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Magazine - Year 1996 - Version 2

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Language: HINDI
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नारी अभ्युदय का सूर्योदय

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सूर्य कोठरी में कैद नहीं रह सकता। उसकी किरणें बरबस अँधेरे का दूर भगा देती हैं। हर अँधेरा कोना उजाले से भर जाता है। अगले चार कदमों के साथ ही नारी अभ्युदय का सूर्य उदय होने वाला है। अब नारी की क्षमताएँ, उसकी प्रतिभा घर की चहारदीवारी में कैद न रहेगी । जीवन के हर क्षेत्र में, संसार के हर देश में, विश्व के हर कोने में उसकी प्रतिभा के चमत्कार देखने को मिलेंगे। समय का हर पल उसके विकास की एक नयी किरण बनकर प्रकट होगा। इक्कीसवीं सदी की इस भवितव्यता की आभा अभी के वर्तमान और पिछले कुछ पहले के अतीत में देखी जा सकती है। इस सूर्योदय की अरुणिमा की पहली किरण तब प्रकाशित हुई जब उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में राजाराम मोहनराय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे नेताओं ने अपने सुधार आन्दोलनों में नारी शिक्षा व उत्थान को प्रमुख स्थान दिया ।

इन्हीं प्रयासों के परिणाम स्वरूप प्रथम महिला कॉलेज कलकत्ता में खुला 1870-80 के बीच प्रथम महिला स्नातक बनी। इसी के बाद सन् 1882 में प्रथम महिला कानूनी शिक्षा के लिए ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय गयी। 1883 में प्रथम महिला डॉक्टरी पढ़ने विदेश गयी। इसी बीच अनेक महिला शिक्षा संस्थाएँ खुलीं। स्त्री शिक्षा क्षेत्र में अग्रणी महिला सुधारकों में श्रीमती रमाबाई रानाडे, पण्डिता रमाबाई, सरलादेवी चौधरी, लेडी अबला बोस, श्रीमती पी.के.रे. आदि प्रमुख रहीं । डॉ. कर्वे का योगदान भी सराहनीय कहा जाएगा। सत्य व ज्ञान की, खोज में भारत आयी विदेशी महिलाओं ने भारत में नारी अभ्युदय की सुबह लाने के अथक प्रयास किए। इनमें थियोसोफिकल सोसायटी की संस्थापक मैडम ब्लावतस्की, श्रीमती एनीबेसण्ट,सिस्टर निवेदिता एवं मीरा बेन के प्रयासों को प्रेरणा स्त्रोत माना जाएगा।

1917 में श्रीमती माग्रेट कजिंस, श्रीमती बेसेण्ट व श्रीमती सरोजिनी नायडू के अथक परिश्रम के बाद 1920 में स्त्रियों ने चुनावों में भाग लिया। 1929 में पारित बाल विवाह अधिनियम महिलाओं की स्थिति सुधारने में एक नया मोड़ था। राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं का वास्तविक पदार्पण 20 वीं सदी के प्रारम्भ से हुआ। प्रथम दशक में महिलाओं ने स्वदेशी आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दूसरे दशक में महिलाएँ सीधे राजनीति में उतर पड़ीं । 1917 में श्रीमती बेसेण्ट की अध्यक्षता में काँग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर स्त्रियों को भी पुरुषों के समान ही मताधिकार की माँग की । 1917 में ही माग्रेट कजिंस ने मद्रास में ‘वूमेन्स इंडियन एसोसिएशन’ नामक अखिल भारती स्तर पर प्रथम महिला संगठन स्थापित किया।

इन प्रयासों के कारण 1919 में महिलाओं को सीमित मताधिकार प्रदान किए गए। 1926 तक महिलाओं को पुरुषों के समान मत देने का अधिकार मिल गया। अप्रैल 1926 में स्त्रियों ने प्राँतीय विधान-सभाओं में चुनाव लड़ने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया। डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी प्रथम महिला विधायक के रूप में विधानसभा में पहुँची व शीघ्र ही विधानसभा की उपाध्यक्ष बनीं । 1925 में श्रीमती सरोजिनी नायडू काँग्रेस के अध्यक्ष पद पर सुशोभित हुई। 1927 में ऑल इण्डिया वुमेन्स कांफ्रेंस की स्थापना हुई। जिसका नारा रहा-”समान अधिकार समान दायित्व।” आज भी यह संगठन महिलाओं की उन्नति के लिए सक्रिय सबसे बड़ा सशक्त संगठन है।

