• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • कर्ज (Kahani)
    • इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी
    • सभ्यता की पूँजी एक सर्वश्रेष्ठ निधि
    • पतन क्रम (Kahani)
    • क्या मृत व्यक्ति में प्राण संचार संभव है?
    • महाप्रभु की महाकृपा
    • प्रज्ञायोग की साधना - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • अन्तःकरण की हूक
    • अन्तःकरण की हूक (Kavita)
    • मानव मस्त फकीर रे!
    • मानव मस्त फकीर रे! (Kavita)
    • पुनर्स्थापित विशेष लेखमाला-2 - प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत
    • VigyapanSuchana
    • युगव्यास पूज्यपाद गुरुदेव कर- - सम्पूर्ण वाङ्मय अब सबके लिये उपलब्ध!
    • अपनों से अपनी बात- - प्रज्ञावतार के लीला संदोह में भागीदारी का अब यह अंतिम अवसर
    • VigyapanSuchana
    • आत्मविजेता ही विश्वविजेता
    • एक साधना, एक योगाभ्यास
    • गृहस्थ जीवन का मर्म (Kahani)
    • माया से उठ कर ही होती है परमसत्ता की अनुभूति
    • एलिजाबेथ नोरथ (Kahani)
    • भोगी बनें कि उद्योगी?
    • द्रौपदी की विशालता (Kahani)
    • सहस्रार जगायें, दिव्य क्षमता पायें
    • कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ
    • सूक्ष्म के जागरण की विधाः गायत्री साधना
    • कष्टों का अर्थ यह तो नहीं कि ईश्वर है ही नहीं
    • महाकाली का पुत्र
    • यदि प्रसुप्त को जगाया जा सके
    • देखते-देखते वे धरती के गर्भ में विलुप्त हो गए
    • प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र -मन
    • अमरत्व सृष्टि के नियमों के विपरीत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • कर्ज (Kahani)
    • इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी
    • सभ्यता की पूँजी एक सर्वश्रेष्ठ निधि
    • पतन क्रम (Kahani)
    • क्या मृत व्यक्ति में प्राण संचार संभव है?
    • महाप्रभु की महाकृपा
    • प्रज्ञायोग की साधना - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • अन्तःकरण की हूक
    • अन्तःकरण की हूक (Kavita)
    • मानव मस्त फकीर रे!
    • मानव मस्त फकीर रे! (Kavita)
    • पुनर्स्थापित विशेष लेखमाला-2 - प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत
    • VigyapanSuchana
    • युगव्यास पूज्यपाद गुरुदेव कर- - सम्पूर्ण वाङ्मय अब सबके लिये उपलब्ध!
    • अपनों से अपनी बात- - प्रज्ञावतार के लीला संदोह में भागीदारी का अब यह अंतिम अवसर
    • VigyapanSuchana
    • आत्मविजेता ही विश्वविजेता
    • एक साधना, एक योगाभ्यास
    • गृहस्थ जीवन का मर्म (Kahani)
    • माया से उठ कर ही होती है परमसत्ता की अनुभूति
    • एलिजाबेथ नोरथ (Kahani)
    • भोगी बनें कि उद्योगी?
    • द्रौपदी की विशालता (Kahani)
    • सहस्रार जगायें, दिव्य क्षमता पायें
    • कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ
    • सूक्ष्म के जागरण की विधाः गायत्री साधना
    • कष्टों का अर्थ यह तो नहीं कि ईश्वर है ही नहीं
    • महाकाली का पुत्र
    • यदि प्रसुप्त को जगाया जा सके
    • देखते-देखते वे धरती के गर्भ में विलुप्त हो गए
    • प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र -मन
    • अमरत्व सृष्टि के नियमों के विपरीत
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1995 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
SCAN TEXT


कष्टों का अर्थ यह तो नहीं कि ईश्वर है ही नहीं

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 26 28 Last
ईश्वर और धर्म पर अविश्वास रखने वाले प्रायः यह प्रश्न उठाया करते है कि जब ईश्वर दयालु और दुःख की अधिकता क्यों? आस्तिक लोग स्वयं भी कहते है कि संसार में धर्मात्मा कम और धर्मविमुख ज्यादा है। ईमानदारों की अपेक्षा बेईमानों की संख्या अधिक है। ऐसी स्थिति में इस बात पर कैसे विश्वास किया जाय कि एक महान चैतन्य सत्ता इस सृष्टि की रचयिता और संचालक है? यदि वास्तव में इसकी रचना किसी बुद्धिमान शक्ति द्वारा हुई होती तो संसार में सर्वत्र सुख, आनन्द और पुण्य कर्मों का ही प्रसार देखने में आना चाहिए था।

