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Magazine - Year 1982 - Version 2

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Language: HINDI
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आहार तपश्चर्या के चमत्कारी परिणाम

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कल्प साधना का प्रमुख उद्देश्य है दृष्टिकोण को सुधारना एवं व्यक्ति त्व को उभारना। सच्चा अध्यात्म अपने प्रयोक्ता को उसी दिशा में अग्रसर करता है। इसके समस्त विधि-विधानों का लक्ष्य बिन्दु यही है। जहाँ ध्यान धारणा आस्था क्षेत्र में उच्चस्तरीय प्रतिष्ठापनाओं का पथ प्रशस्त करती है वहाँ तप साधना कुसंस्कारी आदतों के खर-पतवार को उखाड़ती और उसके स्थान पर महामानवों जैसे व्यक्तित्वों का नव-निर्माण कर दिखाती है। इस महान जागरण की फलित ही स्वर्ग, मुक्ति , सिद्धि के रूप में हस्तगत होती है।

कल्पवास में साधक द्वारा ग्रहण किये जाने वाले सात्विक आहार में इसी उद्देश्य को ध्यान में रखा गया है। उसमें कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग का सुपाच्य सिद्ध होने वाला समन्वय किया गया है। उसे इस प्रकार के सन्तुलित आहार की तरह परोसा जाता है जिसमें काया के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्वों का समावेश है। कल्प प्रक्रिया में शरीर को तपाने, मन को साधने और अन्तःकरण को बन्धनमुक्त करके-विराट् के साथ तादात्म्य स्थापित कर सकने योग्य व्यापक बनाया जाना है। इसे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर का समन्वित उत्कर्ष उपक्रम भी कह सकते हैं।

कल्प-साधना का प्रथम चरण है आहार शुद्धि। सर्वविदित है कि अन्न से क्रमशः रस, रक्त , माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य बनते-बनते अन्ततः उसी का अन्तिम परिपाक मन के रूप में होता है। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहा गया है। नाक, कान, आँख की तरह मस्तिष्क भी एक अवयव है, भले ही वह खोपड़ी की पिटारी में बन्द ही क्यों न रहता हो। उसी के निर्धारण दृष्टिकोण कहलाते हैं। बुद्धि एवं चित्त भी उसी के कुछ विशेष स्तर है। समूचे शरीर को तराजू के एक पलड़े पर और मात्र मस्तिष्क को दूसरे पलड़े पर रखा जाय तो मस्तिष्क ही अधिक वजनदार सिद्ध होता है।

जैसा खाए अन्न वैसा बने मन वाली उक्ति स्वयं सिद्ध है। तमोगुणी, गरिष्ठ, युष्पाच्य, अभक्ष्य आहार करने वाले शरीर से भी रोग-क्रान्ति विकृति ग्रस्त रहते हैं-भले ही वे देखने में मोटे मजबूत दिखाई पड़ें। भुने तले, मसाले वाले, नशीले, दूसरों को पीड़ा देकर उपलब्ध किये गये खाद्य पदार्थ पाचन क्षेत्र को खराब करते है। इस सड़न से विषाक्त ता उत्पन्न होती है और वह रक्त के साथ घूमती फिरती जहाँ कहीं भी टिक जाती है वहीं किसी न किसी प्रकार का रोग उत्पन्न कर देती है। इस प्रकार स्वास्थ्य के बनने बिगड़ने का प्रधान कारण आहार ही सिद्ध होता है। बिहार की बात तो इसके बाद आती है।

