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Magazine - Year 1984 - Version 2

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आध्यात्मिक प्रगति के चार प्रमुख आधार स्तम्भ

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दृढ़ आधारों के बिना विकासक्रम आगे नहीं बढ़ सकता। बड़े-बड़े भवन, बाँध एवं ऊँची अट्टालिकायें मजबूत नींव के सहारे ही खड़ी हो पाती हैं। शरीर को जल, वायु, प्रकाश के साथ ही पोषक आहारों की आवश्यकता होती है। इसका अवलम्बन पाकर ही वह बढ़ता, शक्ति संपन्न बनता है। चेतना का विकास- आध्यात्मिक उन्नति भी ठोस आधारों के बिना संभव नहीं है। वे आधार भौतिक-स्थूल न होकर सूक्ष्म आध्यात्मिक हैं। चेतना को विकसित करने के चार प्रमुख उपादान ऐसे हैं जो सामान रूप से सबके लिए उपयोगी हैं। ये हैं आध्यात्मिक प्रगति के चार प्रमुख आधार स्तम्भ, विवेक, जागरुकता, चरित्र निष्ठा एवं प्रेम। यह चारों आधार ऐसे हैं जो अध्यात्म पथ पर साधक को उन्नति के चरम शिखर पर पहुँचा सकने में समर्थ हैं।

विवेक को आध्यात्मिक उन्नति का मूल आधार माना जा सकता है। विवेक की जागृति से ही मनुष्य आध्यात्मिक पथ की ओर मुड़ता है। सत्य, असत्य, औचित्य, अनौचित्य के बीच भेद दृष्टि उदय होते ही मनुष्य अनित्य संसार की आसक्ति में लिप्त नहीं होता। काय-संरक्षण एवं चेतना के विकास के लिए वह संसार का उतना ही उपयोग करता है जितना कि आवश्यक है। विवेक इस पथ में केवल प्रवेश ही नहीं कराता वरन् प्रत्येक पग पर साधक की सच्ची मार्ग-दर्शक की भूमिका सम्पन्न करता है। शरीर की इन्द्रियाँ तो अपनी सजातीय जड़ तत्वों, विषयों की ओर आकर्षित होकर लुढ़कती हैं। उन पर अंकुश रखने, विषयों की निस्सारता का बोध कराने का कार्य विवेक ही करता है।

मानवी प्रवृत्ति ‘प्रेय’ को अधिक महत्व देती है। ‘श्रेय’ में प्रत्यक्ष लाभ न देख सकने के कारण वह उसकी अवहेलना कर देती है। विवेक का आलोक ही श्रेष्ठता के दूरगामी परिणामों से अवगत कराता है। साँसारिक योग्यता, प्रतिभा कितनी भी बढ़ी-बढ़ी क्यों न हो, चेतना को विकसित दूर कर सकने में इनका योगदान नगण्य है। योग्यताएँ साँसारिक वस्तुओं की जानकारी दे सकती हैं। भौतिक प्रगति का आधार बन सकती हैं किन्तु चेतना की उन्नति का साधन नहीं बन सकतीं। यह ज्ञान तो विवेक बुद्धि द्वारा ही संभव है। एक बार चेतना की महत्ता एवं परम चेतना के साथ उसका संबंध जान लेने पर उससे तादात्म्य स्थापित किए बिना अन्तः तुष्टि नहीं होती। ईश्वरीय विश्वास की परिणति वस्तुतः कर्मनिष्ठा के रूप में ही होती है।

विवेक के अभाव में तो साधना पथ पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता। सत्य-असत्य, पाप-पुण्य निरपेक्ष नहीं होते वरन् परिस्थितियों के अनुसार उनके स्वरूप बदलते रहते हैं। विवेक न हो तो परिस्थितियों का विश्लेषण एवं सत्य असत्य का निर्धारण नहीं हो पाता। तटस्थ बुद्धि तो सत्य को घटनाक्रमों के साथ बाँध भी देती है जबकि वह इनसे परे है। निश्चय कर सकने के अभाव में तो सत्य भी असत्य और असत्य भी सत्य मालूम पड़ता है। ऐसी स्थिति में विवेक ही सही निर्णय लेने में समर्थ होता है।

