
परिवर्तन सृष्टि का एक अनिवार्य उपक्रम !
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इस सृष्टि में स्थिर कुछ भी नहीं है । जो स्थिर जैसे दिखाई पड़ते उनमें भी स्थिरता नहीं है । यहाँ सब कुछ गतिशील है । जड़ पदार्थ के अणु परमाणु के भीतर के कण सदा बन्द वृत्तों में गतिमान रहते हैं । चन्द्रमा, पृथ्वी की और पृथ्वी, सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं । सूर्य भी एक जगह टँगा नहीं रहता । वह अपने सौर-परिवार के सदस्यों समेत महा सूर्य की, और महासूर्य किसी विराट् सूर्य का परिभ्रमण करने दौड़ा चला जा रहा है । इस क्रम का अन्त नहीं और संभवतः यह तब तक बना रहेगा, जब तक यह सृष्टि रहेगी । गतिशीलता उसका प्रमुख लक्षण है ।
स्थिरता अन्दर भी नहीं है । शरीर के भीतर सम्पूर्ण अवयव एक स्वसंचालित प्रक्रिया द्वारा अपने-अपने कार्यों में निष्ठापूर्वक जुटे हैं । हृदय का आकुँचन-प्रकुँचन अहर्निशि चलता रहता है । धमनियों में रक्त-प्रवाह एक क्षण के लिए भी रुकता नहीं । पाचन−तंत्र खाद्यान्नों को पचाने और ऊर्जा पैदा करने में मुस्तैदी दिखाता रहता है । फेफड़े भी अपनी गतिविधियाँ कहाँ रोकते हैं ? वह रुक जायँ, तो मनुष्य का प्राणान्त देखते-देखते हो जाय । मस्तिष्क की अपनी क्रियाप्रणाली है । वह उसे अपने ढंग से निरन्तर जारी रखता है । वैसे, बाहर से यह सब शान्त और गतिहीन जान पड़ते हैं, पर शरीरशास्त्री जानते हैं कि यदि भीतर का गतिचक्र रुक गया ता शरीर को जीवित रख पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव भी हो जायेगा ।
निश्चलता जड़ जैसे दीखने वो पहाड़-पर्वतों पत्थर-चट्टानों में भी नहीं । उनके भीतर के परमाणुओं में भी हलचल जारी है । इलेक्ट्रॉन जैसे सूक्ष्म कण उनमें निश्चित कक्षा में चक्कर काटते ही रहते हैं । उनमें से कोई अपने दायित्व का सर्वथा त्याग कर दे, कर्तव्य का निर्वाह न करें, तो पदार्थ सत्ता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाय । पिंड हो अथवा ब्रह्माण्ड , जड़ हो या चेतन हलचल सब में हो रही है । गतिशील सभी हैं ।
गति ही जीवन है और विराम मृत्यु । इस संस्कृति में सुव्यवस्था , क्रमबद्धता एवं पदार्थ व जीवन सत्ता बने रहने के लिए गति आवश्यक है । गति स्वयं पृथ्वी में ही नहीं , उसके पृथक-पृथक टुकड़ों एवं प्लेटों में भी विद्यमान है । भूगर्भशास्त्रियों का मत है कि पृथ्वी के टुकड़े भी चलायमान हैं । उनके अनुसार वे अनेकों बार जुड़े । सात महाद्वीपों में पृथ्वी का विभाजित होना टेक्टोनिक प्लेटों की गतिशीलता का ही परिचायक है । अधुनातन शोधों के अनुसार ये महाद्वीप भी अपने-अपने स्थानोँ से खिसक रहे हैं । यह भी ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी पूरी तरह ठोस नहीं है । इसके केन्द्र में अतिशय गाढ़ा तरल पदार्थ है, जिस पर 65 कि.मी. से 95 कि.मी. तक की मोटी परत के दस टुकड़े तैरते रहते हैं । इस विज्ञान के विशेषज्ञों का कथन है कि बीस करोड़ वर्ष पहले ये टुकड़े परस्पर मिले हुए थे । इनका पृथक अस्तित्व नहीं था, फलतः महाद्वीप भी एक ही था । गति के कारण कालक्रम में यह सात भागों में विभाजित हो गया, जिन्हें आज हम सात महाद्वीपों के रूप में जानते-मानते हैं । यह महाद्वीप भी स्थिर नहीं हैं । 1 सें. मी. से लेकर 15 सें. मी. प्रति वर्ष ये विभिन्न दिशाओं में खिसकते जा रहे हैं । यूरोप और उत्तरी अमेरिका एक-दूसरे से प्रति वर्ष 2.5 सें. मी. दूर होते जा रहे हैं । हर वर्ष अनेक स्थानों पर अनेक भूकम्पों, ज्वालामुखियों की विभीषिका का एक कारण यह भी बताया जाता है कि यदा-कदा तैरती टेक्टोनिक प्लेटें आपस में टकरा जाती हैं, जिससे पृथ्वी सतह पर तीव्र कंपन होता एवं कहीं-कहीं इस भीषण टक्कर से गर्म तरल पदार्थ (लावा) भी बाहर निकल आता है । यही भूकम्प आने व ज्वालामुखी फटने का एक प्रमुख कारण बताया जाता है । इस क्रम में कई बार कई जगहों पर नये पहाड़ निकल आते, तो अनेक स्थान समुद्र के गर्भ में समा जाते हैं । विशाल हिमालय पर्वत के उद्भव का यही रहस्य है । कहा जाता है कि अब वह जहाँ है, वहाँ कभी समुद्र हुआ करता था । दूसरी ओर विश्व के दो प्राचीनतम महाद्वीप लैमूरा एवं एटलाँटिस अब जलमग्न हो गये हैं ।
