
अमरत्व सृष्टि के नियमों के विपरीत
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लोग पागल कहते है वैद्यराज चिन्तामणि को, यद्यपि सबको यह स्वीकार है कि उनके हाथ में यश है। नाड़ीज्ञान में अद्वितीय है और उनके निदान में धूल नहीं हुआ करती। वे जब चिकित्सा करते है मरते को जीवन देते है; किन्तु अपने पागलपन से उन्हें जब अवकाश मिले चिकित्सा करने का।
इतना निपुण चिकित्सक-दसके हाथ में लोहे को सोना करने वाली विद्या थी। वह अपना व्यवसाय किए जाता -लक्ष्मी पैर तोड़ उसके घर बैठने को प्रस्तुत कब नहीं थी; लेकिन पता नहीं कहाँ से एक जटाधारी साधु आ गया उनके यहाँ। उसके दिए ताड़पत्रों में क्या लिखा है। कोई कैसे बताए। वैद्यराज प्राणों के साथ उन्हें चिपकाए फिरते है। घर की जमा पूँजी भी इसमें फूंक गई। धुन चढ़ी है इन्हें पारद भस्म बनाने की। घर आता सोना छोड़कर स्वप्न के सोने के पीछे अपना घर भी फूँक डाला।
उनसे कोई पूछे, समझाए तो हँस देते है। सारे संसार को मूर्ख मान लिया है उन्होंने। अब उन्हें अमर बनने की समन चढ़ी है। बहुत उम्रग में होंगे तो अपने उन सड़े-गले ताड़पत्रों के एक-आ श्लोक बोल देंगे। यूँ ऋषियों मुनियों की बातों पर हमें सन्देह नहीं करना चाहिए; किन्तु ये बातें ऋषियों के योग्य है। इनका रहस्य वे ही जानते थे। ऐसी बातों में पड़ने की इस समय कोई जरूरत नहीं।
आज बारह वर्ष तो हो गए चिनतागणि को। क्या पाया उन्होंने? कितने माशे स्वर्ण बना सके। अब तक अपने काम में लगे रहते तो सोने का महल बना लेते। मोटर की कौन कहे-हवाई जहाज पर चलते। लेकिन उनकी सनक जो ठहरी जिसकी वजह से बच्चे भूख के मारे पड़ोसियों के घर चक्कर काटते है। पण्डितानी की साड़ी में पेबन्द लगते हैं। लोग-ब्राह्मण समझकर अन्न पर न पहुँचा दिसर करें तो चूल्हें में कभी रोटी न सिकें।
इस सब कुछ के बावजूद उन्हें अवकाश नहीं। आज नर्मदा किनारे जाने को टिकट कटा रहे है। और कल-हरिद्वार या कामरूप को। इतनी लम्बी यात्रा करके, इतना कष्ट उठाकर जब लौटेंगे शरीर सूखकर काँटा हुआ मिलेगा। लायेंगे कुछ घास-फूस और उनकी बातें सुनो उस समय तो लगेगा जैसा संसार का सारा खजाना लूट लाए हों, इस बार वह किसी को बताकर नहीं गए, केवल चले गए घर से। इस बार अकस्मात् चले गए घध्र से बिना किसी से कुछ कहें और अब महीना बीत गया, घर वालों को उनका कोई समाचार नहीं।
इधर वह गिरनार के शिखरों के पास खड़े कुछ सोच रहे थे। गिरनार के शिखरों की चढ़ाई आज भी सुगम नहीं है। यद्यपि श्रद्धालु सम्पन्न जनों ने सीढ़ियाँ बना दी हैं, फिर भी दत्त शिखर तक पहुँचते-पहुँचते जितनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है, कौन हाँफ नहीं जाएगा। उससे पर्याप्त आगे वह महाकाली शिखर-दूर से ही उसे प्रणाम कर लिया जाता है। कोई अत्यधिक साहस करे तो भी उसे रात्रि गौरव शिखर पर व्यतीत करनी चाहिए। और प्रातः भगवान् दत्तात्रेय की पादुका का वंदन करते आगे बढ़ना चाहिए। इसी प्रकार वह महाकाली की गुफा में उनके श्री चरणों ते पहुँच सकता है।
महाकाली शिखर तक कदाचित् ही कोई यात्री पहुँच पाता है। इससे अधिक एकान्त चाहिए तो फिर कहीं शेर की माँद चुननी होगी। वैसे शेर तो आते है। -गिरनार के पद प्रानत तक। यह महाकाली गुफा तो उनके क्रीड़ा क्षेत्र में है। सिंह वाहिनी के भवन में सिंह न आवे तो आवेगा कहाँ।
