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Magazine - Year 1984 - Version 2

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काया का अद्भुत अविज्ञात चेतन एवं संसार

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First 27 29 Last
अनुसंधानकर्ताओं के अनेकानेक विषयों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं रोचक विषय रहा है- मनुष्य की काया। जब से आधुनिक विज्ञान का जन्म हुआ तब ही से शरीर शास्त्रियों से लेकर शरीर क्रिया विज्ञानियों एवं मनोवैज्ञानिकों से लेकर दार्शनिकगण अपनी धारणाएँ बनाते आए हैं। यह विचार मंथन अभी पिछली कुछ शताब्दियों से आरम्भ हुआ हो, यह सत्य नहीं। यह तो अनादिकाल से चली आ रही आत्मानुसन्धान की प्रक्रिया है, जिसके प्रवर्तकों में हम बड़ी प्रसन्नता से ऋषिगणों का- आप्त वचनों के निर्धारकों का नाम लिख सकते हैं।

आनुवाँशिकी पर शोधरत चिकित्सा शास्त्रियों एवं विकासवादियों के लिए यह एक मूल चुनौती रही कि जीवन का विकास कैसे हुआ? मनुष्य कहाँ से आया? व इस यात्रा का समापन बिन्दु कहाँ है? क्या जीवन के लिए उत्तरदायी कुछ रासायनिक घटकों के संश्लेषण द्वारा प्रयोगशाला में, मानव गढ़ने का ब्रह्मा जैसा पुरुषार्थ सम्भव है, इस सम्बन्ध में काफी ऊहापोह प्रारम्भ से ही चलता आया है, अगणित शोधकर्ताओं ने स्वयं को इस साधना में नियोजित किया भी है। लेकिन उपनिषद् एवं अन्यान्य आर्ष ग्रन्थ आत्मिकी सम्मत विकासवाद के आधार पर एक पूर्ण पुरुष के, सारी सुविधाओं एवं अवसरों को लेकर जन्मे सृष्टा के उत्तराधिकारी के रूप में मनुष्य का वर्णन करते हैं। उपनिषद्कार का कथन है- कि “ब्रह्म की पूर्णता से विश्व की पूर्णता आई। जो शेष रहा, वह भी पूर्ण है।” (ईशोपनिषद)। आगे ऋषि शिष्य से बार-बार कहता है-

“सत्य एषोऽणि मैतदात्यमिदं सर्वं। तत्सयँ स आत्मा तत्वमसि श्वेतकेतो॥” (छान्दोग्य)

अर्थात्- संसार की समस्त वस्तुओं का सूक्ष्म तत्व यह आत्मा है, वह सत्य है, वह आत्मा है और तू वह ही है, श्वेतकेतु।”

मात्र उसके अवतरण पर ही नहीं, मनुष्य की चेतना की संरचना एवं जड़ प्रकृति से बने काय-कलेवर पर भी आर्ष ग्रन्थ प्रकाश डालते हैं। उनके अनुसार मनुष्य सतत् प्रवाहित होने वाले गतिशील सूक्ष्म घटकों का समुच्चय है। ब्रह्मांडीय संरचना एवं मानव की संरचना में एकरूपता तथा कण-तरंग समुच्चय का आदान-प्रदान एक ऐसा वैज्ञानिक सत्य है जो मनुष्य रूपी पिण्ड में, लघु में, अणु में- ब्रह्मांड के, महान के, विभु के समाए होने का प्रतिपादन करते हैं।

मनुष्य का जो कुछ भी दृश्यमान रूप है, वही सब कुछ नहीं है। जो अदृश्य है, अगोचर है, इन्द्रियातीत है- वह और भी विलक्षण है। विद्युत्चुम्बकीय तरंगों एवं स्नायु रसायनों की ऐसी अविज्ञात दुनिया मानवी काया में विद्यमान है जिसका प्रकटीकरण उसे असामान्य बनाने की सामर्थ्य रखता है। आर्ष ग्रन्थों की मान्यताओं को एक ‘थ्योरम’ मानकर एक गणितज्ञ की तरह यदि हम विज्ञान के समीकरण द्वारा उसे हल करने का प्रयास करें तो सम्भवतः यह अधिक श्रेयस्कर होगा। पूर्वाग्रहों से मुक्ति हेतु, अन्तः सत्ता के रहस्यों पर से पर्दा हटाने के लिए इससे इतर तर्क सम्मत कोई और मार्ग है भी नहीं। ईशोपनिषद् का ग्यारहवाँ मन्त्र कहता है- “जो विद्या और अविद्या को एक साथ जानता है, वह अविद्या द्वारा मृत्यु को जीतता है और विद्या द्वारा अमृतत्व अनुभव करता है।” वस्तुतः अंतर्जगत से सम्बन्ध बनाये रखते हुए विज्ञान के अध्ययन की यही सही तकनीक है।

