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Magazine - Year 1982 - Version 2

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प्रशिक्षण में समग्र उत्कर्ष के बीजांकुर

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कल्प साधना के दिनों में जिस स्तर का प्रशिक्षण दिया जाता है उसका आभास चारा भागों में विभक्त पाठ्य पद्धति से भली प्रकार मिल सकता है।

कक्षाओं में व्यक्ति त्व का विकास, परिवार में स्वर्गीय परम्पराओं को संस्थापन एवं समाज के साथ सघन सद्भावों का आदान-प्रदान यह तीनों ही तत्व संक्षिप्त किन्तु समग्र रूप से जुड़े हुए हैं। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के तीनों ही प्रयोजन इस छोटी-सी किन्तु सारगर्भित शिक्षण पद्धति के सहारे सधते हैं। इस प्रकार जिस सद्ज्ञान की महिमा शास्त्रार्थ ने समग्र कल्प सम्भव कर सकने के रूप में बताई है वह इस पाठ्य-पद्धति के साथ सम्पन्न होती है। अलंकार रूप में तीन महान सिद्धियाँ के तीन प्रत्यक्ष उपकरणों की चर्चा कथा-पुराणों में सुनने को मिलती। इनमें एक है-पारस दूसरा कल्पवृक्ष, तीसरा अमृत। यह तीनों ही प्रत्यक्षतः कहीं दृष्टिगोचर नहीं होते, पर परोक्ष रूप में इनकी सत्ता और परिणति सद्ज्ञान के रूप में कहीं भी देखी जा सकती है।

पारस वह जिसे छूकर लोहा सोना हो सके। यदि ऐसा कोई पदार्थ इस संसार में रहा होता तो उसका प्रभाव यह होता कि संसार भर का लोहा येन-केन प्रकारेण सोना ही गया होता। लोहे की अपनी उपयोगिता है। वह सोने से पूरी नहीं हो सकती। फलतः सोना लोहे के भाव बिकता और लोहे की कीमत सोने जितनी हो गई होती। पारस का प्रत्यक्षतः कोई अस्तित्व नहीं। यदि वह है तो परोक्ष रूप से उस सद्ज्ञान में सन्निहित समझा जा सकता है जो व्यक्तित्व को सुसंस्कारी बनाता है। पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी आदतों को उखाड़कर उनके स्थान पर सुसंस्कारी आचरणों का, सुव्यवस्थित-सुनियोजित जीवनचर्या का अभ्यास कराता है। इसी आधार पर अभावग्रस्त, विपन्न परिस्थितियों से उत्पन्न हुए व्यक्ति भी अवरोधों से जूझते हुए अपना रास्ता आप बनाने और प्रगति कउंक सोपान तक जा पहुँचने में समर्थ हुए हैं। इस आधार को पारस नहीं तो और क्या कहा जाय?

कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर मनोकामनाएँ पूरी करा लेने के पीछे कोई आधार नहीं। यदि ऐसा रहा होता तो पात्रता, पुरुषार्थ और साधन-सहयोग अर्जित करने की किसी को आवश्यकता ही नहीं पड़ती। कुपात्र व्यक्ति भी उस पेड़ की छाया में बैठकर उन कामनाओं को पूरा करा लिया करते जो पात्रता की अगणित अग्नि-परीक्षाओं में से गुजरने के उपरान्त ही खरा-उतरने पर किसी के हाथ लगती है। तर्क, प्रमाण के आधार पर इस प्रकार के पेड़ का कहीं अस्तित्व नहीं। किन्तु सद्ज्ञान की विचार सारिणी ऐसी है जिसे अपनाने पर दृष्टिकोण निखरता है, दूरदर्शी विवेक उभरता है और हर स्थिति में सन्तुलन बनाए रहने वाला सौमनस्य सहज ही हस्तगत होता है जिसे अपने विचार तन्त्र का सदुपयोग आता है, जो मनःस्थिति और परिस्थिति का तालमेल बिठाने का अभ्यस्त है उससे आँगन में कल्पवृक्ष उगा हुआ ही समझा जाना चाहिए।

