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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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नारी के प्रति अपराध-संस्कृति पर आघात

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भारतीय संस्कृति सृजन और संवेदना की संस्कृति है। इसका मूर्त रूप है, नारी। जिसका समूचा अस्तित्व सृजन एवं संवेदना के स्पन्दनों भावनाओं से मानवीयता पुष्पित-पल्लवित होती रहती है। कोई भी व्यक्ति अथवा समाज कितना सुसंस्कृत है? इस सवाल का जवाब, उसका नारी के प्रति किए जाने वाले व्यवहार में खोजा जा सकता है। महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार हमारी सभ्यता और संस्कृति पर प्रश्नचिह्न लगाता है। नारी के प्रति अपराध, संस्कृति पर आघात है। इनमें दिन-पर-दिन हो वाली बढ़ोत्तरी ने समूचे साँस्कृतिक अस्तित्व को संकट में डाल दिया है।

विगत एक दशक में इसमें दोगुनी वृद्धि हुई है। गृह मंत्रालय के ‘क्राइम ब्यूरो’ के अनुसार प्रत्येक छह मिनट तरह का एक अपराध घटित होता है। वर्ष 1992 में अपराधों की संख्या 82,812 रही। वर्ष 1993 में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों की संख्या 84,000 जा पहुंची। बढ़ते अपराधों के कारण महिलाओं की स्थिति भयावह एवं असुरक्षित बनती जा रही है। इन अपराधों के चक्रव्यूहों में फँसकर महिला अपने दैवी स्वरूप की गरिमा को खोकर एक भोग्य वस्तु के दर्जे तक गिर गयी है। उसे पुरुष प्रधान समाज में अनेक भयावह परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है और वह शारीरिक एवं आर्थिक शोषण के नाम बलि होती जा रही है। यौन शोषण प्रदूषण की भाँति फैल रहा है। कोई दिन अखबार में ऐसा नहीं आता जब कहीं बलात्कार की घटना न घटती हो । बलात्कारी घटनाओं में प्रारम्भ से अन्त तक जिन पारिवारिक एवं मानसिक यंत्रणाओं से स्त्री को गुजरना पड़ता है, उसकी कल्पना तक कँपा देने वाली है। बलात्कारी दरिंदे, पुलिस व वकीलों के उलूल-जुलूल सवाल, परिवार एवं समाज की उपेक्षा, लाँछना एवं बहिष्कार हर स्तर पर वह नारकीय यन्त्रणा से गुजरने के लिए विवश होती है।

वर्ष 1990 में महिला बलात्कार के 10,000 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 15 प्रतिशत की आयु 16 वर्ष से कम व 20 प्रतिशत की 10 वर्ष से कम थी। यह संख्या 1991 के 10,410 से बढ़कर 1992 में 10,827 हो गयी। बच्चियों के साथ बलात्कार 278 प्रतिशत बढ़ा है। 1990 में यह संख्या 394 थी जो 1991 में 1091 हो गयी। इनमें से अनेक न्याय की अंतहीन प्रतीक्षा में अभी तक आँसू बहा रही हैं। 1991 में अदालतों में लटके 29983 मामलों में से 24410 मामले तो साल के अन्त तक लटके रहे। गत दो दशकों में यानि 1974 से 1993 के बीच 2962 से 11,117 तक बढ़ोत्तरी जा पहुँची है। इस वृद्धि दर को गणित की भाषा में 400 प्रतिशत कहा जाएगा। इसी तरह महिलाओं के अपहरण में 1980 से 11,759 अर्थात् 30 प्रतिशत वृद्धि हुई है।

वर्ष 1993 की राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रत्येक महीने 937 महिलाएँ बलात्कार का शिकार होती हैं। 1799 महिलाओं से छेड़खानी की जाती है व सताया जाता है, अर्थात् प्रत्येक दिन 32 महिलाएँ बलात्कार का शिकार होती हैं व 57 महिलाओं से छेड़खानी की जाती है। इनमें से 50 प्रतिशत बलात्कार का शिकार 10 वर्ष के नीचे की बच्चियाँ होती हैं। अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश महिलाओं के संदर्भ में सबसे असुरक्षित प्रान्त है। यहाँ प्रत्येक दिन औसत 7 महिलाएँ बलात्कार का शिकार होती हैं। व 15 महिलाओं से छेड़खानी की जाती है। अर्थात् मास में 207 बलात्कार व 464 छेड़खानी की घटनाएँ होती हैं। जो कि देश भर का क्रमशः 22.1 प्रतिशत व 26.6 प्रतिशत है।