शारीरिक स्वास्थ्य की तरह मानसिक स्वास्थ्य का प्रश्न है। उस पर भी अन्न का बुरा प्रभाव असाधारण रूप से पड़ता है। नशेबाजों के गुण, कर्म, स्वभाव में निकृष्टता भरी रहती है। अभक्ष्य भोजनों में मनोविकारों की भरमार उबलती रहती हैं। उनका न तो मन एकाग्र होता है और न चित्त ही शान्त रहता है। ऐसी दशा में आत्मिक प्रगति का आधार ही लड़खड़ा जाता है। जिन्हें वस्तुतः इस क्षेत्र में प्रवेश करना है, उन्हें सर्वप्रथम आहार शुद्धि पर ध्यान देना पड़ता है। यात्रा यहीं से आरम्भ होती है। ऋषियों के आहार का यदि पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होता है कि उन्होंने इस संदर्भ में असाधारण सावधानी बरती और संयम अपनाया। पिप्पलाद ऋषि मात्र पीपल के फलों पर निर्वाह करते थे। कणाद का नाम ही इस आधार पर पड़ा है कि वे जंगली धान्य के कण संचित करके उदर पूर्ति करते थे। फल, दूध, शाक पर तो अभी भी कितने ही लोग निर्भर रहते हैं। कइयों ने अंकुरित, अधपके अथवा उबले अन्नों को अपना आहार बनाया है। यह साधना का प्रथम सोपान हैं। अनुष्ठानों में उपवास का महत्व भी ब्रह्मचर्य के ही समान माना जाता है। उपवास काल में जो आहार लिया जाता है वह फलाहार न सही-निश्चित रूप से सात्विक स्तर का तो होता ही है। पर इतना भर कर पाना भी आज के औसत आदमी को कठिन जान पड़ता है।

यदि मनुष्य आहार-विहार के सम्बन्ध में अन्य प्राणियों की तरह प्रकृति अनुशासन को स्वीकार करे तो उसे उन अभिशापों से मुक्ति मिल सकती है जो मर्यादा उल्लंघन के फलस्वरूप पल्ले बँधते हैं। जब अन्य जीवधारी असुविधाओं और अभावों के बीच रहते प्रसन्न सन्तुष्ट जीवन जीत और पूर्णायुष्य प्राप्त करते हैं तो मनुष्य की आधि-व्याधियों से ग्रसित क्यों रहे? इसमें अन्य किसी का कोई दोष नहीं। अपनी ही इन्द्रिय लिप्सा और उच्छृंखलता है जो अपने लिए आप खाई खोदती और स्वयं ही गर्त्त में गिरकर अपने हाथ पाँव आप तोड़ती है।

कल्प साधना में प्रथम पाठ आहार बिहार में प्रकृति अनुशासन का समावेश करने और खाद्य पदार्थों को कम से कम भूनना-जलाने यथा सम्भव उनके प्राकृतिक रूप में ही उपयोग करने के रूप में अभ्यास कराया जाता है। अच्छा होता साधक फलाहार पर न सही शाकाहार पर रह लेते। पर दुर्बल संकल्प वालों के लिए ढर्रे से जूझते हुए कंपकंपी छूटते देखकर काम चलाऊ निर्धारण यही किया गया है कि कम से कम अमृताशन का व्रत तो निभाया ही जाय। यह एक महीने की प्रताड़ना नहीं है वरन् भविष्य में आहार सम्बन्धी अपनाने के लिए कराया गया प्रारम्भिक अभ्यास है। साधकों से आज्ञा की जाती है कि वे इसे बन्दी मूक की विवशता या सामयिक प्रताड़ना न समझें, वरन् भविष्य में आहार सम्बन्धी मर्यादा पालन का अभ्यास मानें और यदि वस्तुतः स्वास्थ्य का महत्व समझा गया हो तो आहार-विहार का अनुशासन शेष जीवन में नियमित रूप से निभायें।

कल्पकाल में जो भी आहार लिया जाता है, उसके बारे में शर्त है कि, वह कम से कम अग्नि संस्कार वाला उबला भर होना चाहिए। साथ ही उसमें एक समय में एक या दो से अधिक का सम्मिश्रण न हो। नवरात्रि के उपवासों में जो फलाहार, शाकाहार, दूध-छाछ आदि पर नहीं रह सकते उन्हें अमृताशन का निर्देश दिया जाता है। उपवास की न्यूनतम मर्यादा यही है। अमृताशन का अर्थ है उबला अन्न। दाल-चावल दलिया दाल आदि का सम्मिश्रण इस वर्ग में आता है। दाल के स्थान पर दूध या दही भी प्रयुक्त किया जा सकता है। साधना काल में यथा सम्भव ऐसे ही आहार पर रहने की विधि है। उबले शाक भी इसी श्रेणी में आते हैं।