वास्तव में यह एक ऐसा जटिल प्रश्न है, जिसका उत्तर देने में बहुत से आस्तिक भी लड़खड़ा जाते है। जिन पश्चिमी ईश्वरवादियों ने इसका उत्तर दिया है।, उन्होंने कही-कहीं अपनी असमर्थता भी स्वीकार की है। “थीइज्म’ पुस्तक के लेखक फ्निण्ट ने इसका उत्तर देते हुए कहा है-यदि आप मुझसे पूछें कि ईश्वर ने सबको धर्मात्मा क्यों नहीं बनाया, तो इसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं है। यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसका कोई उत्तर हो ही नहीं सकता और न उससे कुछ लाभ है। यदि आप कहें कि ईश्वर ने मनुष्य को देवताओं की तरह क्यों नहीं बनाया, तो यह भी प्रश्न करेंगे कि उसने देवताओं से भी ऊँचे दर्जे के प्राणी क्यों नहीं बनाये। इस प्रकार ‘अनास्था दोष ‘ उत्पन्न होता है। “

जिस प्रकार का सापेक्ष लोग पाप के विषय में करते है, वैसा ही भव दुःख के विषय में भी प्रकट करते है वे कहते है कि जब ईश्वर सर्वशक्तिमान है और जीवों का भला भी चाहता है, तो उसने ऐसी व्यवस्था क्यों चाहता है, तो उसने ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं की कि संसार में दुःख का नाम ही नहीं रहता? इस शंका का उत्तर देते हुए अल्फ्रेड रसेल वालेस अपने ग्रन्थ ‘दि वर्ल्ड ऑफ लाइफ’ में लिखते है- “कुछ आलोचकों को संसार के दुःख देख कर प्रायः घृणा हो जाता है। और वे कहने लगते है कि यह सृष्टि सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु सत्ता की बनायी नहीं हो सकती; पर इन लोगों ने कभी भी दुःख की जड़ तक पहुँचने का प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि दुःख या कष्ट विकास के लिये कितने आवश्यक है। स्वयं डार्विन ने इस नियम पर बड़ा बल दिया है कि कोई इन्द्रिय शक्ति या वेदना किसी प्राण में उस समय तक नहीं उत्पन्न होती, जब तक वे उस जाति के लिए उपयोगी न हों। इस नियम पर यदि गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर प्रत्येक प्राणि वर्ग में उतना ही दुःख उत्पन्न करता है, जितने की उसके लिए आवश्यकता है।

फ्लिण्ट ने इसका समाधान अपनी उपरोक्त पुस्तक पुस्तक में कुछ भिन्न प्रकार से किया है। वे कहते है “दुःख परिश्रम द्वारा ही हमारा जीवन, हमारी शक्तियाँ नियमित और विकसित हो सकती है। इच्छा आवश्यकता का अनुभव ही दुःख माना जाता है; किन्तु यदि जीवों में इच्छाएँ और आवश्यकताएँ न हों, तो फिर जीव रहेंगे क्या? क्या वह ऐसे ही सुन्दर और सक्रिय होंगे, जैसे अब है? यदि मनुष्य को समय-समय पर संघर्ष न करना पड़े तो क्या वह ऐसा प्रयत्नशील, चतुर, बुद्धिमान शिक्षित होगा, जैसा आज है? इस प्रकार आवश्यकता से उत्पन्न दुःख प्राणियों की प्रगति और पूर्णता का साधना है, इसलिए जो ‘दुख’ इस प्रयोजन की पूर्ति करता है, उसे बुरा कैसे कह सकते हैं?”

दूसरी बात यह भी है कि दुःख पूर्णता का ही साधन नहीं है,वरन् वह सुख का भी साधन है। शायद प्राणियों की संरचना ही ऐसी है कि यदि वह दुःख का अनुभव न करे, तो सुख की प्रतीति भी न कर पाये। ीले ही यह तथ्य शत-प्रतिशत सही न हो; परन्तु एक बात स्पष्ट है कि समस्त जीव जगत में दुःख वास्तव में आनन्द का साधन होता है, जो प्राणियों को परिश्रम के लिए उत्तेजित करता है। दुःख की उपयोगिता का परिचय छोटे प्राणियों में उतना ही मिलता, जितना विवेकयुक्त मनुष्य में मिलता है। दुःख का महत्व जितना शारीरिक बातों में हैं, उसमें कहीं अधिक मानसिक बातों में मिलता है। यह दुःख आत्मा को शुद्ध बनाने और शिक्षा देने में परम सहायक है। दुःख से हृदय की कठोरता कम होती है दुःख वस्तुतः एक प्रकार का तप है। दुःख से अधिमान का दमन होता है। इससे साहस और धैर्य बढ़ता है। एवं दूसरों के प्रति सहानुभूति पनपती है। ऐसी अवस्था में कोई भी संसार में दुःखों को देख कर उसके लिए परमात्मा को दोषी बताने की तुलना में उसे धन्यवाद ही देगा।

