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Magazine - Year 1982 - Version 2

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सरल, सुलभ किन्तु सम्भावना से भरी-पूरी एक महान स्थापना

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धनबल, बुद्धिबल, बाहुबल, शस्त्रबल, पदबल आदि की महिमा लोग भली-भाँति जानते हैं। प्रायः इन्हीं बलों पर सुविधा-साधनों को एकत्रित करना, दूसरों को वशीकरण करना, अपने वर्चस्व की छाप डालना सम्भव होता है। यह बहिरंग जीवन को ठाठ-बाट का बनाने वाली प्रक्रिया हुई। अब दूसरा क्षेत्र आरम्भ होता है-मनोबल और आत्मबल की महत्ता है। इन दोनों को साँसारिक साधनों की तुलना में अधिक भारी भरकम, अधिक स्थायी एवं अधिक गम्भीर परिणाम उत्पन्न करने वाला समझा जा सकता है। कारण यह है कि वे चेतना क्षेत्र से सम्बन्धित है। धन बल आदि भौतिक क्षेत्र के होने के कारण मात्र बहिरंग की ही महिमा बढ़ाते हैं। उनसे दूसरों की आँख में चकाचौंध उत्पन्न किया जा सकता है। वासना तृष्णा की शरीरगत ललक भी एक सीमा तक गुदगुदाई जा सकती है। किन्तु ऐसा कुछ नहीं हो सकता जिससे व्यक्तित्व उभरे, आत्म-सन्तोष मिले, और गौरव गरिमा का आनन्द बरसे। यह उद्देश्य तो मनोबल, आत्मबल बढ़ाने से ही पूरा होता है।

सत्साहस आन्तरिक है। क्रोध, आक्रमण, ठगी, चोरी, जैसे दुस्साहस तो दुष्ट दुरात्मा भी करते रहते हैं। पर उद्देश्यों के लिए पराक्रम कर सकना मात्र संकल्पवान्, सत्साहस का ही काम है। यह अंतःक्षेत्र में उभरना है। बाहरी उत्तेजनाएँ तो क्षणिक आवेश भर उत्पन्न करती हैं और देखते-देखते पानी के बबूले की तरह बैठ जाती है। आत्मबल और भी ऊँची उपलब्धि है। भीतर के कुसंस्कारों से निबटना उसी का काम है। उच्चस्तरीय लक्ष्य की दिशा में एकाकी चल पड़ना-उपहास असहयोग, अभाव, अवरोधों का पग-पग पर सामना करते हुए भी विश्वासपूर्वक अनवरत गति अपनाये रहना आत्मबल के सहारे ही सम्भव हो सकता है।

जिसमें मनोबल न हो वह भौतिक क्षेत्र में प्रगतिशील न बन सकेगा। जिसमें आत्मबल न हो उसके लिए व्यक्तित्व की महानता और उस आधार पर मिल सकने वाली विभूति सम्पदा का सुयोग मिलेगा ही नहीं। अदूरदर्शी बाल बुद्धि भौतिक वैभवों को ही सब कुछ मानती है। उन्हीं की ललक बुझाने के लिए धनबल-बुद्धिबल आदि संचय करती हैं। किन्तु दूरगामी परिणामों का अनुमान लगाना और विश्वास करना मात्र प्रज्ञा का ही काम है। आत्मिक क्षेत्र की यही महान उपलब्धि है। इसी के सहारे आत्म-सन्तोष लोक-सम्मान जन सहयोग एवं जीवन को कुल-कृत्य बनाने वाले दैवी अनुग्रह उपलब्ध होते हैं। मानवी विशेषताओं में मनोबल, आत्मबल ही जो वरदान माने जाते हैं। जिसे वे न मिल सके सम्पत्तिवान होते हुए भी निरन्तर खिन्न, उद्विग्न ही रहेंगे। कुढ़ते-कुढ़ते ही उनका समय गुजरेगा।

