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Magazine - Year 1982 - Version 2

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अन्तराल के मर्मस्थल का प्रभावी परिशोधन

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अन्तःचेतना को परिष्कृत करने के दो उपाय हैं। इनमें से एक है-शिक्षण एवं संपर्क । इसका अर्थ होता है बाह्य क्षेत्र के प्रभाव-दबाव से अन्तराल को दबाना-ढालना दूसरा उपाय है-आन्तरिक प्रसुप्ति को दूरदर्शी विवेकशीलता और साहसिक संकल्पशीलता के सहारे जगाना-उभारना एक में बाहरी प्रभाव की प्रधानता है, दूसरे भीतर की ऊर्जा को उछाल कर बहिरंग क्षेत्र पर आच्छादित कर देने की। एक को बादल बरसने, धूप निकलने, आँधी चलने की उपमा दी जा सकती है। दूसरे की अणु विस्फोट, ज्वालामुखी का प्रकटीकरण, जल स्रोत का जमीन से उबल पड़ना जैसी घटनाओं से तुलना की जा सकती है। दोनों ही अपने-अपने स्थान पर कारगर है। दोनों का ही उपयोग होता रहा है। दोनों ही अपने-अपने प्रभाव प्रकट करती रही है।

मानसिक विकास, बौद्धिक प्रशिक्षण, अनुभव अभ्यास से लेकर ब्रेन वाशिंग और इलेक्ट्राडों का उपयोग कर मस्तिष्कीय संरचना में उलट-पुलट कर देने जैसे अनेकों प्रयोग पिछले दिनों चलते रहे हैं। नीति-कौशल में इसके लिए साम, दाम, दण्ड, भेद का तरीका चिरकाल से अपनाया जाता है। अब कूट-नीति के रूप में उसका एक अपना एक स्वतन्त्र शास्त्र ही बन गया है। सरकारी और गैर सरकारी प्रचार तन्त्र इस प्रयोजन के लिए अपने-अपने ढंग से काम करते रहते हैं। इस संदर्भ में विशेषज्ञों को पहले से भी बहुत कुछ जानकारी रहती है।

इन पंक्ति यों में उस उपेक्षित पक्ष पर प्रकाश डाला जाता है जो भीतर से उछल कर बाहर आने और ऊपरी सतह को सुरम्य बना देने को चमत्कारी परिणति के रूप में कभी-कभी ही देखा जाता है। मनुष्य सचेतन स्तर की दृष्टि में संस्थागत पदार्थ सम्पदा की तुलना में कम नहीं कुछ अधिक ही महत्व का है। अणु की संरचना और विभु की विशालता देख कर बुद्धि को हतप्रभ रह जाना पड़ता है, किन्तु यदि एक कदम और आगे बढ़ कर देखा जा सके और गहराई में डुबकी लगायी जा सके तो प्रतीत होगा कि वैभव का अदृश्य भण्डार उस क्षेत्र में भी इतना है, जिसे तुलनात्मक दृष्टि से वरिष्ठ न माना जाय तो कनिष्ठ भी नहीं कहा जा सकता।

यहाँ चर्चा पैरों के नीचे दबे अदृश्य क्षेत्र की नहीं हो रही है। धरातल का उदाहरण दिया जा रहा है ठीक यही उदाहरण मानवी सत्ता पर भी लागू होता है। बहिरंग क्षेत्र की प्रकृति सम्पदा उपयोगी भी है और आकर्षण भी। इतने पर भी अन्तरंग क्षेत्र में जो विद्यमान है वह भी ऐसा नहीं है जिसकी उपेक्षा और अवमानना की जा सके। सच तो यह है कि पदार्थ को इतना सुन्दर, आकर्षक एवं उपयुक्त बनाने में भी चेतना का ही कौशल काम करता रहा है, अन्यथा धरती भी अन्य ग्रह पिण्डों से मिलती-जुलती अनगढ़ स्थिति में ही रह रही होती और इसका वर्णन-विवेचन करने वाला तक कोई कहीं न होता।