कल्प साधना के साधकों के लिये एक महीने एक अमृताशन का एक वर्ग नियत किया जाता है और पूरे महीने उसी क्रम को निबाहते रहने का निश्चय किया जाता है। रुचि, प्रकृति और स्थिति को ध्यान में रखते हुये साधक और मार्ग-दर्शक परस्पर विचार विनिमय करके यह निर्धारित कर लेते हैं कि कल्प अवधि में क्या आहार चलेगा। उसका परिणाम कितना होगा और खाने का समय क्या रहा करेगा। यह आहार भी दिन में दो बार से अधिक नहीं लिया जा सकता। सेंधा नमक, काली मिर्च, नींबू, जीरा, हल्दी, अदरक जैसे हानि रहित मसाले अपवाद स्वरूप थोड़ी मात्रा में ही इस अमृताशन में मिलाये जा सकते हैं। लाल मिर्च, हींग, अमचूर, अचार जैसी उत्तेजक वस्तुओं का इस भोजन में पूर्णतया निषेध है।

शान्ति-कुँज में कल्प साधना सत्रों के साधकों के लिए भाप से भोजन पकाने की एक सामूहिक प्रक्रिया विकसित की गयी है। भाप बनाने वाले दो बाँयलर लगाये जाते हैं। उनके साथ दो बड़े स्टीम चैम्बर हैं। चैम्बरों में अमृताशन पकाने के छोटे-छोटे भगोने रखने के लिए सो खाने बने हैं। प्रत्येक साधक को स्टैनलैस स्टील की भगौनी, ढक्कन, थाली, गिलास आदि सभी सामान आश्रम की ओर से मिलता है। साधक अपने लिए निर्धारित अमृताशन, निर्धारित मात्रा में खाद्यान्न डालकर माताजी के सुपुर्द कर जाते हैं। सभी पात्रों में अभिमन्त्रित गंगाजल तुलसी पत्र डाला जाता है। एक घण्टे बाद सभी साधक लाइन में आते हैं और अपने नम्बर का भगोना लेकर वापिस चले जाते हैं। यही क्रम प्रातः सायं दोनों समय चलता है। मूँग की दाल, गेहूँ का दलिया, चावल, सेंधा नमक, काली मिर्च सभी वस्तुऐं शुद्ध स्वच्छ करके बाज़ार से सस्ते भाव में आश्रम के सहकारी स्टोर में उपलब्ध होती हैं। दैनिक आहार का यही क्रम है। जिसकी लागत महीने में पचास रूपये से अधिक नहीं आती है। पकाने का श्रम, ईधन आश्रम की ओर से लगता है।