आजकल वैद्यराज चिन्तामणि आ बैठे है, महाकाली गुफा में। गौरवर्ण तनिक दुहरा देह जिस पर झुर्रियाँ पड़ती है। मस्तक के समस्त केश उज्ज्वल बढ़ी हुई सफेद दाढ़ी मूंछें; किन्तु वह साधु नहीं हुए है। उनके शरीर पर एक कुर्ता है मैला-सा और कमर में फैली धोती है। सम्भवतः यात्रा ने उनके वस्त्र मैले कर दिए है और यहाँ उन्हें स्वच्छ करने को साबुन कहाँ से पायें वह। उसके पास एक लोटा है, एक कम्बल है बिछाने को एक चद्दर हैं बहुत सीमित सामग्री है उनके साथ।
पास के स्रोत में स्नान कर लेते है और लोटे के जल से जगदम्बा की मूर्ति को भी स्नान करा देते है। इसी को कोई पूजा कहता होता तो कह ले। क्योंकि पूजा का और कोई उपकरण उनके पास नहीं हैं आज सात दिन उसे यहाँ आए हो गए। ये सात दिन उन्होंने केवल समीप के स्रोत के जल पर काटे है। अब चाहें तो भी शरीर में इतनी शक्ति नहीं कि गिरनार की चढ़ाई पार करके गोरख शिखर तक भी पहुँच सके।
‘वहाँ शेर आते है। सन्ध्या से पहले गोरख-शिखर लौट आना।’ सात दिन पूर्व जब वह जूनागढ़ से चले थे, उनका विचार जानकर एक स्थानीय सज्जन ने उन्हें सावधान किया था। उन्होंने काई उत्तर नहीं दिया था। लौट जाने के लिए तो वह आए नहीं थे। सिंह वाहिनी की शरण में जो पड़े है उसे शेर कैसे खा जाएगा। आज सातवीं रात्रि प्रारम्भ हुई है। पिछली छः रात्रियों में तो उन्होंने शेर को देखा भी नहीं। वैसे वन में वन पशु की दहाड़ आती है।, इसमें अद्भुत क्या है?
आज उन्हें स्नान करने में कष्ट हुआ है।अब उठने में चक्कर आता हैं चलते समय आँखों के आगे अन्धकार छा जाता है। कदाचित् कल स्रोत तक खिसककर जाना पड़े। अन्न में प्राण है इस युग में और सात दिन से वह केवल जल पीकर रहता रहा है।
माँ! जगज्जननी! यदि मैं अधिकारी नहीं हूँ तो मुझे तुमने इधर क्यों आकृष्ट किया? आज वह जगदम्बा की मूर्ति के सम्मुख घुटने टेके बैठा है रात्रि के प्रहर से ही ‘ अब मैं यहीं से जाने वाला नहीं हूँ। शरीर यही छूटेगा। भगवान दत्त को मैं कहाँ ढूँढूँ। तुम सर्वेश्वरी हो, सर्वशक्तिमयी हो और यहाँ गिरनार की -दत्त के आराम की अधिष्ठात्री होकर बैठी हो। मैं तुम्हें ब्रह्महत्या देकर मरूँगा। कपालिनी! इस ब्राह्मण का कपाल तुम्हारी मुण्डमाला में रहकर भी तुम्हें कोसता रहेगा।
ब्राह्मण का कपाल तुम्हारी मुण्डमाला में रहकर भी तुम्हें कोसता रहेगा।
ब्राह्मण अपनी हठ पर उतर आया था। उसका परम बल है अनशन और वह अनशन किए बैठा था जगद्धात्री जगदीश्वरी के द्वार पर उस द्वार पर जहाँ से कोई कभी निराश नहीं लौटा। पागल ब्राह्मण -अरे माँ के यहाँ अनशन की क्या आवश्यकता? जहाँ सहज स्नेह से माँ से से कुछ भी माँग लिया जा सकता है, अपनी अश्रद्धा से आकेल विश्वस्त ब्राह्मण वहाँ अनशन किए बैठा है।
‘हैं!’ मरण इतना सरल नहीं है। ब्राह्मण भय से चौंक पड़ा। उसे लगा कि गुफा में शेर आ गया है और वह पीछे से उसे सूँघ रहा है। उसने चौक कर पीछे देखा कुत्ता केवल एक कुत्ता था उसके समीप। सिर से पैर तक काला सुपुष्ट कुत्ता और वह अब भी पूँछ हिलाता ब्राह्मण को स्नेह पूर्वक सूँघे जा रहा था। जैसे वह प्रयत्न रहा था पहचानने का कि यह व्यक्ति उसका कोई परिचित है या नहीं।
‘कुत्ता! यहाँ! इस मय अर्धरात्रि में! ब्राह्मण उस तगड़े सुन्दर काले कुत्ते को इस प्रकार देख रहा था जैसे कोई अद्ीत प्राणी देख रहा हो कैसे आया यह? मुझे क्यों सूँघ रहा है? भौंकता क्यों नहीं?
ब्राह्मण को अधिक सोचते रहने का अवसर मिला नहीं। कुत्ता उसके कुत्ते का छोर मुख में लेकर बार-बार खींचने लगा था। ब्राह्मण को लगा वह कुछ कर रहा है। ‘क्या चाहते हो तुम? कहाँ ले चलना चाहते हो मुझे? तुम्हारे साथ चलूँ?
वह किसी प्रकार उठ खड़ा हुआ। कुत्ते ने कुर्ता छोड़ दिया और आगे-आगे चलने लगा। अब ब्राह्मण ने उसका अनुगमन करना स्वीकार कर लिया था।
कुछ देर बाद उसने देखा धवल चाँदनी के उजाले में नहायी स्वच्छ शिला पर जल स्रोत के समीप एक ज्योतिर्मयी मूर्ति आसीन थी। दो कुत्ते शिला से नीचे बैठे थे। तीसरा भी ब्राह्मण को कुछ दूर छोड़कर दौड़ आया था। और उनके पास ही शान्त बैठ गया था। ब्राह्मण की दृष्टि गयी उधर धन्य हो गया जीवन। प्राणिपात करते वह धरती पर गिर पड़ा। कुछ क्षण लगे आश्वस्त होकर उठने में। प्रभु के संकेत पर वह शिला के समीप श्रद्धाञ्जलि बैठ गया था। प्रभु अपने मुघ गम्भीर स्वर में कह रहे थं -”अक्षीणवासन सत्पुरुष अपनी साधना से सृष्टि में सत्वगुण को सुरक्षा देते रहे, उनका संकल्प लोक मंगल का विस्तार करे इसलिए मैंने रस सिद्धि का प्राकट्य किया। “
‘यह क्षुद्र आज्ञा का अनुवर्तन करेगा।’ किसी प्रकार ब्राह्मण कह सका।
‘आज्ञा के अनुवर्तन का बात नहीं भगवान दत्तात्रेय प्रशान्त बने थे। ‘रससिद्धि किसी की किसी कामना की पूर्ति का साधना नहि। वह सृष्टि का निगूढ़ रहस्य है और केवल उन सिऋद्ध सत्व अधिकारियों के लिए है, जिनका ‘अहं’ सर्वात्मा को अर्पित हो चुका है।
‘श्री चरणों के समीप आकार भी मैं अभागा ही रहूँगा।’ वह क्रन्दन कर उठा। अच्छा तुम देखो! प्रभु की अर्धोन्मीलित दृष्टि एक बार उठ गयी ब्राह्मण की ओर।
हे भगवान! कुछ क्षण में वह चीत्कार कर उठा। वह क्या देख रहा है- उसकी स्त्री मर गयी, पुत्र वृद्ध हुए और मर गए। पौत्र मरणासन्न पड़ा है.............उसके कुल में कोई नहीं रहा। कोई नहीं रहा उसके परिचितों में। वह जिससे स्नेह करता है, वह मर जाता है मृत्यु-मृत्यु! आज यह कल वह परसों-तीसरा वर्ष जैसे छोटे हो गए। उसे रोना केवल मरने वालों के लिए रोना रह गया है। क्यों जीता रहे किसके लिए? अमरत्व का प्रसाद मिला है रुदन। चिल्ला उठा वह नहीं चाहिए ऐसा रुदन।