
आत्मोत्कर्ष की अवाँछनीय उपेक्षा
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आंखें बाहर का देखते हैं। वे न अपना स्वरूप देख पाती हैं ओर न अपनी बनावट के सम्बन्ध में कुछ प्रत्यक्ष अनुभव करती हैं। इसी प्रकार कान बाहर के शब्द सुनते हैं। हृदय की धड़कन, फेफड़ों की श्वसनक्रिया तक उन्हें सुनाई नहीं पड़ती। तत्व से बाहर की वस्तुओं को छूकर उनके सम्बन्ध में अनुमान लगाया जा सकता है, पर इससे छोटी परिधि से बढ़कर बहुत दूर वाले पदार्थों की हलचलों की श्री ज्ञानेन्द्रियाँ जानकारी प्राप्त नहीं कर सकतीं। एक सीमित दूरी तक ही उनकी पहुँच और पकड़ है, न वे अति निकट को समझ पाती हैं और न अति दूर की। इन्द्रियाँ पंचतत्वों से ही बनी हैं, इसलिए उनका संपर्क और अनुभव भी मात्र पदार्थ जगत के साथ ही बन पाता है। धीरे-धीरे मान्यता भी यही बन जाती है कि पदार्थ जगत ही सब कुछ है। शरीर संपर्क चूँकि उन्हीं के साथ रहता है, इसलिए उन्हीं के साथ प्रिय-अप्रिय और उपेक्षा की प्रवृत्ति भी बनती और बढ़ती रहती है। इतने ही छोटे संसार में जीवन जिया जाता है। इतने को ही प्रभावित करने और प्रभावित होने का सिलसिला प्रायः चलता रहता है। इसी परिधि में घूमते हुए आम आदमी कोल्हू के बैल की तरह अपने जीवन वैभव को समापन कर लेता है।
यह एक प्राणिमात्र के साथ जुड़ा हुआ उपक्रम है। पदार्थों का उत्पादन व उपभोग करते हुए जीवधारी घाटे या नफे का समयक्षेप करते हैं। इस प्रकृति प्रेरणा से प्रचलित प्रक्रिया के साथ जीवधारी जुड़े रहते हैं, और कालक्षेप करते हैं। मनुष्य भी उन्हीं में से एक है।
स्थूल दृष्टि इतना ही समझ और समझा पाती है कि महत्वपूर्ण भाग वह है जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता। जिसे इन्द्रियाँ देख समझ नहीं पातीं। मन-मस्तिष्क को भी ग्यारहवीं इन्द्रिय माना गया है। इसलिये उसकी दौड़ धूप भी बहिरंग क्षेत्र तक ही सीमित रहती है। जो अप्रत्यक्ष है-अतिशय महत्वपूर्ण है, वह अविज्ञात-उपेक्षित स्थिति में ही पड़ा रहता है। ऐसी दशा में उसे परिष्कृत समुन्नत बनाने के लिए तो कुछ करते धरते बन ही कैसे पड़े?
जानने को तो सभी जानते हैं कि शरीर के भीतर कोई आत्मा भी है, पर यह ज्ञान कहने-सुनने और जानने अपनाने तक ही सीमाबद्ध होकर रह जाता है। यह अनुभव नहीं किया जाता है कि वस्तुतः ऐसा कुछ है भी क्या? यदि है तो उसकी कुछ क्षमता, उपयोगिता, समर्थता एवं भूमिका भी प्रत्यक्ष जीवन में कुछ है क्या? इसे कोई विरला ही अनुभव कर पाता है। यदि वह अनुभूति बन पड़ी होती तो प्रसुप्तता हटती, चेतना जगती और उस महत्वपूर्ण पक्ष की स्थिति का पर्यवेक्षण किया गया होता। उसे अवगति से उबारा गया होता और ऐसा कुछ प्रयास बन पड़ता जिसे आत्मोत्कर्ष के नाम से जाना जाता और उस क्षेत्र के विकसित होने का चमत्कारी प्रतिफल हाथोंहाथ दृष्टिगोचर हो सका होता। पर उस उपेक्षा को क्या कहा जाय जिसके कारण हीरा भी काँच के ढेर में पड़ा रहता है और उसी के साथ तोला बेचा जाता है।
स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि शरीर कितना ही सुन्दर, समर्थ, कुशल क्यों न हो, उसकी सत्ता और महत्ता अदृश्य आत्म चेतना पर निर्भर रहती है। देखने में सभी का कायकलेवर प्रायः एक जैसा होता है। अन्तर एक सीमित मात्रा में ही पाया जाता है। इतने पर भी देखने में यह आता है कि एक व्यक्ति गये गुजरे स्तर का होता है, तो दूसरा सभ्य, समुन्नत और सुसंस्कृत स्तर का जीवनयापन करता है। एक उपेक्षा का भाजन बना रहता है, हेय समझा और भारभूत माना जाता है। इसके विपरीत दूसरे की प्रतिभा ऐसी होती है जिसके कारण उसकी सर्वत्र सराहना होती, उपयोगिता मानी जाती है। यह अन्तर किसी के शरीर या वैभव पर आधारित नहीं होता, वरन् उसकी उस विशिष्टता पर आधारित रहता है जिसे चेतना कहते हैं जो अदृश्य रहते हुए भी दृश्य का पूरी तरह सूत्र संचालन करती है।
यों समझा तो सब कुछ शरीर और साधनों को ही जाता है, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। कठपुतली का तमाशा बाजीगर की उँगलियों से बँधे हुए तार के सहारे होता है। चेतना ही शरीर से क्रियायें और मस्तिष्क से विचारणायें सम्पन्न कराती है। प्राणान्त हो जाने पर कायकलेवर के सभी घटक यथावत् रहने पर भी सारी हलचलें समाप्त हो जाती हैं। इतना ही नहीं, कुछ देर रखे रहने पर लाश अपने-अपने घटकों में सड़ने, गलने और बिखरने लगती है। तथ्य स्पष्ट है कि जीवधारियों का जीवन और कुछ नहीं, मात्र प्राण चेतना की उपस्थिति मात्र है। वही ‘स्व’ है। वही ‘ब्रह्म’ है वही ‘आत्मा’ है। उसका अस्तित्व जन्म लेने से पूर्व भी था और मरण के उपरान्त भी अनन्तकाल तक किसी न किसी रूप में बना रहता है। यही है वह तत्व जिसके स्तर के अनुरूप जीवन का उत्थान-पतन अवलम्बित रहता है।
आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य का चिन्तन और प्रयास मात्र शरीर के इर्द-गिर्द ही घूमता रहता है। उसे पदार्थों और प्राणियों की कायाभर से लगाव होता है। धन संचय ही लक्ष्य स्तर का बनकर आकाँक्षाओं पर छाया रहता है। इन्द्रियों में उठने वाली खुजली जैसी ललक ही अपनी अभिरुचि के अनुरूप साधन जुटाने के लिए मचलती रहती है। काँचन और कामिनी जैसे कुछ ही प्रसंग मनुष्य के प्रिय विषय रहते हैं। प्रदर्शन के लिए आतुर अहंकार ऐसे प्रपंच रचता रहता है जो समयसाध्य, कष्टसाध्य, व्ययसाध्य होते हैं। सोचा जाता है कि सजधज और ठाटबाट से दूसरों को प्रभावित, चमत्कृत किया जा सकेगा। इसी अहंता की आपूर्ति का भारीभरकम ढाँचा खड़ा किया जाता है। यश और मान पाने की लिप्सा उद्विग्न किये रहती है। फिर भी वास्तविकता यह है कि किसी को भी देर तक दूसरों की ओर ध्यान देने की फुरसत नहीं होती। हर व्यक्ति अपनी ही इच्छाओं, समस्याओं के फेर में इस कदर फँसा रहता है कि दूसरों के सम्बन्ध में नजर उठाकर देखकर लेने भर की यदाकदा फुरसत निकाल पाता है। अन्यथा अपने ही कामों में व्यस्त व्यक्ति दूसरों की शृंगार सज्जा और सम्पन्नता पर क्यों तो ध्यान देगा और क्यों चमत्कृत, प्रभावित होकर रहेगा?
इतने पर भी सामान्यजन यही आशा लगाये बैठे रहते हैं कि लोग उन्हें सराहें, बड़ा आदमी मानें। इस दुराशा में ही प्रायः आधी शक्ति खर्च हो जाती है। जिसे यदि उपयोगी दिशा में नियोजित किया गया होता तो चेतना को समुन्नत बनाने का अवसर भी मिलता ओर ऐसा कुछ पुण्य परमार्थ करते बन पड़ता जो लोक-कल्याण के क्षेत्र में अनुकरणीय भूमिका निभा सकना संभव बना देता। उस व्यामोह को क्या कहा जाय जो आत्मचिन्तन के लिये अन्तर्मुखी होने की स्थिति ही नहीं बनने देता।
वस्तुओं को सँभालने-सँजोने की व्यवस्था-बुद्धि सराहनीय मानी जाती है, पर न जाने क्यों वह शरीर और परिवार परिकर तक ही सीमित होकर रह जाती है, बाहर का बिखराव यदि समेटा जा सका होता तो आत्मनिरीक्षण का अवसर मिलता और शरीर के घटक अवयवों को सही स्थिति में रखने की सूझ सूझती। आमाशय, आँतें, हृदय, फेफड़े, गुर्दे, रक्त-माँस आदि में इतनी विकृतियाँ भरी रहती हैं कि यदि उन्हें संशोधित स्थिति में रखने की बात सोची गयी होती, तो संयम, अनुशासन साधने मात्र से दुर्बलता और रुग्णता से छुटकारा मिल जाता। जिस काया को अपना स्वरूप समझा जाता है उसे तो सही स्थिति में रहने का अवसर मिलता पर उस बहिर्बुद्धि को क्या कहा जाय जो मात्र सज्जा, लिप्सा और संपदा तक ही सीमित रहती है और जिसे अपना माना जाता है, उस काया की अन्तः व्यवस्था को उपेक्षित रखने के कारण रुग्ण रहना और अकाल मृत्यु मरना पड़ता है।
चेतना की स्वस्थता का स्वरूप है गुण, कर्म, स्वभाव में शालीनता का समुचित समावेश रहना। चिन्तन, चरित्र, व्यवहार में मानवोचित उत्कृष्टता का आभास मिलना। इसी उपलब्धि के आधार पर आत्मसंतोष का और लोक सम्मान का अर्जन बन पड़ता है इतना भर भी यदि हस्तगत न किया जा सके तो समझना चाहिए कि चेतना दलदल में फँसी रही, उसे स्वच्छ वातावरण में रहने का अवसर ही न मिला यह अभाव इसलिए सहन करना पड़ता है कि आत्मचिन्तन के लिए अन्तर्मुखी होना नहीं आता समीक्षा करने और आत्म सुधार के लिए प्रयत्नशील होने की बात एक प्रकार से विस्मृत ही रखी जाती रहती है।