चेतना का स्तर ही है जिसके कारण एक ही परिस्थिति में उत्पन्न हुए व्यक्ति यों में से कोई हेय, पिछड़ी, विपन्न स्थिति में दिन गुजारता और आत्म प्रताड़ना, लोक भर्त्सना सहता है, जबकि उनमें से कुछ तो अपना रास्ता आप बनाते, अवरोध हटाते, साधन सहयोग समेटते प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचते देखा जाता है। यह अन्तस् का चुम्बकत्व ही है जो अनुकूलता को खींच बुलाता है। यह अन्तस् का आलोक ही है जो संपर्क क्षेत्र को आलोक से जगमगाता है। यह अन्तस् का ऊर्जा भण्डार ही है जिसकी पकड़ में आने वाला हर पदार्थ इन्धन की तरह जलने लगता है। कहने को तो लोग यही कहते रहते हैं कि परिस्थितियाँ मनःस्थिति को प्रभावित करती हैं, पर वस्तुतः इसमें यथार्थता आत्यल्प है। थोड़ा गम्भीर पर्यवेक्षण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि तथ्य कुछ और ही है। मनःस्थिति ही परिस्थिति की जन्मदात्री है। मनस्वी लोग अपने भाग्य की रचना स्वयं करते हैं, प्रतिकूलताओं को कूट-पीट कर अनुकूलता में बदलते हैं और वातावरण के घेरे को चीरते हुए अपना संसार आप बसाते हैं। जिनका मनस् मर गया उन्हीं के लिए परिस्थितियाँ सब कुछ हैं। पत्ते, तिनके और धूलि कण तो हवा के साथ-साथ ही इधर-उधर भटकते-भटकते फिरते हैं। उथले व्यक्ति तत्वों को ही परिस्थितियों का गुलाम, भाग्य का अनुचर एवं प्रवाह में तैरता-डूबती लकड़ी कहा जा सकता है।

महामानवों का समूचा इतिहास इस बात का साक्षी है कि चेतना जगी है तो उनकी जीवन सम्पदा अपने लिए सौभाग्य और दूसरों के लिए वरदान रूप से प्रकट हुई है। इसके विपरीत हीनता के आच्छादन ने साधनों का ही दुरुपयोग किया है, साथियों को खिजाया है और भटकाव में पड़कर दुरूह दुःख सहा है। इसके अगणित प्रमाण हर कोई, हर कहीं, हर समय अपने इर्द-गिर्द ही प्रचुर परिणाम में बिखरे हुए तलाश कर सकता है। शिक्षित, स्वस्थ और सम्पन्नों में से ऐसे कम नहीं जो स्वयं जलते और दूसरों को जलाते रहे। इसके विपरीत दुर्बल, अनपढ़ और दरिद्र समझे जाने वाले भी ऐसे अगणित हजारी किसान हैं, जिनने आत्म सन्तोष, जन सहयोग और दैवी अनुग्रह की विभूतियाँ हर घड़ी अपने ऊपर बरसते देखी। ऋषियों को साधनों की दृष्टि से दयनीय भी कहा जा सकता है, पर वे अन्तःचेतना की विशिष्टता के कारण राजा से लेकर रंक तक के लिए अभिनन्दनीय बने रहे। उनके गौरव और सौभाग्य को शत-शत कंठों ने एक स्वर से सराहा।

इन तथ्यों पर विचार करने से चेतना की वरिष्ठता ही स्पष्ट होती है और विश्वास बँधता है कि साधनों का बाहुल्य हो तो सोना सुगन्ध, अन्यथा स्वल्प साधनों में भी खिलता-खिलता जीवन जिया जा सकता है। अस्तु अन्तस् की गरिमा को भी समझा-समझाया जाना चाहिए और इस तथ्य के प्रति गम्भीर होना चाहिए कि वैयक्तिक एवं सामूहिक समस्याओं के समाधान में चेतना की उत्कृष्टता को वरीयता दी जाय और उसे परिष्कृत बनाने के लिए न केवल बहिरंग साधनों को वरन् अन्तस् की ऊर्जा को भी उभार कर ऊपर लाया जाय। यदि चिन्तन और प्रयास को ऐसा अभिनव उत्साह अवलम्बन मिल सके तो समझना चाहिए कि वातावरण का काया-कल्प होने में, सतयुग के-प्रज्ञायुग के अवतरण में अब न विलम्ब लगेगा, न अवरोध अड़ेगा।

