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Magazine - Year 1985 - Version 2

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बहिरंग योग की सरल साधनाएँ

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साधना का प्रथम चरण है शरीर का संशोधन। इसमें आहार और विहार में पिछले अभ्यासों को छोड़कर नवीन अवधारणाएँ कार्यान्वित करनी होती हैं। आहार के सम्बन्ध में हमारे अभ्यास स्वाद प्रधान होते हैं और ठूँस−ठूंसकर खाने को भी। यह दोनों ही व्यवहार आहार को तामसिक बना देते हैं। स्वाद वही उपयुक्त है जो पदार्थ में प्रकृति समाविष्ट होते हैं। फलों के अपने−अपने शाक हैं। कच्चे खाये जा सकने योग्य शाकों के भी अपने। उन्हीं की भिन्नता में रस लेना चाहिए और प्रसन्न रहना चाहिए। अन्नों को−शाकों को उबाल लेने पर उनकी कठोरता या अस्वादिष्टता मिट जाती है। उबले शाक प्रायः एक जैसे स्वाद के होते हैं। उबले अन्नों में दाल, चावल, दलिया, खिचड़ी आदि का अपना स्वाद होता है। यह सभी सुपाच्य भी होते हैं। कठिनाई उत्पन्न होती है तलने भुनने में−चिकनाई का समावेश करने से यह शकर एवं नमक मसालों की ऊपर से भरमार करने से। यह तामसिक स्वाद एक प्रकार से नशेबाजी की तरह आदत के अंग बन जाते हैं। इस लोलुपता में आहार की उचित मात्रा का ध्यान नहीं रहता और पेट की पाचन क्षमता से कहीं अधिक खा लिया जाता है। यह व्यतिक्रम आलस्य और प्रमाद पैदा करते हैं। मन में उत्तेजना और चंचलता भी। रोगों की जड़ यहीं से जमती है। यदि आधे पेट खाने−आधे में हवा पानी के लिए गुंजाइश छोड़ने का नियम अपनाया जा सके तो समझना चाहिए कि सामान्य स्वास्थ्य में अभिवृद्धि होगी और रोगी शरीर में सुधार का सिलसिला तत्काल करना पड़ेगा। स्वल्पाहारी योगी होते हैं। इसके लिए सर्वप्रथम अस्वाद व्रत पालन करना पड़ता है। संयमों में सर्वप्रथम स्वाद जप है। इतना तात्पर्य है प्राकृतिक रूप में पदार्थों का जो स्वरूप है उसी में सन्तुष्ट रहना। ऊपर से चिकनाई या मसालों का समावेश नहीं होने देना। जो अन्न या आलू जैसे कठोर प्रकृति के हैं उन्हें उबाल लेना। स्वाद की उपेक्षा करते ही आहार की अनावश्यक मात्रा घट जाती है और उतना ही उदरस्थ करने का अभ्यास बन पड़ता है जो पाचन की मर्यादा के अंतर्गत है।

विहार में शयन−जागरण एवं विश्राम के घण्टों का निर्धारण है। आत्मानुशासन का यह दूसरा चरण है। समय का एक क्षण भी व्यर्थ न गँवाया जाय। श्रम, विश्राम, टहलने, स्वाध्याय, सत्संग जैसे अनावश्यक कार्यों में अपने समय को इस प्रकार बाँध लेना चाहिए कि उसमें आलस्य प्रमाद के प्रवेश की कहीं कोई गुंजाइश न रह पाये। मनमर्जी की दिनचर्या चलने देने में प्रकारान्तर से आवारागर्दी अपनाना है। ऐसी उच्छृंखलता लगती तो अच्छी है पर समय सम्पदा का ऐसा अनावश्यक अतिक्रमण होता है जिसमें कोई महत्वपूर्ण कार्य हाथ में लेकर पूरा करने की बात बन ही नहीं पड़ती। भौतिक या आत्मिक स्तर के जो भी कार्य किये जाते हैं सभी आधे−अधूरे, लँगड़े−काने−कुबड़े रह जाते हैं। उनके कारण असन्तोष उपजता है, अपयश मिलता है और कौशल का स्तर गिरता चला जाता है।

विहार में स्वच्छता और सादगी का भी समावेश है। वस्त्र, उपकरण जिन्हें भी काम में लाया जाय वे भड़कीले, महंगे, न हों। हर वस्तु को स्वच्छ और सुव्यवस्थित रखा जाय। सादगी सज्जनता और सादगी की साक्षी देती है। स्वच्छ, स्वच्छता, सुरुचि, सुसंस्कारिता और व्यवस्थित बुद्धि की यह मानसिक जागरूकता का चिन्ह है कि वस्तुओं को साफ सुथरी रखा जाय और उन्हें सम्भाल सुधार कर इस प्रकार रखा जाय कि वे सुन्दर प्रतीत हों। व्यवस्था पूर्वक कूड़ा भी कूड़ेदान में ढक कर रखा जाय तो कुरूप नहीं लगता है और बहुमूल्य पात्रों, उपकरणों, वस्त्रों, पुस्तकों को भी बेतरतीब बखेर दिया जाय तो वे कूड़ा प्रतीत होती हैं। हर आँगन, दीवार, फर्नीचर यदि सम्भाला जाता रहे तो वह सब भी सुन्दर चेहरे की तरह आकर्षक लगते हैं। साधना का यह तीसरा प्रसंग है जिसमें मनोयोग का भी समावेश है। यों इसकी गणना विहार में भी हो सकती है।

