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Magazine - Year 1984 - Version 2

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मानवी मन एक जादूगर, विचित्र चित्रकार

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परामनोविज्ञान मानवी मस्तिष्क की विलक्षणताओं को दैवी नहीं मानता वरन् यह प्रतिपादित करता है कि ये विभूतियां मनःसंस्थान के प्रसुप्त केंद्रों को जागृति से उत्पन्न होती हैं। उन्हें जगाने भर से मनुष्य इस स्तर की विशिष्टता प्राप्त कर सकता है जिसे आज की तुलना में विलक्षण कहा जा सके।

आमतौर से मनुष्य बाहर देखता और बाहर की बातों पर सोचता है। खोजता और चाहता भी वह है जो अपने आपे से बाहर है किन्तु यदि आत्म सत्ता केंद्रीय भूत ईश्वर प्रदत्त दिव्य सामर्थ्यों के भाण्डागार को देखा खोजा जा सके तो प्रतीत होगा कि जो बाहर है उसकी अपेक्षा कहीं अधिक मात्रा में भीतर विद्यमान है सुख साधन प्रायः बाहर ही सोचे और खोजे जाते हैं। यदि थोड़ा पीछे मुड़कर थोड़ा गहरे उतर कर देखा जाय तो प्रतीत होगा कि अपने उपयोग की अपनी प्रसन्नता सुविधा और प्रगतिशीलता में सहायक सिद्ध होने वाली सामग्री प्रचुर परिमाण में अपने भीतर ही मौजूद है।

बहिर्जगत में अपने ढंग की शान्ति और सम्पन्नता विद्यमान है। उपयोगिता उसकी भी है पर यह नहीं सोचा जाना चाहिए हम खाली घड़े की तरह हैं। अपना आन्तरिक वैभव इतना प्रचुर और महत्वपूर्ण है कि यदि उसे खोजा संजोया और समेटा जा सके तो प्रतीत होगा कि तृप्ति तुष्टि और शान्ति के साधन भीतर खोजे जाने चाहिए। बाहरी साधन तो उसका शृंगार भर करते हैं। वास्तविक क्षमताएँ और सम्पन्नता तो भीतर ही खोजनी उभारनी पड़ती है।

अपना सुधार परिष्कार अपने प्रयत्नों से किया जा सकता है। साधन, स्वाध्याय सत्संग आदि के सहारे यह कार्य सम्पन्न होते देखे जाते हैं। किन्तु यदि मस्तिष्कीय संरचना के मूल स्रोतों तक दबाव डालना और उनका परिवर्तन परिष्कार करने वाला वैधानिक उपाय उपचार काम में लाया जाय तो जड़ सींचने का प्रयत्न पूरा हो सकता है। मानसिक क्षमता सम्पन्नता से शिक्षात्मक उपाय ही आमतौर से काम में लाये जाते हैं। इन्हें पत्रों द्वारा हमसे साँस ग्रहण करने की तरह समझा जा सकता है किन्तु बड़ा काम जड़ों को खाद पानी उपलब्ध कराना है। मनःसंस्थान भी गहन संरचना को प्रभावित करने वाली कार्य पद्धति को बहिरंग शिक्षा दीक्षा से कम नहीं अधिक मूल्यवान, महत्वपूर्ण ही माना जाना चाहिए।

फ्रांसीसी वैज्ञानिक प्रो. देल्गादो ने कभी यह सम्भावना प्रकट की थी कि नसों में रक्त चढ़ाने की तरह मस्तिष्क में इच्छानुकूल आदतों का प्रवेश भी कराया जा सकता है और इससे दुष्प्रवृत्तियों के स्थान पर सत्प्रवृत्तियां आरोपित की जा सकने में सहायता व सुगमता मिलेगी। मालूम नहीं उनकी इस उक्ति में कितना दम था। इस संदर्भ में मस्तिष्क के उस केन्द्र की खोजबीन भी की गयी जहां गहरी दबी स्मृतियां प्रसुप्त पड़ी रहती हैं। कनाडा के न्यूरोलॉजिस्ट डा. डब्लू. जी. पेन फील्ड ने तो ऐसे इलेक्ट्रोड भी खोज निकाले थे जिनका विशेष कोशिकाओं से सम्बन्ध करने पर अतीत की घटित घटनाएं विवाद, संवाद चर्चा, परिचर्चा ऐसी प्रतीत होती थी जैसे अभी तत्काल सम्पन्न हो रही हैं। इसी आधार पर बीसवीं सदी के वैज्ञानिकों को मस्तिष्क का नक्शा बनाने, केंद्रों का निर्धारण करने में काफी कुछ मदद मिली।