आत्मिक क्षेत्र की दो प्रमुख सम्पदा, मनोबल और आत्म-बल अर्जित करने के लिए श्री गणेश किस प्रकार किया जाय? इसका एक ही उत्तर है-सद्ज्ञान का अवलम्बन। आद्यशक्ति —महाप्रज्ञा इसी को कहते हैं। उदर पूर्ति को आवश्यक जानकारियाँ सिखाने वाली स्कूली शिक्षा एवं व्यवहार कुशलता एक बात है और जीवन की समस्याओं को दूरदर्शिता के आधार पर हल करना एवं सर्वतोमुखी प्रगति पथ पर बढ़ चलना इस दूसरी स्थिति को उपलब्ध करने के लिए ब्रह्म विद्या के तत्व दर्शन का न केवल अध्ययन करना पड़ता है वरन् साधना प्रयोगों द्वारा उसे हृदयंगम भी करना पड़ता है। इससे कम में उन विभूतियों को हस्तगत करने का और कोई मार्ग नहीं। प्रज्ञा को प्रखर परिष्कृत करने के लिए स्वाध्याय के योग्य सत्साहित्य पढ़ना या सुनना पड़ता है। मनन, चिन्तन, ध्यान, धारणा आदि का स्वरूप एवं प्रयोग भी तो इसके बिना बन नहीं पड़ता। इसलिए गुरु ज्ञान द्वारा उच्चस्तर की प्रेरणाएँ उपलब्ध करनी होती हैं। इसके लिए समर्थ साहित्य का स्वाध्याय इतना अधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है कि उसे शास्त्रकारों ने भजन पूजन से भी अधिक आवश्यक माना है और सर्वोपरि प्रमुखता देने योग्य ठहराया है। ब्रह्मदान, ज्ञानदान से बढ़कर और कोई पुण्य परमार्थ इस संसार में है नहीं इसलिए पुरातन काल के देव मानव साधु ब्राह्मण इस प्रयोजन में अहर्निश निरत रहते थे।

कल्प साधकों के मन में कभी पुण्य परमार्थ की उमंग उठे तो उन्हें सस्ती वाहवाही के प्रदर्शनात्मक खिलौने से मन नहीं बहलाना चाहिए वरन् दूरगामी हित साधना में समर्थ ज्ञान विस्तार को मूर्धन्य मानकर उन उपेक्षित क्षेत्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। किसी की जीवन दिशा को सामान्य से उछालकर असामान्य बना देना कितनी महान सेवा साधना है। इसको वाल्मीकि, अंगुलिमाल, अंजामिल, विल्व मंगल, ध्रुव, प्रहलाद आदि से पूछनी चाहिए। ऐसी साक्षी पार्वती, अरुन्धती, मैत्रेयी, सावित्री, संघमित्रा, मीरा से लेकर अम्बपाली जैसी महिलाओं में भी मिल सकती है। इन सबको नारद, बुद्ध आदि के द्वारा मिले प्रेरणात्मक सद्ज्ञान के प्रति कृतज्ञ पाया जाएगा । यह प्रेरणाएँ जिस आधार पर मिलती हैं उसे सत्संग कहते हैं। आज की मनःस्थिति एवं परिस्थिति के अनुसार सत्संग उपलब्ध कराने के लिए अनगढ़ दिग्भ्रान्त-वकवासियों के संपर्क में अपना समय नहीं खराब करना चाहिए। वरन् स्वाध्याय की ओर मुड़ना चाहिए। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए प्रज्ञा साहित्य को वरीयता दी जा सकती है। इसे मणि मुक्तकों की गहरी डुबकी लगाकर संचित किया गया है। इसे अमृतोपम मधु संचय कहा जाय तो तनिक भी अत्युक्ति न होगी। इस अवलम्बन से बढ़कर सस्ता, सुलभ और सर्वांगपूर्ण सत्संग कदाचित् ही कहीं अन्यत्र उपलब्ध हो सके।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए कल्प साधना के साधकों को प्रायश्चित रूप से अति पूर्ति करने और भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिए नितान्त आवश्यक पुण्य परमार्थ का संचय करने की अन्तःप्रेरणा उमंगें तो उसे दिशा विहीन होकर भटकाव में नहीं पड़ने देना चाहिए और सद्ज्ञान संवर्द्धन को प्रमुखता देनी चाहिए।