चर्चा मानवी अन्तराल के अदृश्य पक्ष की जानकारी के विषय में चल रही है जिसे एक प्रकार से चेतना का सूक्ष्मीकृत रूप भी कह सकते हैं। जीन्स एवं न्यूरोपेप्टाइड्स की खोज करने वाले विज्ञान-विशारदों ने कुछ सूक्ष्म रसायनों में मनुष्य के प्राण शरीर की संरचना को खोज निकाला है। उनका कथन है कि मानवी काया के लगभग सभी ऊतकों में अति सामर्थ्यशाली स्थायी विद्युत क्षेत्र पाया जाता है। ये विद्युत क्षेत्र मस्तिष्क में तंत्रिका कोशों को एवं सारे शरीर के स्नायु कोशों व जीवकोशों की झिल्लियों की संवेदनशीलता को प्रभावित कर काया को विद्युत्पुंज बना देते हैं। सारे क्रिया-कलाप इनकी उत्तेजना से उत्सर्जित होने वाले न्यूरोपेप्टाइड्स से संचालित होते हैं जिनकी मात्रा अत्यल्प होती है।

विद्युत संपदा से भरी-पूरी यह काया द्विधुरीय चुम्बक की भूमिका निभाती है जिसका उत्तरी ध्रुव मस्तिष्क में एवं दक्षिणी ध्रुव मूलाधार में अवस्थित होता है। वैज्ञानिकों का कथन है कि सृष्टा की कुछ विधि-व्यवस्था ऐसी है कि यह ध्रुवीकरण की प्रक्रिया जो कि ठीक पृथ्वी की भाँति होती है, उसी समय से शुरू हो जाती है जबकि उसका अस्तित्व मात्र एक कोशीय निषेचित डिम्बाणु के रूप में होता है। ध्रुवीकरण तत्पश्चाहीत् मायटोसिस मिओसिस विभाजन के माध्यम से भ्रूण के द्रुत विकास का कारण बनता है। जब बच्चा जन्म लेता है तो भी वह एक डाइपोल मैग्नेट होता है एवं सूक्ष्म छायाँकन द्वारा “हैलो” अर्थात् आभा मण्डल को मस्तिष्क एवं मूलाधार (मल-मूत्र छिद्रों का मध्य भाग ) के आस-पास घनीभूत देखा जा सकता है। बैटरी एक “इलेक्ट्रिक डापोल”, जिनके दोनों सिरों पर विपरीत गुणधर्मिता समुचित मात्रा में देखी जा सकती है। काया के सहस्रार रूपी मस्तिष्क स्थित तथा मूलाधार रूपी कुंडलिनी के निचले छोर पर स्थित तथा ध्रुव चेतन सत्ता के सशक्त केन्द्र माने जा सकते हैं, जिनसे सूक्ष्म जगत का सारा व्यापार चलता रहता है।

जीवन का जहाँ से आरम्भ होता है, उस एक कोशीय निषेचित डिम्बाणु के विषय में अमेरिका की येल यूनिवर्सिटी के डा. सेक्सटन बर्र ने अपनी एक पुस्तक “दी फील्ड्स आफ लाइफ” (जॉन विली- 1672) में लिखा है कि “इन कोशों के दोनों ध्रुवों के मध्य विद्युत विभव का जो अन्तर पाया जाता है व जिस कारण यह एक द्विध्रुवीय चुम्बक” (डाइपोल मैग्नेट) की भूमिका निभा पाता है, वह अकल्पनीय है। इतना विद्युत विभव इतने सूक्ष्म कण में होना यह बताता है कि काया विद्युत्पुँज है एवं भावी जीवन में भी उसकी सारी गतिविधियाँ उसी प्रकार संचालित होनी हैं।”

वे आगे लिखते हैं कि “शुक्राणु की संरचना में यह ध्रुवीकरण इतना स्पष्ट होता है फिर भी सामान्यतया उसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। शुक्राणु का सिर एक ध्रुव है जो नाभिक को धारण करता है एवं सूचना केन्द्र है। पूँछ दूसरा ध्रुव है जो सूचना को अपनी ऊर्जा द्वारा गन्तव्य स्थान तक पहुँचाता है। सूचना केन्द्र व ऊर्जा स्रोत रूपी ये ध्रुव ही अन्ततः जीवकोश में आर. एन. ए., डी. एन. ए. का रोल सम्भाल लेते हैं।”