1930 में गाँधीजी के आवाहन पर हजारों महिलाएँ नमक आंदोलन में कूद पड़ी थीं। इसमें 17000 महिलाएँ गिरफ्तार हुई। 1932 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन व 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में हजारों महिलाएँ जेल गयीं। आन्दोलन के साथ महिलाओं ने वैधानिक क्षेत्र में भी प्रतिनिधित्व किया। राउण्ड टेबल कांफ्रेंस व कमेटियों में बेगम शाहनवाज,श्रीमती राधाबाई, सुव्रायन, श्रीमती सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, श्रीमती लक्ष्मी मेनन, श्रीमती राममूर्ति, श्रीमती माणिकलाल जैसी विदुषी महिलाओं ने सक्रियता से भाग लिया।

1937 में प्रान्तों में काँग्रेस मंत्रिमण्डल बने तो 80 महिलाएँ विधानसभा में चुनी गयीं । उत्तरप्रदेश मंत्रिमण्डल में श्रीमती विजय लक्ष्मी पण्डित पहली महिला मंत्री बनीं। 1940 में विभाजन के समय दंगों में शान्ति स्थापना व पाकिस्तान से अपहृत स्त्रियों को सुरक्षित बचाने के प्रयास में महिलाओं ने अपने शौर्य- साहस का परिचय दिया। इनमें प्रमुख थीं श्रीमती रामेश्वरी नेहरू, श्रीमती अवम्मा मथाई, श्रीमती सुचेता कृपलानी व कमलादेवी चट्टोपाध्याय। भारत के संविधान निर्माण में महिलाओं का योगदान पुरुषों से किंचित भी न्यून नहीं रहा। इस ऐतिहासिक कार्य में अपना योगदान देने वाली महिलाएँ थीं, लीला रे, सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृतकौर, हसाँमेहता, दुर्गाबाई, रेणुका रे, कमला चौधरी, अम्मुस्वामी नाथन, मालती चौधरी, पूर्णिमा बनर्जी आदि। शायद इसी भागीदारी का परिणाम रहा कि हमारे संविधान में स्त्री, पुरुषों को समान अधिकार दिया गया। जो भारतीय नारी की प्रगति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।

इसी के परिणामस्वरूप सन् 1952 से लेकर अब तक महिलाओं का भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान बना हुआ है। 1952 में 489 सीटों में से 22 महिला साँसद चुनकर आयीं। 1957 में यह स्थिति 494 में से 27 की रही ।1962 में 494 में से 34, 1967 में 520 में से 31, 1971 में 518 में से 22, 1977 में 542 में से 19, 1980 में 542 में से 28 1984 में 542 में से 44, 1989 में 543 में से 27 1991 में 543 में से 39 एवं 1996 में 543 में से 36 रही है। आज अपने देश में 7 राष्ट्रीय दल, 38 राज्यस्तरीय दल तथा कुल 436 पार्टियाँ है। इतनी पार्टियों में तमाम बाध्यताओं के बावजूद चार हजार प्रत्याशियों में इस बार चुनाव क्षेत्र में 102 महिलाएँ उतारी गयीं थी। जिनमें 36 महिलाएँ लोकसभा में चुनकर आयी हैं।

प्रशासन के क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी सक्रिय रही है। कु. अन्नाजार्ज प्रथम आई.ए.एस. महिलाएँ सैकड़ों है। कुछ महिलाएँ आई.पी.आई.एफ.एस. में भी आयी हैं। किरण बेदी आई.पी.एस. की एक बहुचर्चित जुझारू महिला ऑफिसर हैं। प्रशासन क्षेत्र में महिलाओं की प्रगति के हर वर्ष नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं।