उत्तरी ऐंजिलिया यूनिवर्सिटी के भूगर्भ वैज्ञानिक एफ. जे. बिने एवं कैंब्रिज विश्वविद्यालय के डी. एच. मैथ्यू ने कुछ वर्ष पूर्व अपने अनुसंधानों के आधार पर घोषणा की कि पृथ्वी के ध्रुव खिसकते हुए अपना स्थान परिवर्तित करते जा रहे हैं । उनके अनुसार पिछले ध्रुव स्थानान्तरण के 7 लाख वर्ष बीत गये । अब पुनः उसी की पुनरावृत्ति की प्रक्रिया चल रही हैं । यह रहस्योद्घाटन शोध कार्य के निमित्त बनाये गये ग्लैमर चैलेन्जर जलयान द्वारा समुद्र की तलहटी का सर्वेक्षण करने के उपरान्त किया गया । तलहटी में करीब 300 गहरे छिद्र पाये गये । इससे एकत्रित मिट्टी 16 करोड़ वर्ष पुरानी बतायी जाती है । इस प्रकार की शोध के लिए अमेरिका में स्थापित पाँच संस्थानों में से प्रमुख स्क्रिप्स “इन्स्टीट्यूशन ऑफ ओशिनोग्राफी” द्वारा यह जानकारी उपलब्ध करायी गई है ।
मूर्धन्य भूगर्भ विज्ञानी राबर्टजीन एवं जान हौल्डन (अमेरिका) का कहना है कि 20 करोड़ वर्ष पूर्व जापान उत्तरी ध्रुव के समीप था और भारत दक्षिणी ध्रुव के निकट । स्थानान्तरण के क्रम में सर्वप्रथम आस्ट्रेलिया और भारत का दक्षिणी भाग दक्षिणी ध्रुव से अलग हुए और क्रमशः खिसकते हुए वर्तमान स्थिति में आ गये । वैज्ञानिकों के अनुसार यह प्रक्रिया 18 करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुई, जिसमें सर्वाधिक यात्रा भारत के हिस्से पड़ी । इस भूभाग ने 8800 मील की दूरी इस कालखण्ड में तय की ।
उक्त वैज्ञानिकों के अनुसार आने वाले समय में उत्तरी दक्षिणी अमेरिका पश्चिम की ओर बढ़ेंगे तथा पनामा और मध्य अमेरिका उत्तर की ओर । पृथ्वी की भीतरी हलचलों के कारण भविष्य में हिमालय और ऊँचा उठेगा तथा भारत पूर्व की ओर बढ़ेगा । आस्ट्रेलिया उत्तर की ओर गति करता हुआ एशिया से मिल जायेगा । भूमध्य सागर में भी नये द्वीपों के उभरने की संभावना व्यक्त की जा रही है । ऐसी स्थिती में जैसे-जैसे अफ्रीका और यूरोप नजदीक आते जायेंगे, भूमध्य सागर का अस्तित्व क्रमशः घटता-मिटता जायेगा ।
यह गतिशीलता ग्रह-नक्षत्र, वृक्ष-वनस्पति, नदी-नाले सबमें समान रूप से दृष्टिगोचर होती है । गंगा को ही लें । कहा जाता है कि काशी में यह पवित्र नदी अब से दो सौ वर्ष पूर्व जहाँ बह रही थी, अब उससे काफी दूर चली गई है । हरिद्वार में उसकी सात धाराएँ वर्षों पूर्व जिधर से बहती थीं, वर्तमान में वे अपना वह स्थान त्याग चुकी हैं । समुद्र इसका अपवाद नहीं । उड़ीसा का कोणार्क मन्दिर इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि सदियों पूर्व वह सूर्य मन्दिर जब बना था, तब तटवर्ती समुद्र उसका पाद-प्रक्षालन करता था, किन्तु अब वह मीलों दूर हट गया है ।
गति एवं परिवर्तन सृष्टि की अनिवार्य प्रक्रिया है । मनुष्य एवं उसकी मान्यताएँ इससे अछूती नहीं हैं । देखने में मनुष्य तो स्वयं चलता-फिरता नजर आता है, पर अपनी जड़-मान्यताएँ बन्दरिया के मरे बच्चे की तरह अपनी से चिपकाए रहता और जड़ता का परिचय देता है । इस प्रकार इस संदर्भ में वह सृष्टि के नियमोँ का उल्लंघन करता है । देखा जाता है कि जो प्रचलन अब से सौ वर्ष पूर्व तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप सही थे, किन्तु अब अनुकूल नहीं रहे, उन्हें भी वह छाती से लगाये रहने का दुराग्रह करता है, जबकि होना यह चाहिए कि वर्तमान परिवेश में बदली परिस्थितियों के अनुरूप वह नवीन और विवेकशील प्रथा-परम्पराओं का शुभारंभ-श्रीगणेश करे । जब त्वचा समय-समय पर अपनी कोशिकाएँ बदलती पुरानी को त्यागती और नवीन बनाती रहती है, साँप केंचुल छोड़ते, वृक्ष-वनस्पति पुराने पत्ते गिराकर नयी किसलयों को धारण करते रहते हैं, तो मनुष्य अपवाद क्यों ? उसे भी निर्धारित प्रवाह के अनुरूप चलना चाहिए , अन्यथा जड़ता-प्रतिगामिता अपना कर वह देर तक अपना अस्तित्व बनाये नहीं रह सकता । पृथ्वी यदि घूमना छोड़ दे, नदियाँ स्थिर बने रहने का हठ करने लगें तो या तो वह स्वयं अस्तित्व खो देती हैं अथवा प्रकृति यह कार्य कर देती है । मनुष्य का भी परिवर्तनशीलता धारण किये रहने में ही कल्याण है । यही सृष्टि का शाश्वत नियम है । इसी में गति और जीवन है