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Magazine - Year 1992 - Version 2

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अश्वमेध यज्ञ सौर शक्ति के संदोहन की प्रक्रिया

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अगर हम यह जानना चाहें कि सूर्य का मानव जीवन से क्या सम्बन्ध है? तो विज्ञान की भौतिक उपलब्धियों को ही देखकर संतुष्ट नहीं रह जाना होगा वरन् उस संदर्भ में भारतीय अध्यात्म पर भी विचार करना जरूरी है। पाश्चात्य देशों में उसे जलवायु वनस्पति और दृश्य जगत में परिवर्तनों के लिये प्रमुख उत्तरदायी माना जाता है। किन्तु साधना विज्ञान के आचार्यों का मत है कि मनुष्य की भावनाओं का भी सूर्य से घनिष्ठतम सम्बन्ध है। गैलीलियो ने इसी सूक्ष्म विज्ञान पर प्रकाश डालते हुये कहा था- दिखाई देने वाला सूर्य सम्पूर्ण है ही नहीं। वास्तविक सूर्य तो एक प्रकार की चेतना है जो सौर मण्डल के प्रत्येक परमाणु में प्रतिभासित हैं यही नहीं परमाणुओं पाये जाने वाले सौर बीज उतने ही शक्तिशाली और समर्थ है जितना स्वयं सूर्य। उस समय तो इन बातों की उपेक्षा की गई पर बाद में वैज्ञानिकों ने विस्तृत अध्ययन किया और अब तक जो कुछ जाना गया है उससे यह बात सिद्ध हो चुकी है कि मनुष्य पूर्णतया सूर्य पर आश्रित हैं उससे मानसिक सम्बन्ध स्थापित करके अनेक प्राकृतिक रहस्य और शक्तियां प्राप्त करने एवं आत्म विकास में प्रकाश पाने की विस्तृत खोज इस देश में गायत्री विद्या के नाम से हुई।

मनुष्य का शरीर सूर्य और पृथ्वी के तत्वों के सम्मिश्रण से बना है इसलिये शारीरिक ओर मानसिक दृष्टि से शरीर पृथ्वी से ही प्रभावित नहीं होते वरन् उन पर सूर्य का भी प्रचण्ड हस्तक्षेप रहता है हम यदि शरीर पर विचार करें तो प्रतीत होगा कि अन्न जल आदि पृथ्वी का रस सेवन करने से हमारे शरीर में ऑक्सीजन नाइट्रोजन कार्बन लोहा गन्धक आदि तत्व उत्पन्न होते है वहाँ उसमें इन तत्वों से भी सूक्ष्म प्राण शक्तियां क्रियाशील है। प्राण के द्वारा ही हमारे शरीर में स्पन्दन है। छींकना जम्हाई लेना निद्रा पलक झपकाना आदि क्रियायें प्राण के द्वारा ही सम्भव है। यह क्रियायें जड़तत्त्व नहीं कर सकते। प्राण इन सब तत्वों से अधिक सूक्ष्म है। इसलिये वह पहचान में नहीं आता पर गायत्री विज्ञान के द्वारा इसे आसानी से समझा जा सकता है।

खगोल शास्त्रियों के मतानुसार सूर्य में मूलतः दो ही तत्व है एक हाइड्रोजन दूसरा हीलियम। सूर्य हाइड्रोजन का आहार करके उसे हीलियम में बदल देता है। इसी से उसमें शक्ति आती है ताप व प्रकाश उत्पन्न होता है। यदि यह क्रिया न होती तो सूर्य दिखाई भी न देता, दिखाई केवल उतना हिस्सा देता है जहाँ क्रिया होती है। अन्यथा सूर्य सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी तत्व है। अब चाहे उसे आत्मा कहें प्राण पुँज कह ले, या किसी को यह भ्रांति है कि सूर्य अध्ययन करना चाहिये। उससे पता चलेगा कि सूर्य में यज्ञ कुण्ड के समान लपटें ही नहीं फूटती वरन् उसमें से ऊर्जा भंवर जो कि प्रकाश गर्मी और विद्युत का सम्मिश्रण है। फूटता रहता है।