सामूहिक स्तर पर महिलाओं की प्रगति ने 70 वें दशक में जोर पकड़ा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे मान्यता मिली है 1975 में मेक्सिको में 930 देशों की 600 महिलाओं का एक वृहत सम्मेलन हुआ था। जिसकी तत्कालीन उपलब्धियाँ चाहे नगण्य रही हों, लेकिन इसके दस वर्षीय कार्यक्रमों ने आगे निश्चित ही महिलाओं की स्थिति पर अपना प्रभाव डाला। इसके बाद राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न गोष्ठियों, सेमिनारों द्वारा विचार-विमर्शों में गति आयी। प्रगति व विकास की नयी आयी। प्रगति व विकास की नयी योजनाएँ बनायी गयीं, क्रियान्वित की गयीं। इनका लेखा-जोखा पहले देशों के क्षेत्रीय सम्मेलन में हुआ व फिर 1980 में कोपेनहेगन के विश्व महिला सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार केन्द्रित कुल 48 प्रस्ताव पास हुए व कुल 145 देशों ने भाग लिया। सन् 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय कुल 32 देशों की महिलाओं को वोट देने का अधिकार था। सन् 1975 में 124 देशों में यह अधिकार मिल गया। 1985 का विश्व महिला सम्मेलन नैरोबी में हुआ। चौथा विश्व महिला सम्मेलन गतवर्ष 1995 के सितम्बर माह में चीन की राजधानी पेंकिग में हुआ। इसमें 182 देशों की कुल 30,000 महिलाओं ने भाग लिया। इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि औरत को एक सामान्य इनसान के रूप में मान्यता मिली । यह बात सर्वसम्मति से स्वीकारी गयी कि वह उतनी ही इनसान है जितना कि पुरुष। इस सम्मेलन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि शामिल होने वाले देशों में से 89 देशों ने कई ठोस वायदे किए। 67 देशों ने समयबद्ध कार्यक्रम लागू करने की घोषणा की। इससे पूर्व किसी सम्मेलन में ठोस वायदे नहीं हुए थे। इस सम्मेलन में महिलाओं के कुछ उन अधिकारों पर चर्चा हुई जिन्हें महिलाओं का अधिकार नहीं माना जाता । महिलाओं के शक्तिकरण की बात भी आमतौर पर स्वीकार की गई।

यद्यपि इन बृहद् सम्मेलनों में किए जाने वाले विचार-विमर्श का कोई त्वरित परिणाम नहीं निकलता है, लेकिन फिर भी जैसा कि राष्ट्र संघ के महासचिव बुतरस घासी कहते हैं-”इन विचार- विमर्शों से समस्याओं के प्रति एक विश्व जनमत तैयार होता है। सभी बड़े राष्ट्रों में इन समस्याओं के निदान के लिए भले ही कोई त्वरित सहमति न हो सकी हो लेकिन समस्याएँ व निदान दोनों चिह्नित होते हैं। समझदारी पर एक राय बनती है। यह कोई कम उपलब्धि नहीं है।

नारी अभ्युदय के इन्हीं विश्व -व्यापी प्रयासों के कारण हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है। अकेले अमेरिका में, पत्रिकाओं में 42 प्रतिशत समाचार पत्रों में 33 प्रतिशत महिलाएँ कार्यरत हैं। जबकि 1971 में वहाँ मात्र 3 प्रतिशत महिला वकील थीं, 1985 में उनकी संख्या 13 प्रतिशत तक बढ़ी है। गतवर्ष वकालत के प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या 44 प्रतिशत थी। यहाँ पर सुरक्षा जैसे पुरुष प्रधान क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी पर्याप्त है। 1994 में वायुसेना में 24 प्रतिशत महिलाएँ भर्ती हुई थीं। 1994 में ऑफिसर पदों पर सेना में 16 प्रतिशत जूनियर महिला अधिकारी, वायुसेना में 18 प्रतिशत व नौसेना में 14 प्रतिशत महिला अधिकारी थीं।

ईरान जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम देश में नारी वर्ग, नवजागरण के आलोक से अछूता नहीं है। वहाँ शिक्षा क्षेत्र में 74 प्रतिशत महिलाएँ हो गयी हैं। विश्वविद्यालयों में भी चिकित्सा विज्ञान जैसे जटिल विषय में 45 प्रतिशत छात्राएँ अध्ययन कर रही हैं। पत्रकारों में 13 प्रतिशत महिलाएँ रिपोर्टिंग का काम करती हैं। इतना ही नहीं महिलाओं द्वारा संसद में 25 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित करने की माँग जोर पकड़ रही है।

