल सका है।”

जीन डब्ल्यू आलपोर्ड ने मानवी पूर्णता की व्याख्या करते हुए लिखा है–”शरीर,बुद्धि,पद,धन और स्वामित्व की छोटी परिधियों को पार करते हुए जो अपने को विश्व कल्याण की बात सोचता है वह पूर्ण है, अपूर्णता के बन्धन उसे उसी अनुपात से जकड़े रहते हैं जितनी कि ममता और आसक्ति घनीभूत होती है।”

वस्तुतः मनुष्य जिन बन्धनों से बँधा छटपटाता रहता है वे उसके आन्तरिक एवं बाहरी पर्यावरण मात्र हैं, संचित आदतें प्रायः पशु प्रवृत्तियों से मिलती जुलती होती हैं। इसी प्रकार जिस ढर्रे का जीवन आम लोगों के द्वारा जिया जाता है उसमें आदि से अन्त तक संकीर्णता एवं आपा−धापी भरी रहती है, उसका प्रभाव ही क्रमशः सहचरों पर पड़ता और सघन होता जाता है, यही है चेतना पर छाया हुआ वह पर्यावरण जो मनुष्य को छोटी सीमा में सोचने और छोटे काम करने के लिए विवश करता है यदि इस घेरे को तोड़ा जा सके और विराट् के साथ अपने को जोड़ा जा सके तो पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त होने में देर न होगी। क्षुद्रता ही बन्धन और विशालता ही मुक्ति का सोपान है।

सामान्य मनुष्य का व्यक्तित्व अनेकों जाल−जंजालों से बना हुआ अच्छा खासा तमाशा होता हैं, उसमें कुसंस्कारों, निकृष्ट अभिलाषा और उलझते उद्वेगों की भरमार होती है। ऐसे लोगों के लिए न तो एकाग्र होते बन पड़ता है और न अन्तर्मुखी होने की स्थिति आती है, ऐसे लोग वस्तुओं की माँग परिस्थितियों की शिकायत और साथियों पर आक्षेप करते−करते ही दिन गुजारते रहते हैं उन्हें यह सूझता ही नहीं कि आत्म−तत्व में विकृति भर जाने से ही अनेकानेक विपन्नताएँ उत्पन्न होती हैं। इस विषम स्थिति से छूटना कठिन नहीं है। अपने हाथों बुने जाले को समेटने का साहस किया जा सके तो मुक्ति का आनन्द ले सकना हर स्थिति के व्यक्ति के लिए भी सरल हो सकता है।

मनोवैज्ञानिक एडलर का मत है कि–’जिस शक्ति को प्राप्त करके व्यक्ति सच्चे अर्थों में समर्थ एवं श्रेष्ठ बनता है उसका नाम आत्मबल है, जिसे

भी वह प्राप्त होगी वह स्वार्थी नहीं रह सकेगा। अपनी सम्पन्नता एवं सरलता के लिए चिन्तित रहने की अपेक्षा उसका मन सदा परमार्थ प्रयोजनों की बात सोचता रहता है, और करने के लिए हाथ डालने से पूर्व देखता है कि यह सब कुछ श्रेष्ठता का समर्थक सहायक है या नहीं? ऐसे व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में समाज सेवा कर पाते हैं भले ही उनके द्वारा कोई बड़े कहे जाने वाले काम नहीं ही हुए हों।”

विद्वान लेखक साइमण्ड्स ने अपने ग्रन्थ ‘डायनामिक साइकोलॉजी में कहा है–’पूर्णता के समीप जैसे−जैसे पहुँचा जाता है वैसे हो वैसे वह परोपकारी परमार्थ परायण होता जाता है उसकी इच्छाएँ और क्रियाएँ इस प्रयोजन के लिए उठती हैं कि सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन बन पड़े और अपना श्रम समय दूसरों के काम आये।’

महामनीषी जॉन हार्वे का कथन है–’जब अपनी दृष्टि संकीर्ण स्वार्थपरता की अहंमन्यता से हटाते हैं, तो राग−द्वेष रहित परम सत्य के दर्शन होने लगते हैं, सभी अपने लगते हैं और सभी की सुख−शान्ति की बात सोचते और वैसी ही चेष्टा करते समय बीतता है, असीमता और उस छोटी परिधि में लिप्तता हो आत्मिक प्रगति की प्रधान बाधा है, आत्मदर्शी अनुभव करता है कि उसकी गति,क्रिया,सम्पदा,क्षमता, की अमानत है और जो साधन हाथ में है उन सभी का उपयोग मात्र अनन्त के लिए होगा और किसी के लिए नहीं।

यह एक वास्तविकता है कि वातावरण और साथियों का दबाव अपना प्रभाव छोड़ता है। पर वह इतना भारी नहीं है कि आदर्शवादी संकल्पों के द्वारा उसे हटाया–घटाया न जा सके अपना भौतिक दृष्टिकोण न होने से ही प्रवाह में बहते चलने की स्थिति बनती है, यदि सब निर्भरता के सूत्र हृदयंगम किये जा सकें तो वातावरण की उपेक्षा करना और दूरदर्शी नीति अपना सकना तनिक भी कठिन न रहेगा। आत्मावलम्बन का अभाव ही मनुष्य को ढर्रे का गुलाम बनाये रहता है, नीति का पालन और मर्यादाओं का अनुसरण एक बात है और अवाँछनीयता के जंजाल में जकड़े रहना सर्वथा दूसरी।

शेल्डन का मत है कि–”व्यक्ति का विकास उसकी परिस्थितियों पर अवलम्बित माना जाता है इसमें दूसरों के सहयोग असहयोग को भी प्रमुखता दी जाती रहती है,पर यदि गम्भीरता से वस्तुस्थिति का विश्लेषण किया जा सके तो प्रतीत होगा कि अपनी ही चिन्तन शैली–कार्य पद्धति−ने ही अधिकाँश उलझनें पैदा की हैं। उन्हें सुधारा जा सके तो समाधान का मार्ग सहज ही हस्तगत हो जायेगा।

सारे उपनिषदों का सार इन वाक्यों में व्यक्त किया जा सकता है–”यदि अचेतन और उच्च चेतन को गढ़ने में जुट पड़ा जाए तो प्रतीत होगा कि बड़ी से बड़ी सम्पदा एवं सफलता पाने की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण लाभ उठाया जा रहा है। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि बहुमूल्य रत्नराशि अपनी ही तिजोरी में भरी पड़ी हो और तनिक−तनिक-सी बात में लिए जिस−तिस से याचना करते फिरा जाए। बाह्य पुरुषार्थ से वैभव कमाया जाता है किन्तु अन्तर्मुखी पराक्रमों से मनुष्य को तत्वदर्शी,मनीषी और देव मानव बनने का सौभाग्य मिल सकता है।

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