कुछ इसी तरह की क्रिया हमारे शरीरों में होती है। विचारों के रूप में इसी तरह की ऊर्जा हमारे शरीरों में विद्यमान है यह केवल स्पन्दन जैसी क्रिया है इसलिये दिखाई नहीं देती पर हमारे शरीर की अधिकांश शक्ति इसी तरह अभिव्यक्ति होती है।

यदि मनुष्य को विभिन्न स्थूल तत्वों वाला प्राणी कहें तो सूर्य को भी उन्हीं शक्तियों का सूक्ष्म गैसीय स्थिति का विचारशील प्राणी मानना पड़ेगा। उसकी शक्ति चूंकि अनन्त और विशाल है। वह निरन्तर देता रहता है इसलिये उन्हें देवता नामक आदर सूचक शब्द से सम्बोधन करने की परम्परा रही है। सूर्य को यदि इस अर्थ में भावनाओं और विचारों की केन्द्रीभूत शक्ति मानकर उसके संदोहन की प्रक्रिया अपनाई जा सके तो किसी के लिये भी उससे शारीरिक मानसिक सामाजिक औद्योगिक बौद्धिक और आध्यात्मिक वरदान प्राप्त कर सकना सम्भव है। गायत्री मंत्र द्वारा इसी विद्या का उद्घाटन पृथ्वी पर किया गया है।

इस महामंत्र के 24 अक्षरों के कम्पन समान तत्वों वाले मनुष्य और सूर्य में मानसिक सम्बन्ध स्थापित करने का काम करते है। सूर्य और मनुष्य में तात्विक एकता है। शास्त्रकार का कथन है। सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुपष्च-

सूर्य जगत की आत्मा है। जबकि हमारी चेतना हमारे शरीर जगत की आत्मा है। इन दो चेतनाओं को प्रमाणित से कम्पित और संबंध स्थापित महामंत्र कहते है।

यही कारण है उपासना के तत्व को जानने वालों ने गायत्री माता का ध्यान सदा उदय कालीन सूर्य मण्डल के मध्य में करने की सलाह दी है। शास्त्र वचनों के अनुसार-

गायत्री भावयेद् देवी सूर्यासारकृताश्रयाम्। प्रातर्मध्याहने ध्यान कृत्वा जपेत्सुधी॥ षाकानन्द तरंगिणी 3-4-1

अर्थात् बुद्धिमान मनुष्य को सूर्य के रूप में स्थित गायत्री देवी का प्रातः मध्याह्न और सायं त्रिकाल ध्यान करके जप करना चाहिये।

सूर्य ओर गायत्री सर्वथा अभेद है। इनकी एकता उसी तरह है जैसे अग्नि ओर ऊष्मा की। इनकी इसी एकता को बताते हुये ऋषि कहते है

नमस्ते सूर्य संकारो सूर्य गायत्रिकेडमले।

ब्रह्मविद्ये महाविद्ये वेदमाता नमोडस्तुते॥

हे सूर्य के समान रूप वाली! हे गायत्री! हे अमले! आप ब्रह्मविद्या है आप महाविद्या है तथा वेद माता है आपको मेरा प्रणाम है।

इस महामंत्र की साधना करने वाले में सूर्य शक्ति का प्रवाह आने लगता है। विज्ञान का नियम है कि उच्चतर या अधिक शक्ति का प्रवाह निम्न स्तर अथवा कम शक्ति वाले केन्द्र की ओर तब तक बहता है जब तक दोनों समान न हो जायें। गायत्री से प्राप्त सिद्धियाँ इसी तादात्म्य की परिपक्व अवस्था ही हैं तब मनुष्य इसी भौतिक शरीर में सूर्य चेतना के समान सर्वव्यापी सर्वदर्शी और सर्व समर्थ हो जाता है। वह न केवल जलवायु लोगों के स्वास्थ्य मन की बातें जान लेने की सामर्थ्य पा लेता है बल्कि इससे भी अधिक सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों ओर शक्तियों का स्वामी हो जाता हैं। इन सामर्थ्यों की व्यापकता इतनी अधिक है जिसका विवरण कुछ पंक्तियों में दे पाना सम्भव नहीं। उसमें उन्हीं सी करुणा सद्बुद्धि परार्थ उत्सर्ग की भावना विकसित होने लगती हैं। दूसरे शब्दों में गायत्री उपासक उपासना के साथ-साथ अपने सद्गुण सद् विचारों को अधिक सत्कर्मों में लगाने लगता है।

