• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • कर्ज (Kahani)
    • इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी
    • सभ्यता की पूँजी एक सर्वश्रेष्ठ निधि
    • पतन क्रम (Kahani)
    • क्या मृत व्यक्ति में प्राण संचार संभव है?
    • महाप्रभु की महाकृपा
    • प्रज्ञायोग की साधना - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • अन्तःकरण की हूक
    • अन्तःकरण की हूक (Kavita)
    • मानव मस्त फकीर रे!
    • मानव मस्त फकीर रे! (Kavita)
    • पुनर्स्थापित विशेष लेखमाला-2 - प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत
    • VigyapanSuchana
    • युगव्यास पूज्यपाद गुरुदेव कर- - सम्पूर्ण वाङ्मय अब सबके लिये उपलब्ध!
    • अपनों से अपनी बात- - प्रज्ञावतार के लीला संदोह में भागीदारी का अब यह अंतिम अवसर
    • VigyapanSuchana
    • आत्मविजेता ही विश्वविजेता
    • एक साधना, एक योगाभ्यास
    • गृहस्थ जीवन का मर्म (Kahani)
    • माया से उठ कर ही होती है परमसत्ता की अनुभूति
    • एलिजाबेथ नोरथ (Kahani)
    • भोगी बनें कि उद्योगी?
    • द्रौपदी की विशालता (Kahani)
    • सहस्रार जगायें, दिव्य क्षमता पायें
    • कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ
    • सूक्ष्म के जागरण की विधाः गायत्री साधना
    • कष्टों का अर्थ यह तो नहीं कि ईश्वर है ही नहीं
    • महाकाली का पुत्र
    • यदि प्रसुप्त को जगाया जा सके
    • देखते-देखते वे धरती के गर्भ में विलुप्त हो गए
    • प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र -मन
    • अमरत्व सृष्टि के नियमों के विपरीत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • कर्ज (Kahani)
    • इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी
    • सभ्यता की पूँजी एक सर्वश्रेष्ठ निधि
    • पतन क्रम (Kahani)
    • क्या मृत व्यक्ति में प्राण संचार संभव है?
    • महाप्रभु की महाकृपा
    • प्रज्ञायोग की साधना - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • अन्तःकरण की हूक
    • अन्तःकरण की हूक (Kavita)
    • मानव मस्त फकीर रे!
    • मानव मस्त फकीर रे! (Kavita)
    • पुनर्स्थापित विशेष लेखमाला-2 - प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत
    • VigyapanSuchana
    • युगव्यास पूज्यपाद गुरुदेव कर- - सम्पूर्ण वाङ्मय अब सबके लिये उपलब्ध!
    • अपनों से अपनी बात- - प्रज्ञावतार के लीला संदोह में भागीदारी का अब यह अंतिम अवसर
    • VigyapanSuchana
    • आत्मविजेता ही विश्वविजेता
    • एक साधना, एक योगाभ्यास
    • गृहस्थ जीवन का मर्म (Kahani)
    • माया से उठ कर ही होती है परमसत्ता की अनुभूति
    • एलिजाबेथ नोरथ (Kahani)
    • भोगी बनें कि उद्योगी?
    • द्रौपदी की विशालता (Kahani)
    • सहस्रार जगायें, दिव्य क्षमता पायें
    • कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ
    • सूक्ष्म के जागरण की विधाः गायत्री साधना
    • कष्टों का अर्थ यह तो नहीं कि ईश्वर है ही नहीं
    • महाकाली का पुत्र
    • यदि प्रसुप्त को जगाया जा सके
    • देखते-देखते वे धरती के गर्भ में विलुप्त हो गए
    • प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र -मन
    • अमरत्व सृष्टि के नियमों के विपरीत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1995 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


माया से उठ कर ही होती है परमसत्ता की अनुभूति

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 19 21 Last
माया क्या है? विज्ञान की दृष्टि से इस पर यदि विचार करें, तो ज्ञात होगा कि यह चार तथ्यों पर आधारित है। यह है-टाइम स्पेन, मौसम और कजेशन। यही हमें बन्धन में बाँधते है। इनसे ऊपर उठना ही मुक्ति है।

