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Magazine - Year 1984 - Version 2

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साधनों की महत्ता अपनी जगह है। बिना उन्हें जुटाये कोई कैसे किसी कार्य को- निर्माण को पूरा करता है? यदि ईंट, चूना, लोहा, सीमेन्ट न हो तो भवन कैसे बने? यदि कलम, स्याही, कागज न हो तो लिखा कैसे जाय? किसान के पास खर-पतवार उखाड़ने, सिंचाई आदि के उपकरण एवं बीज न हो तो भूमि होते हुए भी वह खेती का कार्य कैसे करता रह सकता है लेकिन एक पक्ष और भी छूट जाता है। वह है साधनों को बल देने वाली अदृश्य शक्ति का। प्रत्यक्ष तो वह दिखाई नहीं पड़ती लेकिन परोक्ष में उसी की सामर्थ्य काम करती है।

आध्यात्मिक जगत में इस परोक्ष शक्ति को साधना की सामर्थ्य के रूप में जाना जाता है। इस तप बल के अभाव में व्यक्ति शरीर व मस्तिष्क से स्वस्थ होते हुए भी आत्मबल से वंचित ही रहता है, साधना बिना वस्तुतः साधनों की कोई उपयोगिता नहीं। जीवन साधना जहाँ दैनिक जीवन व्यापार में मानवी काया में बन पड़ने वाले अनगढ़ क्रिया-कलापों को सुगढ़ बना देती है। वहाँ अन्तर्गत की तप साधना जब उच्च स्तर की होती है तो साधक की मनःस्थिति को उत्कृष्ट बनाने एवं संव्याप्त अवांछनीयता के निवारण हेतु अभीष्ट बल देंगे में सहायक होती है।

यह सारी चर्चा सन्धिकाल की बेला में समय की बदलती करवटों के साथ बदलने जा रही। पूज्य गुरुदेव की भावी भूमिका के सम्बन्ध में की जा रही है। बसन्त पूर्व उनका आध्यात्मिक जन्म दिवस है। हर वर्ष की तरह यह वर्ष अनेकानेक नये उपक्रम साथ जुड़े जाने के कारण अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उनके मार्गदर्शक द्वारा सौंपे गए सभी प्रमुख दायित्व इसी पावन दिवस की बेला में संकल्पित हुए। 24 लक्ष के 24 गायत्री महापुरश्चरण अखण्ड-ज्योति पत्रिका का शुभारम्भ से लेकर चौबीस सौ प्रज्ञा संस्थानों का निर्माण जैसे युगान्तरीय कार्य इसी बेला में सम्पन्न हुए। अब अपने मार्गदर्शक के निर्देशानुसार अपने विशाल प्रज्ञा परिकर की प्रचण्ड ऊर्जा से सिंचित करने उन्हें आत्मबल की शक्ति से अनुप्राणित करने हेतु एक नया अध्याय उनके जीवन का आरम्भ होने जा रहा है। बहिरंग जगत से निवृत्ति लेकर वे स्वयं को सूक्ष्मतम बनाने जा रहे हैं। महायोगी अरविन्द एवं महर्षि रमण भारत की उसी ऋषि परम्परा के एक अंग थे, जिसने तप का सम्बल लेकर लोकहित हेतु उस अर्जित आत्मिक सम्पदा का सदुपयोग किया था। उनकी भूमिका भी अब ऐसा ही मोड़ लेने जा रही है जिसमें वे एकाकी साधनारत रह परोक्ष जगत की अपनी प्रचण्ड प्राण ऊर्जा से अभिपूरित करेंगे। चर्मचक्षुओं से दर्शन, मनोकामना की पूर्ति आने वाले इस दृष्टि से निराश होंगे लेकिन वे नहीं जो उनके जीवन दर्शन को समझते हैं। उन्होंने जीवन भर उपासना की है- स्वयं को धोया है- बदले में दैवी अनुकम्पा पाकर उससे अनेकों को अनुदान दिये हैं। अब लगभग अपने पूर्व में सम्पन्न गायत्री महापुरश्चरणों के समकक्ष प्रचण्ड साधना वे जीवन की शेषावधि में पूरी करना चाहते हैं। इसे परोक्षतः महाकाल की प्रत्यावर्तन प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण सोपान समझा जा सकता है। सूक्ष्मीकृत हो तप साधना से न केवल प्रस्तुत परिकर को, अपितु समस्त मानव समुदाय को युगसन्धि की इस बेला में मथ देने एवं समय की आवश्यकता को पूरा करने के लिए यह अनिवार्य भी था।