“भ्रूण विकास की एवं उसके शरीर रूप में विकसित होने की सारी कुँजी सम्भवतः उन विद्युत धाराओं में छिपी पड़ी है जो निरन्तर विकसित हो रहे भ्रूण में दोनों ध्रुवों के बीच सतत् बहती रहती है।” “साइन्स” (अमेरिकन एसोशिएशन फार एडवाँसमेण्ट आफ साइन्स की शीर्ष पत्रिका) के मार्च 1981 के प्रथम अंक में डा. जीन मार्क्स अपना यह अभिमत व्यक्त करते हुए कहते हैं कि “प्रयोगशाला में सम्पन्न होनी वाली “इलेक्ट्रोफोरेसिस” प्रक्रिया की ही तरह सारे शरीर के समस्त जीवकोशों में यह विद्युत्धारा का प्रवाह जारी रहता है। यहाँ तक कि रक्त व अन्य रस द्रव्यों में परिभ्रमण करने वाले घुमक्कड़ कोश जो जीवनी शक्ति के लिए उत्तरदायी माने जाते हैं एवं श्वेतकण भी विद्युत उत्तेजन से रस स्राव कर अपना कार्य करते देखे जा सकते हैं।”

सबसे अधिक कार्य इस क्षेत्र में हृदय के पेसमेकर एवं ‘कन्डक्टिंग टीथ्यू’ जिससे उसकी सारी पंपिंग गतिविधि संचालित होती है, पर हुआ है। उसके अतिरिक्त सुषुम्ना व साथ-साथ चलने वाली सिम्पेथेटिक एवं पैरा सिम्पेथेटिक गैंगलियानों की मण्डली में भी इस विद्युत लीला को सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से देखा जा सकता है। पाया गया है कि विद्युत आवेशधारी कैल्शियम के आयन्स का कोश (स्नायु अथवा गैंगलियान्स अथवा कण्डक्टिंग टीथ्यू) से बाहर आना-जाना ही विद्युत विभव पैदा करके कोश को एक विद्युत्चुम्बक बनाने की अहम् भूमिका निभाता है।

पृथ्वी के चुम्बकत्व की बल रेखाएँ ब्रह्मांड से आती व उत्तरी ध्रुव से प्रविष्ट हो दक्षिणी ध्रुव से बाहर निकल जाती हैं। ब्रह्मांडीय किरणों (कॉस्मिक रेज) का भी सर्वाधिक आदान-प्रदान पृथ्वी के ध्रुवों पर ही होता है। सौर किरणें जब विद्युत आवेश धारण कर सैकड़ों किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति से पृथ्वी की ओर आती हैं तो उत्तरी ध्रुव पर ही उनका संग्रहण होता देखा जाता है जबकि दक्षिणी ध्रुव पर उनकी दिशा पृथ्वी से बाहर जाती हुई दृष्टिगोचर होती है। दक्षिण ध्रुव पर ऊष्मा का सर्वाधिक उत्सर्जन होता देखा जाता है एवं उतरी ध्रुव पर संव्याप्त पर्यावरण प्रदूषण को बड़े अचम्भे से दक्षिणी ध्रुव पर एकत्र हुआ देखा जाता है मानो पृथ्वी ने उन्हें निष्कासित कर परे फेंक दिया हो। ये सारे उदाहरण उस ध्रुवीकरण को समझाने के लिए दिए जा रहे हैं जो सहज रूप में इस मानवी काया में संजोया रखा है। इसके क्रमशः विकसित होने एवं विद्युत चुम्बकत्व द्वारा हर जीवकोश में इसके संव्याप्त होने के प्रसंगोपरान्त इन दोनों ध्रुवों को भी समझ लिया जाय जिन्हें बहिरंग में आभा मण्डल के रूप में प्रकाशित हुआ बताया गया है।

