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Magazine - Year 1985 - Version 2

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संतति की उत्कृष्टता के लिए- जन्मदाता उत्तरदायी

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सुसंतति की उपयोगिता सभी समझते हैं, पर उसके लिए माता−पिता बनने वाले अपना स्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न नहीं करते।

वैज्ञानिकों का इसके संदर्भ में ‘जीन्स’ को उत्तरदायी बताना तो ठीक है पर वे यह भूल जाते हैं कि इसका एक मात्र उपाय जन्मदाताओं का शारीरिक स्वास्थ्य सही होने से भी अधिक उनका मानसिक स्वास्थ्य सही होना अधिक आवश्यक है। क्योंकि सन्तति की उत्कृष्टता मात्र उसकी स्वास्थ्य−बलिष्ठता के आधार पर नहीं आँकी जा सकती। बौद्धिक और भावनात्मक स्तर गया−गुजरा होने पर कोई भी बलिष्ठ व्यक्ति दुष्ट, दुराचारी, विग्रही और उद्दण्ड ही हो सकता है। इसमें भी पिता की तुलना में माता को अधिक सुयोग्य और भावनाशील होना चाहिए।

यह स्पष्ट हो गया है कि अपने वातावरण तथा अपनी चेष्टाओं द्वारा व्यक्ति जिन स्वभाव−गुणों को अर्जित करता है, वे वंशानुक्रम से प्राप्त नहीं होते और न ही कोई व्यक्ति उन अर्जित विशेषताओं को वंशानुक्रम द्वारा अपने बच्चों को प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक व्यक्ति ने अनेक भाषाएँ सीखी हैं, तो वह उस भाषा−ज्ञान को अपने बच्चों को वंशानुक्रम द्वारा नहीं दे सकता। बच्चों को भी भाषा−ज्ञान की प्रचलित विधियों को ही अपनाना होगा तथा मेहनत करनी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर यह भी स्पष्ट हो गया है कि वंशानुक्रम का निश्चित प्रभाव सन्तान पर पड़ता है। आनुवांशिकी (जेनेटिक्स) का सारा ढाँचा ही इसी आधार पर खड़ा है। यह सही है कि कोई भी व्यक्ति जंगली बेर के बीज बोकर उनसे गुलाब के फूलों की आस नहीं कर सकता। गौरैया के अण्डों को सेकर उनमें से मोर के बच्चे कौन निकल सकता है? लेकिन जिन पौधों के बीज बोये जाते हैं, उनसे उन्हीं जैसे पौधे आखिर क्यों उगते हैं? चूहों से चूहा और बिल्ली से बिल्ली ही क्यों पैदा होती हैं? इसका उत्तर हैं, आनुवांशिकता अर्थात् नियमित वंश परम्परा, जिनके कारण ही ऐसा होता है। जो वस्तु जिस वंश की होगी, उसका बीज डाले जाने पर वैसा ही फल होगा। आनुवांशिकता में काम करने का ढंग भी शामिल है और चीजों का कद तथा रंग भी। उदाहरण के लिये वया पक्षी को बढ़िया लटकने वाला घोंसला बनाना किसी को सिखाना नहीं पड़ता है।

आनुवांशिकता अपने पूर्वजों से मिलने वाली विशेषताओं का ही दूसरा नाम है। वैज्ञानिक जानते हैं कि जीवों में जो विशेषतायें होती हैं, वे उन्हें अपने माता−पिता से अत्यन्त सूक्ष्म कणों के रूप में मिलती हैं। इन सूक्ष्म कणों को ‘जीन्स’ कहा जाता है। हमारा शरीर बहुत−सी कोशिकाओं से मिलकर बना है। ‘जीन’ कोशिका के क्रोमोसोम्स का ही एक भाग है। अगर किसी वट−वृक्ष की शाखा को कहीं उसके अनुकूल स्थान में लेकर जाकर बो दिया जाय तो वह भी मूल पेड़ की तरह ही फलने−फूलने लगेगी। उसकी कोशिकाओं के ‘जीन्स’ अपने पहले के पेड़ की ही भाँति होंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह किसी स्पंज के टुकड़े में वैसे ही छिद्र होते हैं, जैसे उस स्पंज में थे जिसमें से कि टुकड़े को तोड़ा गया है।

यदि कोशिका को काटकर नाभिक से अलग कर दिया जाय तो कोशिका की मृत्यु हो जायेगी पर नाभिक में स्वतः निर्माण ही क्षमता होती है, हमारा आध्यात्मिक दर्शन यह कहता है कि उस नाभिक में इच्छा, आशा, संकल्प और वासना का अंश रहता है, उसी के अनुरूप वह दूसरा जन्म ग्रहण करता है। अभी पाश्चात्य विज्ञान इस संबंध में तो खोज नहीं कर पाया पर कोशिकाओं के नाभिक में पायी जाने वाली एक तरह की किरणों की जानकारी अवश्य मिली है, जो सम्भवतः एक जन्म के संचित संकल्पों को सन्तानोत्पत्ति के वंशानुक्रम विज्ञान द्वारा दूसरी पीढ़ी में ले जाने के लिये उत्तरदायी कहे जा सकते हैं। यह भी सूक्ष्मतर स्तर पर होने वाली प्रक्रिया है।

आहार क्रम को बदलकर भी कोशिकाओं को बदला जा सकता है। भले ही यह क्रम मन्दगामी हो पर यदि एक ही प्रकार के पदार्थ खाने में लिये जायें तो उसी प्रकार की कोशिकाओं को विकसित और सतेज कर दुर्बल एवं अधोगामी योनियों में पाई जाने वाली कोशिकाओं को हटाया और कम किया जा सकता है। इसका प्रभाव यह होता है कि मनुष्य में जो पाशविक वृत्तियाँ होती हैं, वह इन कोशिकाओं की मन्द, अशुद्ध और जटिल स्थिति के कारण होती हैं, उन्हें बदल कर, शुद्ध, सात्विक बनाया जा सकता है। अर्थात् जन्मदाता अपना व्यक्तित्व उच्चस्तरीय बनाये।

वैज्ञानिकों का ध्यान जीन्स की शल्य क्रिया करके उसमें समाये हुए अनुपयुक्त भाग को निकाल फेंकने की बात भर समझ में आई है। पर यह नहीं सोच पाये कि उस कमी की पूर्ति कैसे की जाय जो जन्मदाताओं में तत्वतः नहीं है। वे इसका समाधान कृत्रिम गर्भाधान के माध्यम से हल करना चाहते हैं पर वह भी नैतिक और पारिवारिक, सामाजिक परम्पराओं को देखते हुए व्यावहारिक नहीं दिखता। इसमें कानूनी बाधाएँ भी हैं कि इस प्रकार जन्मे बालक का पिता किसे कहा जाय। पुरुष प्रधान समाज में यह भी एक झंझट की बात है।

सुसन्तति प्राप्त करने का वही तरीका सर्वोत्तम है कि जनक जननी अपने उत्तरदायित्व को समझें और अपना व्यक्तिगत जीवन उस स्तर का बनायें जिनके द्वारा उत्पादित फसल उन्हीं के अनुरूप हो।

यह तभी सम्भव है जब गर्भाधान को काम−क्रीड़ा के कौतूहल से कहीं ऊँचा समझा जाय और उसके कारण समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का अनुमान लगाया जाय।

कुसन्तति अपने लिए, परिवार के लिए, ही सिर−दर्द नहीं बनती वरन् अपने विकृत व्यक्तित्व एवं अवाँछनीय क्रिया−कृत्यों से समाज में अनेक विग्रह खड़े करती है। इस प्रकार का उत्पादन करने वाले भले ही शासकीय दण्ड व्यवस्था के अंतर्गत न आ पाते हों, पर उन्हें आत्मा और परमात्मा के सामने तो लज्जित होना ही होगा। जबकि सुसन्तति अपने सत्कर्मों से प्रशंसनीय वातावरण बनाती है।

सभी चाहते हैं कि उनके घर में सुसन्तति का प्रादुर्भाव हो, पर वे यह भूल जाते हैं कि खिलौना या पुर्जा बनाने से पूर्व उसका साँचा सही बनाना पड़ता है। अच्छा हो कि समाज के उत्थान और पतन की भावी योजना के लिए सुप्रजनन ही उचित माना जाय और उस अति जिम्मेदारी के काम में मात्र वे ही लोग हाथ डाले जिनने अपना−व्यक्तित्व इस प्रयोजन के लिए उपयुक्त बना लिया हो।

यह ठीक है कि जैसा बीज होता है वैसा ही पौधा पैदा होता है। यह भी गलत नहीं है कि उर्वर भूमि में पौधे को तेजी से बढ़ने में सहायता मिलती है। पिता को बीज और माता को भूमि कहा गया है। यह पर्याप्त नहीं कि बीज सड़ा घुना न हो। अर्थात् पिता का व्यक्तित्व गुण, कर्म, स्वभाव एवं स्वास्थ्य गया−गुजरा न हो। इसी प्रकार यह भी उचित है कि माता को सुयोग्य, सुसंस्कारी एवं शिक्षा की दृष्टि से समुन्नत स्तर की होना चाहिए। इसके लिए स्त्री शिक्षा की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके बिना वह सद्गुणों का महत्व और उन्हें विकसित करने के उपायों से अनजान ही बनी रहेगी। इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि लड़कों को नौकरी के निमित्त पढ़ाया जाता है और लड़की को पराये घर का कूड़ा समझकर हर बात में उसके प्रति उपेक्षा बरती जाती है सुसन्तति उत्पादन की दृष्टि से यह बहुत अनुचित है कि लड़कियों को सुयोग्य बनाने की दिशा में उपेक्षा बरती जाय।

बात इतने पर ही समाप्त नहीं हो जाती। पौधे को खाद−पानी और रखवाली भी चाहिए। बच्चों को घर का तथा स्कूलों का वातावरण ऐसा मिलना चाहिए जिसमें उन्हें सुसंस्कारिता उपलब्ध करने का अवसर मिले साथ ही शिक्षा भी ऐसी मिलनी चाहिये जो जीवन विकास के सर्वोपरि महत्व की आवश्यकता पूरी कर सके।

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