साधना पथ में आगे बढ़ने के लिए विवेक का अवलम्बन अनिवार्य है। इसके प्रकाश में ही हम ईश्वरीय ज्ञान को अपने अन्दर अधिक स्पष्ट रूप में व्यक्त कर पाते हैं यह कारण है कि विवेक शक्ति की महत्ता का प्रतिपादन सभी शास्त्र करते हैं। उसके जागरण के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। इस पथ पर चलने वाले आत्मविकास के इच्छुक प्रत्येक साधक के लिए विवेक का अवलंबन अनिवार्य हो जाता है। साधना की पृष्ठभूमि यहीं से बनती है।

आध्यात्मिक प्रगति का दूसरा चरण है- “जागरुकता” मानवी चेतना की सूक्ष्म परतों में जन्म-जन्मान्तर के पाशविक कुसंस्कार जुड़े हैं, जो मनुष्य की प्रगति में बाधक हैं। निम्नतर योनियों के संस्कार श्रेष्ठता की ओर बढ़ने में रोकते तथा वैसा क्षुद्र जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं। विवेक द्वारा इसका अनुभव तो होता है किन्तु आत्म-निरीक्षण में जागरुकता का अभाव होने से अभ्यासगत संस्कार आग नहीं बढ़ने देते। लक्ष्य पर ध्यान देने एवं अपनी वर्तमान गतिविधियों एवं विचारणा का सतत् निरीक्षण करते रहने से ही आत्मिक प्रगति का सुनिश्चित आधार बन पाता है। जागरुकता का अवलंबन ही मनुष्य को अपनी क्षमताओं के सदुपयोग के लिए समर्थ बनाता है। अनावश्यक कार्यों, अचिन्त्य चिन्तन में शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का एक बड़ा भाग नष्ट होता रहता है। समझा यह जाता है कि समय, श्रम एवं चिन्तन का उपयोग हुआ। जबकि एक बड़ा भाग अस्त-व्यस्त जीवन क्रम के कारण यों ही बेकार चला गया। भौतिक जीवन में सफल होने वाले व्यक्ति भी इस गुण के कारण ही सफलता के शिखर पर पहुँच पाते हैं। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक पथ में भी इसका अवलम्बन उतना ही आवश्यक है।

काम, क्रोध, लोभ, मोह के विकार मानवी चेतना के पतन के, कारण बनते हैं। उनके प्रति जागरुक बने रहना तथा अपने को बचाये रखना साधक के लिए अति-आवश्यक है। चिन्तन की दिशा क्या है? तथा गतिविधियाँ अभीष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ रही हैं या नहीं। इसका निरीक्षण करते रहना कुशल माली के समान आवश्यक है। अन्यथा निगरानी के अभाव में बगीचे में उगने-बढ़ने वाले झाड़-झंखाड़ जिस प्रकार पौधों की अभिवृद्धि में बाधक होते हैं, ठीक उसी प्रकार विकृतियों के प्रति जागरुकता का अभाव आत्मोत्कर्ष का मार्ग अवरुद्ध कर देता है। इसके लिए सद्विचारों का पोषण एवं निकृष्ट विचारों का निष्कासन जरूरी हो जाता है। माली पौधों में अनावश्यक वृद्धि की काँट-छाँट, कीड़ों से सुरक्षा की व्यवस्था, के साथ-साथ उसकी वृद्धि के लिए खाद, पानी, प्रकाश की और भी ध्यान देता है। इस दोहरे प्रयास से ही पौधे बढ़ते तथा आकर्षक लगते हैं। चिन्तन के क्षेत्र में भी यही विधेयात्मक रुख अपनाना पड़ता है।

विवेक और जागरुकता जहाँ विचारों को प्रभावित करते हैं वहाँ व्यवहार में उतर कर वे चरित्र निष्ठा का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। संसार के परदे पर जितने भी महामानव उभरे हैं उनमें यह विशेषता अनिवार्य रूप से जुड़ी रही है। निर्मल एवं उदात्त चरित्र ही साधक को साधना मार्ग में आगे बढ़ाता तथा साँसारिक विक्षोभों से रक्षा करता है। आने वाले प्रलोभनों, आकर्षणों में यह शस्त्र की भूमिका संपादित करता है। आदर्शों एवं सिद्धाँतों को अपनाये रख सकना, श्रेष्ठ मार्ग पर दृढ़ बने रहना चरित्रवान के लिए संभव हो पाता है।