इस दिशा में प्रथम कदम तब उठा, जब सापेक्ष बाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया और यह बताया गया कि जब तक हम एक-चौथे आयाम (समय) की कल्पना नहीं करते, तब तक वस्तुओं के स्वरूप को भली-भाँति समझ सकना संभव नहीं, कारण कि इस संसार में सब कुछ समय की सीमा से बँधा है। मानवी जीवन भी उस सीमा बन्धन का ही एक भाग है। हम यहाँ जो कुछ भी सोचते -विचारते हैं, वह सब बातें आयु के अंतर्गत की ही होती है। जीवन से पूर्व ओर मृत्यु के बाद की कल्पना कर सकना कहाँ सम्भव होता है? इसलिए हमारी गतिविधियों का सीधा सम्बन्ध इस ‘समय’ से ही है। उसके बाहर का कोई भी संसार हमारे मस्तिष्क में नहीं आता।

होना चाहिए कि हम परम समय (एबसाँल्यूट टाइम) को ध्यान में रख कर ही अपने क्रिया−कलाप निर्धारित करें। भारतीय आचार्यों ने आचार-संहिता तैयार करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखा था और इस बात की व्यवस्था की थी कि मनुष्य उपासना, साधना, संयम, सेवा, सदाचार का पालन करता हुआ अपने भौतिक कर्तव्य पूरे करें। इस प्रकार आध्यात्मिक जीवन द्वारा अपनी आत्मशक्ति संवर्धित करता हुआ अन्ततः उस भूमिका में पहुँचें, जहाँ समस्त लौकिक बन्धन ढीले पड़ जाते है। इस विज्ञता का ही परिणाम है कि भारतीय जीवन शैली आज भी अपने ही ढंग की है। उसमें पाश्चात्य ढंग के विचारों के लिए कोई स्थान नहीं।

‘समय’ की ही तरह हम स्पेस अर्थात् ‘देश’ से बंधे हैं अब जब विज्ञान और समाजशास्त्र ने इतनी उन्नति कर ली है कि सारी पृथ्वी एक परिवार की तरह हो गई है हम अपने तक, अपने देश तक सीमित होकर नहीं रह सकते। हमारी प्रत्येक क्रिया का प्रभाव समस्त विश्व पर पड़ता है और सम्पूर्ण संसार के क्रिया–कलापों से हम प्रभावित होते है। पिछले दिनों पश्चिम के कुछ समृद्ध देशों द्वारा सी.एफ. सी गैस का निर्माण इतने बड़े पैमाने पर हुआ कि पर्यावरण पर उसका दुष्प्रभाव तत्काल सामने आया इसे देखते हुए संपूर्ण विश्व में इसके निर्माण पर रोक लगाने की बात जोर पकड़ रही है, ताकि पर्यावरण की सुरक्षा की जा सके। इस प्रकार आज स्वार्थवश कोई भी कार्य ऐसा नहीं किया जा सकता, जिससे कुछ लोगों को लाभ हो और शेष समुदाय को हानियाँ उठानी पड़े। हमें कुछ भी कार्य करने से पूर्व सम्प्रति उसके लाभ-हानि का लेखा जोखा लेना पड़ता और यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि जो कार्य हमारे लिए लाभकारी है, वहीं विश्व-समुदाय के लिए कहीं नुकसान देह तो नहीं सिद्ध होने जा रही है। इस प्रकार इन दिनों हमें सम्पूर्ण पृथ्वी के बारे में सोचना पड़ता है। कबीले वासी सिर्फ अपने समुदाय का विचार करते है, कारण कि उनकी दुनिया उतनी ही बड़ी होती है। आज मनुष्य इतना सीमित-संकीर्ण बना नहीं रह सकता। उसे संसार के शेष लोगों के हित-साधन पर ध्यान देना अनिवार्य हो गया है। इस तरह ‘स्पेस’ या स्थान हमें यह बताता है कि हम जितने बड़े संसार से परिचित है, बस उतने के ही दायित्व से जुड़े रहते है और उतने ही लोगों की भलाई या बुराई को ध्यान में रख कर काम करते है।