मध्यप्रदेश के बाद दूसरा नम्बर उत्तरप्रदेश का है। जहाँ प्रतिमास 146 बलात्कार व 201 छेड़खानियाँ होती हैं। महाराष्ट्र में प्रति महीने 95 बलात्कार व 250 छेड़खानियाँ होती हैं। स्त्रियों को सताने की 50 प्रतिशत से अधिक घटनाएँ मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश एवं महाराष्ट्र में होती हैं। राजस्थान में अभी हाल में भँवरी देवी काण्ड हुआ है, वहाँ 74 बलात्कार व 132 छेड़खानियाँ प्रतिमाह होते हैं। आंध्रप्रदेश, बिहार व बंगाल अन्य तीन ऐसे प्रान्त हैं, यहाँ क्रमशः 69,98 व 62 बलात्कार होते हैं। अर्थात् प्रत्येक दिन दो से अधिक बलात्कार होते हैं। दिल्ली में 1993 में 321 बलात्कार में मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें 177 छोटी उम्र की अपरिपक्व लड़कियों से, 35 मामले 7 साल की छोटी बच्चियों से तथा 118 मामले 12 से 19 वर्ष की लड़कियों से घटित हुए। 1994 में 162 बलात्कार की घटनाएँ हुई जिनमें 928 बच्चियाँ थीं। आगे के दिनों में यह ग्राफ निरन्तर बढ़ता हुआ पाया जा रहा है।

इस बीच बलात्कार के दोषी पुरुषों को अदालत से छोड़ दिए जाने से अपराधियों की संख्या भी बढ़ी है। 1993 में 30.3 प्रतिशत अपराधियों को सजा मिली, जबकि 1990 में 41.5 प्रतिशत को सजा मिली थी। दूसरा दुःखद पहलू यह है कि 80 प्रतिशत मामले लटके रहते हैं। कुल मिलाकर भारत में इस तरीके में अपराध के लगभग 7,000 मामले दर्ज किए जाते हैं। असली आंकड़े शायद इससे भी अधिक हों, क्योंकि अधिकांश मामले पुलिस की रिपोर्ट में ही नहीं आ पाते हैं।

पाकिस्तान में महिला प्रधानमंत्री होने के बावजूद भी महिलाएँ दूसरे दर्जे के नागरिक की स्थिति में जीने के लिए मजबूर हैं। वहाँ विवाहित महिलाओं में से 80 प्रतिशत परिवार में होने वाली ज्यादतियों की शिकार हो रही हैं। पाकिस्तान के महिलाधिकारों के लिए संघर्ष संगठन की मुख्य समन्वयक शहनाज बुखारी का कहना है कि गत दो वर्षों में महिलाओं से ज्यादतियों के 380 मामलों की जानकारी वहाँ के दो सरकारी अस्पतालों से मिले आँकड़ों से मिली है। इस साल पहिले पाँच महीनों में ही महिलाओं पर अत्याचार के लगभग 80 मामले प्रकाश में आए हैं। इसी तरह दहेज के कारण प्रतिदिन 5 से 10 महिलाओं पर बलात्कार की शिकायत रहती है।

विदेशों में महिला यौन शोषण की समस्या और बदतर है। ‘टाइम’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार तेल अबीव (इसराइल) में वेश्यालयों की संख्या गत 5 सालों में 30 से बढ़कर 150 हो गयी है। चीन में गत 15 सालों में वेश्यावृत्ति, यौन रोगों एवं नारी विरोधी अपराधों में तेजी से वृद्धि हुई है, जबकि 1970 तक वहाँ इसका नामोनिशान नहीं था उत्तरी भारत अमेरिका में एक अध्ययनानुसार 4 में से एक लड़की 14 वर्ष की आयु से पूर्व ही यौन शोषित की जाती है। इसके अलावा 6 में से एक लड़की का यौन शोषण किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट जिसमें ‘सेण्टर आफ कंसर्न पर चाइल्ड लेबर’ का सर्वेक्षण सम्मिलित है, बताती है कि भारत में लगभग 4 लाख बाल वेश्याएं हैं। इसके अलावा भारत में स्त्री जाति पर घृणित अत्याचारों का स्वरूप अभी 1994 में उजागर में 500 बच्चियों के साथ बल प्रयोग की घटना भी प्रकाश में आयी।

दहेज नारी के जीवन का एक अन्य अभिशाप है। जिसकी वेदी पर हर माह सैकड़ों वधुएँ बलि चढ़ाई जाती हैं। शादी महज एक घिनौना व्यापार बनकर रह गयी है। वर्ष 1986,87 एवं 88 में कुल 5282 वधुएँ दहेज की बलि चढ़ी, जिसमें उत्तरप्रदेश का स्थान प्रथम था। उत्तरप्रदेश में 1986 में 461 व 1987 में 533 हत्याएँ हुई। तीन वर्षा में 1781 हत्याएँ हुई । इसी वर्ष उत्तरप्रदेश में 1 जनवरी से 30 अप्रैल के बीच चार माह में 311 हत्याएँ हुई। जिनमें 146 दहेज हत्याएँ व 65 उत्पीड़न के मामले थे। 1990 में हत्या के 1152 मामले दर्ज किए गए हैं।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश भर में 1993 में 5817 दहेज के कारण मौतें हुई जो पिछले वर्ष से 17.2 प्रतिशत अधिक थीं। उत्तरप्रदेश में 163 दहेज से मृत्यु हुई, जो इस वर्ष प्रतिमाह की दर से सर्वाधिक थी। महाराष्ट्र एवं आंध्रप्रदेश में क्रमशः 32 एवं 48 दहेज से मृत्यु हुई। मध्यप्रदेश एवं राजस्थान में 31 का औसत रहा। पूर्व उत्तर राज्य इस अपराध से अछूते रहे। दिल्ली में औसत प्रतिमाह एक दहेज से मृत्यु हुई।

