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Magazine - Year 1982 - Version 2

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स्नेह सहकर का आदान−प्रदान

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प्रगति की आकाँक्षा स्वाभाविक भी है–और श्रेयस्कर भी। इसमें सृष्टा की इच्छा पूर्ण होती है– सृष्टि का क्रम चलता है और प्राणी को उत्साहपूर्वक अग्रगमन का मार्ग मिलता है। बुद्धिमत्ता इसमें है कि इस गति चक्र की दिशाधारा सही बनाये रखी जाय और श्रम की सार्थकता प्रकट होते रहने का सुनियोजित निर्धारण एवं व्यवस्था क्रम बनाया जाय।

भटकाव वहाँ उत्पन्न होता है जब मात्र भौतिक प्रगति को ही सब कुछ मान बैठा जाता है और उसी के साथ−साथ आत्मिक प्रगति के जिस सन्तुलन को अनिवार्य रूप में बनाये रहना आवश्यक है उसकी उपेक्षा की जाने लगती है। एकाकीपन काना, कुबड़ा, लंगड़ा−लूला एवं पक्षापात पीड़ित जैसा विचित्र अनगढ़ लगता है। उपार्जन में जिस कुशलता की आवश्यकता है, उपयोग में उससे कम नहीं वरन् अधिक ही दूरदर्शिता चाहिए। अन्यथा अनगढ़ दृष्टिकोण उपलब्धियों का सदुपयोग न कर सकेगा। दुरुपयोग होने पर तो उपयोगी वस्तुएँ भी हानिकारक सिद्ध होती हैं। बन्दर के हाथ तलवार जैसा बहुमूल्य शस्त्र पड़ जाने पर संकट ही संकट उत्पन्न खड़ा होता है उसी प्रकार सम्पदा का प्रयोक्ता यदि अदूरदर्शी हो तो हर स्तर के भौतिक उपार्जन अपने तथा दूसरों के लिए हानिकारक–कष्टकारक सिद्ध होते रहेंगे। अतएव भौतिक उपलब्धियों का उत्साहपूर्ण उपार्जन करते समय यह ध्यान रखे जाने की आवश्यकता है कि प्रयोक्ता का विवेक उपयुक्त मात्रा में जग रहा है या नहीं।

कोई किसी को सहयोग क्यों दे? अपनी इच्छा सहयोग प्राप्त करने की हो, सो ठीक है, पर देखना यह भी है कि दूसरा कोई क्यों अपने समय, श्रम, मनोयोग, उत्साह, कौशल आदि किसी को देने की हानि उठाये? अपनी ही तरह दूसरों के भी स्वार्थ हैं। जब हम अपने ही लाभ या सुख की बात सदा सोचते रहते हैं और उसी आधार पर कुछ करने के लिए प्रयत्नरत होते हैं तो दूसरे भी क्यों न वैसे ही स्वभाव के होंगे? मनुष्यों की आकृति में बहुत अन्तर नहीं है उसी प्रकार प्रकृति भी प्रायः मिलती−जुलती ही है। स्वार्थ सभी को प्रिय है। पर इसके लिए साधन जुटाने में आदान−प्रदान की आवश्यकता तो पड़ेगी ही। वह न मिल सके तो फिर अकेले प्रयत्नों से न जीवनोपयोगी साधन जुटेंगे न सहयोग मिलेंगे और न उल्लास उभरेंगे।

जीवन सत्ता एक साझे का व्यवसाय है। जिसमें शरीर और चेतना दो हिस्सेदारों की अपने−अपने ढंग की महत्वपूर्ण भागीदारी है। इन दोनों के समन्वय सहयोग से ही समग्र उद्देश्य की पूर्ति होती है। गाड़ी के दो पहिये मिलकर ही उसे गति प्रदान करते है। एक पैर से चल सकना तो दूर खड़े रह सकना भी कठिन है। असली न सही निकली पैर का सहारा तो लेना ही पड़ता है। नाव खेने में एक हाथ से डाँड चलाने पर सन्तुलन नहीं बनता। इसी प्रकार प्रगति की आकाँक्षा मात्र दूसरों का श्रम या साधन उपलब्ध करने भर से पूरा नहीं होता। उसमें जीवित रहने की शरीर निर्वाह की आवश्यकताएं पूरी होती रह सकती हैं। प्रगति इतने तक ही तो सीमित नहीं है।

जीवन सत्ता का सर्वोपरि पक्ष चेतना है। चेतना की भी अपनी कुछ आवश्यकताएँ हैं। शरीर की भूखों से सभी परिचित हैं और उसकी पूर्ति इंद्रियां तृप्ति के रूप में–पेट प्रजनन के साधन जुटाने के रूप में−प्रयत्न चलते भी रहते हैं। समझा जाना चाहिए कि अन्तःचेतना की भूखे भी अपने ढंग की हैं और वे विशु। रूप से भावनात्मक हैं। चेतना, ज्ञान एवं भावना के समन्वय में प्रकट परिलक्षित होती है। इसकी तृप्ति एवं पुष्टि दूसरों की सद्भावनाएँ अर्जित करने पर ही सम्भव है। अस्तु प्रयत्न यह ही होना चाहिए कि सहकारिता का आश्रय लेते हुए यह भी देखा जाय कि अन्तःकरण को उल्लास दे सकने वाली सद्भावनाओं को अर्जित कर सकना सम्भव हो रहा है या नहीं। यदि नहीं तो समझना चाहिए कि सर्वतोमुखी प्रगति की बात बनी ही नहीं।