तनिक गहराई में उतरें; तो यह भी ज्ञात होगा कि हम ‘गति’ के नियमों से आबद्ध है। मनुष्य ही नहीं, प्रकृति का प्रत्येक परमाणु इस नियम का परिपालन करता है। जड़ हो या चेतन-यहाँ स्थिर कुछ भी नहीं। सभी गतिशील है। टीले-बढ़ कर कालक्रम में पहाड़ बन जाते है। छोटे-छोटे नाले, नदियों का आकर ग्रहण कर लेते है। गड्ढे, तालाब बन जाते हैं। इतना ही नहीं, यदि पचास वर्ष पूर्व की इनकी स्थिति का पता लगाया जाय, तो विदित होगा उक्त स्थान को छोड़कर अब ये आगे निकल चुके है और सर्वथा नई जगह में प्रवाहित हो रहे है। वृक्ष-वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं के सम्बन्ध में भी यही बात है। बीज गलते, पौधे बनते, वृक्ष के रूप में बदलते और फिर उनका फलना-फूलना बीज और पौध बनता-यह सब उसी सृजनात्मकता का परिणाम है। इसे परिवर्तनशील भी कह सकते है। मनुष्य समेत अन्य प्राणी भी जन्मते, बढ़ते, बदलते और मरते रहते है। पुनः वही चक्र आरम्भ होता है। और सतत् चलता रहता है। इस प्रकार यह भौतिक जगत गतिशील है। यहाँ के समस्त पदार्थ और प्राणी चलायमान है। इसका पग-पग पर प्रमाण हमारे जीवन में उपस्थित होता रहता है।

आज हम जिस स्थिति में है। वह अनेक घटनाओं का क्रमबद्ध इतिहास हैं यह इतिहास हर एक के जीवन का भिन्न-भिन्न होता है ऐसा क्यों? इसकी व्याख्या कार्य-कारण सिद्धान्त द्वारा भली-भाँति हो जाती है। इस प्रकार इस संसार में जो कुछ भी है, वह पूर्व से ही घटना बद्ध है। यहाँ कोई भी प्रभाव, परिणाम या कार्य कारण के बिना सम्भव नहीं।

यह चार चीजें ऐसी है, जिनका बन्धन ही माया है। इन चारों से प्रत्येक जीव बँधा है। इनसे ऊपर उठना ही बन्धन-मुक्ति है। कोई इनके जितने छोटे दायरे में बँधा होता है, उसके बारे में कहा जा सकता है, कि वह उतना ही स्वार्थी, संकीर्ण और भोगवादी है। जो व्यक्ति केवल वर्तमान की बात सोचता है, भूत और भविष्य के निष्कर्षों का लाभ नहीं लेता, वह स्वार्थपूर्ण प्रवृत्तियों में संलग्न रह कर दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करता है। इन्हें अविवेकी और अदूरदर्शी कहना चाहिए। इसी प्रकार जो मात्र अपने या अपनों के ही हित की बात सोचते है, उसके भी कार्य संकीर्ण और दुःखद होते है। विकास सम्बन्धी अवस्था को भी जो बहुत छोटी सीमा में आँकते है, और भौतिक जगत में होने वाली गतिविधियों में किसी दूरवर्ती कारण को नहीं देखते, वह गलत लक्ष्य अपनाते है। संकीर्णता की यह मनोवृत्ति ही संसार में दुःख का कारण है। मोह,माया, भ्रम कह कर इसी की वेदान्त में चर्चा की गई है।