कोई व्यक्ति जब शांत और प्रसन्न हो उस समय उसके पास भावनापूर्वक निवेदन करने पर उससे आशातीत समर्थन पा सकना सहज सम्भव है। कोई तालाब स्वच्छ और शांत हो तो उस पर एक छोटा सा कंकड़ फेंककर ही तरंगों का उत्पादन किया जा सकता है। यह भाव और विज्ञान दोनों का मिला−जुला रूप है। भारतीय आचार्यों। ने जो आचार संहितायें और वैज्ञानिक प्रयोग किये है वह उक्त सिद्धान्त को दृष्टि में रखकर ही है। परम पूज्य गुरुदेव ने इसी सूक्ष्म दर्शन को दृष्टि में रख समय समय पर कुछ विलक्षण प्रयोग किये है। साधनातत्व के मर्मज्ञों के अनुसार कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशिष्ट रीति से गायत्री उपासनाएं और यज्ञादि प्रक्रियाएं सम्पन्न की जाये तो उनसे सूर्य देव की आध्यात्मिक शक्तियों को विशेष रूप से प्रभावित एवं आकर्षित किया जा सकता है उनसे न केवल अपने लिये वरन् समर्पण समाज राष्ट्र और विश्व के लिये सुख समृद्धि और शांति का अनुदान उपलब्ध किया जा सकता है।

अक्टूबर 1958 का संग्रह कुण्डीय यज्ञ एक ऐसा ही प्रयोग था। पीछे मौसम वैज्ञानिकों ने भी इस मान्यता की पुष्टि कर दी। 1 जुलाई 1957 से 31 दिसम्बर 1958 तक खगोल शास्त्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय शांत सूर्य वर्षों में सूर्य बिल्कुल शांत रहा और वैज्ञानिकों को उस पर अनेक प्रयोग और अध्ययन करने के अवसर मिले। इन्हीं दिनों पूज्य गुरुदेव के निर्देशन में साधकों ने गायत्री की विशेष साधनाएं सम्पन्न की ओर अक्टूबर 1958 में 4 दिन का यज्ञ कर शरदपूर्णिमा के दिन पूर्णाहुति दी। इस प्रयोग के बाद उनके प्रयोगों की श्रृंखला मन्द नहीं पड़ी। प्रज्ञा पुरश्चरण सूर्य ध्यान कल्प साधनाएं महायज्ञों की देशव्यापी श्रृंखला ऐसे ही अध्ययन और प्रयोग का परिणाम रहे हैं इनका उद्देश्य उन उपलब्धियों से सारे विश्व समाज को लाभान्वित कराना है जो ऐसे अवसरों पर देव शक्तियों से सुविधापूर्वक अर्जित की जा सकती है।

इन प्रयोगों के साथ ही विश्व गतिविधियों में भारी हेर फेर उथल पुथल हुई है। न केवल प्रकृति अपने विधान बदल रही है।बल्कि लोगों की भावनाएं और विचार भी बदल रहे हैं पश्चिम जगत की विलासिता प्रिय और भौतिकतावादी जनसमुदाय भी अध्यात्म का आश्रम पाने के लिये आतुर आकुल है। भारतवर्ष तो विश्व परिवर्तन की धुरी है। इसको केन्द्र बनाकर विश्व परिवर्तन की जो हलचलें सूक्ष्म जगत में चल रही है। उन्हें साधना शक्ति सम्पन्न सहज में देख समझ सकते है। इसका प्रत्यक्ष दर्शन 1999 के बाद सभी कर सकेंगे। अपने दैनिक जीवन में सूर्य की शांत स्थिति प्रातः और सन्ध्या के समय होती है। नवरात्रि भी इसी तथ्य को अपने में संजोए है। इन अवसरों पर साधना करने का विज्ञान सूर्य की भौतिक प्रकृति की खोज कर फल है जो पूर्णतया विज्ञान सम्मत है।

दीर्घकालीन कालचक्र के अनुसार इन दिनोँ महाक्रान्ति सम्पन्न होना है। अंतर्राष्ट्रीय शांत सूर्य वर्ष समिति ने 1 जनवरी 64 से दिसम्बर 65 तक दूसरा शांत सूर्य वर्ष मनाया है और यह बताया कि सूर्य में कुछ विशेष स्पन्दन फेक्यूले उत्पन्न हो रहे हैं।

उसके बाद ही सौर कलंक दिखाई देते है और उसके कारण पृथ्वी की जलवायु में विशेष हलचल उत्पन्न होती है। यों सारे कलंकों के कारण पृथ्वी में प्राकृतिक परिवर्तनों का क्रम 11 वर्ष बाद आता है। पर महाकाल की योजना के अनुरूप शीघ्रातिशीघ्र विश्व को परिवर्तित कर डालने के उद्देश्य से यह क्रम अस्त व्यस्त हो गया है। इस अस्त व्यस्तता के परिणाम अतिवृष्टि अनावृष्टि युद्ध महामारियों के रूप में आएंगे। इन प्रकोपों से उन्हीं की रक्षा होती है जो सूर्य शक्ति से सम्बन्ध जोड़े रहेंगे।

भारत वर्ष को गुलामी के बन्धन में लगभग 1500 वर्ष जकड़े रहना पड़ा इसके दुष्प्रभाव अभी भी है गायत्री तत्व के मर्मज्ञों के अनुसार इन दुष्प्रभावों का अन्त इसी सदी के साथ हो जायेगा। ग्रहगणित के अनुसार पृथ्वी को सूर्य की परिक्रमा करने में नौ करोड़ तीस लाख मील की यात्रा करनी पड़ती है। इस यात्रा को पृथ्वी लगभग 67 हजार मील प्रति घण्ट से चलकर 365.25 दिनों में पूरा करती है। प्रत्येक चक्कर में 1-4 दिन बढ़ जाता है। एक नया पूरा वर्ष होकर पृथ्वी को पुनः उसी कक्षा में आने के लिये ..................वर्ष लग जाते है।

ठन 1461 वर्षों का क्रम इसी शताब्दी के अन्त में पूरा होने को है। इस बीच सूर्य की प्रचण्ड शक्तियों का पृथ्वी पर आविर्भाव होगा ओर उनसे वह तमाम शक्तियां नष्ट भ्रष्ट हो जायेंगी जो मानसिक दृष्टि से अध्यात्मवादी न होगी। गायत्री उपासक इन परिवर्तनों को कौतूहलपूर्वक देखेंगे। और उन कठिनाइयों में भी स्थिर बुद्धि बने रहने का साहस उसी प्रकार प्राप्त करेंगे जिस प्रकार माँ का प्यारा बच्चा माता के कुद्ध होने पर भी उससे भयभीत नहीं होता वरन् अपनी प्रार्थना से उसे शांत कर लेता हैं।

ठन दिनों प्रारम्भ की गई भारत भूमि व पूरे विश्व में संपन्न होने वाली अश्वमेध महायज्ञ की योजना पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा से प्रारम्भ किया गया विलक्षण प्रयोग है। इसे 1958 में हुये सहस्रकुण्डीय महायज्ञ का संशोधित परिवर्धित संस्करण कहा जा सकता है। अश्वमेध प्रक्रिया का गायत्री और सूर्य से गहरा सम्बन्ध है। शतपथ

ब्राह्मण के अनुसार-

स्विता वै प्रसैविता सविता मडइमं यज्ञं प्रसुवदिति।

अर्थात् सविता प्रेरक है सविता मेरे इस यज्ञ की प्रेरणा करे। इसी प्रकार गायत्रे जुहोति कहकर गायत्री महामंत्र से आहुति देने का विधान है। इस प्रक्रिया द्वारा निश्चित रूप से मानव जाति को सूर्य शक्ति से जोड़कर समूचे विश्व को अनेकानेक अनुदानों वरदानों से लाभान्वित किया जा सकेगा।

अन्तरिक्ष किरणों उत्तरी ज्योति, पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र आयनोस्फियर पर सूर्य के प्रभावों का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिकों ने यह बताया कि सूर्य अपने आप उत्तेजित होता रहता है। उत्तेजित सूर्य अपने सौरमण्डल का मन्थन करता है। उस समय उससे ज्वालायें फूटती और सूक्ष्मकणों की वर्षा होती हैं यह कण बाद में कही विलीन हो जाते हैं यह पता तो वैज्ञानिक नहीं लगा पायें पर आत्मविद्या के आचार्यों के अनुसार सृष्टि के प्रत्येक अणु अणु में यह उत्तेजित कण ही हलचल पैदा करते है। उससे स्थूल प्रकृति ही नहीं मनुष्य की सूक्ष्म प्रकृति भी प्रभावित होती है। विचार भावनायें संकल्प और विश्वास भी परिवर्तित होते है, इस परिवर्तन का आकलन यद्यपि वैज्ञानिकों के बूते का नहीं है लेकिन सामूहिक रूप से विश्व की राजनीति उद्योगों व्यापार श्रम रोजगार युद्ध और सामाजिक गतिविधियों पर उसके प्रभाव को देखकर वस्तुस्थिति को समझा जा सकता है।

साधनागम्य इन रहस्यों की जो अनुभूति कर सकेंगे उन्हें अश्वमेध प्रक्रिया के प्रयोजन और

सत्परिणाम अविदित नहीं रहेंगे। वे तेजी से गायत्री विद्या के अन्तराल में प्रविष्ट होंगे। साधना ज्ञानार्जन ओर संयम में उनकी वृत्ति बढ़ेगी ऐसे लोग ही आगे चलकर विश्व का मार्गदर्शन करेंगे।

गायत्री तत्व मर्मज्ञों के अनुसार विश्व रचना में दो ही तत्व है देव या प्रण भूत या पदार्थ। प्राण के बिना पदार्थ। प्राण के बिना पदार्थ गतिशील नहीं होता। पंचभूतों से बना मनुष्य का शरीर गायत्री के अक्षर वायु में विलीन हो जाते हैं। उसी तरह मनुष्य शरीर भीतर उत्पन्न होकर विलीन हो जाता है। उसका दूसरा चरण प्राण सविता का अधिष्ठान है। उसका दृश्य भाग भौतिक होने पर भी अदृश्य मनोमय है। इस रूप में सूर्य सर्वाधिक शक्तिशाली है। ऋषियों ने सूर्य को त्रयी विद्या कहा है। अर्थात् उसमें स्थूल तत्व जिसमें शरीर बनते है प्राण जिनसे चेतना आती है और मन जो चेष्टाएं करता है तीनों तत्व विद्यमान है। गायत्री मंत्र साधना के माध्यम से जब सूर्य के साथ स्वयं को जोड़ते है तो हमें उसके आध्यात्मिक लाभ स्वास्थ्य तेजस्विता मनस्विता के रूप में मिलते है। अश्वमेध प्रक्रिया का एक महान प्रयोजन मानव समाज को इस विद्या का ठीक ठीक ज्ञान देना है। ताकि धरती पर सुख शांति और समृद्धि का कोई अभाव न रहे। युग परिवर्तन की सन्धि और संक्रान्ति अवस्था में उन लोगों को अधिक श्रेय सम्मान मिलेगा, जो इस तत्व ज्ञान का अवगाहन कर सारे विश्व में इस आलोक को फैलाने का प्रयत्न करेंगे।

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