स्थूल की तुलना में सूक्ष्म की महत्ता कितनी अधिक होती है, सभी जानते हैं। मिट्टी के ढेले में अपनी कोई सामर्थ्य नहीं लेकिन उसमें छिपे कण-कण में- परमाणु में कितनी अधिक शक्ति प्रचण्ड ऊर्जा होती है, इसे दृश्यमान रूप में परमाणु ऊर्जा के रूप में समझा जा सकता है। समुद्र में ढेरों पानी फैला पड़ा है लेकिन जब यही सूक्ष्मकृत होकर बादलों के रूप में अन्तरिक्ष में पहुँचता व घनीभूत होकर बरसता है, तो उसकी महत्ता समझ में आती है। औषधियाँ जब खरल में घोंटी जाती हैं, सूक्ष्मतम एवं प्रभावशाली होती चली जाती हैं। वायुभूत होने पर वे पर्यन्य-प्राण का निर्माण करती हैं एवं रोम कूपों से प्रवेश कर आरोग्य एवं जीवनी शक्ति का सम्वर्धन का बहुमूल्य वरदान देती हैं। सूक्ष्म वस्तुतः कितना सामर्थ्यशाली होता है इन दृष्टान्तों से इसकी झलक मिलती है।

पूज्य गुरुदेव की भावी रीति-नीति भी अब यही होगी कि गोदी में चढ़कर खेलने हेतु मचलने वालों- खिलौनों की माँग करने वाले बच्चों को अपनी स्थूल काया का दर्शन देने की बजाय सुपात्रों को सूक्ष्म रूप में आत्मबल का दैव अनुदान दें। यह एकाकी तपश्चर्या कुछ को घाटे का सौदा लग सकती है लेकिन वस्तुतः वैसा है नहीं। सूक्ष्म रूप में वे और भी अधिक सामर्थ्यवान, सर्वव्यापी होंगे। इस बसन्त पर उन्होंने अपनी ओर से दो प्रतीक परिजनों को दिये हैं। वे पावन प्रतीक सदैव परिजनों को पूज्यवर के सूक्ष्म संरक्षण का उनकी सतत् उपस्थिति का बोध कराते रहेंगे। अब ये प्रतीक मात्र भी प्राप्त कर सकेंगे जो यहाँ आगामी सत्रों में आएँगे।

सारे प्रज्ञा परिवार पर एक दृष्टि दौड़ा कर प्रस्तुत बसन्त पर उन्होंने यही निर्णय लिया है कि अब अपने बालकों से भी कुछ कर दिखाने हेतु चुनौती दी जाय। कहा तो बहुत कुछ है लेकिन लोभ, मोह, अहंता के बन्धनों ने उन्हें कम ही करने दिया है। समय, धन खर्च करके सस्ती भावुकता की खातिर लोग दर्शन तो करना चाहते हैं लेकिन अपनी केंचुली से मुक्त होना नहीं चाहते यह विडम्बना बड़ी त्रासदी से भरी है। यदि इसी का सुनियोजन कर लिया गया होता तो आत्मा भी सन्तुष्ट होती एवं दैवी अनुकम्पा भी उन पर बरसती। कुछ न मिला, यह तो माना पर क्यों न मिला यह भी तो समझ लें ताकि अपने में परिवर्तन लाया जा सके। समय की विषमता भी यदि वह परिवर्तन जन साधारण में न ला सकी तो यह उनके लिये दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

प्रस्तुत बसन्त से सभी परिजनों को अपने अंशदान व समयदान की मात्रा बढ़ाने एवं शान्ति-कुंज से अप्रैल माह से आरम्भ किये जा रहे सुयोग्य प्रतिभाओं के उच्चस्तरीय शिक्षण हेतु चार माह का समय निकालने के लिए कहा जा रहा है। वे स्वयं यदि इतना समय न दे सकें तो उनसे अपने स्थान पर चार माह के लिये एक जीवट सम्पन्न-युवा-कर्मठ व्यक्ति का चयन कर उसे इस शिक्षण हेतु यहाँ भेजने को कहा गया है। इतना हो सका तो ही वे कार्य चल सकेंगे जिनसे प्रज्ञा-संस्थानों- प्रज्ञा पीठों- स्वाध्याय मण्डलों एवं जागृत शाखाओं में प्राण आ सके, उन्हें वस्तुतः जन-जागृति के केन्द्र माना जा सके। अभी इन प्रज्ञापीठों में हलचल के नाम पर कुछेक अफवाहों को छोड़कर पूजा अर्चा भर होती रहती है। घर-गृहस्थी, दुकान-व्यवसाय, कार्यालय में व्यस्त बहुधन्धी व्यक्ति जो भी कुछ कर पाते हैं, उसे चिन्ह पूजा भर कह सकते हैं। उस अपेक्षा की पूर्ति नहीं हो पाती, जिस प्रयोजन से इन प्रज्ञा संस्थानों को विनिर्मित किया गया था।

अब शान्ति-कुंज- गायत्री तीर्थ एक विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्धित होने जा रहा है, जिसमें स्थायी, एक वर्ष के एवं उच्चस्तरीय चार माह के प्रशिक्षण की सुविधा रहेगी। इंजीनियरिंग, मेडिकल, चार्टर्ड अकाउण्टेन्सी के कोर्स भी कम अवधि में पूरे नहीं हो सकते। इसके लिये उपयुक्त व्यक्ति पहले चुने जाते हैं फिर उन्हें लम्बा सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक शिक्षण दिया जाता है। लगभग वैसा ही प्रशिक्षण पाये बिना, हीरे की तरह खरादे-तराशे बिना लोक सेवा क्षेत्र में उतरना सम्भव नहीं। इसी दृष्टि से अब अप्रैल से जुलाई, अगस्त से नवम्बर-दिसम्बर से मार्च चार-चार मास के तीन शिविर वर्ष भर शान्ति-कुँज में विभिन्न विधाओं के चलेंगे। कल्प साधना सत्रों का क्रम यथावत् रहेगा। दस-दस दिन के तीन सत्र हर माह चलते रहेंगे। अपनी बैटरी चार्ज कराने- जनरेटर से अपना स्थायी सम्पर्क जोड़ने के लिए परिजनों को इन सत्रों में वर्ष में न्यूनतम एक या दो बार तो आना ही चाहिए।

जो उच्चस्तरीय शिक्षण आगामी अप्रैल माह से आरम्भ हो रहा है उसमें (1) गायन, वादन, अभिनय (2) भाषण-सम्भाषण-युग नेतृत्व (3) स्वास्थ्य सम्वर्धन का जड़ी-बूटी उपचार, फर्स्टएड,गृह परिचर्या, खेलकूद-व्यायाम, अंग संचालन शिक्षण (4) पत्रकारिता, छपाई, साहित्य सृजन सम्पादन एवं (5) प्रज्ञाचक्र, शिक्षा चक्र घुमा सकते का दृश्य-श्रव्य साधनों द्वारा प्रचार कर सकने का शिक्षण जैसी विधाओं का समावेश है।

सुगम संगीत, एक्शन सांग, ढपली, मजीरा, खड़ताल, घुँघरू, बंगाली तम्बूरे, गिटार, म्यूजीटोन आदि वाद्यों के प्रशिक्षण द्वारा अब स्थान-स्थान पर संकीर्तन मण्डलियाँ अभिनय-टोलियाँ बनायी जाएँगी। आदर्शवादी मान्यताओं को हृदय की गहराई तक पहुँचाने स्थायी रूप से आरोपित करने के लिये भारत के जनमानस हेतु संगीत से श्रेष्ठ और कोई माध्यम नहीं है। इसी बसन्त से वीडियो स्टूडियो का शुभारम्भ केन्द्र में होने पर अब देश-विदेश में कैसेट्स के माध्यम से इनका विधिवत् आयोजन भी हो सकेगा।

भाषण-सम्भाषण का शिक्षण संकोच मिटाने, विभिन्न स्तर के व्यक्तियों में अपनी विचारधारा पहुँचाने के लिये हर लोकसेवी के लिये अनिवार्य है। प्रज्ञा प्रवचन, सम्पर्क गोष्ठी, प्रज्ञा पुराण कथाएँ, जन्म दिवस आयोजन आदि के माध्यम से यह प्रखर शिक्षण सम्भव है।

स्वास्थ्य संरक्षक स्तर का, “नंगे पैर चिकित्सक” बनाने का जो नवीन शिक्षण अब केन्द्र में आरम्भ हो रहा है उसमें व्यायामशालाओं- जड़ी-बूटी की पौद शालाओं व उपचार केन्द्रों, प्राथमिक सहायता, गृह परिचर्या, स्वच्छता, स्काउटिंग आदि विधाओं का समन्वीकरण है। आयुर्वेद का पुनरुद्धार कर औसत नागरिक स्तर पर चिकित्सा साधन जुटाने की यह शिक्षा स्वयं का स्वास्थ्य सुधारने के अतिरिक्त सबसे बड़ी परमार्थ साधना सिद्ध करती है।

‘पत्रकारिता, छपाई, साहित्य सृजन, समाचार-सम्पादन का शिक्षण का नया प्रशिक्षण है जो प्रस्तुत पाठ्यक्रम में जोड़ा गया है। हर प्रज्ञा संस्थान को अब वार्षिक ‘स्मारिका’ प्रकाशन के अतिरिक्त प्रगतिशील मासिक समाचार पत्र निकालना है। इससे सम्पर्क क्षेत्र भी बढ़ेगा एवं मिशन की विचारधारा भी फैलेगी। यह शिक्षण भी यहीं दिया जाना है।

प्रज्ञाचक्र के ज्ञानरथ संचालन, टेप रिकार्डर- स्लाइड प्रोजेक्टरों के द्वारा प्रज्ञा पुराण कथा का नौ दिवसीय आयोजन, घर-घर जन्म दिन की पर्व गोष्ठी आयोजन तथा बाल संस्कार शिक्षण शाला एवं हरीतिमा सम्वर्धन हेतु पौधशालाएँ लगाना इनके अतिरिक्त ऐसा शिक्षण है जो लम्बे समय की माँग करता है।

इन पाँचों विधाओं के अलावा शान्ति-कुँज रहकर स्थायी काम कर सकने वालों को नालन्दा-तक्षशिला स्तर का भाषा एवं धर्म संस्कृति-शिक्षण, अनुवाद-साहित्य लेखन, ब्रह्मवर्चस् की शोध में सहयोग, बाहर जाने वाली जीप टोलियों में हर प्रचारक को मोटर ड्राइविंग, मेण्टेनेन्स का व्यावहारिक शिक्षण भी दिया जाना है।

उत्सुक प्रशिक्षणार्थियों को प्रारम्भ के नौ दिनों में भली-भाँति परख लिया जायेगा। प्रारम्भिक चयन तो परिजन स्वयं कर लें। यहाँ आने पर नौ दिवसीय लघु साक्षात्कार अवधि में उनका पर्यवेक्षकों द्वारा पी.एम.टी. की तरह गम्भीर अध्ययन कर विभिन्न विधाओं में बाँट दिया जायेगा। मिशनरी मनःस्थिति के, लोकसेवा में उतर सकने वाले, जिम्मेदारी से मुक्त, औसत स्तर के निर्वाह में रहने वाले, बीस से पैंतालीस वर्ष तक की आयु वाले कर्मठ व्यक्ति ही इसमें आयें। आयु सीमा में कुछ छूट जीवट के आधार पर दी भी जा सकती है।

इस बसन्त पर पूज्य गुरुदेव ने इस शिक्षण हेतु कार्यकर्ता बनने या भेजने के अतिरिक्त संगठन स्तर पर स्मारिका प्रकाशित करने, टोली स्तर पर ज्ञानरथ चलाने एवं एकाकी प्रज्ञापुत्र स्तर पर अंशदान की मात्रा बढ़ाकर झोला पुस्तकालय चलाने एवं प्रज्ञायोग की साधना करने पर विशेष जोर दिया है। उनका एक ही निर्देश है कि परिजन शरीर दर्शन का मोह छोड़ें, उनका जीवन दर्शन ग्रहण करें। वे स्वयं निवृत्ति परक मोड़ लेकर स्वयं को तप साधना में खपाने जा रहे हैं ताकि प्रज्ञा परिवार में प्रखरता उभरे, सक्रियता आए एवं इस विषम बेला में समुचित दायित्व निभाने हेतु इस मिशन के क्रिया-कलाप और तेजी से चल पड़ें।

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