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Magazine - Year 1992 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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ब्रह्मवर्चस की शोध प्रक्रिया-4

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युगों-युगों से वैज्ञानिक इस दिशा में अनुसंधान कर रहे हैं कि क्या मनुष्य का कायाकल्प संभव है? क्या एजींग-वार्धक्य यानी बुढ़ापे की प्रक्रिया को रोका जा सकता है? चिरयौवन मनुष्य की अदम्य आकाँक्षा है, एक ऐसा स्वप्न है जिसको साकार करने के लिए वह न जाने क्या-क्या प्रयास-पुरुषार्थ करता है। इतने पर भी ऋषि प्रणीत सही पद्धति का आश्रय न लेने के कारण बहुसंख्य व्यक्ति भटकते ही देखे जाते हैं। आहार-विहार, यम−नियम के रूप में वे एक सुनियोजित क्रियापद्धति बना गए हैं, जिनका अनुपालन करते हुए कोई भी अक्षुण्ण स्वास्थ्य बनाए रख शतायु-दीर्घायु जीवन जीता रह सकता है। पर यह आकाँक्षा जब मनुष्य की अपनी यौनतृप्ति की पशु-प्रवृत्ति को बनाए रखने के रूप में “बीजाकरण” जैसे बलवर्धक रसायनों औषधियों की खोज के रूप में प्रकट होती है तो इससे बुढ़ापा दूर होना तो अलग, वह नीम-हकीमों के जंजाल में उलझकर और भी कष्टों को आमंत्रित करता देखा जाता है।

यहाँ यह इस संदर्भ में कहा जा रहा है कि चिरयौवन, वार्धक्य निवारण व यौनशक्ति संवर्धन को गलती से पर्यायवाची मानकर मध्यकाल के यूनानी हकीमों से लेकर मोदक-अवलेह बनाने वाले वैद्यों तथा आज के तथाकथित सेक्स स्पेशलिस्टों ने आयुर्वेद के साथ व विशेष रूप से “कायाकल्प” शब्द के साथ एक मखौल सा मचा रखा है व इसी कारण गुड़ गोबर हो गया प्रतीत होता है।

ब्रह्मवर्चस् की शोधप्रक्रिया का एक प्रमुख व सर्वप्रथम प्रयोजन था आहार-शुचिता। आहार की चिर पुरातन चली आ रही आदतों में परिवर्तन। न केवल पौष्टिकता वरन् सात्विकता का भी समावेश। आहार संयम द्वारा जीवनी शक्ति संवर्धन। सही आहार का चयन व इससे जुड़ी भ्रान्तियों का निवारण। विगत दो अंकों से पाठकगण इसी विषय-विशेष पर प्रतिपादनों व शोध परिणामों का अध्ययन कर रहे हैं। शोध अनुसंधान से कायाकल्प विषय पर हम आते हैं। यह इतना विज्ञानसम्मत व आज की परिस्थितियों के अनुरूप किया गया अनुसंधान है कि इससे निश्चित ही इक्कीसवीं सदी की ओर पग बढ़ाती मानवजाति द्वारा नये-नये विकास के आयामों की संभावनाओं के प्रकट होने की आशा की जा सकती है।