मस्तिष्क रसायनों पर शोध करने वाले विशेषज्ञ डॉ. कैमरान के अनुसार मस्तिष्कीय कणों का मध्यवर्ती न्यूक्लिक एसिड इस विद्युत संवेग का उत्पादन एवं नियंत्रणकर्ता है। रासायनिक बैटरी की तरह यह एसिड ही मस्तिष्क में विभिन्न स्तर के संवेदन संवेग उत्पन्न करता है। इस प्रक्रिया से विभिन्न न्यूरोह्यूमरल सिक्रीशन यया “एनकेफेलिन, “एण्डोरफिन्स, “सिसेटेनिन, गाबा आदि का रसस्राव होता है व यही समुदाय सारी क्रियाओं का निर्धारण करता है। मस्तिष्क को रीढ़ की हड्डी से जोड़ने वाले रेटिक्युलर फार्मेशन की हरकतों को समझना और उसे प्रभावित करना जब जितनी मात्रा में संभव होता चला जायेगा, उसी अनुपात से मनुष्य कृत्रिम रीति से हर्ष शोक की अनुभूतियों से आच्छादित किया जा सकेगा।, ऐसा विभिन्न वैज्ञानिकों का कथन है।

वैज्ञानिकों का कथन है कि न्यूरोन्स की सिनेप्टिक हलचलों में हेर-फेर करके भी मानसिक स्तर का हेर-फेर किया जा सकता है। इसके लिए नियत स्थान पर उपयुक्त मात्रा में विद्युत प्रवाह पहुँचा देने का कौशल हाथ में आ जाने से बहुत काम चल सकता है। यहाँ तक कि मानसिक संरचना, भावुकताजन्य रोग, द्विमुखी व्यक्तित्व, तक को बदला जा सकना संभव है।

एक शोध के अनुसार रिवोन्यूक्लिक एसिड (आर. एन. ए.) नामक रसायन मस्तिष्कीय चेतना का आधार स्तम्भ ठहराया गया है। स्वीडन के डा. हाल्गर हाइडन के प्रयोगों में इस रसायन की मात्रा विभिन्न चेतना परतों में घटा बढ़ाकर प्राणियों के सोचने के तरीके को बदलने में अच्छी सफलता प्राप्त हुई है।

इस सदी के पूर्वार्ध में जीवशास्त्री जेम्स ओल्डस ने चूहों के मस्तिष्क पर आँशिक नियंत्रण प्रक्रिया खोज निकाली थी। इससे उन्हें बिल्लियों का भय जाता रहा और वे बिल्ली की पीठ पर बच्चों की तरह कुलाचें भरते और अपना हितैषी समझते थे।

डा. डी. एलबर्ट ने चूहों की ऐसी जाति पैदा करने में सफलता प्राप्त की जिनकी रूप, रंग, आकृति तो वैसी ही थी किन्तु प्रकृति भिन्न थी। डा. राबर्ट थामसन ने तिलचट्टों पर प्रयोग किये एवं रेडियो संकेतों से उन्हें मन चाहे अनुसार कराया गया। उनका कथन है कि यही प्रयोग मनुष्यों पर भी संभव है।

अध्यात्म क्षेत्र के सूक्ष्म शरीर को ऋषि प्रतिपादित अलौकिक ऋद्धि सिद्धियों की चर्चा यहाँ नहीं हो रही है। मनःशास्त्र की संरचना और उसमें सन्निहित सम्भावनाओं में से जितना अंश प्रामाणिक पाया गया है उसे विज्ञानवेत्ताओं ने मैटाफिजिक्स की परिधि में बाँधा है और उस क्षेत्र को जिन सम्भावनाओं को अनुसंधान का विषय माना है, वे भी कम चमत्कारी नहीं हैं। यदि मनुष्य प्रयत्नपूर्वक इस अन्तरंग रत्न राशि की खोज, खाद, और संग्रह कर सके तो उसका सदुपयोग निश्चित रूप से उसे असामान्य महामानवों की श्रेणी में खड़ा कर सकता है।

पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने क्षमताएँ खोजी हैं, वे उन्हें चार वर्गों में विभक्त करते हैं- (1) क्लेयर आयेन्स (परोक्ष दर्शन) अर्थात् वस्तुओं या घटनाओं की वह जानकारी जो ज्ञान प्राप्ति के सामान्य आधारों के बिना ही उपलब्ध हो जायें। (2) प्रीकाग्नीशन (भविष्य ज्ञान) बिना किसी मान्य आधार के भविष्य की घटनाओं का ज्ञान (3) रेट्रोकाग्नीशन (भूतकालिक ज्ञान) बिना किन्हीं मान्य-साधनों से अविज्ञात भूतकालीन घटनाओं की जानकारी। (4) टेलीपैथी (विचार-सम्प्रेषण) बिना किसी आधार या यन्त्र के अपने विचार दूसरों के पास पहुंचाना तथा दूसरों के विचार ग्रहण करना। इस वर्गीकरण को और भी अधिक विस्तृत किया जाय तो उन्हें 11 प्रकार की गतिविधियों में बाटा जा सकता है। इनका स्थूल वर्गीकरण इस प्रकार है। (1) बिना किन्हीं ज्ञातव्य साधनों के सुदूर स्थानों में घटित घटनाओं की जानकारी मिलना। (2) एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की मनःस्थिति तथा परिस्थिति का ज्ञान होना। (3) भविष्य में घटने वाली घटनाओं का बहुत समय पहले पूर्वाभास। (4) मृतात्माओं के क्रिया-कलाप जिससे उनके अस्तित्व का प्रत्यक्ष परिचय मिलता हो। (5) पुनर्जन्म की वह घटनायें जो किन्हीं बच्चों, किशोरों या व्यक्तियों द्वारा बिना सिखाये समझाये बताई जाति हों और उनका उपलब्ध तथ्यों से मेल खाता हो। (6) किसी व्यक्ति द्वारा अनायास ही अपना ज्ञान तथा अनुभव इस प्रकार व्यक्त करना जो उसके अपने व्यक्तित्व और क्षमता से भिन्न और उच्च श्रेणी का हो। (7) शरीरों में अनायास ही उभरने वाली ऐसी शक्ति जो संपर्क में आने वालों को प्रभावित करती हो। (8) ऐसा प्रचण्ड मनोबल जो असाधारण दुस्साहस के कार्य विनोद की साधारण स्थिति में कर गुजरे और अपनी तत्परता के अद्भुत पराक्रम कर दिखाये। (9) अदृश्य आत्माओं के संपर्क से असाधारण सहयोग सहायता प्राप्त करना। (10) शाप और वरदान जिससे दीर्घकाल तक व्यक्तियों व वस्तुओं पर प्रभाव बना रहता है। (11) परकाया प्रवेश या एक आत्मा में अन्य आत्मा का सामयिक प्रवेश।

इन क्षमताओं को अर्जित करने में अपना बल वैभव तो बढ़ता ही है। साथ ही दूसरों का हित साधन बन पड़ने की सम्भावना भी बहुत है। दृष्टिकोण और जीवन प्रवाह बदल देना, कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाकर महानता के मार्ग पर धकेल देना इतना बड़ा काम है कि उसे वास्तविक कायाकल्प की संज्ञा दी जा सकती है। जरा जीर्ण शरीर को नये यौवन में बदल देना सामयिक सुविधा की दृष्टि से सभी को प्रिय लगेगा किन्तु यदि गहराई में उतर कर देखा जाय तो व्यक्तित्व की पतनोन्मुख दुष्प्रवृत्तियों से बचकर महानता के स्वर्ग लोक तक उछला जा सके तो उसे सर्वोत्कृष्ट स्तर का का परमार्थ कहा जायगा।

यह उच्चस्तरीय सेवा सहायता की बात हुए। साधारण जीवन क्षेत्र में शारीरिक और मानसिक आदि व्याधियों का ऐसा दौर छाया रहता है कि उनका दबाव भी कम कष्टकारक कम अधिक सिद्ध नहीं होता। बढ़ी हुई आन्तरिक क्षमता के सहारे इस प्रकरण की रुग्णताओं से अनेकों को मुक्ति दिलाई जा सकती है। अहसान उपकार अपने साथ में एक उच्चस्तरीय चिकित्सा शास्त्र है।