तीसरी दिव्य उपलब्धि अमृत है। उसे पीने वाले अमर होते बताए जाते हैं। प्रकृति विधान को जानने वाले समझते हैं-इस विश्व व्यवस्था में ऐसा विधान है ही नहीं कि जो वस्तु जन्मे वह मरे नहीं। एक दिन धरती, सूरज को भी मरना पड़ेगा फिर मनुष्य जैसे नगण्य प्राणियों की सत्ता को चिरस्थायी बने रहने की बात सोचना तो और भी उपहासास्पद है। तब अमृत किसे कहा जाय? क्या वह दिवास्वप्न भर है। जहाँ तक शरीर के अमर होने की बात है वहाँ तक उसे वैसा ही कहा माना जाना जा सकता है। किन्तु यदि सद्ज्ञान के उस पक्ष पर दृष्टि डाली जाय तो अन्तराल के आस्था क्षेत्र को समुद्र की तरह मान देता है तो यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि आत्मबल के धनी देवता और भौतिक साधनों के दैत्य का सहयोग जुटाने वाले समुद्र मन्थन की उस पौराणिक गाथा को अपने निजी जीवन व्यवहार में भी उतार सकते हैं।

व्यक्तिगत जीवन का परिशोधन जिस तपश्चर्या के आधार पर बन पड़ता है उसे बोलचाल की भाषा में संयम कह सकते हैं। संयम चार प्रकार के हैं-इन्द्रिय संयम, समय संयम, अर्थसंयम और विचार संयम।

इन अनुशासनों में अपने आपको कस लेने वाले उन दिव्य विभूतियों को नष्ट-भ्रष्ट होते रहने से बचा लेते हैं जो सृष्टा ने हर स्तर की समर्थता बनाये रहने की दृष्टि से प्रचुर परिमाण में प्रदान की है। संयम-साधना का महत्व माहात्म्य समझा-समझाया नहीं गया इसे मनुष्य का परले सिरे का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए। विश्राम, अपव्यय, आलस्य और कुकल्पनाओं में उलझे रहने से किस प्रकार विरत हुआ जा सकता है और बर्बादी को रोकने भर से किस प्रकार सुसम्पन्न बना जा सकता है इसका न बोध है न अनुभव। इस कमी को पूरा करने के लिए कल्पसाधना में भरसक प्रयत्न किया जाता है और अनगढ़ आदतों को सुसंस्कारिता के साँचे में ढाल सकने वाले बौद्धिक प्रशिक्षण एवं व्यावहारिक अनुशासन के शिकंजे में कसा जाता है। इस प्रकार का उभयपक्षीय दबाव पड़ने से सुनियोजित जीवन जी सकने कौशल उभरता है जो इससे पूर्व उपयुक्त वातावरण न मिलने के अभाव में मात्र कथन श्रवण और श्रवण की सीमा में ही अवरुद्ध होकर रह जाता था।

यह स्थूल शरीर की कर्मक्षेत्र की बात हुई। यह भू लोक था। अब इससे आगे का भुवः लोक है। भुवः लोक अर्थात् विचार क्षेत्र। इसमें आमतौर से अविवेक ही छाया रहता है। इसी को भ्रम-जंजाल मायापाश, चक्रव्यूह, मृग तृष्णा, व्यामोह, भटकाव आदि नामों से जाना जाता है। मनुष्य का विचारतंत्र कितना सक्षम और कितना सुगठित है। यह देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मस्तिष्कीय क्षमता का प्रायः 7 से 73 प्रतिशत भाग ही आम आदमी के व्यवहार में आता है। यदि उसकी समग्र क्षमता का स्वरूप और उपयोग समझा जा सके तो उसकी परिणति इसी जीवन में ऐसी हो सकती है जिस देव-दैत्य के समतुल्य कहा जा सके। सामान्यों को असामान्य बनने का जिन्हें भी अवसर मिला है जब उसका सौभाग्य उद्भव इसी आत्म-चिन्तन और आत्म-निर्धारण के सत्साहस का समावेश करने से सम्भव हुआ है। इस प्रयोजन में सर्वप्रथम अपनी संचित मान्यताओं और आदतों से ही जूझना पड़ता है। इस धुलाई के बाद ही मनमोक्ष्य रंगाई का कार्य आरम्भ होता है। आत्म-शोधन-ब्रेन वाशिंग की प्रक्रिया में संचित गल्तियों का एक बारगी निराकरण करना पड़ता है और इसके लिए यथार्थता पर अवलम्बित विवेकशीलता की कुल्हाड़ी को निर्दयता के साथ चलाना पड़ता है। पूर्वाग्रहों का ऊबड़-खाबड़ पन समदड डडड करने में संचित आदमी और मान्यताओं की अग्नि परीक्षा करनी पड़ती है। खरे को सँजोने और खोटे को फेंकने का न्यायाधीशों जैसा निष्पक्ष मानस बनाना पड़ता है। नीर-क्षीर विवेक की-मोती चुनने, कीड़ों से परहेज की राजहंस वृत्ति इसी को कहते हैं।

आमतौर से हर किसी पर तत्काल के लाभ का नशा छाया रहता है। आकर्षणों की चकाचौंध आँखों को भ्रमग्रस्त बनाये रहती है। प्रचलन ही अनुकरणीय बनने और भेड़ों जैसा अन्धानुकरण करने को बाधित करते हैं। इसी भ्रम-जंजाल की उलझन में लोग आप ही अपने लिए मकड़ी जैसा जाल बुनते और स्वयं ही उसमें उलझकर बेमौत मरते देखे जाते हैं। रेशम के कीड़े भी यही मूर्खता करते रहते हैं। लपट में जल मरने वाले भौंरे और चासनी में पंख लपेट कर बेमौत मरने वाली मधुमक्खियाँ भी इसी प्रकार दुर्दशाग्रस्त होती है। पेट और प्रजनन की वासना प्रधान पशु प्रवृत्तियाँ अपनाने से भी काम नहीं चलता तो तृष्णा, अहंता की पूर्ति के लिए लोग अनाचार आक्रमण पर उतारू होते हैं और नर-पिशाचों की भूमिका निभाते हैं।

दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाने वालों की दुर्गति देखते हुए जो आँखों में पट्टी बाँधने के लिए विवश करता है वह हठवादी अविवेक ही है। इसके चंगुल से यदि छूटा और नये सिरे से दूरदर्शी निर्धारण किया जा सके तो समझना चाहिए कि भुवः लोक में पहुँचा देने वाला कायाकल्प हो गया। इस प्रक्रिया को सम्पन्न कर सकने वाले निश्चित रूप से महामानव बनते हैं और असंख्यों को अनन्तकाल तक अनुकरण का प्रोत्साहन देते रहने वाले पदचिह्न छोड़ते हैं। स्वयं हँसते हैं। दूसरों को हँसाते हैं। स्वयं पार होते और दूसरों को पार कराते हैं। ऐसी विवेकशीलता अपनाकर कल्प-साधना के साधक अपना बौद्धिक कायाकल्प कर सकें ऐसी प्रशिक्षण-प्रक्रिया का सारगर्भित समावेश कल्प-साधना के अंतर्गत विवेकशीलता जगाने के रूप में किया जाता है।

तीसरा कारण शरीर है। इसे अन्तःकरण कहते हैं। इसके बुरे-भले स्तर को आस्था कहा जा सकता है। वह निकृष्ट भी होती है और उत्कृष्ट भी। इसी ध्रुव केन्द्र की प्रेरणा से पतन भी होता है और उत्थान भी। कौन किस स्तर पर उभरेगा? किसका भविष्य कैसा है? इसका पर्यवेक्षण किसी के आस्था संस्थान में जमी हुई मान्यताओं, भावनाओं, आकांक्षाओं का स्वरूप एवं प्रवाह देखते हुए सरलतापूर्वक किया जा सकता है। इस स्तर को कैसे परिवर्तित किया जा सकता है। इस स्तर को कैसे परिवर्तित परिष्कृत किया जाय यह पृष्ठभूमि बनाने में ब्रह्मविद्या ही सफल होती है। उस प्रयोजन का चिन्तनीय स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन के आधार पर किया जाता है और प्रयोग पक्ष के लिए योगाभ्यास एवं तपश्चर्या के विधि-विधानों का आश्रय लेना पड़ता है। कल्प साधना की प्रक्रिया में जहाँ संयम साधने विवेक अपनाने की शिक्षा दी जाती है वहाँ श्रद्धा उभारने वाली साधनाओं का भी समुचित समावेश रखा गया है। इन्हीं तत्वों का सुनियोजित समावेश रखा गया है। इन्हीं तत्वों का सुनियोजित समावेश कल्प साधना की प्रशिक्षण प्रक्रिया में किया गया है।

उपरोक्त तीनों तथ्य व्यक्ति त्व को उभारने, सुधारने वाले हैं। इनके अतिरिक्त आत्म-कल्याण की तरह ही लोक-कल्याण का भी महत्व किसी प्रकार कम नहीं है। दोनों का समन्वित समावेश होने पर ही जीवन लक्ष्य की पूर्ति होती है। अस्तु न केवल आत्मोत्कर्ष की बात सोचनी पड़ती है वरन् विराट् की साधना वाले आत्म-विकास को भी ध्यान में रखना पड़ता है। यह कार्य वसुधैव कुटुम्बकम् के, आत्मवत् सर्वभूतेषु के आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में उतारने से ही सम्भव होता है। इसका एकमात्र अभ्यास लोकमंगल की जीवनचर्या का अविच्छिन्न अंग बनाने से ही सम्भव होता है। अस्तु, कल्प साधना के हर साधक को उस प्रक्रिया का अभ्यास कराया जाता है जो इन दिनों इस प्रयोजन के लिए सर्वोपरि महत्व की हैं। सर्वविदित है कि इन दिनों आस्था संकट से जूझना ही महाविनाश की विभीषिकाओं से विश्वमानव की प्राण रक्षा करने का एकमात्र उपाय है। सर्वविदित है कि यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि लोकमानस का परिष्कार यदि बन पड़े तो इतने ही साधनों से, इन्हीं परिस्थितियों में धरती पर स्वर्ग के अवतरण का दृश्य देखा जा सकता है मनुष्य के दृष्टिकोण में संकीर्ण स्वार्थपरता, वितृष्णा, उद्धत अहंमन्यता, अनाचारी उद्दण्डता घुस पड़ने से ही प्रस्तुत उपलब्धियाँ विकास में लगने के स्थान पर विनाश कृत्य में जुट पड़ी है। इस विपन्नता को उलटकर सीधा किया जा सके तो समझना चाहिए कि समस्त समस्याओं का हल निकल आया।

लोकमानस का परिष्कार ही विश्व व्यवस्था को बनाने और उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकने में पूरी तरह समर्थ हो सकता है। प्रज्ञा अभियान का वही केन्द्र बिन्दु है। युग परिवर्तन के लिए विचार क्रान्ति की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है। उसे कल्प साधना के साधक अपनी वर्तमान परिस्थिति एवं योग्यता में भी क्या कुछ कर सकते हैं इस नवसृजन योजना का हर पक्ष कल्प साधना के साधकों को सिखाया जाता है। इस प्रयोजन के लिए वाणी को मुखर बनाने की आवश्यकता तो अनिवार्य रूप में पड़ती है। इसके लिए समुदाय में दिए जाने वाले भाषण, व्यक्तिगत परामर्श का सम्भाषण एवं भावनाओं को लहराने वाले संगीत की आवश्यकता पड़ती है। इनमें से कौन, किसे, किस मात्रा में अपना सकता है, यह व्यक्तिगत अभिरुचि का विषय है, पर इन तीनों को ही सिखाने की समुचित व्यवस्था कल्प साधना प्रशिक्षण के अंतर्गत की गई है। इन कलाओं में अभ्यस्त व्यक्ति लोकप्रिय और सम्माननीय बनता है, उपयोगी सहयोग सम्पादित करना है। इस लाभ से तो सभी परिचित है।

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