पिछले पृष्ठों पर स्वाध्याय मण्डल की स्थापना की कल्प वृक्ष आरोपण से तुलना की गई थी। यह सही है। प्रज्ञा साहित्य का नियमित स्वाध्याय करने का जिन्हें चस्का लगेगा, अवसर मिलेगा, वे कुछ ही दिन में चिन्तन और व्यवहार की दृष्टि से तेजी से बदलते हुए शालीनता की दिशा में चलते हुए दृष्टिगोचर होंगे। मनोविनोद के लिए पढ़े गये उथले साहित्य की बात दूसरी हैं। उसकी तुलना जाज्वल्यमान प्राण प्रेरणा से भरे पूरे प्रज्ञा साहित्य के साथ नहीं हो सकती।

इन दिनों उत्कृष्टता की दिशा में किसी का ध्यान नहीं, हर किसी पर तृष्णा, अहन्ता की आपा-धापी प्रेत-पिशाच की तरह चढ़ी है। ऐसी दशा में दूरदर्शी विवेकशीलता की पक्षधर विचारधारा लोगों के गले कठिनाई से ही उतारी जा सकती है। मिठाई का लोभ देकर काम नहीं देती। कुनैन की गोली पर शक्कर चढ़ाकर गले उतारा जाता है। चाय वालों ने आरम्भ में मुफ्त या एक पैसा कप बेचकर प्रचार किया और चस्का लगाया था। चाय का इन दिनों लोकप्रिय होना सहज सम्भव नहीं हुआ है। इसके लिए प्रचारकों को एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ा है। आज की परिस्थितियों में सद्ज्ञान प्रेरणा को जन-जन को हृदयंगम कराने के लिए संगठित प्रयास ही काम दे सकते हैं। अपने तक सीमित स्वाध्याय साधना करने से व्यक्ति विशेष को तो लाभ मिल सकता है। पर यदि उस आलोक को व्यापक बनाना हो तो संगठित रूप से उस प्रक्रिया को अग्रगामी बनाना होगा। आरम्भ में संगठन छोटा रहे हर्ज नहीं। पर यदि वह उद्देश्यपूर्ण और सज्जनों का समुदाय हो तो उस बीजारोपण के एक दिन विशाल वृक्ष बनने की सम्भावना सुनिश्चित ही रहेगी।

स्वाध्याय मण्डल संस्थापन का कार्य एक व्यक्ति एकाकी प्रयासों से भी कर सकता है। एक स्वयं चार अपने जैसे स्वभाव और रुझान के साथी ढूँढ़ लेने भर से काम चल जायेगा। यह पाँचों मण्डली के प्रारम्भिक नैष्ठिक सदस्य कहलायेंगे । स्वयं नियमित रूप से प्रज्ञा साहित्य पढ़ने के लिए एक घण्टा समय निकालेंगे साथ ही यह भी प्रयत्न करेंगे कि अपने-अपने संपर्क क्षेत्र में जहाँ भी प्रभाव हो वहाँ युग-साहित्य का चस्का लगाने का उत्तरदायित्व निभाया जाय। हर नैष्ठिक सदस्य ऐसे पाँच व्यक्ति ढूँढ़ निकालें जो स्वाध्याय के प्रति उत्साह बरतें। इन लोगों तक हर दिन बिना भूल युग साहित्य पहुँचाने वापस लेने का सिलसिला नैष्ठिक सदस्यों को ही चलाना होगा। वे अनायास मिलते रहते हों तो उस समय भी यह देने वापस लेने का क्रम चल सकता है। अन्यथा घर जाने और वापस लेने के लिए समय निकालने की बात भी सोचना चाहिए। नैष्ठिक सदस्यों की दुहरी व्रतशीलता है कि वे स्वयं नित्य कर्म की तरह स्वाध्याय को जीवनचर्या में सम्मिलित रखें साथ ही किन्हीं पाँच अन्यों को भी पढ़ाने का कार्य उतना ही पुण्यफल मानें जितना कि पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराने का होता है।

पाँच नैष्ठिक सदस्य हर एक के पाँच-पाँच साथी स्वाध्यायशील इस प्रकार 1+ 5 = 6 की स्वाध्याय मण्डली बन जाती है। स्वाध्याय मण्डल के यह पाँच सहचर और पाँच-पाँच उनके बच्चे यह तीस का एक छोटा परिवार बन जाता है। वे लोग पढ़ने का क्रम तो जारी रख ही सकते हैं। साथ ही सप्ताह में एक दिन इकट्ठे होकर सत्संग की प्रक्रिया भी चला लिया करें। इस सप्ताह जो पढ़ाया गया हो उसे जीवनक्रम में सम्मिलित करने के उपायों के सम्बन्ध में इस सत्संग में विचार विनिमय होता रहे तो पठन के बीजारोपण को आवश्यक खाद पानी मिलता रहेगा और देखते-देखते खेत लहलहाने लगेगा। इन तीसों व्यक्ति यों के जन्म दिवसोत्सव मनाने का भी शुभारम्भ करना चाहिए। यह नितान्त सस्ते सरल और प्रभावी आयोजन यदि तीस परिवारों में चल पड़ें तो उनमें उपस्थित होंगे युगान्तरीय चेतना से अवगत प्रभावित अनुप्राणित होंगे और एक से अनेकों तक इस आलोक वितरण का क्रम चल पड़ेगा देखने में यह प्रयास नगण्य जैसा लगता है पर यदि उसे ठीक तरह चलता रक्खा जा सके तो उसके जादुई परिणाम कुछ ही दिनों में दृष्टिगोचर होने लगेंगे और एक समर्थ देव परिवार अपनी प्रखरता का परिचय देने लगेगा।

जहाँ ऐसे स्वाध्याय मण्डल बनेंगे वहाँ उनके एक दिवसीय उद्घाटन समारोह भी होंगे। इनके लिए शान्ति कुँज से दो प्रतिनिधि भेजने की व्यवस्था बनी है। वे आयोजन की गरिमा से अधिकाधिक लोगों को अवगत कराने का प्रयत्न करेंगे। सायंकाल स्वाध्याय की महत्ता बताने वाला स्लाइड प्रोजेक्टर प्रदर्शन प्रातः उद्घाटन समारोह। जिसमें पाँचों नैष्ठिक सदस्य और उनके पाँच-पाँच सहयोगी कुल तीस व्यक्ति तो उस धर्मकृत्य में प्रमुख रूप से सम्मिलित होंगे ही। अन्य लोगों को भी आमन्त्रित करके उस विधा से परिचित कराने की व्यवस्था रहेगी। पाँच सदस्य और पच्चीस सहयोगी क्रमबद्ध रूप से बिठाते जायेंगे। षट्कर्म, स्वस्तिवाचन, कलश पूजन, सामूहिक गायत्री पाठ, संकल्प, व्रत धारण, अभिसिंचन आदि क्रिया-कृत्यों के अतिरिक्त उस अवसर पर संगीत एवं प्रवचन की व्यवस्था भी रहेगी। इस प्रकार रात्रि के चित्र प्रदर्शन और प्रातः के धर्मकृत्य एवं प्रवचन के साथ इस स्थापना का विधिवत् उद्घाटन सम्पन्न हो जाएगा ।

प्रश्न एक ही रह जाता है कि तीस व्यक्ति यों को नियमित स्वाध्याय सामग्री जुटाने के लिए खर्च का प्रबन्ध कैसे हो। तीस व्यक्तियों के लिए न्यूनतम एक रूपया प्रत्येक के हिसाब से तीस रूपये की पाठ्य सामग्री तो खरीदनी ही पड़ेगी। इसका सरल उपाय एक ही है कि पाँचों नैष्ठिक सदस्य अपने यहाँ ज्ञानघट स्थापित करें, और उनमें बीस-बीस पैसा प्रतिदिन डालें। अब से पैंतीस वर्ष पूर्व ज्ञानघट का अनुदान दस पैसा था। अब महँगाई कई गुनी हो जाने से वह राशि बीस पैसा कर दी गई है। यह लगभग तिहाई, चौथाई चाय के प्याले जितनी होती है। इतनी उदारता तो पाँच नैष्ठिक सदस्य अपनायेंगे ही। इसमें भी कृपणता बरतने और थोड़ा-सा समय निकालने में आना-कानी करने पर तो जो स्वाध्याय मण्डलों की स्थापना और उसकी महान परिणति के रूप में संजोयी गई आशा अपूर्ण ही रह जायगी। विश्वास किया गया है कि जहाँ आदर्शवादी उत्साह उमड़ेगा वहाँ समयदान और अंशदान का यह छोटा सा अनुदान भी प्रस्तुत किया जाने लगेगा।

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