जापान के टोकियो शहर में 158 टैक्सी चालकों में 17 महिला चालक हैं। इन महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कार्य करने में अधिक कुशल व सक्षम पाया गया है।

भारतीय समाज में भी महिलाओं के प्रगतिशील कदमों में काफी तेजी हुई है। पुरुष प्रधान क्षेत्र में भी महिलाएँ अपना वर्चस्व दिखाने लगी हैं। सरकार द्वारा सेना, वायुसेना व सुरक्षा व्यवस्था में स्त्रियों का नियोजन एक क्रान्तिकारी परिवर्तन है। हरिता दिओल वायुसेना में उड़ान भरने वाली प्रथम महिला पायलट बन गयी हैं। कई अन्य महिलाएँ भी वायुसेना में प्रवेश पा चुकी हैं। इससे पहिले सेना, नौसेना व मर्चेण्ट नेवी में भी महिलाओं को प्रवेश मिल चुका है। अल्का खुराना प्रथम महिला लेफ्टिनेंट बनी हैं।

माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली प्रथम भारतीय महिला बछेन्द्री पाल के निर्देशन में एक पूरा महिला समूहा माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ने में सफल रहा है। पर्वतारोहण ही नहीं पुरुष प्रधान खेलों में भी भारतीय महिलाओं ने भारत के गौरव को बढ़ाया है। भारोत्तोलन के क्षेत्र में कुँअरानी देवी, मल्लेष्वरी देवी, नीलम लक्ष्मी, भारती सिंह की प्रतिभा की सराहना हर किसी ने की है।

इतना ही क्यों अब की बार अटलाँटा ओलम्पिक में महिला खिलाड़ियों की संख्या में पिछली बार की तुलना में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई हैं। अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक कमेटी के अनुसार इस बार ओलम्पिक में कुल 3780 महिला खिलाड़ियों ने भाग लिया । जबकि एथेंस में अब से सौ साल पहले जब ओलम्पिक खेल शुरू हुए थे, तब इस महाप्रतियोगिता में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं दी गयी थी। लेकिन इस बार न केवल महिला खिलाड़ियों की भागीदारी में आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी हुई, बल्कि उन्होंने सबको चकित करते हुए अपने-अपने राष्ट्रों के लिए स्वर्ण, रजत, काँस्य पदक भी बटोरे।

खेल ही नहीं, प्रतिभा का कोई भी क्षेत्र हो, नारियाँ पीछे नहीं हैं। विश्व में सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार से अब तक 25 महिलाएँ अलंकृत हो चुकी हैं। हालाँकि यह संख्या कुछ अधिक नहीं है फिर भी नारी के प्रतिभा के प्रकाश को उजागर करने के लिए इसे पर्याप्त कहा जाएगा। इनमें से 9 महिलाओं को शान्ति के क्षेत्र में, आठ को अन्य उत्कृष्ट कार्यों के योगदान में यह पुरस्कार दिया गया है। इस सबके अतिरिक्त सार्वजनिक एवं कामकाजी

पी.एस.आई.एफ.एस.मे आयी हैं। किरण बेदी आई.पी.एस. की एक बहुचर्चित जुझारू महिला ऑफिसर हैं। प्रशासन क्षेत्र में महिलाओं की प्रगति के हर वर्ष नए आयाम जुड़ते जा रहें।

सामूहिक स्तर पर महिलाओं की प्रगति ने 70 वें दशक में जोर पकड़ा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे मान्यता मिली है। 1975 में मेक्सिको में 930 देशों की 600 महिलाओं का एक वृहत सम्मेलन हुआ था। जिसकी तत्कालीन उपलब्धियां चाहे नगण्य रही हों लेकिन इसके दस वर्षीय कार्यक्रमों ने आगे निश्चित ही महिलाओं की स्थिति पर अपना प्रभाव डाला। इसके बाद राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न गोष्ठियों, सेमिनारों द्वारा विचार-विमर्शों में गति आयी। प्रगति व विकास की नयी योजनाएँ बनायी गयीं , क्रियान्वित की गयीं । इनका लेखा-जोखा पहले देशों के क्षेत्रीय सम्मेलन में हुआ व फिर 1980 में कोपेहेगन के विश्व महिला सम्मेलन में प्रस्तुत किया गया। इसमें शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार केन्द्रित कुल 48 प्रस्ताव पास हुए व कुल 145 देशों ने भाग लिया।

