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Magazine - Year 1985 - Version 2

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Language: HINDI
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भौतिक विज्ञान के अभिशाप और वरदान

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विगत एक दो शताब्दियों में भौतिक विज्ञान की क्रमिक उन्नति हुई है। विशेषतया पिछले 50 वर्षों में प्रकृति के रहस्यों को खोज निकालने में आश्चर्यजनक सफलता हस्तगत हुई है। उस उत्साह में जो कदम वैज्ञानिकों, राजनेताओं और अर्थ शास्त्रियों के तालमेल से उठे हैं। उन्हें प्रारम्भिक दिनों में अत्यन्त उत्साहवर्धक माना गया था और समझा गया था कि इस आधार पर प्रगति के नये द्वार खुलने जा रहे हैं। किन्तु दूरदर्शी विवेकशीलता का समन्वय न होने से उस प्रगति की ऐसी खामियाँ सामने आ रही हैं जिनसे प्रतीत होता है कि उपलब्धियों का प्रयोग करने की दिशा में कहीं कोई भारी चूक हो गई है, अन्यथा चन्द दिनों में ही इतने संकट क्यों आ खड़े होते जिनका समाधान समझ से बाहर होता चला जा रहा है।

विज्ञान का प्रथम चरण औद्योगीकरण की दिशा में उठा। कम लागत में, अधिक मात्रा में, अधिक साफ−सुथरी चीजें बनाते समय सोचा यह गया था कि सर्वसाधारण को सस्ते मोल में सुविधाएं उपलब्ध होंगी और निर्माताओं को अधिक लाभ कमाने का अवसर मिलेगा। इस मान्यता पर उन दिनों आम सहमति थी। उत्साह भी पूरा था। धन का विनियोग भी खुले हाथों हुआ। उत्पादन भी वैसा ही साफ सुधरा और सुन्दर सामने आया जैसा कि सोचा गया था। किन्तु उतावली में उठाये गये कदम नई समस्याएँ अविलम्ब उत्पन्न करने लगे। उलझनें ऐसी हैं जो सुलझने में नहीं आ रही और लगता है आरम्भ करते समय भविष्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं पर समुचित विचार नहीं किया गया।

बड़ी मशीनों में थोड़े आदमी बहुत उत्पादन करते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि जिन उत्पादनों में बहु−संख्यक श्रमिकों की आवश्यकता होती थी, वह थोड़े ही लोगों द्वारा विनिर्मित होने लगा। फलतः बेकारी बेतहाशा बढ़ी और ठाली बैठे लोगों ने उचित अनुचित उपद्रव खड़े करने आरम्भ किये। आन्दोलनों ने−अपराधों ने गति पकड़ी और सार्वजनिक शान्ति में विक्षेप पड़ना आरम्भ हुआ।

बड़ी मशीनों ने अपने−अपने देश की खपत को ध्यान में न रखते हुए अत्यधिक माल बनाया। इसे खपाने के लिए मंडियों की आवश्यकता पड़ी। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये नये किस्म का आर्थिक उपनिवेशवाद खड़ा हुआ राजनैतिक उपनिवेशवाद तो समर्थों की आपसी प्रतिद्वन्द्विता के कारण हलका पड़ा, पर उसके स्थान पर नया आर्थिक उपनिवेशवाद खड़ा हुआ। इसके लिए शीत युद्धों का आश्रय लिया गया और कृत्रिम अभाव का सृजन किया गया। फलतः देशों की स्वाभाविक सुख−शान्ति में भारी व्यवधान खड़ा हो गया।

बड़े कारखानों से उत्पन्न होने वाला कचरा एक समस्या बना। कुछ को नदियों में बहाया गया, कुछ हवा में उड़ा, कुछ ने जमीन घेरी। चूँकि यह कचरा विषैला होता है इसलिए उसमें जलाशयों की विषाक्तता बढ़ी। साँस लेने की हवा में जहर घुला और ईंधन के लिए, फर्नीचर के लिए पेड़ कटे ओर जलावन आवश्यकताओं के लिए सर्वप्रथम पेड़ों पर हाथ साफ हुआ। यह विषाक्तता कितनी अधिक हानि पहुँचा रही है इसका अनुमान बढ़ती हुई बीमारियों की व्यथा और उनके इलाज पर होने वाले बढ़ते खर्च से लगाया जा सकता है।

