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Magazine - Year 1984 - Version 2

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उपयोगी ज्ञान वृद्धि विवेक बुद्धि के सहारे

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मस्तिष्कीय ज्ञान विकास एवं धारणा परिपक्व करने के लिए अध्ययन अध्यापन की आवश्यकता पड़ती है। आवश्यक नहीं कि वह पुस्तकों के आधार पर ही अर्जित की जाय और अध्यापक ही उसे पढ़ाते, स्कूल में भर्ती हुए बिना काम न चले।

यह समूचा संसार एक पाठशाला है। इसमें रहने वाले मनुष्यों और प्राणियों की घटनाएँ निरन्तर कुछ न कुछ सिखाती रहती हैं। इस सम्पर्क क्षेत्र की विभिन्नताएँ और विचित्रताएँ ही हमारी ज्ञान सम्पदा को निरन्तर बढ़ाती रहती है। भले-बुरे, कडुए-मीठे अनुभव बताते हैं कि किन परिस्थितियों में कितना किस सीमा तक सहयोग करना चाहिए और किनसे बचकर आत्म रक्षा की घेराबंदी करनी चाहिए।

घटनाएँ घटती रहती हैं। इनके साथ जुड़े तो प्राणी भी रहते हैं पर उनमें भी प्रमुखता परिस्थितियों की ही होती है। परिस्थितियों को भी एक बहुमुखी व्यक्तित्व वाले मनुष्य कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। घटनाक्रमों के साथ अनेकों उतार-चढ़ावों का सम्मिश्रण होता है। इसलिए उनके सम्पर्क में आने वाले एक साथ ही कितनी संगतियों और विसंगतियों का अनुमान लगा लेते हैं। ज्ञान वृद्धि में जन सम्पर्क की बहुलता और घटनाक्रमों की विभिन्नता बहुत सहायक होती है। इस प्रयोजन के लिए पर्यटन भी एक बड़ा माध्यम है। स्कूली अध्ययन जहाँ सीमित परिधि की जानकारियों का विकास करता है वहाँ पर्यटन उसमें बहुमुखी ज्ञान अनुभव संचित करने का अवसर प्रदान करता है।

प्राचीन काल के गुरुकुल चलते-फिरते होते थे। ऋषि-मनीषी अपनी शिष्ट मण्डली को लेकर परिभ्रमण करते रहते थे। थोड़े-थोड़े समय एक-एक स्थान पर रुकते थे। फिर आगे बढ़ जाते थे। इसमें अध्ययन अध्यापन में कोई व्यतिरेक नहीं पड़ता था। व्यक्तियों और परिस्थितियों की भिन्नता से अवगत होते रहने वाले विद्यार्थी अपेक्षाकृत अधिक व्यवहार कुशल होते थे। जबकि छात्रालयों या घर परिवारों की चहार दीवारी तक सीमित रहने वालों को मात्र पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित रहना पड़ता था।

यह ठीक है कि अधिक घनिष्ठ एवं समीप रहने वालों की प्रभाव प्रतिक्रिया अधिक होती है, पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि सब कुछ उतने पर ही निर्भर है। बाहर का वातावरण भी कम प्रभावित नहीं करता। इसलिए न केवल ज्ञान वृद्धि का श्रेय या दोष सम्पर्क क्षेत्र को ही नहीं दिया जा सकता। सम्पर्क क्षेत्र से तात्पर्य अपने परिवार से है। हर परिवार में भले-बुरे स्वभाव के होते हैं। सभी एक जैसे हों यह कठिन है। ऐसी दशा में अपरिपक्व आयु के बालक उनमें से किससे अधिक प्रभावित हों और किन-किन का किस सीमा तक अनुकरण करने लगे यह कहा नहीं जा सकता। स्कूल जाने या पास-पड़ौस के बच्चों के साथ खेलने का समय आने पर तो प्रभाव ग्रहण का क्षेत्र और भी अधिक विस्तृत हो जाता है। अपनी तथा दूसरी कक्षाओं के अध्यापक- अपने और साथियों के अभिभावक- सेवक शिक्षकों की भूमिका निभाते हैं और पाठ्यक्रम में न सही, भले-बुरे अनुभवों की अभिवृद्धि में योगदान देते हैं। यह समूचा क्षेत्र मिलकर ज्ञान वृद्धि की शृंखला को मोटी और लम्बी करता चला जाता है।

यह उस समय की चर्चा है, जिन दिनों बालक घर से निकलकर स्कूल तक के आवागमन का क्रम आरम्भ करता है। इसे सम्पर्क क्षेत्र का विस्तार कहना चाहिए। यह सम्पर्क ही वास्तविक अध्ययन अध्यापन है। अनुभव एवं प्रभाव ग्रहण भी अपने ढंग की ज्ञान वृद्धि है। मात्र पुस्तकों या अध्यापकों तक ही उसे सीमित नहीं समझा जाना चाहिए।

यह ज्ञान वृद्धि आगे चलकर और भी अधिक विस्तृत होती है। पुस्तकों में वर्णित ऐतिहासिक घटनाक्रमों एवं अगणित विचारशीलों के प्रतिपादनों को उनके द्वारा पढ़ने समझने का अवसर मिलता है। पाठ्यक्रम मात्र शब्दकोश, भाषाज्ञान एवं विषय परिचय भर तक सीमित नहीं रहते। उस माध्यम से जो पढ़ा गया है वह एक प्रकार से सम्पर्क स्तर का बनाता जाता है। प्रत्यक्ष न होने पर भी पुस्तकीय ज्ञान परोक्ष सम्पर्क क्षेत्र बना है ओर पढ़ने वाले पर प्रभाव छोड़ता है। साहित्य की तरह ही अब सिनेमा टेलीविजन भी एक प्रकार से देखने वालों के लिए स्कूलों की अध्यापकों की भूमिका निभाते हैं। हाट बाजार में- मेले-ठेलों में- विवाह शादियों में सहज ही अनेक आकृति-प्रकृति के- स्वभाव आचरण के नर-नारियों को देखना बन पड़ता है। इन सबके साथ हलका भारी प्रभाव सम्पर्क जुड़ता है आदान-प्रदान का क्रम चलता है।

दैनिक समाचार पत्र संसार भर की परिस्थितियों के साथ सम्पर्क जोड़ते हैं। मासिक, साप्ताहिक पत्रिकाएँ विचार प्रधान होती हैं। पुस्तकालयों में हर स्तर की पाठ्य सामग्री मिल जाती है। सत्संग समारोहों में किसी विशेष विचारधारा का बाहुल्य छाया रहता है। कुल मिलाकर हमारा समूचा जीवन ही सीखते हुए जाता है। उसमें सिखाना भी सम्मिलित है। हम न केवल सीखते ही हैं वरन् सिखाते भी हैं। न केवल विद्यार्थी होते हैं वरन् कितनों के ही लिए अध्यापक भी बनते हैं। यह भी एक जीवन साधना है। आवश्यक नहीं कि बड़े या बहुत ही कम आयु समझ वालों को सिखाये। बहुत बार छोटे और अनपढ़ भी बड़ों को इतना अधिक सिखा देते हैं कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।

यहाँ उस मान्यता पर प्रश्न चिन्ह लगता है जिसके अनुसार यह कहा जाता रहा है कि उपयोगी शिक्षण संस्थानों में भर्ती करने से या सुसंस्कृत परिस्थितियों में पलने से बालक या व्यक्ति का ज्ञान एवं चरित्र बढ़ता है। यह प्रतिपादन एक सीमा तक ही सही है। बार-बार सम्पर्क में आने वालों का अधिक प्रभाव पड़ता और अनुकरण प्रिय प्रकृति मिलने के कारण अधिक सीखने समझने का अवसर रहता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। किन्तु इससे बाहर जो कुछ घटित हो रहा है या जो हो चुका है, उसके प्रभाव से अछूता रहने के लिए कोई चहार दीवारी नहीं खिंच सकती।