कायाकल्प इतना आसान नहीं है जितना कि उसकी चर्चा करते समय समझा जाता है। कभी च्यवन ऋषि जरा के यौवन में बदलने के प्रतीक रूप माने जाते थे व च्यवनप्राश के रूप में वह चिन्हपूजा आज भी होती है। परन्तु आहार एवं औषधि दोनों द्वारा किये जाने वाले कायाकल्प में यदि सही वातावरण का चयन कर सूक्ष्म स्तर की साधनाओं के साथ सही आहार व औषधि ली जाय तो वस्तुतः कल्प प्रक्रिया आज भी संभव है, यह ब्रह्मवर्चस् ने शोध द्वारा निर्धारण कर प्रतिपादित ही नहीं वरन् प्रयोग रूप में करके भी दिखाया है। कल्प एक साधना भी है एवं एक चिकित्सा भी। इसके लिए सबसे पहले शरीर शुद्धि की बात सोची जाती है। शरीर में मल एवं त्याज्य विजातीय द्रव्य यदि संचित हुए रखे हों तो न आहार प्रभाव डाल सकता है, न किसी प्रकार की विलक्षण जड़ी-बूटी। जिस प्रकार सोने के अयस्क को पहले शोधन प्रक्रिया से गुजारा जाता है, तपाया जाता है व फिर शुद्ध सोना निखरकर आता है लगभग उसी प्रकार पहले शरीर का समग्र शोधन किया जाना-तपाया जाना अनिवार्य है। आयुर्वेद में इसीलिए पंचकर्म पर अत्यधिक जोर दिया जाता है। स्नेहन, स्वेदन, वमन विरेचन वस्ति, आदि द्वारा शरीर में संचित दूषित मलों को बाहर निकाल फेंकने की प्रक्रिया पंचकर्म द्वारा संपन्न की जाती है। शारीरिक अंगों से चिपके मल को सुगमता से बाहर निकालने के लिए स्वेदन तथा स्नेहन का प्रयोग किया जाता है। यह ऐसी ही प्रक्रिया है जैसी कि मैले वस्त्रों का साफ करने के लिए साबुन लगाकर मैल को छुड़ाना। पहले शरीर के रोम कूप खोलकर मल निष्कासन तथा फिर वानस्पतिक स्रोतों से प्राप्त वसा पदार्थों-औषधीय तेलों द्वारा मुखमार्ग से वस्ति, नस्य मालिश आदि द्वारा स्नेहन प्रक्रिया-यह पंचकर्म की प्रारंभिक दो प्रक्रियाएँ हैं। वमन द्वारा कफ जो अंदर एकत्र होता रहता है, उसका निष्कासन किया जाता है। विरेचन भी विजातीय द्रव्यों की मुक्ति का एक दूसरा मार्ग है, जिसमें पित्ताशय की शुद्धि की जाती है। वस्ति से मलाशय, मूत्राशय में जड़ जमाकर बैठे विकारों का निष्कासन किया जाता है। डूश, एनीमा, सिट्ज बाथ इत्यादि इसी के आज प्रचलित भिन्न-भिन्न रूप हैं। यहाँ प्रत्येक प्रक्रिया के विस्तार में न जाकर उनकी परिभाषा की व्याख्या भर कर दी गयी है ताकि शरीर-शोधन की आवश्यकता कल्प प्रक्रिया के पूर्वाभ्यास हेतु समझी जा सके।

किन्तु मात्र शरीर शोधन ही पर्याप्त नहीं। मन का शोधन भी जरूरी है तब ही आध्यात्मिक कायाकल्प की प्रक्रिया संभव होती है। मन का परिशोधन करने हेतु चिन्तन पद्धति का पर्यवेक्षण, आत्मसमीक्षा प्रायश्चित उपचार से लेकर स्वयं के लिए स्वाध्याय हेतु सही विचार परक औषधि की सही मात्रा का चयन यह सब करना जरूरी है। मनः शक्ति संवर्धन किए बिना शरीर शोधन की प्रक्रिया तो बहिरंग की, कलपुर्जों की सफाई भर है। आहार शुचिता की साधना जो कल्प प्रक्रिया से जुड़ी है, इसीलिए अस्वादव्रत को प्रधानता देती आयी है क्योंकि इससे मनोबल की परीक्षा होती है-आत्मानुशासन का कड़ा अभ्यास होता है व मन के मजबूत बन पड़ने पर आगे वह पृष्ठभूमि बन जाती है, जिसके आधार पर और भी विशिष्ट प्रयोग आहार एवं औषधि के किये जा सकें। शाँतिकुँज में गायत्री तीर्थ के आरण्यक में इसी कारण अस्वाद का साप्ताहिक अभ्यास हर साधक को कराया जाता है ताकि वे इन्द्रियसंयम का अभ्यास करते चल सकें। अध्यात्म उपचार जो परम पूज्य गुरुदेव ने जन-जन के लिए सुलभ बनाये हैं, में उनने किसी प्रकार के अतिवाद से बचने व सरल-सूत्रों को हृदयंगम किये जाने पर विशेष जोर दिया है। यदि इतना भर होता चले तो व्यक्ति नीरोग व दीर्घायुष्य भरा जीवन जी सकता है।