मानवीय लक्ष्य का विस्तृत अध्ययन, चिन्तन और मनन करने वाले किसी भी विवेकशील व्यक्ति का यह निष्कर्ष हो नहीं सकता कि समय, देश, जाति या कारण की संकीर्णताओं में बँधे रहना मनुष्य की प्रगति की निशानी है। आइन्स्टीन की भी लगभग ऐसी ही मान्यता थी। उनका कहना था कि इनकी वास्तविक सत्ता वस्तुतः है ही नहीं। संसार में न तो समय का कोई अस्तित्व है, न स्थान (देश) का, न गति का, यह न किसी भौतिक कारण या परिणाम का। यह चारों ही मस्तिष्क की उपज हैं हम जब तक इनसे आबद्ध रहेंगे, तब तक अंतिम सत्य की अनुभूति कर ही नहीं सकते। अन्तिम सत्य वह हैं, जो इन चारों से बँध कर नहीं, इनको बाँध कर रखता है। उनका मानना था कि मस्तिष्क में जो तत्व भरा है, वह वस्तुतः एक बहुआयामी संरचना है। उसको यदि इन चारों चीजों से मुक्त कर दिया जाय, तो उस परम स्थिति को अच्छी तरह जाना जा सकता है, जिसे परमात्मा, परमपद, स्वर्ग, मुक्ति आदि कह कर संबोधित किया गया है। संसार का निरपेक्ष और अन्तिम सत्य (एवसौल्यूट टूथ) यही है, शेष सभी सापेक्ष (रिलेटिव टूथ) है।

यहाँ विज्ञान और वेदान्त की पारस्परिक सहमति स्पष्ट झलकती हैं वेदान्त ने जिस आधार पर संसार को मिथ्या करार दिया है, उसी को आइन्स्टीन ने वैज्ञानिक तथ्यों के द्वारा प्रमाणित करने का प्रयास किया और यह समझाना चाहा कि यहाँ वास्तविक कुछ भी नहीं, सब अस्थिर सत्य है। जो अभी सत्य है वह दूसरे ही पल झूठा कहा गया था, वह सच कहला सकता है। उदाहरण के जिए ‘समय’ को लिया जा सकता है। पृथ्वी में सूर्योदय से सूर्यास्त तक की अवधि 24 घंटे की मानी गई है, पर यदि कोई चन्द्रमा पर बैठ कर इस अवधि की गणना करे, तो उसे प्रतीत होगा कि यह 24 घंटे जितनी छोटी नहीं, वरन् 12 घंटे 84 घंटे जितनी लम्बी है। पृथ्वी के एक घंटे के आधार पर हिसाब लगायें, तो वहाँ का एक दिन 100 घण्टे से भी बड़ा होगा। सूर्योदय और सूर्यास्त की घटना धरती और चाँद पर एक ही पर ग्रह -भेद के साथ समय सम्बन्धी अनुभूति बदल जाती है, इसीलिए समय को स्थिर वस्तु या शाश्वत सत्य नहीं माना गया है, कारण कि जो सनातन होगा, वह देश, काल, पात्र के आधार पर बदलना नहीं रहेगा। हम जहाँ से सृष्टि प्रारम्भ हुई है, वहाँ से लेकर सृष्टि जहाँ समाप्त होगी, वहाँ तक को समय की इकाई क्यों न माने? क्योंकि अन्तिम सत्य तो यहीं दो घटनाएँ होंगी। समय सम्बन्धी बाकी इकाई तो इस विशाल अवधि के सापेक्ष होंगी, अतएव जब तक हम उस अन्तिम समय (एवसौल्यूट टाइम) को नहीं जान लेते, समय सम्बन्धी सारे माप और कार्य एक प्रकार से अप्रमाणिक और गलत होंगे।

इस दृष्टि से केवल वही कार्य और कर्तव्य हमारे लिए सच्चे होते है, जो समय की इस परमगति की प्रभावित करें। शेष कार्य भौतिक दृष्टि से जीवन-यापन के लिए आवश्यक जैसे प्रतीत हो सकते है पर परम तत्व की अनुभूति की दृष्टि से उनकी समीक्षा की जाय, तो उनमें से अधिकाँश इस स्तर के ऐसे मालूम पड़ेंगे, जिनकी सार्थकता नगण्य जितनी ही आँकी जा सकती है। इसलिए व्यक्तिगत जीवन में उन्हीं कार्यों को शुद्ध, यथार्थ और मानवोचित माना जाता है, जिनसे परम कालशक्ति की प्रतीति में सहायता मिलती हो। केवल भौतिक सुख के लिए किये गये सभी कार्य व्यर्थ हैं, भले ही उनमें हमारा कितना ही श्रम, बुद्धि, कौशल और साधन क्यों न प्रयुक्त हो रहा हो। परम काल और परम तत्व की उपलब्धि इससे ऊँचा उठ कर ही की जा सकती है।

हमारे लिए कोई भी स्थान तात्त्विक दृष्टि से सत्य नहीं है। वस्तुओं को पहचानने के अतिरिक्त हमारे लिए स्थान का कोई अर्थ नहीं। जिस प्रकार समय अनुभव के सिवाय कुछ नहीं है, उसी तरह देश या ब्रह्माण्ड (स्पेस) हमारे मस्तिष्क द्वारा उत्पन्न काल्पनिक वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं इसके द्वारा वस्तुओं की समझने तथा उनकी व्यवस्था जानने में सहायता मिलती है, इसलिए स्थान (स्पेस) की कल्पना को हम सत्य मान बैठते है, अन्यथा यह कुछ निश्चित तरीके के परमाणुओं के अलावा और है भी क्या? परमाणु इलेक्ट्रान युक्त होते है। इलेक्ट्रान एक प्रकार की ऊर्जा उत्सर्जित करते रहते है। जिन वस्तुओं के इलेक्ट्रान जितने मन्द गति के होते है, वह उतने ही स्थूल दिखाई देते है। यह हमारे मस्तिष्क के देखने की स्थिति पर निर्भर है। यदि हम पृथ्वी को छोड़ कर किसी सूर्य जैसे तारे पर बैठे हो तो पृथ्वी एक प्रकार के विकिरण के अतिरिक्त और कुछ न दिखाई देगी। इसलिए देश या ब्रह्माण्ड भी वस्तुओं की संरचना का सापेक्षिक रूप है। उसकी यथार्थता भी परम अवस्था पर ही हो सकती है।

यदि अन्तरिक्ष में और कोई सूर्य, चन्द्रमा और तारे नहीं होते, तब क्या हम कह सकते थे कि पृथ्वी एक सेकेण्ड में 18 मील प्रति घंटे की गति से दौड़ रही है। गति का ज्ञान भी हमारी सापेक्ष बुद्धि का ही परिणाम है। स्थिरता और स्थिति की अनुभूति भी उसी का नतीजा है। कोई यह कहे कि हमारा कमरा स्थिर है, तो सामान्य बुद्धि से इसमें कुछ गलत भी नहीं है किन्तु यदि कोई पृथ्वी की गति के कारण स्वयं को गतिशील माने तो इसे भी त्रुटिपूर्ण नहि कहा जा सकता। इसे दूसरे प्रकार से यों समझा जा सकता है। यदि दो समानान्तर पटरियों पर दो रेलगाड़ियाँ समान वेग से दौड़ रही हों, तो दोनों के सवार स्वयं को स्थिर अनुभव करेंगे, कारण कि दानों का वेग समान है इसलिए प्रतीति की दृष्टि से यह सत्य जैसा लग सकता है। पर तथ्य की दृष्टि से नहीं। अनुभूति कितनी गलत जानकारी देती है, इसका आभास तब मिलता है, जब समान वेग की दो रेलगाड़ियों में से एक पूर्व से आ रही हो और दूसरी पश्चिम से, तो दोनों गाड़ियाँ जिस स्थान पर साथ-साथ होंगी, वहाँ एक-दूसरे की गति ठीक दूनी अनुभव करेंगी। इससे यह सिद्ध होता है कि गति भी किसी परम गति की सापेक्ष है। उसमें भी कोई वास्तविक सत्य नहीं। सौर मंडल की तुलना में, सूर्य की गति 18 मील प्रति सेकेण्ड की समझ में आती है;पर यदि हम अपनी आकाश गंगा के किसी अन्य तारे पर बैठ कर अवलोकन करें, तो उस तारे की गति के हिसाब पृथ्वी की गति के हिसाब पृथ्वी की गति बढ़ी या घटी अनुभव होगी। इस तरह गति सम्बन्धी हमारी भौतिक गणनाएँ कितनी सापेक्षिक है, यह स्पष्ट हो जाता है।