घर में अंगीठी जला लेने पर भी सर्दी का मौसम प्रभाव न छोड़े और अँगीठी छोड़ने के बाद अपना प्रभाव प्रदर्शित न करे, यह कैसे हो सकता है? घर में बुहारी लगाने पर भी जब अन्धड़ के साथ उड़ता हुआ गर्द गुवार आँगन व रास्ते में ढेरों रेत कचरा बखेर देता है तो उसकी रोकथाम कैसे हो? अनचाहे मेहमान भी कई बार ऐसे होते हैं जो प्रवेश निषिद्ध का प्रतिबन्ध पढ़ते तक नहीं और दनदनाते हुए घर के भीतरी कोने तक जा धमकते हैं। मक्खी, मच्छर, खटमल, पिस्सू मनचाही घुसपैठ करते रहते हैं। अधिक से अधिक कुत्ते, बिल्ली ही रोके या भगाये जा सकते हैं।

बाहरी प्रभाव के सम्बन्ध में भी यही बात है। जीवन निर्वाह के क्षेत्र में ऐसा किया जा सकता है जिसमें इच्छित अनुकूलता रहे किन्तु मनुष्य पिंजड़े का पक्षी तो नहीं है। उसका सम्पर्क आवागमन अनेकों के साथ जुड़ता है। फिर जो पढ़ा या सुना जाता है उसे किस प्रकार भले-बुरे की छलनी में छाना जाय। नाक के द्वार खुले हैं तो नथुनों में सुगन्ध ही नहीं दुर्गन्ध भी घुसेगी ही। आँखें यदि खुली हों तो उन्हें भले ही नहीं बुरे दृश्य भी दीखेंगे ही। भले दृश्य आँखें देखें और बुरे सामने आते ही कपाट बन्द कर लें ऐसा सोचा भर जा सकता है, व्यवहार में उतारना सम्भव नहीं। गाँधी जी के तीन बन्दर एक परिकल्पना है। कोई आँखें बन्द किये, कानों में उँगली लगाये और मुँह पर पट्टी बाँधे कहाँ तक बैठा रह सकता है। जीवितों में से किसी के लिए भी वह सम्भव नहीं। आदर्शों के प्रतीक लोक शिक्षण के लिए बना लेने में हर्ज नहीं, पर उन्हें व्यावहारिक मानकर नहीं चला जा सकता।

तब किया क्या जाय? क्या विवशता समझकर दैवेच्छा पर निर्भर रहा जाय? प्रयास पुरुषार्थ की राय न देने वाली भाग्यवादी मान्यता अपनाने की आवश्यकता नहीं। समझना इतना भर है कि जीवनचर्या का क्षेत्र बहुत बड़ा है। उसकी विशालता और व्यापकता अत्यधिक विस्तृत है। बुरे के साथ भला और भले के साथ बुरा इतना अधिक गुथा है कि अनुकूल वातावरण या परिस्थितियों की घेराबंदी कर सकना सिद्धान्त सही होने पर भी व्यवहारतः असम्भव है। हमें यथार्थवादी होना चाहिए और संसार भर के काँटे बीनने या बिना ठोकर कंकड़ों से बचते हुए, कालीनों पर ही चलने की कल्पना छोड़ देनी चाहिए। अच्छा है कि पैरों में जूता पहनें और हर भले-बुरे रास्ते को रौंदते हुए बेखटके चलते रहें।