आहार के बाद बिहार का क्रम आता है। बिहार अर्थात् दिनचर्या। निर्वाह क्रम में बरता जाने वाला अभ्यास। कल्प साधना का दूसरा चरण यही है। आश्रम में दिनचर्या निर्धारित है। घड़ी की सुई की तरह नियमितता बरतने, हर काम समय पर करने में जागरूकता बरतने के लिए प्रत्येक साधक को बाधित किया जाता है। आलस्य प्रमाद के लिए कहीं कोई गुँजाइश नहीं। सैनिकों की तरह चुस्ती, मुस्तैदी और फुर्ती अपनानी पड़ती है। नियत समय पर निर्धारित क्रम अपनाने के लिए हर किसी पर अंकुश रखा जाता है। अस्त-व्यस्त रहने की आदतों से ग्रसितों को प्यार से लेकर आँखें तरेरने के दबाव दिये जाते हैं और कहा जाता है कि आपको यहाँ सरकस के कलाकार प्राणियों की तरह अपने सुगठित बनना है इसलिए पिछली अनगढ़ आदतों को इच्छा या अनिच्छा से छोड़ना ही चाहिए। सरकस के मनुष्यों एवं मनुष्योत्तर प्राणियों को उनके प्रशिक्षक जितनी कड़ाई के साथ सिखाते हैं उतना दबाव ही नहीं दिया जाता किन्तु घरेलू काम-काज की सहायता करने वाले बैल घोड़ों की तरह तो सीधी राह चलने के लिए तो अभ्यस्त कराया ही जाता है। कुसंस्कारी, अनगढ़ता को गुण, कर्म, स्वभाव का अंग बनाये रहने वाला व्यक्ति शारीरिक ,मानसिक, आर्थिक एवं परिस्थितिजन्य सुविधाओं से भरा-पूरा रहने पर भी दुर्गतिग्रस्त ही रहेगा उसका भविष्य कभी चमकने वाला नहीं है। प्रगतिशीलों में से प्रत्येक को सर्वप्रथम अपने ढर्रे को परिष्कृत स्तर का बनाना पड़ा है। मनःस्थिति बदलनी पड़ी है इसके उपरान्त ही परिस्थितियों ने करवट बदली है। जो परिस्थितियों को अनुकूल बनाने सुविधा सफलतायें पाने के तो सपने देखते रहे किन्तु अपनी अनगढ़ आदतों को यथावत् बनाये रहे। उन्हें जितनी बड़ी महत्त्वाकाँक्षा रही उतनी ही गहरी निराशा के कुचक्र में भ्रमण करना पड़ा है।

बिहार क्रम में यहाँ की नियमित दिनचर्या के अनुसार साधकों को प्रातः 3॥ बजे उठना पड़ता है। जागरण की घण्टी यहाँ छावनी में बजने वाले बिगुल की तरह मानी जाती है जिसके निर्देश पर सभी को बिस्तर छोड़ देना चाहिए। शौचालय, स्नानघर, इतने हैं कि किसी की प्रतीक्षा न करनी पड़े और दो सौ शिक्षार्थी एक घण्टे में उस नित्यकर्म से निपट लें। इसके बाद प्रातःकालीन साधना का क्रम एक घण्टा चलता है। 5॥ बजे सभी माताजी के पास पहुँचते हैं। अखण्ड दीपक के दर्शन, औषधि कल्पपेय की एक प्याली, प्रज्ञापेय का एक कप-इतना प्रसाद ग्रहण करने के इस कृत्य में प्रायः आधा घण्टा लग जाता है। इसके उपरान्त छः से आठ तक का साधना क्रम चलता है। इसी बीच यज्ञ में सम्मिलित होने की अपनी पारी भी निपट जाती है। इस प्रकार आठ बज जाते हैं।

आठ बजे सभी साधक अपनी भगौनी में अपना अमृताशन डालकर माताजी के पास पहुँचते और उन्हें सुपुर्द करते हैं। इसके बाद एक घण्टे का स्वाध्याय चलता है। इसमें आत्म-शोधन आत्म-परिष्कार और भविष्य निर्माण के तत्व जुड़े रहते हैं। किसे क्या पढ़ना चाहिए इसका क्रम भी आहार उपचार की तरह आरम्भ से ही निर्धारित कर दिया जाता है। सभी के पास पुस्तकें पहुँचती हैं और वापिस ली जाती हैं। यह व्यवस्था आश्रम की ओर से हैं। जिन्हें सुविधा है वे इच्छित पुस्तकें खरीद भी सकते हैं।

नौ बजे भोजन क्रम। सभी अपने पके हुए अमृताशन की भगौनी माताजी से लेकर वापस लाते हैं और अपने-अपने कमरों में उसे खाते हैं। इस प्रकार दस बज जाते हैं। दस से बारह तक यों घोषित रूप से विश्राम का समय है, पर वस्तुतः उस चिन्तन-मनन का समय कहना चाहिए। यह बिस्तर पर पड़े-पड़े भी हो सकता है। हर साधक का निवास स्वतन्त्र कमरे में रहता है। पति-पत्नी साथ हैं तो भी उन्हें पृथक्-पृथक् कमरों में रहना पड़ता है। यह व्यवस्था इसीलिए बनी है कि साधना, स्वाध्याय, चिन्तन, मनन में दूसरे के साथ रहने से किसी प्रकार का विक्षेप हो प्रातःकाल की नादयोग साधना और अपने ही कमरे में मार्गदर्शक का नियमित प्रवचन-उद्बोधन सुनने का लाभ भी एकान्त में, एकाग्र होने पर ही मिलता है। इसलिए ही साधकों को एक कमरा दिया जाता है। भले ही वह साइज में 10&10 का ही क्यों न हो।

प्रातः जो प्रज्ञापेय मिलता है। उसे जड़ी-बूटियों की बनी स्वादिष्ट साथ ही अधिक गुणकारी चाय कहा जा सकता है। यह वस्तुतः क्वाथ है, इसमें चाय का अंश नाम मात्र को भी नहीं है। यही सभी को प्रातः 5−30पर उपलब्ध होती है।

प्रत्येक साधक का उसके शारीरिक-मानसिक स्थिति के अनुरूप दिव्य औषधि में से एक का जड़ी-बूटी कल्प निर्धारण कर दिया जाता है। महीने में प्रायः प्रतिदिन 50 ग्राम निर्धारित औषधि का कल्प कराया जाता है। प्रज्ञापेय के पूर्व यह घुटटी-पिसी स्थिति में हर साधक को मिलता है। दोनों ही की व्यवस्था दैनिक यज्ञ की तरह आश्रम की ओर से हर साधक के लिये बिना मूल्य की जाती है। सायंकाल साधक गंगा दर्शन के लिये जाते हैं तो अपनी-अपनी सुराही में गंगाजल भरते आते हैं जिसका सेवन वे 24 घण्टे करते हैं।

कल्पकाल की अवधि में प्रारम्भिक और अन्तिम दिनों में क्या-क्या शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन साधकों में होते हैं, इनका विश्लेषण ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के निष्णात चिकित्सकों द्वारा बराबर किया जाता है। माह में लगभग चार बार उन्हें जाँच-पड़ताल के लिये गंगा तट अवस्थित शोध संस्थान जाना पड़ता है। आदि, मध्य और अन्त में हुए परिवर्तनों को देखकर यह पता चलता है कि आहार, औषधि, साधना, प्रायश्चित, एकान्त वास, मनन− चिन्तन, संयम तपश्चर्या आदि से किसकी शारीरिक, मानसिक स्थिति में क्या अन्तर पड़ा। पिछले साधना सत्रों में अधिकाधिक साधक सात्विक आहार की फलश्रुति अपने जीवन क्रम में प्रत्यक्ष देखकर गये। उनकी इन्द्रिय चेतना, स्फूर्ति और मस्तिष्कीय क्षमता में असाधारण वृद्धि हुई।

शान्ति-कुँज में गंगा की गोद, हिमालय की छाया, प्रचण्ड प्राण ऊर्जा का सान्निध्य, मर्मज्ञ का मार्गदर्शन, दिव्य चेतना से भरा-पूरा वातावरण यह सभी मिल-जुलकर ऐसा माहौल बनता है जिसमें रहकर कोई व्यक्ति बिना किसी साधना के भी अपनी अस्त-व्यस्तता से मुक्ति पा सकता है। फिर आहार-कल्प प्रज्ञापेय और औषधि कल्प का उसमें त्रिवेणी संगम मिल जाने से सच्चे अर्थों में रामायण की वह उक्ति लागू होने लगती है जिसमें मंजुल फल देखिये तत्काल । काक होहिं पिक बकहुँ मराला।” की अलंकारिक उपमा देते हुए यह कहा गया है कि आकृति न बदलते हुए भी प्रकृति बदल जाने की पूरी-पूरी सम्भावना हो सकती है। कल्प साधना के ये प्राथमिक उपचार अवलम्बन हैं जिनके सहारे साधक की मनोभूमि में असाधारण परिवर्तन आने की सम्भावना व्यक्त की गयी है।

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