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Magazine - Year 1986 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मानवी विकास के प्रारम्भिक सोपान

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मानवी विकास के आरंभिक दिनों की चर्चा करते हुए प्रसिद्ध नेतृत्त्व विज्ञानी डॉ. ईवान्स ने प्रगति काल को कुछ काले पृष्ठों में लिखा है कि आदिम युग में मनुष्य बहुत डरा और सहमा हुआ था। बुद्धि के विकास के आरंभिक दिनों में उसने अपने को विपत्तियों से घिरा पाया। आसमान में चमकने वाले सूर्य-चन्द्र, घुमड़ते बादल और कड़कती बिजली को उसने देवताओं का प्रकोप माना और समझा कि वे सब मनुष्य को डराने और उससे कुछ चाहने वाले आकाशस्थ देवगण हैं। तब देवों की डरावनी प्रकृति उसे दैत्यों जैसी लगती थी प्रेत, पिशाचों जैसी। उनसे अपने ऊपर भय बरसने की आशंका निरन्तर बनी रहती थी। आँधी-तूफान, चक्रवात भी उसे इसी समर्थ प्रतिपक्ष के सहचर प्रतीत होते थे। ऋतु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली कठिनाइयाँ भी उसे ऐसी ही भयानक लगती थीं। बुद्धि विकास के आरंभिक दिनों में वह अपने को बहुत डरा और घिरा हुआ अनुभव करता था। जब कि अन्य प्राणी सोच विचार के झंझट की मनःस्थिति तक न पहुँच पाने के कारण केवल सामयिक कठिनाइयों को झेलते भर थे। समय बदलते ही फिर निश्चिन्त होकर जीवन-क्रम चलाते थे।

मनुष्य का विकास इस भय के साथ होता है। उसे भयानक और विशालकाय पशुओं से भी पाला पड़ता था। उनके आक्रमण से बच न पाने के कारण वह अपने को निरीह अनुभव करता था। जब कि विपत्ति के समय पक्षी आकाश में उड़ जाते थे और कछुए आदि जलीय जीव पानी में खिसक जाते थे। बन्दर और बिलाव ऊँचे पेड़ों की डालियों पर उछल कूद लेते थे। यहाँ तक कि चूहे तक बिलों में छिप जाते थे। तब मनुष्य अपने को इन सबसे दुर्बल पाता था। बचाव के लिए जहाँ-तहाँ छिपते फिरने के अतिरिक्त और कोई साधन उसके पास न थे। हिंस्र जन्तुओं से पृथ्वी पर ऋतु प्रभाव से, आसमान से उसे विपत्ति टूटती दिखायी पड़ती थी। बुद्धि के आरंभिक विकास ने उसे एक डरावनी विभीषिका में फँसा दिया। आक्रमण तो दूर बचाव के लिए भी उसने अपने का असहाय पाया।

इस विपत्ति से बचने के लिए उसे कल्पित देवताओं की रचना करनी पड़ी और उनका सहारा प्राप्त करने की सूझ उठने लगी। पर यह करें कैसे? उन दिनों बलिष्ठ जन्तुओं में से कुछ को छोड़कर शेष माँसाहारी थे। माँसाहारी पराक्रमी माने जाते थे। सोचा गया कि देवता भी माँसाहारी ही हो सकते हैं और भूखे रहने पर मनुष्य पर आक्रमण की बात सोचते होंगे। उनके प्रसन्न होने का एक ही तरीका सोचा गया कि स्वेच्छापूर्वक उनके सम्मुख भेंट उपहार प्रस्तुत किया जाय।

ईवान्स के अनुसार मनुष्य आदिम दिनों में रीछ की तरह शाकाहारी भी था और माँसाहारी भी। उसने देवताओं के लिए स्वादिष्ट फल भेंट करने की और जो उसकी पकड़ में आ सकते थे ऐसे मेंढक, खरगोश, बकरी, मुर्गी जैसे प्राणी बलि करने की बात सोची। बलि पूजा उसके इसी आदिम काल की कल्पना है। वही वह करने लगा और सोचने लगा जो कुछ भी रक्षा हो सकी है इसी बलि का प्रताप है।

समय बीतता गया। ईवान्स कहते हैं कि प्रकृति की विचित्रताओं को अधिक गौर से देखने और समझने की क्षमता में वृद्धि होने के कारण उसने उपयोगी साधनों की डडडड डडडड डडडड में उसे अग्नि प्रज्वलित करना, गोलाई का चक्र रूप में उपयोग करना और धातुओं के उपकरण ढालने की विधियाँ हाथ लगीं। इनके सहारे पर अनेकों बातों में समर्थ हो गया। माँस पका सकता था। बीज भून सकता था। पशुओं को डरा सकता था। शीत के प्रकोप से बच सकता था, और ऐसे औजार बना सकता था जिनसे पेड़ काट सकता और कम समझ के प्राणियों का वध कर सकता था। इस विकास को उसने देवताओं का अनुग्रह माना। साथ ही यह भी समझा कि यह उपलब्धियाँ उसे देवताओं के अनुग्रह से प्राप्त हुई हैं। अपने भीतर बुद्धि स्फुरण भी देखी, पर उसे विकास क्रम से जोड़ने की बात न सूझी। वह पहले देवताओं से डरता भर था। पीछे उसे सूझा कि उन्हें अनुकूल बनाने के लिए भेंट पूजा ही अनुकूल साधन है। इस आधार पर उनकी क्रुद्धता को हलकी बनाया जा सकता है और अनुकम्पाजन्य लाभ उठाया जा सकता है। इस निर्णय ने उसे बर्बरता की ओर अग्रसर किया।

मानवी विकास और मनुष्य की सुविधा के बीच की कड़ी के रूप में उसे देवताओं को प्रसन्न करने की बात सूझी। इसके साधन जुटाने के लिए उसे भेंट पूजा के अधिकाधिक साधन जुटाने का उत्साह बढ़ा। इस बढ़े हुए उत्साह ने उसे अधिक बर्बर बनाया। इस बर्बरता में उसे कई लाभ भी थे। बलि किये हुए पशुओं की खाल खींच लेने से उसे आच्छादन और वस्त्र की सुविधा मिलने लगी। जो विशालकाय पशु उस पर सहज आक्रमण कर बैठते थे वे प्रज्वलित आग से भय खाने लगे। उपकरणों के सहारे वह इतनी मात्रा में सामग्री भी इकट्ठी करने लगा जो संकट के समय उसके आहार की आवश्यकता पूरी कर सके। इन सुविधाओं ने उसे भयाक्रान्त रहने की अपेक्षा गर्वशील बनाया। वह जंगल के कानून से परिचित हुआ कि समर्थ को असमर्थों के दमन का अधिकार है। उनसे लाभ उठा सकता है। इस प्रयोजन के लिए अपने इर्द-गिर्द बड़ी संख्या में पाये जाने वाले और सहज पकड़ में आ सकने वाले भेड़-बकरी, खरगोश, पक्षी और मछली जैसे प्राणी पकड़ने, मारने और उनके चमड़े का लाभ उठाने की सुविधा में अधिकाधिक प्रसन्नता होने लगी। इस क्रमिक प्रगति का कारण उसने देवताओं की अनुकम्पा को माना।

उन्हें अधिक प्रसन्न कैसे किया जा सकता है? अधिक आकर्षक उपहार क्या दिया जा सकता है? इस सोच विचार में उसे भूख के बाद दूसरा उत्साहप्रद कृत्य ‘मैथुन’ सूझ पड़ा। इसके लिए उसने देवताओं को स्त्रियाँ भेंट करनी शुरू कीं। देव पूजा में ही उन्हें समर्पण नहीं किया गया वरन् उनके अनुपयोगी होने पर भोज्य पदार्थ के रूप में बलि भी चढ़ाया जाने लगा।

पशुओं की तुलना में मनुष्य श्रेष्ठ गिना गया। इसलिए बलि प्रथा में मनुष्यों को भी आगे लाया गया। मनुष्यों में से ही कुछ ने अपने को देव एजेंट बताना आरंभ किया। यह प्रचार इतनी चतुरता से हुआ कि बर्बर मनुष्य देव मानवों की एक नई गुलामी में फंस गया। इतने पर भी यह प्रसन्नता थी कि जिन अन्तरिक्ष निवासी और प्रत्यक्ष इच्छा प्रकट करने वाले देवताओं की तुलना में ऐसे माध्यम मिल गये जो प्रत्यक्ष वार्ता कर सकते थे। कठिनाइयों का हल बता सकते थे और साधन जुटाने की विधि बता सकते थे।

इस विकास क्रम से अधिक चतुर होने से राजा और पुरोहित बन गये। इस बीच मनुष्य भी परिवार बसाना और खोलों में रहना सीख गया। हर कबीले के पास समय के अनुरूप सम्पदा भी होती थी। राजा और पुरोहितों के इशारे पर बलवान कबीले अल्पसंख्यकों और दुर्बलों पर चढ़ाई करके विजय प्राप्त करने लगे। विजय में जो साधन सामग्री, स्त्रियाँ तथा युवक मिले उन्हें हथिया लिया गया। बड़ा भाग राजा और पुरोहितों का रहा, शेष को लड़ाकुओं के बीच बाँट दिया गया। आदिम और बर्बर युग की अनेकों प्रथाएँ इसी आधार पर विनिर्मित हुईं। ईवान्स का यह प्रतिपादन तर्क की कसौटी पर कितना सही है, यह शोध का विषय है।

वृद्ध साधु, युवा शिष्य और एक शिकारी कुत्ता, तीनों ही एक निर्जन मार्ग से जा रहे थे। रास्ते में एक मृतक अत्यंत सुन्दरी युवती मरी हुई पड़ी मिली। लगता था किसी हृदयाघात जैसी घटना से अभी-अभी ही मरी है। उस लाश को देखकर तीनों के मन में तीन तरह के विचार उठे। वृद्ध ने सोचा इसका दाह संस्कार और श्राद्ध-तर्पण करना चाहिये, जिससे उसकी मृतात्मा को शान्ति मिले। युवक उसके गुप्ताँग देखने और कुकर्म करने की बात सोचने लगा। कुत्ते के मन में उठा कि इन दोनों की रोक टोक हटे तो ताजे माँस का स्वाद चखूँ और पेट भरूँ वस्तु एक दृष्टिकोण पृथक इसी को कहते हैं- “मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना”।

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