जो बात फ्लिण्ट ने आज कही है, वह महाभारत में हजारों वर्ष पूर्व कह दी गई थी। जब भगवान कृष्ण ने वनवास के पश्चात् कुन्ती से इच्छित वर माँगने को कहा, तो कुंती ने कहा -”भगवान्! मुझे जीवन में दुःख-ही दुःख मिले, इतनी कृपा बनाये रखे।” “ऐसा क्यों?” - कृष्ण के यह पूछने पर कुन्ती ने कहा -”इससे आपका स्मरण निरन्तर बना रहेगा। सुख में तो लोग आपको और आपके प्रेम को भूला बैठते है।”

इस प्रकार जब सृष्टि-रचना और विभिन्न परिस्थितियों से होकर प्राणियों के विकास पर विचार करते है, तो हमें ईश्वरीय योजना में दोष लगाने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता।

ऐसे व्यक्तियों की भर्त्सना करते हुए ‘थियोसोफी ‘ की संस्थापिका मैडम ब्लैवटस्की ने जोरदार शब्दों में कहा है कि ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नकारना वास्तव में एक विनाशकारी कल्पना है। यह एक ऐसे उन्मत्त का प्रलाप है, जो अपनी दूषित कल्पना के आधार पर विश्व-रचना को उद्भिजों की तरह उगने वाली सामग्री के रूप में देखता रहता है और उसका कर्ता किसी को नहीं मानता। वह कहता है कि यह सामग्री स्वयं ही प्रकट हुई, स्वयं ही स्थित है, स्वयं ही विकसित होती है। यह समस्त सृष्टि अनायास उत्पन्न हुई और चलती जा रही है। इसका कोई उद्गम नहीं और न कोई निमित्त है। इस प्रकार उसकी दृष्टि में यह ‘अनन्त चक्र’ अकारण और संयोग का परिणाम है।

हेन्स आइसेंक अपनी पुस्तक ‘एथीइस्टिक सोसाइटी’ में लिखते हैं कि ईश्वर पर कोई विश्वास करे या न करे इसके लिए उसे किसी पर कोई विश्वास करे या न करे इसके लिए उसे किसी प्रकार विवश तो नहीं किया जा सकता; पर इस अवधारणा को अपना लेपे पर जीवन संबंधी कई जटिलताएँ सरल हो जाती है। अमरीका जैसे अत्यन्त समृद्ध, सभ्य और सुशिक्षित देश के प्रत्येक अस्पताल में आजकल पचास प्रतिशत बैड पागलों के लिए सुरक्षित रहते है।

लगभग हर पश्चिमी राष्ट्र की स्थिति ऐसी ही है, जबकि भारत जैसे पौर्वात्स देश में विक्षिप्तों की संख्या उतनी है। कारण एक ही है। कि वहाँ सफलता, असफलता, लाभ-हानि जैसे प्रसंगों में केवल लौकिक दृष्टि से ही विचार नहीं किया जाता, वरन् प्रारब्ध और कर्मफल को भी उसमें सम्मिलित किया जाता है और अप्रिय प्रकरणों में उसे ईश्वरीय न्याय मानकर संतोष कर लिया जाता है। तथाकथित बुद्धिवादी देश अपनी अनीश्वरवादी मान्यता के कारण उस गहराई तक नहीं उतर पाते और सब कुछ इसी जीवन का परिणाम-प्रतिफल मान बैठते है। ऐसे में जब कोई बड़ी सफलता थोड़े-से प्रयास में उनके हाथ लगती है, तो वे फूले नहीं समाते और अतीव प्रसन्न हो उठते है; किन्तु जब कोई विफलता सामने आती है, तो जीवन ही नीरस व भारभूत प्रतीत होने लगता है।

वे कहते है कि नास्तिकवादी चिन्तन को सबसे बड़ी हानि अपराधवृत्ति को बढ़ावा देना है। शायद इसी कारण से पश्चिमी राष्ट्र, आज अपराधों के जाल-जंजाल में उलझे हुए है। जहाँ यह मान लिया गया हो कि अपराधी को मार देने से अपराध समाप्त हो जायेंगे, वहाँ कदाचित् इसका अन्त कभी न हो, कारण कि अपराध के लिए दण्ड या फाँसी -यह सामाजिक व्यवस्था है और सरकारी कानून। इससे दुष्कृत्यों पर नियंत्रण तो रखा जा सकता है; पर अपराध विहीन समाज की कल्पना को साकार नहीं किया जा सकता। इसके लिए नियमन नहीं, आत्मानुशासन आस्तिकवादी चिन्तन के बिना सम्भव नहीं। नीतिमत्ता, कर्तव्यपरायणता, सेवा सहायता-यह सब इसी चिन्तनधारा के अंतर्गत बन पड़ते है; क्योंकि कर्ता का दृढ़ विश्वास होता है कि कर्म के परिणाम आज नहीं तो कल मिल कर सराहेंगे। इसलिए वह प्रायः बुरे कर्मों से बचता है।