सुषुम्ना नाड़ी (स्थाइनल कार्ड) शरीर की सबसे सामर्थ्यवान विद्युत्सम्पदा से भरी संरचना है जो मस्तिष्क के स्नायु प्रवाह को अंग-प्रत्यंग तक एवं ज्ञान तन्तुओं से मस्तिष्क तक वाँछित सन्देश पहुँचाने का कार्य एक सेकेंड के हजारवें भाग में करती है। इस नाड़ी की संरचना कोलेजन ऊतकों से हुई जो कि घनीभूत प्रोटीन अणुओं का समुच्चय है। इसका ऊपरी सिरा धन आवेशधारी तथा निचला रिण आवेगमय है। स्नायु संरचना की दृष्टि से सुषुम्ना यहाँ एक जालीनुमा गुच्छक बनाती हुई मस्तिष्कीय परतों में अण्डाकार वृत के रूप में रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम के नाम से फैल जाती है। सारी विद्युत्सम्पदा यहीं घनीभूत रहती है। अधिक गहरे में होने एवं अति सूक्ष्म स्थिति में होने के कारण तथा इनके आवेशों के परस्पर निरस्तीकरण (नलीफिकेशन) की वजह से इलेक्ट्रो एनेसेफेलोग्राफी जैसे यन्त्रों से इन विद्युत तरंगों को सही अवस्था में मापा जाना असम्भव है। यही कारण है कि ई. ई. जी. को मस्तिष्क का तेरह प्रतिशत प्रतिनिधि करने वाला मापन मात्र माना जाता है। योग साहित्य में इस सारे विद्युत्मण्डल तथा “पीनियल-हाइपोथेलेमस-पीटुटरी” रूपी स्नायुधारा व रस स्रावों के समुच्चय को सहवार चक्र की उपमा दी गयी है, जहाँ पर पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव की ही तरह सूक्ष्म जगत से अनुदान बरसते हैं। चेतन सत्ता का पारस्परिक आदान-प्रदान इसी ध्रुव के माध्यम से होता बताया गया है। देवाराधन द्वारा वस्तुतः प्रामाणिकता सिद्ध कर जीव सत्ता ब्राह्मी चेतना से अपने अनुदान इसी उत्तरी ध्रुव से ग्रहण करती एवं सामर्थ्यानुसार उन्हें पचाती हुयी शेष को दक्षिणी ध्रुव अर्थात् मूलाधार से निष्कासित करती रहती है।

ब्रह्मांडीय ऊर्जा प्रवाह जिस प्रकार पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव से टकराकर आभा मण्डल विनिर्मित करता हुआ भूमध्य भाग से दक्षिण ध्रुव से निस्सृत हो जाता है, लगभग उसी प्रकार काया के इस डायपोल मैग्नेट सुषुम्ना के सर्वोच्च अधिष्ठाता केन्द्र ब्रह्मरंध्र एवं सहस्रार से टकराते हुए व्यक्ति विशेष की जागृत अन्तःस्थिति एवं साधना अर्जित उपलब्धियों के अनुरूप एक विशिष्ट प्रभा मण्डल बनाता है एवं उछाल खाता हुआ मेरुदण्ड मार्ग से गुजरता हुआ मलाधार से अधोगामी हो काया से बहिर्गमन कर जाता है। मूलाधार एक कुण्ड है, सहस्रार एक दुर्गम पर्वत जिसकी उपमा कैलाश से दी जा सकती है। दोनों की समस्वरता ही आत्मा-परमात्मा का मिलन-ब्रह्मानंद की रसानुभूति है।

प्रश्न पूछा जा सकता है कि जिस प्रकार ध्रुव प्रभा को उत्तरी ध्रुव पर अनेकानेक वर्णों- विलक्षणताओं के रूप में देखा व चित्राँकित किया जा सकता है, क्या उसी प्रकार मानवी काया के प्रभा मण्डल को देखा-परखा नहीं जा सकता। शास्त्रों में तो विभूतियों के अनुरूप भिन्न-भिन्न देवताओं की आकृतियों के चहुं ओर आभा मण्डल (हैलो) दर्शाया जाता है। इस प्रकाश वृत को वैज्ञानिकों ने महत्ता दी है एवं फोटोग्राफी के विशिष्ट प्रयोगों के माध्यम से उसका छायाँकन करने में भी सफलता प्राप्त की। चेतना की सूक्ष्म संरचना की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण शोध उपलब्धि है। “साइकिक डिस्कवरीज बिहाइण्ड आयरन करटेन” एवं बाद में इसके द्वितीय भाग में किर्लियन फोटोग्राफी सम्बन्धी कार्य प्रकाशित हुआ है। समय-समय पर अखण्ड-ज्योति में भी इस “माइक्रोसटलर” पक्ष को लगातार उभारा जाता रहा है। पिछले दिनों “मद्रास मेडिकल कॉलेज” के स्नायुविज्ञानी डा. नरेन्द्रन् ने पत्तियों, अँगुलियों की पोरों के आभा मण्डल से आगे बढ़कर समस्त शरीर का आभा मण्डल अंकित करने में सफलता प्राप्त की है। मानवी ऊष्मा को “थर्मोग्राम” द्वारा तथा विद्युत्चुम्बकत्व को “इलेक्ट्रो मैग्नेटोग्राम” द्वारा माप सकने में तो पिछले एक दशक में वैज्ञानिकों को काफी सफलता मिली है। लेकिन समग्र सूक्ष्म आयन मण्डल को माप लेना एक भारी उपलब्धि है।