पदार्थों के कारण (कॉजेशन) के सम्बन्ध में भी हम पूर्ण निरपेक्ष नहीं हैं। थोड़े से तत्व चाहें उन्हें पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु कहें अथवा हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन, सल्फर, जिंक, कोबाल्ट कहें, इन्हीं से मिलकर भौतिक पदार्थों का बनना-बिगड़ना जारी रहता है। कोई भी कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ इन तत्वों की पारस्परिक रासायनिक क्रिया का ही परिणाम होते है, किन्तु जब हम पदार्थ के अन्तिम कण-परमाणु की संरचना पर विचार करते है, तो पाते है कि सम्पूर्ण पदार्थों में आवेश के अन्तर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। एक पदार्थ का दूसरे में परिवर्तन इसी आवेश मुक्ति के कारण होता है। इसी प्रकार शक्ति की भी एक अन्तिम स्थिति होनी चाहिए। इसका आभास प्रकाश की क्वाण्टम थ्योरी से होता है, अर्थात् संसार का कारण भी भौतिक नहीं, कोई परम तत्व ही है।

उस परम अवस्था को कैसे अनुभव करें, जब आइन्स्टीन से यह प्रश्न किया गया, तो उनसे कहा-हम समय, स्थान, गति और कारण की सापेक्ष अवस्था से यदि अपने मस्तिष्क को ऊपर उठा दें, तो उस परम अवस्था की अनुभूति कर सकते है। हमारी सापेक्ष अवस्था की प्रतीति ही माया या भ्रम है। यदि हम इन चारों से ऊपर उठ कर संसार कर अनुभव करें, तो अन्तिम सत्य या परमसत्ता की अनुभूति कर सकते है। वेदान्त की भी ऐसी ही मान्यता है। स्वर्ग-मुक्ति का तात्त्विक विवेचन यही हो सकता है। इसी की कोशिश हमें करनी चाहिए।

First 19 21 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • कर्ज (Kahani)
  • इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी
  • सभ्यता की पूँजी एक सर्वश्रेष्ठ निधि
  • पतन क्रम (Kahani)
  • क्या मृत व्यक्ति में प्राण संचार संभव है?
  • महाप्रभु की महाकृपा
  • प्रज्ञायोग की साधना - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
  • अन्तःकरण की हूक
  • अन्तःकरण की हूक (Kavita)
  • मानव मस्त फकीर रे!
  • मानव मस्त फकीर रे! (Kavita)
  • पुनर्स्थापित विशेष लेखमाला-2 - प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत
  • VigyapanSuchana
  • युगव्यास पूज्यपाद गुरुदेव कर- - सम्पूर्ण वाङ्मय अब सबके लिये उपलब्ध!
  • अपनों से अपनी बात- - प्रज्ञावतार के लीला संदोह में भागीदारी का अब यह अंतिम अवसर
  • VigyapanSuchana
  • आत्मविजेता ही विश्वविजेता
  • एक साधना, एक योगाभ्यास
  • गृहस्थ जीवन का मर्म (Kahani)
  • माया से उठ कर ही होती है परमसत्ता की अनुभूति
  • एलिजाबेथ नोरथ (Kahani)
  • भोगी बनें कि उद्योगी?
  • द्रौपदी की विशालता (Kahani)
  • सहस्रार जगायें, दिव्य क्षमता पायें
  • कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ
  • सूक्ष्म के जागरण की विधाः गायत्री साधना
  • कष्टों का अर्थ यह तो नहीं कि ईश्वर है ही नहीं
  • महाकाली का पुत्र
  • यदि प्रसुप्त को जगाया जा सके
  • देखते-देखते वे धरती के गर्भ में विलुप्त हो गए
  • प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र -मन
  • अमरत्व सृष्टि के नियमों के विपरीत
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj