
साधुवाद का पात्र है, वह अनुपम सृजेता !
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
विश्व की रचना निष्प्रयोजन नहीं, प्रयोजनयुक्त है । सर्वत्र सुव्यवस्था, सुगढ़ता का साम्राज्य है । मोटी दृष्टि जिसे अनगढ़ एवं निष्प्रयोजन मानती है, उन घटकों की भी अपनी महत्ता उपयोगिता है । विशालकाय समुद्र को देखकर यह प्रतीत हो सकता है कि उसने बेकार नें भूमण्डल का एक बहुत बड़ा भाग घेर रखा है । पर इकॉलाजी के विशेषज्ञ जानते हैं कि समुद्र का अस्तित्व न होता , तो समय पर वर्षा, मौसम आदि की प्रकृति सुविधाएँ नहीं उपलब्ध होतीं । इस विराट् सृष्टि में जो कुछ भी है, उपयोगी है । उन घटकों में एक अद्भुत तारतम्य, एवं सामंजस्य देखने को मिलता है । गहराई से पर्यवेक्षण-अध्ययन करने पर ऐसा लगता है कि जिसने भी सृष्टि बनायी, बहुत सोच-समझकर बनायी होगी ।
सृष्टि संरचना का सुनिश्चित प्रयोजन और सुव्यवस्था का प्रमाण है जीवजगत के लिए पृथ्वी पर अनुकूल वातावरण का होना । उन्हें देखकर लगता है कि किसी सर्वज्ञ द्वारा ही जीवन को परिपोषित करने के लिए हर तरह की अनुकूलताओं का सृजन किया गया है । न्यूयार्क विज्ञान अकादमी के मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ. ए. क्रेसी मोरिसन का कहना है कि “गणितशास्त्र के नियमों से यह प्रमाणित होता है कि संसार का नक्शा किसी कुशल तथा बुद्धिमान इंजीनियर द्वारा खींचा गया है ।” इस प्रतिपादन की पुष्टि हेतु उन्होंने गहन अध्ययन अन्वेषण किया है । उससे जो तथ्य सामने आये हैं, उनका अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि हमारी पृथ्वी जो अपनी धुरी पर एक हजार मील प्रति घंटे की रफ्तार से घूमती है, यदि उसकी गति एक सौ मील प्रति घंटा हो जाय तो दिन और रात अब की तुलना में दस गुने लम्बे हो जायेंगे । दिन के समय सूर्य की गर्मी इतनी अधिक होगी कि पृथ्वी की समस्त वनस्पतियाँ जल जायेंगी । रात्री को भयंकर ठंड पड़ेगी जिसके कारण अधिकाँश जीव मर जायेंगे ।
पृथ्वी की आकृति ओर प्रकृति को देखने से भी लगता है कि उसे सोच समझकर इस योग्य बनाया गया है कि जीवधारी निवास कर सकें । यदि पृथ्वी का आकार अब की तुलना में छोटा, चन्द्रमा जितना होता तो उसका व्यास भी एक चौथाई होता । वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से चन्द्रमा की गुरुत्व शक्ति छः गुनी कम है । पृथ्वी का आकार चन्द्रमा जितना हो जाने पर उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी अत्यन्त कम हो जाती । उल्लेखनीय बात है कि धरती के वायुमण्डल , जल एवं खनिज सम्पदा को संभालने , सुरक्षित रखने में गुरुत्वबल का विशेष सहयोग है । उसमें कमी होते ही अनेकों प्रकार के असन्तुलनों का सामना करना पड़ता है । वायुमंडल की रक्षापरतों में व्यतिरेक से ताप की मात्रा इतनी अधिक हो जाती कि जीवित रहना कठिन पड़ता । यदि पृथ्वी का व्यास वर्तमान व्यास से दुगना होता तो भी अनेकोँ प्रकार की समस्यायें उत्पन्न होतीं । व्यास दूना होने से धरातल चौगुना हो जाता तथा धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी दुगुनी हो जाती । परिणामस्वरूप सोलह सौ किलोमीटर की ऊँचाई तक फैला वायुमंडल खतरनाक रूप से सिकुड़कर कम हो जाता । वायुमंडलीय गैसों का दबाव भी 15 से 20 पौण्ड प्रति वर्ग इंच तक बढ़ जाता , जिसका दुष्प्रभाव जीवन पर भी पड़ता । उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुव जैसी भीषण ठंडक विश्व के अधिकाँश क्षेत्रों में पड़ती । फलतः जीना दूभर हो जाता ।
“द एवीडेन्स आफ गॉड इन एक्सपैन्डिंग यूनीवर्स” नामक अपनी कृति में कनाडा विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध जीव भौतिकीविद् डॉ. फ्रेंक एलेन ने उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्यों पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ‘यह पृथ्वी किसी समर्थ सत्ता द्वारा बड़ी सोच-समझकर सत्प्रयोजन के लिए बनायी गयी है, ताकि जीवधारियों एवं पादपों का निर्वाह होता रहे । यदि पृथ्वी का आकार सूरज जितना बड़ा होता तथा उसकी क्षमता यथावत् कायम रहती तो उसकी गुरुता 150 गुना अधिक बढ़ जाती । ऐसी स्थिति में वायुमण्डल की ऊँचाई घटकर मात्र चामी रह जाती । यदि ऐसा होता तो एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होती जिसमें पानी का भाप बनकर उड़ना बन्द हो जाता । तब एक पौण्ड प्राणी का वजन बढ़कर 150 पौण्ड हो जाता तथा मनुष्य, हाथी , सेर आदि का आकार घटकर अत्यन्त कम हो जाता ।
आकार का ही नहीं पृथ्वी की अन्य ग्रहों से दूरी से भी धरती पर अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण में घना तारतम्य एवं सम्बन्ध है । सूर्य को ही लें । उसकी दूरी पृथ्वी से इस समय जितनी है, उससे यदि बढ़ कर दूनी हो जय तो सूर्य से मिलने वाला ताप घटकर चौथाई हो जायेगा और सर्दियों के मौसम की अवधि दुगुनी हो जायगी । यह स्थिति हिमयुग को आमंत्रित करेगी । इसके विपरीत यदि सूर्य से पृथ्वी की दूरी वर्तमान दूरी से घटकर आधी हो जाय तो सूर्य से मिलने वाली गर्मी चार गुनी अधिक बढ़ जायेगी । फलतः ऋतुओं की लम्बाई आधी रह जायगी । साथ ही धरती इतनी अधिक गरम हो जायगी कि प्राणी, वृक्ष-पादप सभी जलकर खाक हो जायेंगे । इस समय पृथ्वी का जो आकार है, सूर्य से जितनी दूरी है, अयन में घूमने का उसका जो वर्तमान वेग है, वे सभी जीवन धारण करने के अनुकूल हैं ।
गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय तो भौतिकविदों के वह प्रतिपादन तर्कपूर्ण नहीं लगते कि पृथ्वी सृष्टि के आदि में जलवा हुआ आग का एक गोला थी जो कालान्तर में अनेकानेक परिवर्तनों से गुजरने के बाद अपने आप इस योग्य बन गयी कि जीवधारी जीवनयापन कर सकें । जीवन धारण करने योग्य बनने के लिए पृथ्वी ने जितने रूप बदले हैं, वे इतने अधिक एवं सुव्यवस्थित हैं कि उन्हें आकस्मिक नहीं माना जा सकता । एक सुनिश्चित गति एवं कक्षा में पृथ्वी सतत् परिभ्रमणशील है । यह सतत् अपनी धुरी पर घूमती रहती है, जिससे एक के बाद एक दिन और रात बनते हैं । सूर्य के चारों ओर पृथ्वी का घूमना एक दूसरे प्रकार की गति है । गैलीलियो तथा ब्रूनो नामक वैज्ञानिकों ने इन्हीं दो गतियों की खोज की थी , पर भारत के महान ज्योतिर्विद् आर्यभट्ट ने सदियों पूर्व इन दोनों ही तरह की गतियों का वर्णन “आयंगौः पृश्निर क्रमीदसदन्मातरं पुरः” मन्त्र में किया है । इन दोनों गतियों के कारण ही पृथ्वी के परिभ्रमण में स्थिरता आती है । वह अपने ध्रुवीय अक्षों पर घूमते हुए साढ़े तेईस अंश पर झुकी हुई है । ऋतुओं की नियमितता का कारण यह झुकाव ही है । उल्लेखनीय है कि यदि झुकाव एवं गति की विशेषताएँ न होतीं तो पृथ्वी पर विविध प्रकार की वृक्ष-वनस्पतियों का अस्तित्व भी न होता । झुकाव न होता तो समुद्री भाप उत्तर से दक्षिण तक फैल जाती और सर्वत्र बर्फ के महाद्वीप बन जाते । पृथ्वी की स्थिरता जड़ता को जन्म देती और वह ‘शस्य श्यामला’ नहीं दिखायी पड़ती । ध्रुवीय अक्ष पर पृथ्वी के झुकाव में पड़ने वाले थोड़े अन्तर से गंभीर संकट उत्पन्न हो सकते हैं ।
सभी जीवधारियों एवं वृक्ष-वनस्पतियों का अस्तित्व जल, वायु और प्रकाश पर टिका हुआ है । ये तीनों ही जीवनदायी तत्व पृथ्वी पर केवल प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं, वरन् उनका एक सुनिश्चित चक्र एवं संतुलन है जिसके डगमगाते ही भारी संकट उत्पन्न हो सकता है । इसी तरह प्रगति की दिशा में अनवरत बढ़ते रहने के लिए उस दूरदर्शी सर्व समर्थ सत्ता ने वन संपदा, खनिज सम्पदा, पेट्रोलियम आदि पदार्थ दिये हैं । इनका मानवी सभ्यता के विकास में विशेष योगदान है । वे मनुष्य के हाथ न लगी होतीं तो उसकी बौद्धिक प्रखरता-युग की भाँति पत्थरों से खेलता होता । पर धन्यवाद उस स्रष्टा को, उस कलाकार को जिसने कि भूमण्डल की अनुकूलतायें देकर अपनी महानता का परिचय दिया ।
जड़ परमाणुओं के संघात से दृष्टि के अकस्मात् बनने जैसे निराधार तथ्यों का प्रतिपादन करने वाले तथाकथित बुद्धि सम्पन्नों के लिए सदियों पूर्व प्रख्यात दार्शनिक फ्राँसिस बेकन ने कहा था कि “थोड़ी वैज्ञानिक बुद्धि तथा दार्शनिकता आदमी को नास्तिकता की ओर ले जाती है, पर गंभीर शोध बुद्धि एवं गहन दार्शनिकता मनुष्य को आस्तिकता की ओर ले जाती है । अतएव सृष्टि के नियामक सत्ता के संदर्भ में इन्कार करने के पूर्व गंभीरता से विचार करना चाहिए ।”
सचमुच ही अन्वेषक दृष्टि विकसित हो जाय तथा गहराई से मनुष्य खोज-बीन करे तो अपने ही चारों ओर उसे समर्थ अदृश्य सत्ता के अनेकों प्रमाण मिल जायेंगे । तब वह चाहे वैज्ञानिक ही क्यों न हो, विख्यात रसायन शास्त्री थामस डेविड पार्क्स की भाँति अपनी भाषा में कह उठेगा कि-”मेरे चारों ओर जितना भी यह दृश्य जगत है, मैं उसमें नियम और प्रयोजन देखता हूँ । मुझे वह मान्यता निराधार जान पड़ती है कि सभी पदार्थ एवं पदार्थों से युक्त यह सृष्टि अकस्मात् मात्र परमाणुओं के संघात से विनिर्मित है । मैं तो सर्वत्र कण-कण में बुद्धि जो अचिन्त्य है, अगोचर है । उस महती बुद्धि जो अचिन्त्य है, अगोचर है । उस महती बुद्धि को ही मैं ‘परमात्मा’ कहता हूँ।”