बड़ी मशीनों ने अधिक मात्रा में ईधन की माँग की। इसके लिए खनिज तेल और कोयले का सहारा लिया गया। यह भण्डार जमीन में एक सीमित मात्रा में ही हैं। गणितज्ञों ने बताया है कि जिस अनुपात में यह खर्च हो रहा है वही गति रही तो पचास वर्ष के भीतर तेल और कोयले का भण्डार चुक जायेगा। बिजली उत्पादन के लिए भी ईंधन चाहिए। उसके बिना बिजली थी न बन सकेगी। अणु भट्ठियों के सम्बन्ध में भी यही संकट है। यूरेनियम, प्लेटेनियम जैसे पदार्थ भी थोड़ी ही मात्रा में हैं। इसलिए अणु भट्टियाँ भी अधिक दिन काम न दे सकेंगी। इनसे निकलने वाला कचरा और भी भयावह है उसे कहाँ पटका जाय, यह प्रश्न अभी अनिर्णीत ही पड़ा है।

पिछले पचास वर्षों में दो विश्व युद्ध हो चुके। तीसरे के लिए मुहूर्त ही टल रहा है। युद्ध के कारणों में उत्पादनों को खपाने के लिए क्षेत्रों की आवश्यकता ही प्रमुख कारण है। जो देश युद्ध सामग्री बनाते हैं उनकी बिक्री तभी हो सकती है, जब युद्ध हो। अन्यथा वे कारखाने बन्द होंगे। पूँजी जाम होगी और बेकारी फैलेगी। इस लिए युद्ध भले ही अणु बमों से हो या रासायनिक आयुधों से समय की एक आवश्यकता बन गया है।

इतनी सारी समस्याओं का एकमात्र कारण विज्ञान का वह चरण है जिसने बड़ी मशीनें लगाने का निश्चय किया। यह साँप छछून्दर जैसी गति है जो न निगलते बनती है न उगलते।

विज्ञान ने राजनेताओं को भड़काया है कि वे थोड़ा सा प्रयास करके चक्रवर्ती बन सकते हैं। युद्ध की तैयारी में जनता को अधिकाधिक टैक्स देने पड़ रहे हैं फलतः महंगाई बढ़ रही है और मध्यवर्ती व्यक्ति का जीवन दुर्लभ हो रहा है। फिर हथियारों के जो पहाड़ बीसियों देशों में खड़े कर लिये हैं उनका क्या हो? वे खाने पहनने के काम तो आते नहीं, इस उत्पादन का उपयोग जन संहार में ही होता है और उसका कष्ट मरने वालों से भी अधिक उन्हें भुगतना है जो अनाथ अपंग बनकर किसी प्रकार जीवित बचे रहेंगे।

यदि विज्ञान ने सही कदम उठाया होता। बड़ी मशीनों का निर्माण न किया होता तो निश्चय ही उपरोक्त समस्याओं में से एक भी मुसीबत खड़ी न होती। नदियों में गिराया हुआ कचरा घुमा फिरा कर मनुष्य के ही पीने के काम आता है। जहरीली गैस जहां साँस द्वारा शरीर में जाती है वहाँ अब तेजाबी वर्षा का क्रम चल पड़ा है। उसके सहारे जो खाद्य उपजेगा वह भी जहरीला होगा। तीव्र विषों से कुछ ही समय में मृत्यु हो जाती है पर जहरीले अन्न जल में वायु के कारण बढ़ने वाली रुग्णता से मनुष्य को चित्र-विचित्र बीमारियों का शिकार बनना, तड़पते हुए अकाल मृत्यु मरना पड़ता है। बढ़ते हुए विज्ञान के चरण भले ही अमीरों की अमीरी बढ़ा सकें पर सर्वसाधारण का उससे सब प्रकार अहित ही होगा।