सन 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के समय कुल 32 देशों की महिलाओं को वोट देने अधिकार था। सन् 1975 में 124 देशों में यह अधिकार था। सन् 1975 में 124 देशों में यह अधिकार मिल गया। 1985 का विश्व महिला सम्मेलन नौरोबी में हुआ । चौथा विश्व महिला सम्मेलन गतवर्ष 1995 का के सितम्बर माह में चीन की राजधानी पेंकिग में हुआ इसमें 182 देशों की कुल 30,000 महिलाओं ने भाग लिया। इस सम्मेलन की सबसे बड़ी उपलब्धि रही कि औरत को एक सामान्य इनसान के रूप में मान्यता मिली। यह बात सर्वसम्मति से स्वीकारी गयी कि वह उतनी ही इनसान है जितना कि पुरुष । इस सम्मेलन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह रहा कि शामिल होने वाले देशों में से 89 देशों ने कई ठोस वायदे किए । 67 देशों ने समयबद्ध कार्यक्रम लागू करने की घोषणा की । इससे पूर्व किसी सम्मेलन में ठोस वायदे नहीं हुए थे । इस सम्मेलन में महिलाओं के कुछ उन अधिकारों पर चर्चा हुई जिन्हें महिलाओं का अधिकार नहीं माना जाता। महिलाओं के शक्तिकरण की बात भी आमतौर पर स्वीकार की गई। यद्यपि इन बृहद् सम्मेलनों में किए जाने वाले विचार-विमर्श का कोई त्वरित परिणाम नहीं निकलता है, लेकिन फिर भी जैसा कि राष्ट्र संघ के महासचिव बुतरस घाली कहते हैं -” इन विचार -विमर्शों से समस्याओं के निदान के लिए भले ही कोई त्वरित सहमति न हो सकी हो, लेकिन समस्याएँ व निदान दोनों चिह्नित होते हैं। समझदारी पर एक राय बनती है। यह कोई कम उपलब्धि नहीं है। नारी अभ्युदय के इन्हीं विश्व-व्यापी प्रयासों के कारण हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है। अकेले अमेरिका मे, पत्रिकाओं में 42 प्रतिशत समाचार पत्रों में 33 प्रतिशत महिलाएँ कार्यरत हैं । जबकि 1971 में वहाँ मात्र 3 प्रतिशत महिला वकील थीं, 1985 में उनकी संख्या 13 प्रतिशत तक बढ़ी है। गतवर्ष वकालत के प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या 44 प्रतिशत थी। यहाँ पर सुरक्षा जैसे पुरुष प्रधान क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी पर्याप्त है। 1994 में वायुसेना में 24 प्रतिशत, सेना में 19 प्रतिशत व नौसेना में 17 प्रतिशत महिलाएँ भर्ती हुई थीं। 1994 में ऑफिसर पदों पर सेना में 16 प्रतिशत जूनियर महिला अधिकारी, वायुसेना में 18 प्रतिशत व नौसेना में 14 प्रतिशत महिला अधिकारी थीं।

ईरान जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम देश में नारी वर्ग, नवजागरण के आलोक से अछूता नहीं है।वहाँ शिक्षा क्षेत्र में 74 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हो गयी हैं। विश्वविद्यालयों में भी चिकित्सा विज्ञान जैसे जटिल विषय में 45 प्रतिशत छात्राएँ अध्ययन कर रही हैं। पत्रकारों में 13 प्रतिशत महिलाएँ हैं। अखबार में काम करने वाली लगभग 22 प्रतिशत महिलाएँ रिपोर्टिंग का काम करती हैं। इतना ही नहीं महिलाओं द्वारा संसद में 25 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित करने की माँग जोर पकड़ रही है।

जापान के टोकियो शहर में 158 टैक्सी चालकों में 17 महिला चालक हैं। इन महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कार्य करने में अधिक कुशल व सक्षम पाया गया है।