सामयिक व्यापक विपन्नताओं को निरस्त करने, शालीनता, प्रसन्नता एवं सुव्यवस्था का वातावरण बनाने के लिए आवश्यक है कि मानवी चेतना को परिष्कृत करने के सम्बन्ध में बढ़ती जा रही उपेक्षा को दूर किया जाय और उसके स्थान पर उस क्षेत्र में प्रभावी गतिशीलता का संचार किया जाय। इसके लिए जहाँ लोकमानस का बौद्धिक परिशोधन परिष्कार आवश्यक है वहाँ आवश्यकता इस बात की भी है कि प्रसुप्त अन्तराल के उन मर्मस्थलों को भी उभारा जाय जहाँ विभूतियों के अजस्र भाण्डागार भरे पड़े हैं। ऋषिकल्प अध्यात्म विज्ञानियों के अनुभव, प्रतिपादन एवं प्रशिक्षण में उन तथ्यों का समुचित समावेश है जिनके सहारे चेतना की गहन परतों को उभारा और इतना प्रखर किया जा सकता है कि न केवल परिस्थितियों को अनुकूल बनाया जा सके वरन् मनःस्थिति को अपने निज के पराक्रम-पुरुषार्थ से उच्चस्तरीय बनाया जा सके।

कहा जा चुका है कि बाहर से भीतर को प्रशिक्षित करने की तरह ही दूसरा क्षेत्र है भीतर की प्रखरता को प्रदीप्त करके बहिरंग को-सुशोभित कर सुसम्पन्नता से भर देना। यह अपेक्षाकृत सरल है। क्योंकि इसमें अपने आपे से ही उलझना-सुलझना पड़ता है। दूसरों के हाथ रहने वाली परिस्थितियों को बदलने के लिए किये गये प्रयासों पर पग-पग पर मिलने वाली खोज निराशा उपलब्ध करने जैसी कठिनाई इस क्षेत्र में नहीं है साधना अपने हाथ की बात है। अपने शरीर को जिस प्रकार मनमर्जी से चलाया जा सकता है उसी प्रकार मनःक्षेत्र की विचारणाओं मान्यताओं, आकांक्षाओं और आदतों के ऊपर भी यदि डडडड पड़ा जाय तो उन्हें भी कुम्हार की तरह अनगढ़ मिट्टी की देव-प्रतिमाओं जैसे खिलौनों में बदला जा सकता है।