कल्प प्रक्रिया में दो प्रकार के कल्प आते हैं। एक दुग्ध, मट्ठा, अन्न आदि का कल्प। दूसरा फल-शाक तथा वनौषधियों का कल्प। इन दोनों में से किसे चयन किया जाय, कौनसा श्रेष्ठ है, यह स्थूल तौर पर ऐसे ही नहीं बताया जा सकता। इसके लिए गहराई से प्रयोग परीक्षण कर निष्णात् चिकित्सक ही यह बता पाते हैं कि यह शरीर यह विशिष्ट कल्प सहन करने योग्य है, इसके लिए क्या-क्या स्टेप्स होने चाहिए तथा किस प्रकार उसे आगे बढ़ाकर क्रमशः कम करते करते सामान्य स्थिति में आना चाहिए। कल्प प्रक्रिया सदैव उन्हीं के द्वारा की जानी चाहिए जो स्वस्थ शरीर व स्वच्छ मन वाले साधक प्रकृति के हों, नहीं तो हानि-उपद्रवों की संभावना और हो सकती है। उपवास तो हर कोई कर सकता है किन्तु उसमें एक ही औषधि या आहार कब लिया जाय, कौनसा लिया जाय व कैसे उपवास तोड़ा जाय, इसका निर्धारण प्राकृतिक चिकित्सक या आयुर्वेद के वैद्य ही कर सकते हैं। इसीलिए शाँतिकुँज में निरापद ढंग से सबके लिए सुगम प्रक्रिया पद्धति का निर्धारण करते हुए विभिन्न कल्पों के प्रयोगों का प्रावधान किया गया है।

दूध एक संपूर्ण खाद्य है। इसे संतुलित भोजन माना गया है। इसमें प्रचुर परिमाण में प्रोटीन, शर्करा, वसा, विटामिन्स तथा बलवर्धक एन्जाइम्स विद्यमान हैं। गाय के दूध में प्रति 100 ग्राम 65 कैलोरी ऊर्जा देने वाले 3.3 ग्राम प्रोटीन, 3.6 ग्राम वसा तथा 4.8 ग्राम शर्करा होती है। इसमें विटामिन बी समूह कैल्शियम तथा फास्फोरस भी प्रचुर परिमाण में है। सतोगुणी धर्म का होने के कारण गौ दुग्ध साधक के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया है। अन्यान्य पौष्टिकता के तत्वों की दृष्टि से भैंस या बकरी के दूध में न्यूनाधिकता हो सकती है किन्तु सात्विकता की दृष्टि से गौ दुग्ध एक समग्र सर्वांगपूर्ण संतुलित खाद्य है-विशेष रूप से अध्यात्म क्षेत्र में प्रगति की ओर बढ़ रहे साधक के लिए। गौ दुग्ध में वे सभी आवश्यक पोषकतत्व विद्यमान हैं जिनकी कमी से शरीर में विभिन्न प्रकार के रोग होते देखे जाते हैं। ठोस भोजन एक दम बन्द करके तुरंत दुग्धाहार शुरू करना उतना ही गलत है जितना कि न पचे पाने वाले ठोस आहार को मात्रा का ध्यान किए बिना सतत् लेते रहना। जो भी व्यक्ति दुग्ध कल्प के इच्छुक हों, उन्हें बताया जाता है कि वे इसका औषधि की तरह नियत मात्रा में तब सेवन आरंभ करें जब शरीर तंत्र इसे ग्रहण करने के लिए तैयार हो चुका हो। सब कुछ छोड़कर जितना अधिक से अधिक दूध पिया जाएगा, उतना ही कायाकल्प होता चला जाएगा, यह विचार बचकानेपन का द्योतक है, सही नहीं है।