भारतीय समाज में भी महिलाओं के प्रगतिशील कदमों में काफी तेजी हुई है। पुरुष प्रधान क्षेत्र में भी महिलाएँ अपना वर्चस्व दिखाने लगी हैं। सरकार द्वारा सेना, वायुसेना व सुरक्षा व्यवस्था में स्त्रियों का नियोजन एक क्रान्तिकारी परिवर्तन है। हरिता दिओल वायुसेना में उड़ान भरने वाली प्रथम महिला पायलट बन गयी हैं। कई अन्य महिलाएँ भी वायुसेना में प्रवेश पा चुकी हैं। इससे पहिले सेना, नौसेना व मर्चेण्ट नेवी में भी महिलाओं को प्रवेश मिल चुका है। अल्का खुराना प्रथम महिला लेफ्टिनेंट बनी हैं।

माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली प्रथम भारतीय महिला बछेन्द्री पाल के निर्देशन में एक पूरा महिला समूह माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ने में सफल रहा है। पर्वतारोहण ही नहीं पुरुष प्रधान खेलों में भी भारतीय महिलाओं ने भारत के गौरव को बढ़ाया हैं। भारोत्तोलन के क्षेत्र में कुँअरानी देवी, मल्लेष्वरी देवी, नीलम लक्ष्मी, भारती सिंह की प्रतिभा की सराहना हर किसी ने की है।

इतना ही क्यों अब की बार अटलाँटा ओलम्पिक में महिला खिलाड़ियों की संख्या में पिछली बार की तुलना में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक में कुल 3780 महिला खिलाड़ियों ने भाग लिया । जबकि एथेंस में अब से सौ साल पहले जब ओलम्पिक खेल शुरू हुए थे, तब इस महाप्रतियोगिता में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति नहीं दी गयी थी । लेकिन इस बार न केवल महिला खिलाड़ियों की भागीदारी में आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी हुई , बल्कि उन्होंने सबको चकित करते हुए अपने-अपने राष्ट्रों के लिए स्वर्ण, रजत, कांस्य, पदक भी बटोरे।

खेल ही नहीं, प्रतिभा का कोई भी क्षेत्र हो, नारियाँ पीछे नहीं हैं। विश्व में सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबुल पुरस्कार से अब तक 25 महिलाएँ अलंकृत हो चुकी हैं। हालाँकि यह संख्या कुछ अधिक नहीं है फिर भी नारी के प्रतिभा के प्रकाश को उजागर करने के लिए इसे पर्याप्त कहा जाएगा। इनमें से 9 महिलाओं को शान्ति के क्षेत्र में, आठ को साहित्यिक रचना हेतु , शेष आठ को अन्य उत्कृष्ट कार्यों के योगदान में यह पुरस्कार दिया गया हैं। इस सबके अतिरिक्त सार्वजनिक एवं कामकाजी क्षेत्रों में महिलाएँ खुलकर बाहर आ रही है। इससे महिला मुक्ति, स्वतन्त्रता एवं आत्मनिर्भरता का नया मार्ग खुला है।

तमिलनाडु के पुददु कोट्टई जिले की 20,000 से भी अधिक महिलाओं ने ट्राइसन स्कीम के अंतर्गत साइकिल चलाना सीख लिया है। इसी जिले में 170 पत्थर की खदानें महिला ठेकेदारों द्वारा सफलतापूर्वक चलायी जा रही हैं। अन्य लोगों के अतिरिक्त इनके पति भी इनके आधीन यहाँ रोजगार करते हैं। इनमें से कुछ पढ़ी-लिखी महिलाएँ यहाँ का सारा हिसाब-किताब सँभाल रही हैं। मद्रास में दो बच्चों की माँ 24 वर्षीय रा. बासन्ती तिपहिया स्कूटर चलाकर अपनी रोजी-रोटी कमाती है। बेंगलोर में भी एक महिला ऑटो रिक्शा चलाकर अपने घर का खर्च चलाती हैं।

आंध्रप्रदेश के नेल्लोर जिले में दोवागुँटा गाँव की स्त्रियों ने 1991 में नशा विरोधी आन्दोलन छेड़ा था। जिसके परिणामस्वरूप 1995 से आंध्रप्रदेश में नशाबंदी लागू कर दी गयी । नशाबंदी लागू होने के बाद नेल्लोर जिले में महिलाओं ने एक वर्ष के अन्दर 7 करोड़ रुपए बचत के एकत्र किए । जिसका उपयोग स्त्रियों , बच्चों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य , भोजन आदि की व्यवस्था के लिए किया जा रहा है।

गत 15 वर्षों में नारी आन्दोलनों के कारण कई कानूनों में सुधार हुआ है। महिलाओं के लिए नीतियाँ बनी है, एक राष्ट्रीय आयोग का गठन भी किया गया हैं। इनमें पंचायती राज्य एक्ट के अंतर्गत पंचायत व नगर निगम में 30 प्रतिशत आरक्षण की सुनिश्चितता एक महत्वपूर्ण एवं क्रान्तिकारी कदम हैं। इससे ग्रामीण क्षेत्रों की 800,0,00 गरीब महिलाएँ सार्वजनिक पदों पर कार्य करेंगी । इससे ग्रामीण महिलाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक एवं राजनैतिक कार्यों के प्रति जागरुकता पैदा होगी, जो नारी अभ्युदय के लिए बहुत शुभ लक्षण है।

महिलाओं के संपत्ति सम्बन्धी अधिकार में कानूनी संशोधन किए गए हैं। 1985 के प्रतिभा रानी केस के साथ स्त्रीधन पर महिला के पूरे अधिकार की घोषणा हुई है। शोभा रानी केस (1987) के बाद दहेज माँगना क्रूरता घोषित किया गया है? इसके अनुसार दहेज माँग करने पर विवाह रद्द करने की माँग जायज है। अब महिला को मिली संपत्ति पर महिला का पूरा अधिकार हैं। गुजरात में खोंच लगाने वाली औरतों ने कानूनी लड़ाई जीत ली है। उनको फुटपाथ पर सामान बेचने की अनुमति मिल गयी है।

बढ़ती हिंसा के कारण महिलाओं के लिए महिला थानों की व्यवस्था की जा रही है। जयपुर में पहला सम्पूर्ण महिला थाना खुला है। तमिलनाडु में चार महिला थाने खुले हैं। दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकने के लिए विशेष कक्ष खुले 10 से ज्यादा वर्ष हो चुके है। इसी तरह पश्चिम बंगाल में सरकार सात महिला पुलिस थाने खोलेगी । स्वाभाविक है इन सबकी प्रभारी अधिकारी महिलाएँ ही होगी।

वर्तमान में हरियाणा पहला राज्य है जिसने महिलाओं के कल्याण के लिए अलग से महिला तथा शिशु विकास निदेशालय बनाया है व महिला विकास निगम की स्थापना की है । पंचायत व म्युनिसिपल अधिनियम के अंतर्गत महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया है। प्रदेश के कुल 5,958 सरपंचों में 1994 महिलाएँ है और 54,159 पंचों में 17920 औरतें है। यहाँ तकनीकी संस्थानों में तथा स्नातक स्तर तक बालिकाओं की शिक्षा निःशुल्क कर दी गई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हरियाणा से लगे जिलों मुजफ्फरनगर, सहारनपुर मेरठ में शराब के विरुद्ध महिलाओं ने बीड़ा उठा लिया है और मुजफ्फरनगर के खिलाफ एक संगठित आवाज की आवश्यकता को अनुभव करते हुए वर्ष 1996 को पुनर्जागरण वर्ष के रूप में मनाने का संकल्प लिया है।

गाँव हो या देश अथवा फिर विश्व का व्यापक परिसर, हर कहीं नारी अभ्युदय के सुर्योदय की किरणें अपना प्रकाश फैलाने लगी है। शीघ्र ही संसार का हर कोना, जीवन का हर क्षेत्र इनके आलोक से प्रभावित हुए बिना न रहेगा। अगले चार वर्षों के साथ ही नारी का वर्चस्व अपनी प्रखरता स्वयमेव सिद्ध कर देगा। स्वयं को पहचानें, नारी अभ्युदय का सुर्योदय अपने ताप से पुरुषों के उद्धत अहं को जलाकर राख कर दे , उसके पहिले ही उसकी अभ्यर्थना करने की तैयारी करने में ही बुद्धिमता है।

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