हेन्स कहते हैं कि आज हम भले ही वैज्ञानिक प्रगति के चरमोत्कर्ष पर पहुँच गये है और अपराधियों की धर-पकड़ के लिये नये-नये परिष्कृत क्षेत्र विकसित कर लिये गये है; किन्तु यह कहना कि अपराध आगे नहीं होंगे-गलत होगा।

इसका एकमात्र उपचार आस्तिकवादी विचारधारा को अंगीकार करना ही हो सकता है। यदि सृष्टि रचना के पीछे किसी सर्वोपरि सत्ता को स्वीकार लिया गया, तो सुख-दुःख लाभ-हानि सफलता-असफलता रोग-शोक जैसे न समझ में आने वाले कारणों से सरलतापूर्वक पिण्ड छुड़ाया और संतोषपूर्वक जिया जा सकता है। आगे इस चिन्तन की गहराई में उतरने पर यह स्पष्ट अनुभव होने लगता है कि संसार में भगवान ने अवरोध-विरोध क्यों खड़े किये अथवा लाभ, सुख, प्रसन्नता के साथ-साथ इनके विपरीत तत्वों को क्यों गढ़ा?

वास्तव में अपने ज्येष्ठ पुत्र की प्रगति और प्रसन्नता भगवान को भी अभीष्ट है। यदि मनुष्य के सामने अवगति का भय न हो, तो उसके लिए प्रगति का महत्व भी नगण्य जितना रह जाता। इसी प्रकार उसे यदि दुःख और शोक की पीड़ा की अनुभूति न हो, तो प्रसन्नता की ही क्या महत्ता रह जाती। सच तो यह है कि रात की सघन तमिस्रा के उपरान्त ही दिन के स्वर्णिम उजाले का यथार्थ आनन्द मिलता है। जहाँ उजाला ही-उजाला हो अथवा अँधेरा हो वहाँ जीवन नीरस व निरानन्द बन जायेगा। यदि इस दृष्टि से विचार किया जाय, तो ईश्वर पर लगने वाले आरोप निरस्त हो जायेंगे और यह स्पष्ट विदित होगा कि इसके पीछे उसकी कल्याणकारी भावना ही प्रमुख हैं।

First 26 28 Last


Other Version of this book



Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...

Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • कर्ज (Kahani)
  • इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी
  • सभ्यता की पूँजी एक सर्वश्रेष्ठ निधि
  • पतन क्रम (Kahani)
  • क्या मृत व्यक्ति में प्राण संचार संभव है?
  • महाप्रभु की महाकृपा
  • प्रज्ञायोग की साधना - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
  • अन्तःकरण की हूक
  • अन्तःकरण की हूक (Kavita)
  • मानव मस्त फकीर रे!
  • मानव मस्त फकीर रे! (Kavita)
  • पुनर्स्थापित विशेष लेखमाला-2 - प्रज्ञा परिजनों के सप्त महाव्रत
  • VigyapanSuchana
  • युगव्यास पूज्यपाद गुरुदेव कर- - सम्पूर्ण वाङ्मय अब सबके लिये उपलब्ध!
  • अपनों से अपनी बात- - प्रज्ञावतार के लीला संदोह में भागीदारी का अब यह अंतिम अवसर
  • VigyapanSuchana
  • आत्मविजेता ही विश्वविजेता
  • एक साधना, एक योगाभ्यास
  • गृहस्थ जीवन का मर्म (Kahani)
  • माया से उठ कर ही होती है परमसत्ता की अनुभूति
  • एलिजाबेथ नोरथ (Kahani)
  • भोगी बनें कि उद्योगी?
  • द्रौपदी की विशालता (Kahani)
  • सहस्रार जगायें, दिव्य क्षमता पायें
  • कुछ अनसुलझी गुत्थियाँ
  • सूक्ष्म के जागरण की विधाः गायत्री साधना
  • कष्टों का अर्थ यह तो नहीं कि ईश्वर है ही नहीं
  • महाकाली का पुत्र
  • यदि प्रसुप्त को जगाया जा सके
  • देखते-देखते वे धरती के गर्भ में विलुप्त हो गए
  • प्रतिभा और संकल्प शक्ति का केन्द्र -मन
  • अमरत्व सृष्टि के नियमों के विपरीत
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj