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Magazine - Year 1992 - Version 2

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Language: HINDI
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सूक्ष्म जगत का परिशोधन−पराप्रकृति का अवगाहन

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अश्वमेध यज्ञ के समस्त क्रिया−कलापों का गम्भीर पर्यवेक्षण करने पर इसे सूक्ष्म−जगत के परिशोधन और जनमानस के परिष्कार का बहुमूल्य प्रयोग माना जा सकता है। यज्ञ के भौतिक विज्ञान की ही तरह इसका सूक्ष्म विज्ञान भी है। उसके तत्वज्ञान और विधि−विधान में ऐसे तत्व विद्यमान हैं, जो सूक्ष्म जगत के अदृश्य वातावरण में देवत्व की मात्रा बढ़ाते हैं। उससे सर्वजनीन सुख−शान्ति में अदृश्य सहायता मिलती है। इनसे वायुशोधन की उपयोगिता अपने स्थान पर है, पर वास्तविकता दूसरी ही है। वायुशोधन की अपेक्षा वातावरण का निर्माण इनका प्रमुख प्रयोजन है। पवित्र वेद मंत्रों का सस्वर उच्चारण−विश्वचेतना में पवित्रता के तत्व भरने वाले दिव्य कंपन करता है। सामान्य आग को यज्ञाग्नि−देवाग्नि बनाने का काम अध्वर्यु−उद्गाता जैसे विशिष्ट याजकों की श्रद्धा और संकल्पशक्ति करती है। पवित्र हवन द्रव्यों के जलने से उत्पन्न हुई ऊर्जा से सूक्ष्म−जगत में उपयोगी परिवर्तन होते हैं। अश्वमेध प्रयोग में ऐसे−ऐसे अनेक आधारों का समन्वय है जिनका सम्मिलित प्रभाव वातावरण में ऐसे उपयोगी तत्वों का समावेश करता है जो अविज्ञात रूप से विश्वकल्याण की भूमिका सम्पन्न कर सकें।

आज तो वायु प्रदूषण की ही विभीषिका पर चर्चा होती है। अणु विकिरण में विषाक्तता, कोलाहल की प्रतिक्रिया पर ही चिन्ता व्यक्ति की जाती है। तत्वदर्शी मनीषियों को सूक्ष्म वातावरण की चिन्ता इससे भी अधिक रहती है, वे जानते हैं कि वातावरण का प्रवाह मानवी तूफानों से भी अधिक सशक्त होता है। वातावरण के साँचे में व्यक्तियों का समूह खिलौने की तरह ढलता चला जाता है। अनेक देशों की क्षेत्रों की परिस्थितियाँ, प्रथाएँ और मान्यताएँ रुचियाँ और संस्कृतियाँ भिन्न−भिन्न हैं। उनमें जो बालक उत्पन्न होते हैं वे वातावरण के प्रभाव से उसी प्रकार की मनोवृत्ति प्रकृति अपनाते चले जाते हैं। उनके चिन्तन, स्वभाव और क्रिया−कलाप लगभग वैसे ही होते हैं, जैसे कि उस प्रदेश में रहने वाले लोगों के समय का प्रभाव युग का प्रवाह इसी को कहते हैं। सर्दी−गर्मी का मौसम बदलने पर प्राणियों के, वनस्पतियों के तथा पदार्थों के रंग−ढंग ही बदल जाते हैं। गतिविधियों में ऋतु के अनुकूल बहुत कुछ परिवर्तन होते हैं।

विज्ञानवेत्ता जानते हैं कि पृथ्वी पर जो कुछ विद्यमान है और उत्पन्न उपलब्ध होता है, वह सब अनायास नहीं है और न उन सबको मानवी उपार्जन कह सकते हैं। यहाँ ऐसा बहुत कुछ होता है, जिनमें मनुष्य का नहीं सूक्ष्म शक्तियों का हाथ होता है। सूर्य पर दीखने वाले धब्बे उसकी स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। उस परिवर्तन का पृथ्वी पर भारी असर पड़ता है। उनसे पदार्थों की स्थिति और प्राणियों की परिस्थिति में आश्चर्यजनक हेर−फेर होते हैं। विकरण, चुम्बकीय तूफान अन्धड़, चक्रवात किस प्रकार सामान्य परिस्थितियों को असामान्य बनाते हैं, यह सभी जानते हैं। अन्तरिक्षीय अदृश्य शक्ति वर्षा से कई बार धरती पर हिमयुग आए है। जलप्लावन, समुद्री परिवर्तन और खण्ड प्रलय के दृश्य उपस्थित हुए हैं। भविष्य में जो पृथ्वी के पदार्थों अथवा प्राणियों, मनुष्यों की स्थिति में जो असाधारण परिवर्तन होने वाला है उसका निमित्त कारण सामान्य घटनाक्रमों में नहीं वरन् अन्तरिक्षीय अदृश्य हलचलों में ही पाया जा सकता है।