उदीयमान विज्ञान ने एक और बौद्धिक एवं भावनात्मक संकट खड़ा किया है। चेतना को जड़ की उत्पत्ति बताया है। फलतः नैतिक आचरणों का कोई मूल्य नहीं रह गया। नास्तिकता ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्’ के सिद्धान्त का प्रतिपादन करती है। उसने जहाँ माँसाहार का समर्थन किया है। वहाँ सामाजिक−नैतिक वर्जनाओं को व्यर्थ बताकर अपनी सुविधा को प्रधानता देने के लिए उकसाया है। इस दशा में त्याग, बलिदान, उदारता, पुण्य, परमार्थ का कोई महत्व नहीं रह जाता। जब मनुष्य चलता−फिरता पेड़ पौधा बताया गया तो एक दूसरे को लाभ या हानि पहुँचाने के लिए गणितीय सिद्धान्त ही काम करेंगे। जब बूढ़े बैल को न कमाने वाले बकरे को कसाई के यहाँ भेजा जा सकता है तो वृद्धों में बीमारों को अपंगों को भी मौत के घाट उतार देने में क्या झिझक होनी चाहिए? जब पशु पक्षियों में नर मादा भर का रिश्ता होता है। जब मनुष्य को जड़ पदार्थों की− पेड़ पौधों की, पशु पक्षियों की श्रेणी में गिन लिया गया तो फिर माँ, बहिन, बेटी आदि में पवित्र रिश्ते भी बेकार हो जाते हैं। इस ओर प्रवृत्तियां अब बढ़ ही गई हैं। घर, मुहल्ले, पड़ौस परिवार में ही व्यभिचार का प्रवाह बढ़ रहा है। विवाह व्यापार हो गया है। छोटे वर्गों में लड़की से पैसा वसूल किया जाता है और बड़े वर्गों में लड़के से दहेज वसूल किया जाता है। न देने या कम देने पर जला देने, निकाल देने आदि की घटनाएँ दिनों−दिन बढ़ती जाती हैं। यह परोक्ष रूप से भौतिकवादी चिन्तन का ही प्रति फल है। बच्चों का अपहरण और माँगी रकम न देने पर उनका कतल यह अब अनहोनी घटना नहीं रही। कुछ समय पूर्व चोर डाकू भी स्त्री−बच्चों पर हाथ नहीं उठाते थे पर अब स्वर्ग−नरक, पाप−पुण्य, लोक−परलोक, आत्मा−परमात्मा की मान्यताओं ने−भौतिकवादी दर्शन ने समाप्त कर दिया तो मनुष्य को और मछली को मारने खाने में अन्तर ही क्या रह गया। नागरिकता और समाज व्यवस्था के नाम पर मनुष्य की पशुता को दबाया नहीं जा सकता। उसके लिए दार्शनिक निष्ठा की आवश्यकता होती है। विज्ञान की बौद्धिक छलाँगों ने जब उसे समाप्त कर दिया जो मनुष्य को संयमी, सदाचारी बनाने का कोई ठोस आधार रह ही नहीं गया। आदर्शवाद की जब जड़ ही कट गई तो दिखावटी ढिंढोरा पीटने भर से बात कुछ बनती नहीं है।

आर्थिक क्षेत्र में बेकारी, बीमारी, गरीबी, विषाक्तता और अगले दिनों ईंधन की समाप्ति से तथाकथित प्रगति का बंठाधार, यह विज्ञान के वे अनुदान हैं जिन्हें सर्वसाधारण को उपहार में दिया है। महायुद्ध की विभीषिका का नंगी तलवार की तरह संसार की गरदन पर लटकाने का श्रेय भी उन ऐटमी हथियारों को है जिन्हें विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। शहरों की अन्धाधुन्ध बढ़ोत्तरी और देहातों से भगदड़ का कारण भी इसी वैज्ञानिक प्रगति का है। इसी ने हजारों को लखपति करोड़पति बनाया है और लाखों करोड़ों को एक तरफ रूखा−सूखा खाने के लिए विवश किया है। डॉक्टर बढ़े हैं पर उनके अनुपात में मरीजों की अत्यधिक वृद्धि हुई है। लोग जिन्दा तो हैं पर मुर्दों से गई−गुजरी परिस्थितियों में।

नैतिकता के आधार पर जब तक धर्म और अध्यात्म रहे तब तक बाँध का पानी इस प्रकार नहीं टूटा था जिसमें खेत खलिहान सभी डूब जायें। बुद्धिमान नये युग का दर्शन है। दूसरे शब्दों में इसे विज्ञान का दर्शन कह सकते हैं। इसमें सुविधा संकलन करने के तर्कों की प्रमुखता है। फल यह हुआ है कि हम मछली निगलने वाले बगुले−अपने ही परिवार में कामोपयोग की छूट पाने वाले कुत्ते और अपनी बिरादरी को ही फाड़-चीर कर रख देने वाले भेड़िये की बिरादरी में सम्मिलित हो गये हैं। हम अर्थ प्रधान हैं, विलास और सुविधा के अतिरिक्त हमें और कुछ नहीं चाहिए। इन्हीं आकाँक्षाओं की जब जरूरत होती है समाज निष्ठा जैसी चादर उढ़ा देते हैं। विज्ञान ने जब मनुष्य को चलता−फिरता पौधा कहा है तो उसे क्यों न माना जाय। धर्म जब अफीम की गोली ईश्वर अन्ध−विश्वास उसी मंच से घोषणापूर्वक कहा गया है तो उस मान्यता से क्योंकर इनकार किया जाय?

इन अभिशापों से उद्विग्न मनुष्य मरना तो नहीं चाहता पर जीने की भी उसकी कोई इच्छा नहीं है। इसलिए नशेबाजी का आश्रय लिया गया है। बच्चे, बूढ़े नर नारी, ‘येन केन प्रकारेण’ उन्हीं का आश्रय ले रहे हैं। तमाखू चाय का फैशन पुराना हो गया अब मझोले लोग शराब और बड़े लोग हीरोइन का सेवन करते हैं। जितनी देर उनमें डूबे रहते हैं उतनी देर गम गलत कर लेते हैं अन्यथा विज्ञान का अभिशाप उन्हें दसों दिशाओं से नोंच−नोंचकर खाता हैं।

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