चरित्र की उदात्तता दृढ़ संयम के रूप में परिलक्षित होती है। इन्द्रियों तथा मन पर संयम एवं श्रेष्ठ कार्यों में उनका नियोजन ही इसका लक्ष्य होता है। चिन्तन में उत्कृष्टता, भावनाओं में पवित्रता, कर्मों में श्रेष्ठता ही इसकी चरम परिणति है। ये त्रिविधि प्रयास ही साधक को साध्य के निकट पहुँचाते हैं। ईश्वरीय प्रकाश निर्मल हृदय में ही अवतरित होता है। इसके लिए अपने चिन्तन एवं कर्म पर सतत् निगरानी रखनी होती है।

चेतना के विकास के लिए चौथा एवं सबसे अनिवार्य तत्व है- ‘प्रेम’। इसके बिना तो अन्य तीन आधार अधूरे रह जाते हैं। अन्तरात्मा के उत्कर्ष तथा उसे परमात्मा से जोड़ सकने में अन्यान्य कोई भी उपाय सफल नहीं हो पाते। यह आत्मा का प्रकाश है। उदात्त भाव-सम्वेदनाएं अन्तःकरण से ही उत्पन्न होती हैं। प्रेम में स्वार्थ का लेशमात्र भी स्थान नहीं है। त्याग इसका गुण है। यह जितना विस्तृत होगा आत्म विकास की उतनी ही अधिक संभावनायें होंगी। प्रेम की पराकाष्ठा “आत्मवम् सर्वभूतेषु” की भावना के रूप में होती है। ‘बाइबल’ में प्रेम को ही परमेश्वर कहा गया है। इसका आरम्भ तो व्यक्ति से होता है किन्तु विस्तृत होकर प्राणि मात्र से आगे बढ़कर समष्टि तक जा पहुँचता है। सृष्टि सृष्टा की अनुकृति है। प्रेम से भरा हृदय सम्पूर्ण सृष्टि में ईश्वरीय सौंदर्य का दर्शन करता है। सौंदर्य के रूप में समस्त सृष्टि में वही व्याप्त है। ‘ईशावस्यकमदं सर्वम्’ में इसी तथ्य का उल्लेख किया गया है। प्रेम की परिणति आदर्शों- सिद्धाँतों के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा के रूप में होती है।

सभी चेतन प्राणी उस परमात्मा की सृष्टि के ही अविच्छिन्न अंग हैं। सब में एक ही चेतना समाहित है। इस तथ्य की अनुभूति मात्र निश्छल प्रेम से भरा हृदय कर पाता है। हृदय जितना प्रेम तत्व से लबालब होगा, परमात्मा की उतनी ही गहरी अनुभूति अन्तःकरण में होगी। सम्वेदनाओं से रहित शुष्क हृदय ईश्वर सत्ता के दिव्य आलिंगन की अनुभूति कभी नहीं कर सकता। वस्तुतः ऐसा शुष्क हृदय उस मरुभूमि के समान है जिसमें उपासना, साधना के बीच पुष्पित, पल्लवित हो ही नहीं सकते। इस दृष्टि से प्रेम तत्व के विकास के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। यह पर पीड़ा निवारण, समाज में संव्याप्त दुःख-क्लेशों की निवृत्ति के लिए किया जाने वाले प्रयोग द्वारा ही संभव है।

शारीरिक विकास के चार प्रमुख आधार- अन्न, जल, वायु एवं प्रकाश के समान चेतना के विकास के लिए उपरोक्त चार प्रमुख आधारों का अवलंबन आवश्यक हो जाता है। आध्यात्मिक प्रगति, विवेक के जागरण, जागरुकता, चरित्रनिष्ठा, एवं निश्छल प्रेम जैसे आधारों पर ही अवलम्बित है। उपासना, साधना की सफलता एवं चेतना को परमसत्ता के समीप पहुँचाकर उसके दिव्य अनुदानों का रसास्वादन करा सकने में ये चारों आधार प्रमुख भूमिका संपादित करते हैं। इनका अवलम्बन लेकर कोई भी साधक प्रगति के उच्चतम शिखर पर पहुँच सकता है।

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