यों व्यक्ति अपने निजी जीवन में सर्वथा स्वतन्त्र और सशक्त है। इतना होता हुए भी विशाल ब्रह्मांड में गतिशील हलचलों और परिस्थितियों में उसका स्थान नगण्य है। सिर पर खड़े पानी से लदे बादल तक को वह बरसा नहीं सकता। मौत−बुढ़ापे को रोकने तक में असमर्थ है। परिस्थितियों पर उसका अधिकार नगण्य है। प्रवाहों में वह अपना यत्किंचित् बचाव ही कर पाता है। सर्दी उसके बूते रुकती नहीं, कपड़े लादकर, आग ताप कर आत्म रक्षा भर में आँशिक सफलता पा लेता है।

यहाँ एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है−कि क्या मनुष्य वातावरण के सामने सर्वथा असहाय−असमर्थ है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्म प्रवाहों को प्रभावित करने−बदलने और अनुकूल करने की मानवी चेतना में समर्थता विद्यमान है। जीव ईश्वर का अंश है। मानवी चेतना, ब्रह्मांडव्यापी चेतना का एक भाग है। अंश में अंशी की सारी विशेषताएँ मूल रूप से विद्यमान रहती हैं और प्रयत्नपूर्वक वे मूलसत्ता के समान स्तर तक विकसित हो सकती हैं। बीज तुच्छ है किन्तु वह जिस पेड़ का अंश है उसी स्तर तक विकसित होने की सम्भावनाएँ उसमें पूरी तरह विद्यमान हैं। बीज को अवसर मिले तो वह अपनी मूलसत्ता वृक्ष के समान फिर विकसित हो सकता है। जीवात्मा की प्रखरता बढ़ती रहे तो उसकी विकास प्रक्रिया उसे महात्मा, देवात्मा एवं परमात्मा बनने की स्थिति तक पहुँचा सकती है।

जड़ प्रकृति का वैभव विस्तार बहुत है। फिर भी उस पर नियंत्रण चेतना का ही है। शरीर का अस्तित्व एवं क्रिया−कलाप तभी तक है जब तक कि उसमें प्राण सत्ता काम करती है। यह दृश्य−संसार ब्राह्मी चेतना का कलेवर है। प्रकृति ब्रह्म की छाया मात्र है। ब्रह्म जगत ही वास्तविक जगत है। प्रकृति जगत की जड़ता पर चेतना की ब्रह्मसत्ता का ही नियंत्रण है। विकसित जीवात्मा ब्रह्म−जगत से अपने का सम्बद्ध ही नहीं करती वरन् उसके साथ एकाकार होकर इतनी सक्षम भी बन जाती है, कि प्रकृति प्रवाह में आवश्यक हेर−फेर कर सके।

चेतना के संघात से वातावरण में वाँछित परिवर्तन किए जाने सम्भव हैं। अदृश्य जगत में कई बार ऐसी प्रेरणाएँ उभरती हैं जिनके आँधी−तूफानों में मनुष्यों के मस्तिष्क पत्तों और तिनकों की तरह उड़ने लगते हैं। युद्धोन्माद ऐसे ही उभरते हैं। उन दिनों अधिकाँश लोग लड़ने की आवश्यकता अनुभव करता और उसके लिए उतारू दिखते हैं। एक अजीब सा आवेश छाया रहता है। कहने की आवश्यकता पड़ती है न समझाने की। हवा में तेजी और गर्मी ही कुछ ऐसी होती है जिसके कारण सामान्य मस्तिष्क एक प्रकार से सम्मोहक स्थिति में रहता और प्रवाह में बहता दिखाई पड़ता है। बड़े युद्धोन्माद एवं स्थानीय दंगों, फिसादों में वातावरण किस प्रकार उत्तेजित आतंकित होता है, उसे जन−मनोवृत्ति शास्त्र के अध्येता भली प्रकार जानते हैं। कुछ इसी तरह समय−समय पर दूसरे सूक्ष्म प्रवाह भी अपने−अपने समय पर उभरते रहे हैं और असंख्य मस्तिष्कों को बहा ले जाने में आँधी−तूफान का काम करते रहे हैं।

प्रजातन्त्र की लहर एक समय चली और उसने राजतन्त्र को संसार भर से उखाड़ फेंकने और उसके स्थान पर जनवाद सरकार बनाने का चमत्कार उत्पन्न कर ही दिया। एक लहर साम्यवाद की उभरी, उठी−फैली और विलीन होने लगी। लहर लहर ही है। ज्वार−भाटा की भयंकरता, समुद्रतटवासी समय−समय पर देखते रहते हैं, कई तरह के विचार प्रवाह भी कई बार ऐसे आते हैं। जो अपने साथ असंख्यों को समेटते−घसीटकर कहीं से कहीं उठा कर उड़ाकर ले जाते हैं।

महात्मा बुद्ध का धर्मचक्र प्रवर्तन साधन प्रधान नहीं प्रवाह प्रधान था। साधनों से प्रवाह उत्पन्न नहीं किया गया था, प्रवाह ने साधन खड़े कर दिए थे। बुद्ध ने हवा गरम की और उसकी गर्मी से लाखों सुविज्ञ, सुयोग्य और सुसम्पन्न व्यक्ति अपनी आत्माहुति देते हुए धर्म सैनिकों की पंक्ति में अनायास ही आ खड़े हुए। धर्म प्रवर्तकों में से प्रत्येक ने अपने−अपने समय में अपने−अपने ढंग से वातावरण को गरम करने परिशोधित करने वाली भाव तरंगें उत्पन्न की हैं और उस प्रवाह में असंख्य व्यक्ति बहते चले गए। अदृश्य और सूक्ष्म वातावरण के तथ्य तथा रहस्य को जो लोग जानते हैं, वे समझते हैं कि इस प्रकार के प्रवाह कितने सामर्थ्यवान होते हैं। उनकी तूफानी शक्ति की तुलना संसार की किसी और शक्ति से नहीं हो सकती।

अश्वमेध महायज्ञों की श्रृंखला का एक पक्ष−व्यक्तित्व परिष्कार−समाजनिष्ठ के प्रशिक्षण का है। चरित्रनिष्ठ और समाजनिष्ठ की गरिमा और उपयोगिता को इन महायज्ञों के साथ जुड़े हुए विशिष्ट कर्मकाण्डों की व्याख्या और विवेचना में ढूँढ़ा−खोजा, सीखा−समझाया जा सकता है। इस कसौटी पर कसने पर इसे ऐसा श्रद्धासिक्त−उपचार कह सकते हैं जिसके माध्यम से उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व का धर्म शिक्षण सर्वसुलभ बनता है। अश्वमेध के इस ज्ञान पक्ष की उपयोगिता का जितना महात्म्य कहा जाय उतना ही कम है।

लेकिन इस पक्ष से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और समर्थ इसका दूसरा पक्ष है। जिसके द्वारा सूक्ष्म वातावरण में आवश्यक गर्मी और तेजी पैदा की जाती है। साथ ही दृश्यजगत में वह आधार भूमि तैयार करनी है, जिस पर अदृश्य शक्तियाँ क्रियाशील हो सकें। सूक्ष्म प्रवाह के सहयोगी बनने से अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्राप्त करने की सम्भावना सुनिश्चित हो जाती है। हवा का रुख पीठ पीछे से हो तो जलयानों से लेकर पैदल चलने वाले को बहुत सुविधा हो जाती है और मार्ग जल्दी−जल्दी सरलता से पूरा हो जाता है। युग परिवर्तन के लिए हमें वातावरण के अनुकूलन के लिए कुछ ऐसे ही प्रचण्ड प्रयास करने हैं। अश्वमेध आयोजन इसी प्रयोजन के लिए सम्पन्न किया जा रहा दिव्य प्रयोग है।

विशिष्ट आध्यात्मिक उपचारों की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न करके वातावरण में व्यापक फेर−बदल की जानी है। प्रखर प्रतिभाएँ अपनी प्राण शक्ति से युग को बदलती हैं। अवतारी महामानव समय के प्रवाह को उलटते हैं। ठीक इसी प्रकार अश्वमेध प्रयोग से पैदा हुई चेतनात्मक प्रचण्ड ऊर्जा सूक्ष्म−जगत को परिष्कृत करके उसे इस योग्य बना दे कि सुख शान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगें और उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ दैवी अनुग्रह की तरह उमड़ती−उभरती चली आयें।

सूक्ष्म वातावरण का परिशोधन करने के लिए, पहले भी अध्यात्म विज्ञानियों द्वारा कतिपय दिव्य उपचार समय−समय पर किये गए हैं। इसके प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं। रावण काल में विक्षुब्ध वातावरण को समाहित करने का काम बाकी रह गया था। भगवान राम ने इसी हेतु दस अश्वमेधों की संकल्प श्रृंखला पूरी की। कंस, दुर्योधन−जरासन्ध जैसे असुरों के न रहने पर भी महाभारत काल के विक्षोभ, वातावरण में भरे रहे। भगवान कृष्ण ने उनका समाधान आवश्यक समझा और पाण्डवों ने अश्वमेध रचाया। महर्षि विश्वामित्र अपने समय की असुरता को दुर्बल बनाने के लिए जो बृहत् यज्ञ रच रहे थे, वह भी कुछ इसी स्तर का विशिष्ट यज्ञ प्रयोग था। उसका पता असुरों को चल गया और वे ताड़का, सुबाहु, मारीच के नेतृत्व में उसे नष्ट करने के लिए आक्रमण करने लगे। राम−लक्ष्मण को यज्ञ की रक्षा के लिए जाना पड़ा। प्रयोग सफल हुआ परिणाम में असुर विनाश की परम्परा चल पड़ी।

ये सभी अपने समय की बड़ी क्रान्तियाँ थीं। यों साधारण अर्थों में क्रान्तियाँ तोड़−फोड़ बदलाव परिवर्तन को कहते हैं। उसमें उखाड़−पछाड़ का ध्वंसात्मक पक्ष आगे रहता है। यह मौलिक पक्ष हुआ। आत्मिक पक्ष में सृजन को प्रधान रखना होता है, ताकि ध्वंस की स्थिति ही न आये। अन्धेरे को पीटने की अपेक्षा यह अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण है कि प्रकाश की व्यवस्था बनाई जाय। अश्वमेध प्रयोग के द्वारा जो उच्चस्तरीय प्रयास इस दिनों किया जा रहा है उसमें प्रत्यक्षतः समावेश तो रचनात्मक कार्यक्रमों का रहेगा पर मूलतः उसे वातावरण परिशोधन की प्रक्रिया ही समझा जाना चाहिए। जिससे पराप्रकृति को द्रवित कर मनोवाँछित प्रतिफल प्राप्त किए जायेंगे।

इसे ऐतिहासिक प्रयत्नों के पुनरावर्तन के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है। जिसके द्वारा अन्तरिक्ष में प्रदूषण क्रन्दन और विनाश की विषाक्तता परिशोधित हो सकेगी। सूक्ष्म−जगत को असाधारण रूप से प्रभावित − परिमार्जित करने वाले इस महाअभियान को वैदिक ऋषियों−सतयुग के महामनीषियों के मार्गदर्शन का अनुगमन ही कहा जाएगा। इसके द्वारा सत्प्रवृत्तियों का अनुपात जिस क्रम से बढ़ेगा−दुष्प्रवृत्तियाँ उसी क्रम से घटती चली जाएँगी। विघातक तत्वों का सहज निराकरण होता चला जाएगा और युगक्रांति का उद्देश्य सुगमतापूर्वक पूरा हो सकेगा।

इन यज्ञों की श्रृंखला में युगक्रान्ति के स्थूल और सूक्ष्म स्तर के उन सभी तत्वों का समावेश है−जो जनमानस को−व्यापक वातावरण को परिष्कार करके इक्कीसवीं सदी को उज्ज्वल भविष्य के रूप में बदल सकते हैं। इन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए−व्यक्ति समाज−प्रकृति और विश्व को बदलने वाले सूक्ष्मधाराओं का अवतरण करा सकने में समर्थ−अश्वमेध यज्ञों की विशिष्ट योजना का क्रियान्वयन किया जा रहा है।

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