डा. नरेन्द्रन् का कथन है कि यह “आँरा” प्राण शक्ति से भरी-पूरी जीव सता में तेजोमय, गतिशील एवं ज्योतिर्मय होता है जिसे एक विशेष प्रविधि द्वारा फोटो ग्राफिक प्लेट पर अंकित किया जा सकता है। निर्जीव वस्तुओं, वृक्ष-वनस्पतियों में भी यह विद्यमान होता है पर इसकी ज्योति (इन्टेन्सीटी) कम होती है। मानवी काया से निरन्तर उत्सर्जित प्राण ऊर्जा का विकिरण मापने के लिए जितने “हाई वोल्टेज प्रोजेक्शन रिकार्डिंग” की आवश्यकता पड़ती है, उसे देखते हुए 1949 में डा. किल्नर द्वारा बनाये उपकरण को काफी कुछ संशोधित कर इस भारतीय चिकित्सक ने शास्त्र वचनों एवं प्रकृत साहित्य का अनुमोदन करने की आत्मिकी दिशा में काफी कुछ योगदान दिया है। उनका कथन है कि निषेधात्मक एवं विधेयात्मक चिन्तन को, भावी व्याधि की सम्भावना वाले एवं शीघ्र ठीक होने वाले व्यक्ति के आयन मण्डल को स्पष्टतः अंकित कर यह निर्धारण किया जा सकता है कि चिकित्सकों की, मनोरोग विशेषज्ञों की भावी दिशाधारा क्या हो? इसे उन्होंने अतीन्द्रिय ज्ञान नहीं अपितु अविज्ञात आयाम की खोज कहा है जिसे विज्ञान, लेसर, मेसर एवं होलोग्राफी के माध्यम से जानता तो था पर विस्मृति की विडंबना से ग्रसित भी था।

डायसायनीन स्क्रीन का प्रयोग कर डा. किल्नर ने यह बताया था कि जैसे मानव शरीर से जीवकोश झड़ते हैं, ठीक उसी प्रकार आयन्स आस-पास के वातावरण में सतत् गतिशील रहते हैं। अपनी पुस्तक “ह्यूमन एटमॉसफियर” में डा. किल्नर ने लिखा है कि सूक्ष्मतम होने के कारण ही ये आँखों से नहीं दिखते लेकिन दिव्य शक्ति सामर्थ्य सम्पन्न व्यक्ति न केवल इस सूक्ष्म आभा मण्डल को अपितु भूत, वर्तमान, भविष्य को भी इसके माध्यम से जान लेते हैं।

आभा मण्डल या आँरा को जानने-समझने की वैज्ञानिक तकनीक एवं वास्तविक आभा मण्डल की शास्त्र मान्यताएँ- अन्यान्य प्रतिपादन आगामी लेखमालाओं में प्रस्तुत की जाती रहेंगी। अभी तो सूक्ष्मीकरण के प्रसंग में इतना ही कहना अभीष्ट होगा कि वैज्ञानिक उस स्थिति तक पहुँच गए हैं जहाँ वे कह सकें कि ‘लिफाफा देखकर हम मजमून पहचान लेते हैं।” भले ही यह जानकारी अत्यल्प हो एक रहस्यलोक का द्वार तो खोलती है।

काया की चेतन सत्ता जितनी विलक्षण एवं सूक्ष्म है उतनी ही सृष्टा की अद्भुतता की परिचायक भी। इस महासागर में जो जितनी डुबकी लगाता है उतनी ही रत्नराशि उपलब्ध करता है। सूक्ष्मीकरण की साधना चेतन सत्ता के चरम बिन्दु तक पहुँचने एवं विराट् रूप में परिवर्धित होने कि प्रक्रिया है। जैसे-जैसे इस विधा के नये आयाम खुलेंगे, साधना से सिद्धि के सार्थक सिद्धान्तों से जन-साधारण लाभान्वित होंगे एवं यथार्थता को पहचानेंगे।

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