सहकारिता का भाव पक्ष अन्तरात्मा की तुष्टि के लिए साधन पक्ष शरीर पोषण के लिए समान रूप से आवश्यक है। अस्तु दोनों ही क्षेत्रों में दोनों ही प्रयोजनों के लिए समग्र सहायता उपलब्ध करने के लिए प्रयत्न चलने चाहिए। यह कैसे हो? इसका उत्तर एक ही है–मूल्य चुका कर। जिस प्रकार सुविधा सामग्री उपलब्ध करने के लिए अपने श्रम साधनों का प्रतीक पैसा देना पड़ता है उसी प्रकार दूसरों की सद्भावना प्राप्त करने के लिए बदले में अपनी बनावटी–शिष्टाचार परक नहीं वरन् अन्तराल की गहराई से निकली हुई आत्मीयता प्रदान करनी पड़ती है। सर्वविदित है कि जैसा बोया जाता है वैसा ही पौधा उगता है और फल मिलता है। घटिया बीज बोया जाय तो उसी स्तर की फसल कटेगी। आरम्भ अपनी ओर से–प्रतिक्रिया दूसरों की ओर से प्रस्तुत किये जाने की परम्परा है। ऐसा कहाँ होता है कि पहले दूसरे लोग अपना सहायता उपक्रम चलाये, इसके बाद अपनी ओर से कृतज्ञता व्यक्त की जाय या कीमत चुकाई जाय? पोस्ट ऑफिस–स्टेशन कहीं भी जाइए पहले पैसा देना पड़ता है पीछे टिकट, पोस्टकार्ड आदि मिलता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, न कि प्रतिक्रिया उपलब्ध होने के बाद क्रिया के रूप में बदला चुकाना। पहले अपनी ओर से करने और बदला दूसरों की ओर से मिलने का सिद्धान्त सर्वमान्य है। उधार खाता तो कभी−कभी कहीं−कहीं किन्हीं विशेष अवसरों पर–विशेष व्यक्तियों के लिए ही प्रयुक्त होता देखा गया हैं। बैंक में राशि जमा करने पर ही तो चैक भुनाने की सुविधा मिलती है।

हमें दूसरों के खेत में अपनी सद्भावना के बीच बोने चाहिए ताकि उपयुक्त समय पर उपयुक्त परिणति की आधा बंध सके। अभिभावक बच्चों के साथ जो स्नेह दुलार करते हैं उसी की परिणति बच्चे बड़े होने पर अभिभावकों की सेवा सुश्रूषा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। प्रगति स्वाभाविक भी है और सुखद भी,पर उसके लिए आकाँक्षा की मौलिक किन्तु अनगढ़ प्रवृत्ति को उद्देश्यपूर्ण उच्चस्तरीय बनाना पड़ता है अन्यथा अनगढ़ आकाँक्षा पाशविक हो सकती है और नीति मर्यादाओं के समस्त अनुबन्धों की उपेक्षा करके अनैतिक एवं आक्रमण तरीके अपना कर भी उद्धत तृष्णा वासना के रूप में प्रकट हो सकती है। इससे प्रयास भी निरर्थक जायगा और परिणाम भी उलटा मिलेगा। ठीक इसी प्रकार दूसरों की सेवा सहायता अनुकूलता, सद्भावना उपलब्ध करने के लिए शालीनता, सज्जनता, आत्मीयता, उदार सेवा भावना का अभ्यास आचरण करना होगा। अन्यथा बिना मूल्य पायें मुफ्त में सद्भाव सिक्त सहायता करने के लिए किसी के मन में क्यों उत्साह उठेगा। दोनों ही क्षेत्रों में दूरदर्शिता भरे निर्धारण एवं प्रयास अपनी ही ओर से आरम्भ करने होंगे। अन्तःक्षेत्र में उद्धत आकाँक्षाओं का नियमन करते हुए उन्हें सदाशयतापूर्ण बनाना होगा। इसी प्रकार सद्भावना सहायता प्राप्त करने के लिए अपने चिन्तन एवं चरित्र में ऐसी उत्कृष्टता का समावेश करना होगा जो दूसरों को प्रशंसक, समर्थक ही नहीं, सच्चे अर्थों में मित्र सहयोगी भी बना सकने में सफल हो सके। इन दो निर्धारणों को क्रियान्वित होने की व्यवस्था बनते ही प्रगति की आकाँक्षा को पूरा कर सकने वाले अनेकों आधार खड़े होते तथा सफल बनते दृष्टिगोचर होने लगते हैं।

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