सुव्यवस्था समय सम्पदा का सुनियोजन करने के साथ मितव्ययिता पर भी आधारित है। हम उतना खर्च करें जितना जीवन धारण करने के लिए नितान्त आवश्यक है। कोई व्यक्ति अधिक कमाता है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसे अनावश्यक खर्च करने की छूट मिल गई। समूचा मानव समुदाय एक परिवार है। इसमें समर्थ और असमर्थ सभी मिल−जुलकर रहते हैं। कमाने वाले ही सब कुछ खर्च नहीं कर डालते, वरन् मिल-जुलकर खाते और एक जैसी सुविधा का लाभ उठाते हैं। कमाऊ अधिक खरचे और जो असमर्थ हैं वे मुँह जोहें, तरसें तो यह अनीति किसी सहृदय के लिए अपनाने योग्य नहीं है। हमें औसत भारतीय स्तर का गुजारा करना चाहिए जो अदक्षता अथवा परिस्थिति के कारण गई−गुजरी स्थिति में दिन गुजारते हैं। यदि उन्हें सहारा मिल सके तो निश्चय ही ऊँचे उठने और आगे बढ़ने की स्थिति अपनाने के लिए गतिशील हो सकते हैं। नैतिक जीवन−आध्यात्मिक जीवन की यह भी एक अनिवार्य शर्त है। शान-शौकत में अनावश्यक अपव्यय करने पर हम अध्यात्मवादी जीवन नहीं जी सकते। इस अनाचार से प्रत्यक्ष ही अहंकार बढ़ता है और अनेकों का ईर्ष्या भाजन बनना पड़ता है। वैभव एवं प्रदर्शन की दृष्टि से नहीं हम मात्र सज्जनता और सदाशयता को अपनाये रहकर ही श्रद्धा एवं प्रशंसा के पात्र बन सकते हैं।

व्यावहारिक जीवन में अध्यात्मवादी बनने की बौद्धिक प्रक्रिया यह है कि हम दूरदर्शी विवेकशील बनें। अपने चारों ओर भले−बुरे का मिश्रित पुद्गल भरा पड़ा है। इसमें से कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे यथावत् अपनाया जा सके। यहाँ कीचड़ में कमल खिलते हैं और सुरम्य पौधे पर विष वृक्ष फलते हैं। सुन्दरता के पीछे कुरूपता झाँकती हैं और कुरूपता के अन्तराल में सुन्दरता भरी होती है। अनाज को छाँटा फटका, छाना न जाय तो साथ में मिले हुए कंकड़ दाँत तोड़ेंगे और पेट में पहुँचकर शूल उत्पन्न करेंगे। न सब पुरातन ही अच्छा या बुरा है और न नवीन है। पुराने खण्डहरों और कपड़ों को छोड़ना पड़ता है। पुराना घी बदबू देने लगता है। इसी प्रकार नये प्रचलनों में फैशन परस्ती, नशेबाजी, उच्छृंखलता जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ प्रगतिशीलता कहलाने लगी हैं। अच्छे से अच्छे और बुरे से बुरे काम करने वाले अपनी ही इर्द-गिर्द बड़ी संख्या में विद्यमान रहते हैं फिर इनमें से किनका अन्धानुकरण किया जाय। सम्प्रदायों और धर्मोपदेशकों के कथन में इतना मतभेद होता है कि इनमें से किसी एक को पूर्ण सही ठहराया जाना कठिन है। ऐसी दशा में एक ही मार्ग सुरक्षित रहता है कि सोना खरीदते समय उसे कसौटी पर कसा और आग में तपाया जाय। इसके उपरान्त ही जो खरा हो उसे अपनाया और जो खोटा है उसे त्याग दिया जाय। विवेक की कसौटी पर कसने के उपरान्त किसी कथन या प्रचलन को अपनाया जाय तो यह सत्य के निकट पहुँचने की सरलतम और प्रामाणिक रीति होगी।

बहुत कार्य ऐसे होते हैं जो तत्काल लाभदायक प्रतीत होते हैं और अन्ततः दुःखदायी परिणाम उत्पन्न होते हैं। सस्ते अपराधों की तरह। बहुत से कार्य ऐसे होते हैं जो कष्ट पूर्वक हस्तगत होते हैं पर पीछे चिरकाल तक सुख देते हैं तप साधन और गोताखोर के मोती चयन की तरह। इनमें से किसे अपनाया जाय इसका सही निर्णय वह कर सकता है जिसे दूरगामी परिणाम का अनुमान लगा सकने की क्षमता है। अन्यथा कुछ के बदले ऐसा कुछ हाथ लगता है जिससे चिरकाल तक पश्चाताप करना पड़े।

अनगढ़ मन और सुसंस्कृत विवेक में सदा महाभारत मचा रहता है। लोभ मोह और अहंकार के दैत्य पालन अपनी ओर घसीटते हैं और मानवोचित्त गौरव गरिमा का आग्रह संयम अपनाने और शालीनता की राह पर चलने का होता है। यह अंतर्द्वंद्व छोटे बड़े रूप में सभी के भीतर चलता है। कुसंस्कारी मन और अनगढ़ परिवार धर्म की मूर्खता और अधर्म की बुद्धिमत्ता बताता है। तथाकथित स्वजन सम्बन्धी भी बहुमत और प्रचलन की दुहाई देकर कौरव सेना में भर्ती होने के लिए कहते हैं इस गीतोक्त महाभारत में अर्जुन की तरह गाण्डीव उठाना और भगवान के हाथों रथ की बागडोर सौंप देना विजय−श्री वरण करने का उपयुक्त मार्ग है।

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