तात्पर्य उस विवेक बुद्धि के जागरण से है। जो एकाकी नहीं होती वरन् भले-बुरे का भेद करना जानती है। उसी को विकसित और परिपक्व करने की जरूरत है। खतरा एकाकीपन में पड़ता है। विश्वासी ठगे जाते हैं और अविश्वासी आशंकाग्रस्त रहकर अलग-थलग पड़ते और घाटे में रहते हैं। सज्जनों की संगति बहुत अच्छी बात है पर यदि दुर्जनों की कुटिलता से अपरिचित रहा जाय तो वह दुर्दिन देखना पड़ेगा जिसमें किसी पाखण्डी के कुचक्र में फँसकर जेब कटानी और मुसीबत उठानी पड़े। ठीक इसी प्रकार दुर्जनों से सारा संसार भरा होने की मान्यता बना लेने पर सज्जनों से सम्पर्क साधना और सहयोग के आदान-प्रदान का द्वारा ही नहीं खुलेगा। इसीलिए नीर-क्षीर विवेक की नीति को बुद्धिमत्तापूर्ण बनाया, सराहा और अपनाने के लिए प्रेरित किया जाता है।

अपनी बालकों की- प्रभाव सम्पर्क में आने वालों की ज्ञान वृद्धि के साथ-साथ इस तथ्य को भी हृदयंगम किया और कराया जाना चाहिए कि यहाँ भलाई और बुराई दोनों ही एक साथ गुँथी हैं। वे इतनी दूरी पर नहीं रहतीं कि उन्हें अलग-अलग पंक्तियों में नहीं खड़ा किया जा सकता वरन् हर प्रसंग में उनके ग्राह्य और अग्राह्य स्तर का वर्गीकरण किया जाना चाहिए। छलनी आटा छानती है और भूसी का ढेर अलग से लगा देती है। सूप के फटकने का भी यही क्रम है कि वह करकट और अनाज अलग-अलग करता रहता है। पानी छानकर पीने के पीछे भी यही नीति काम करती है। इस संसार में सर्वथा सज्जन या सर्वथा दुर्जन कोई भी नहीं है। इसलिए न तो किसी का आत्म समर्पण किया जाना चाहिए और न किसी को सर्वथा अप्रामाणिक, अनुपयोगी ठहराया जाना चाहिए। अतिवाद के दोनों ही सिरे खतरनाक हैं।

ज्ञानवृद्धि एक ऐसी आवश्यकता है जो जन्म से ही आरम्भ होती है और मरण पर्यन्त चलती रहती है। इसमें पठन-पाठन के अनेकों माध्यम हैं। परिवार स्कूल, साहित्य, सम्पर्क आदि द्वारा यह क्रम चलता ही रहता है। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसे सर्वथा निर्दोष या ग्राह्य कहा जा सके। ऐसा भी नहीं हो सकता कि एक वर्ग के साथ ही सम्पर्क रहे ओर दूसरे से बचा या बचाया जा सके। इस झंझट में न पड़कर हमें इतना ही सोचना चाहिए कि बुराइयों के दुष्परिणाम समझे और अच्छाइयों की सुखद सम्भावनाओं का सही रीति से मूल्याँकन करना सीखें। हर सज्जन में कोई दुर्जन जैसा दुर्गुण हो सकता और हर दुर्जन में कुछ न कुछ विशेषता हो सकती है। हमें औचित्य को ही मान्यता देनी चाहिए। तर्क बुद्धि से काम लेना चाहिए। यथार्थता का पर्यवेक्षण कर सकने वाली विवेकशीलता विकसित करनी चाहिए। नीर-क्षीर का भेद करने वाली प्रथा अपनानी चाहिए। यही है- ज्ञान वृद्धि की दूरदर्शितापूर्ण अवधारणा। जिसका आश्रय लेकर बुरे लोगों और बुरी परिस्थितियों में भी सतर्कता और सुरक्षा के कितने ही महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लग सकते हैं। यही है वह कौशल जिसके आधार पर सज्जनता को ढूँढ़ना और उसके उपयोगी अंश को उपयोगी मात्रा में ग्रहण कर सकना सम्भव हो सकता है।

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