दूध कैसे व कौनसा लिया जाय कच्चा या पकाया हुआ, इस संबंध में भिन्न भिन्न मत हैं। यह धारोष्ण भी हो सकता है व धीमी आँच पर एक उफान कर गरम कर ठण्डा किया हुआ भी। यह पास्चराईज्ड भी हो सकता है, आज की आधुनिक तकनीकी के संदर्भ में तथा शास्त्रीय पद्धति के अनुसार मिट्टी के पात्र में गीले कपड़े से लपेटकर रेते में रखकर जीवाणु रहित किया हुआ भी हो सकता है। धारोष्ण अर्थात् तुरन्त निकला कच्चा दूध श्रेष्ठ माना गया है पर उनके लिए जिनकी आहार प्रणाली ठीक है, आदतें बिगड़ी हुई नहीं हैं। भाप से गरम किया हुआ दूध अधिक पोषक भी होता है तथा कब्ज नहीं करता। दुग्ध कल्प वालों के लिए ब्रह्मवर्चस् के अनुसंधानक्रम में इसी को वरीयता दी गयी है। मंद आँच पर धीरे-धीरे खौलाकर पकाया हुआ दूध स्वादिष्ट तो बन सकता है पर पौष्टिकता खोकर शरीर में विजातीय द्रव्यों की वृद्धि और करने लगता है। अतः इससे तो बचने को ही कहा जाता है। दुधकल्प आरंभ करने से पूर्व एक दिन उपवास अवश्य कर लिया जाय। उस दिन जल प्रधान पदार्थों पर रहा जाय। शुद्ध जल-हो सके तो गंगाजल तथा उबले शाकों के रसों को पीकर प्रारंभिक तैयारी करने को यहाँ कहा जाता है। इससे पाचन−तंत्र की शुद्धि होकर कल्प का पूरा लाभ मिलने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। एक बार जब दुग्ध आरंभ कर दिया गया तो चौबीस घण्टों में कितनी मात्रा ली जाय, इसका निर्धारण किसी उचित मार्गदर्शक द्वारा कराया जाना चाहिए। अपनी प्रकृति, वजन तथा क्षमता के अनुरूप मात्रा का निर्धारण कर उसको चौबीस घण्टों में कब कब लिया जाय, यह विभाजन कर लिया जाता है। साधारणतया औसत 60 किलोग्राम वजन के व्यक्ति के लिए चौबीस घण्टों में तीन लीटर दूध की मात्रा ही सही मानी जाती है। यह अधिकतम है जो लिया जा सकता है। इस बीच पानी कम लिया जाय, दुग्ध में विद्यमान जल से ही काम चलाया जाय। जो भी पियें, वह चीनी या गुड़ मिला न हो, धीरे-धीरे चम्मच से स्वाद लेकर पिया जाय। किन्हीं-किन्हीं परिस्थितियों में मधु का समावेश भी किया जा सकता है पर यह निर्धारण व्यक्ति विशेष की पूरी जाँच पड़ताल करके ही किया जाता है।

दुग्ध कल्प में साधक को प्रारंभिक मात्रा न्यूनतम से आरंभ कर धीरे-धीरे बढ़ाने को कहा जाता है। प्रातः 5 बजे से सायं अधिकतम 7 बजे तक ही दुग्धाहार लेने की परम्परा है। रात्रि को मात्र कभी-कभी पानी ले लिया जाय। कभी कब्ज हो तो शुद्ध पानी का एनीमा लेने के लिए कहा जाता है। दुग्धकल्प करने से स्फूर्ति में साधक को शरीर में हल्कापन, चेहरे पर स्फूर्ति व चमक तथा धीरे-धीरे निद्रा से लेकर नित्यक्रम में नियमितता देखने को मिलती है। वैज्ञानिक दृष्टि से दुग्धकल्प शरीर की अम्लसाँद्रता को कम करता हुआ रक्त की ओषजन ग्रहण करने की क्षमता को बढ़ाता है। साधकों का कल्प के पूर्व यदि रक्त में ऑक्सीजन व कार्बनडाइ आक्साइड का पार्शियल प्रेशन (क्कश2 क्कष्श2) नापा जाय तो यह जानकारी मिलती है कि ऑक्सीजन का अनुपात बढ़ता है व कार्बनडाइ आक्साइड में कमी आ जाती है। रक्त में यूरिया तथा यूरिक एसिड की मात्रा भी कम होने लगती है जो स्वस्थता का चिन्ह है। सबसे महत्वपूर्ण जैव रासायनिक परिवर्तन यह कि “सिरम कार्टीसाँल” नामक हारमोन जो व्यग्रता-तनाव-बेचैनी व तेज गति से चल रहे “मेटाबोलिज्म” का प्रतीक है की मात्रा कम होकर नियमित हो जाती है तथा शरीर में प्रफुल्लता बढ़ाने वाले, तनाव शामक, स्नायु रसायनों तथा एन्डार्फिन्स, एन्केफेलीन्स सिरौटीनन की मात्रा बढ़कर इतनी हो जाती है, जितनी कि शरीर व मनके सुसंचालन के लिए जरूरी है। रक्त में लेक्टिक अम्ल व उसके साथ बढ़ने वाले पायरुवेट आदि ऐसे द्रव्य जो अधिक मात्रा में शरीर को हानि पहुँचा सकते हैं, क्रमशः कम होकर संतुलित हो जाते हैं। यह सारा प्रयोग परीक्षण ब्रह्मवर्चस् की अनुसंधान प्रक्रिया का सार है। शरीर की विद्युत, व्यक्ति के चिन्तन तथा मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं में क्या-क्या परिवर्तन होता है तथा दुग्ध के साथ मट्ठा व शुद्ध मट्ठा (तक्र) का कल्प कैसे व क्यों किस किसको किस प्रकार लाभ पहुँचाता है, यह विशद विवेचन परिजन आगामी अंकों में पढ़ते रह सकते हैं। (क्रमशः)

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