अमेरिका में कैन्टुकी नगर के पास एक छोटे से गाँव में एडगर केसी नाम का युवक बीमार पड़। उसकी माँस पेशियों में जकड़न और दर्द उठा तो बढ़ता ही गया। कैन्टुकी से योग्य डाक्टर बुलाए गये वे रोग का निदान भी न कर पाये तो दवा कहाँ से देते। अतः डाक्टर परामर्श कर ही रहे थे कि सहसा एडगर ने आंखें खोलीं और डाक्टरों को रोग का नाम तथा औषधियों के मरहम के सभी के नाम पते बता दिये। एडगर ने जिस भाषा में औषधियों के नाम बताए थे वह विशुद्ध लैटिन भाषा थी किन्तु एडगर तो निपट ग्रामीण था वह लैटिन का एक शब्द भी नहीं जानता था। किन्तु कुछ दिन के उपरान्त यह आश्चर्य भरी घटना शान्त हो गई। केसी ठीक हो गया। किन्तु पुनः कुछ दिनों के बाद एडगर का मित्र बीमार पड़ा। डाक्टर बुलाए गये। इस बार भी डाक्टरों के समक्ष चमत्कार हुआ। एडगर वहीं था कुछ देर तड़ित तन्द्रा में चला गया और लैटिन में डाक्टरों को जो कुछ बताया वह रोग और निदान औषधि और पथ्य सब कुछ सही और पूर्ण था। इस पर डाक्टरों को आश्चर्य बढ़ा और ख्याति फैलने से एडगर के समक्ष असाध्य रोगियों को लाया जाने लगा।

ब्राजील का “एरिगो” नामक एक प्रसिद्ध चिकित्सक हुआ है जो ऐसी ही प्रक्रियाओं द्वारा चिकित्सा उपचार करता था। मिश्र के प्राचीन शिला-चित्रों में रोगियों के पेट पर एक हाथ तथा पीठ पर दूसरा हाथ रखे हुए चिकित्सक दर्शाए गये हैं। वहाँ के साहित्य में भी प्राण चिकित्सा का उल्लेख मिलता है, कि सन्त पैट्रिक ने आयरलैण्ड के एक अन्धे के आँख पर हाथ रखकर उसे नेत्र-ज्योति दी थी। सन्त-वर्नाड के विषय में भी कहा जाता है कि उन्होंने एक दिन में ही 10 अंधों और 12 अपाहिजों को अच्छा कर दिया था।

सत्रहवीं सदी में लन्दन के लेन्हर्ट नामक एक माली को अंगुलियों से छूकर रोग विमुक्त करने में अद्भुत ख्याति मिली। उन्नीसवीं सदी के आरम्भ से सिलसिया के केरिचर नामक चौकीदार ने हजारों रोगियों को अपने स्पर्श मात्र से आरोग्य प्रदान करने में सफलता पायी। प्राचीन यूनानी वैद्य प्राण चिकित्सा के लिए प्रख्यात रहे हैं।

वस्तुतः ये समस्त विभूतियाँ लगती असाधारण हैं, लेकिन उद्भूत उसी मस्तिष्क से होती हैं जो दैनन्दिन जीवन में काम करता दीख पड़ता है। इनके प्रसुप्त स्थिति में पड़े होने से, अपनी ही विलक्षणताओं की जानकारी न होने से बहुसंख्य व्यक्ति साधारण जीवन जीकर किसी तरह निर्वाह पूरा करते देखे जाते हैं। योग साधन का राज मार्ग ऐसा है जो एक सुनिश्चित दिशाधारा मनुष्य को समझाता है ताकि प्रसुप्त भाण्डागार की रत्न राशि से लाभान्वित हुआ जा सके। इसकी खोज हेतु पाश्चात्य देशों के जिज्ञासु भारत आकर पूर्वार्त्त दर्शन को समझने का प्रयास करते देखें जा सकते हैं। लेकिन चमत्कारों तुर्तफुर्त सिद्धि मिलने के जंजाल में उलझा भारतीय जनमानस उनसे अनजान ही नजर आता है। यदि आत्मजाग्रति की चेतना क्रियाशील बनाई जा सके तो इस काया रूपी प्रयोग शाला से ही बहुमूल्य उपलब्धियाँ हस्तगत की जा सकती हैं।

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