अन्तस् की विशिष्टताओं एवं विभूतियों को उभारने का एकमात्र उपाय ‘साधना’ है। ‘साधना से सिद्धि’ के सिद्धान्त को तात्पर्य इतना ही है कि यदि अचेतन, सुपर-चेतन इगो क्षेत्र में कोई कारगर परिवर्तन करने हो तो उसके लिए योग परक ध्यान-धारणाएँ और तपपरक संयम-नियमन की तितीक्षाएँ करनी चाहिए। सत्संग से व्यवहार और स्वाध्याय से चिंतन को सुधारा जा सकता है। यह व्यवहार में आने वाली ऊपरी परत है। इससे मन− मस्तिष्क की विचारणाएँ भटकाव से उबर कर सही दिशा में चलने के लिए प्रशिक्षित की जाती हैं। इतने पर भी अन्तराल का आस्थापरक क्षेत्र तो बच ही जाता है। उसके लिए उन उपचारों का प्रयोग करना पड़ता है, जो चेतना के मर्मस्थल तक पहुँच सके, वहाँ निवान करने वाली श्रद्धा प्रज्ञा और निष्ठा को संचित कुसंस्कारों से मुक्त कर सके। प्रवृत्तियों की जड़ें बहुत गहरी होती है। ये समझने-समझाने पर भी अपना अंगद जैसा पैर यथास्थान जमाये रहती हैं। दूब की पत्तियाँ सूख जाने पर भी जड़ नहीं सूखती, तनिक-सी नमी पाते ही देखते-देखते हरी-भरी होने लगती हैं। यही बात प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी है। कुसंस्कार उन्हीं में पलते हैं। भ्रान्तियों का कतार वहीं है। उत्कृष्टता और निकृष्टता का शासन क्षेत्र वही है। व्यक्ति त्व की जड़े इसी क्षेत्र में जमी होती हैं। यहाँ सुधार-परिष्कार करने में जो उपचार काम देते हैं वे तप-साधना से कम स्तर के कारगर नहीं होते। पत्थर की कठोर चट्टानें काटने में हीरे की नोंक वाला वरमा ही काम आता है। पहाड़ उड़ाने हों तो डायनामाइट की सुरंगों से कम में काम नहीं चलता किले को विस्मार करने में तोप के गोले ही कारगर होते हैं। टीलों को समतल करने में बुलडोजरों का प्रयोग करना पड़ता है। हल्के-फुलके उपकरण इन बड़े प्रयोजनों के लिए आवश्यक बड़ी शक्ति के अभाव में कोई कहने लायक परिणति उत्पन्न नहीं कर पाते। यहाँ धीमे प्रयत्नों की निन्दा नहीं है। समयानुसार चींटी भी अपने नन्हें पैरों के सहारे पहाड़ पर चढ़ सकती है, किन्तु वह लम्बी बात है। शालीनता का जीवन और सत्प्रयोजनों में संलग्न क्रिया-कलाप भी कालान्तर से व्यक्तित्व मर्मस्थल को उत्कृष्ट आदर्शवादिता के ढाँचे में ढाल सकता है, किन्तु यदि समयानुसार अभीष्ट सफलता पानी हो तो बड़े कदम भी उठाने पड़ेंगे, बड़े साधन भी जुटाने पड़ेंगे। यहाँ बड़े से तात्पर्य साधनात्मक पुरुषार्थ से है। पुरुषार्थ इसलिए कि उसमें अपने आपे से ही जूझना पड़ता है। बाहरी क्षेत्र के बड़े-बड़े मोर्चे जीतने वाले भी भीतरी क्षेत्र का प्रसंग सामने आने पर हथियार डालते देखे गये है। इसलिए साधना को चरम पराक्रम कहा गया है। साथ ही उसकी परिणति को स्वर्ग एवं मुक्ति जैसी उच्चस्तरीय विभूतियों के रूप में दर्शाया गया। प्रतिभा, प्रखरता, कुशलता, सम्पन्नता, सफलता जैसी उपलब्धियाँ तो आत्मिक प्रगति की सहेलियाँ हमजोलियाँ है जो दो शरीर एक मन की तरह साथ-साथ ही चलती हैं।

कल्प साधना की प्रक्रिया का निर्धारण आज की मनःस्थिति और परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए किया गया है। वह न तो इतना कठिन है। जिसे संकल्पवान् व्यक्ति भी पूरा न कर सके और न ही वह इतना सरल है कि विलासिता और अस्वच्छता के अनगढ़ ढर्रे को यथावत् बनाये रह कर मात्र कुछ पूजा उपचार करने भर से बन पड़े। पूजा, उपचारों साधना कृत्यों का महत्व तभी है जब वे श्रद्धा, विश्वास के साथ जुड़ें और संकल्पित व्रतशीलता बन कर सैन्य अनुशासन की तरह निभायें । कल्प साधना में दान और तप के सभी तत्वों का समतुलित ढंग से समावेश है, साथ ही वह सर्वथा हानि रहित भी है। जैसा कि अन्यान्य योग साधनों में प्रयत्न भ्रष्ट होने पर कई प्रकार के विग्रह उठ खड़े होते हैं वैसी स्थिति न आने पाये इसलिए उसे नितान्त उपयोगी होने के साथ-साथ सर्वथा हानि रहित होने का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है।

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