सन् 1993 में दहेज अपराधियों में 34.5 प्रतिशत को ही सजा मिली जबकि 1992 में 37.8 को दण्डित किया गया था। बलात्कार के मामलों की ही तरह अदालतों में 80 प्रतिशत मामले लटके रहे। दहेज से होने वाली महिलाओं की मृत्यु की वर्तमान स्थिति यह है कि हमारे देश में औसतन प्रतिवर्ष दहेज के कारण 200 मौतें होती हैं। इसमें उत्तरप्रदेश में सबसे ज्यादा 500 मौतें होती हैं। दहेज की वजह से मध्यप्रदेश में लगभग 200, महाराष्ट्र में 225, बिहार में 120, राजस्थान में 110 आन्ध्र प्रदेश में व पश्चिम बंगाल में क्रमशः 90,90 कर्नाटक में 80, तमिलनाडु में 50 व कश्मीर में 10 मौतें प्रतिवर्ष होती हैं। महिलाओं के प्रति बढ़ते इन अपराधों से किसी भी विचारशील का सिर शर्म से झुक जाता है। वर्ष 1990 में महिलाओं के प्रति किए गए अपराधों के कुल 68,317 मामले दर्ज किए गए थे। जबकि 1993 में इनकी संख्या 83,954 से भी अधिक जा पहुँची। अर्थात् 23 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी रही।

आर्थिक एवं यौन शोषण के साथ ही महिलाओं के श्रम शोषण की समस्या भी अभी बरकरार है। संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वेक्षण के अनुसार आज महिलाएँ दुनिया का दो तिहाई श्रम करती हैं, जिसका उन्हें मात्र आठवाँ हिस्सा मिलता है। एक तिहाई गृहस्थियाँ महिलाओं की कमाई से चलती हैं व दो तिहाई महिलाएँ घरों में काम करती हैं। महिलाओं का आर्थिक योगदान 30 प्रतिशत है। अधिकतर महिलाएँ असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं। 63 प्रतिशत महिलाएँ खेतिहर मजदूर हैं और पशुपालन व दुग्ध सम्बन्धी उद्योगों में काम कर रही हैं। लगभग 80 प्रतिशत कामगारों में अधिकांश महिलाएँ ऐसी हैं जो अपने घरों में झुग्गियों के भीतर बैठकर कताई, रंगाई आदि का काम करती हैं। भारत के पहाड़ी क्षेत्र में बैल का एक जोड़ा वर्ष भर में 1064 घण्टे काम करता है। पुरुष 1210 घण्टे व एक महिला 3485 घण्टे श्रम करती है। श्रम शोषण का यह अपराध शारीरिक एवं आर्थिक अपराध का सम्मिश्रण ही कहा जाएगा।

नारियों के प्रति बढ़ते अपराध की ही यह परिणति हैं, जो भारत में स्त्री-पुरुषों के अनुपात में निरन्तर कमी आती जा रही है। 1901 में भारत में पुरुष-स्त्री अनुपात 1000 एवं 978 था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय यह स्थिति 1000 एवं 945 रह गयी। 1971 में यह 1000 एवं 930 था। वर्ष 1991 के आँकड़ों के अनुसार महिलाओं की संख्या प्रत्येक वर्ष 1000 पुरुष के पीछे 927 रह गयी है। यह निश्चित ही एक असामान्य एवं अप्राकृतिक स्थिति है। किसी भी उन्नत देश में स्त्री-पुरुष अनुपात 1000 या उससे अधिक की पाया जाता है। जैसे- अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्राँस, जापान, जर्मनी और आस्ट्रेलिया में वर्ष 1992 में महिलाओं की यह संख्या प्रति 1000 पुरुषों के पीछे क्रमशः 1050, 1050,1020, 1050, 1030, 1080, और 1000 थी। ऐसा होना प्राकृतिक भी है क्योंकि जीव-विज्ञान के अनुसार प्रकृति ने पुरुषों की अपेक्षा स्त्री की जीवित रहने के लिए अधिक सक्षम बनाया है। सामान्यतया स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा बीमारियों से लड़ने की क्षमता अधिक होती है। रोचक तथ्य यह है। कि जन्म के समय जन्म का अनुपात पुरुषों के पक्ष में होता है। 1000 बालिकाओं के पीछे 1050 से 1070 बालक जन्म लेते हैं। लेकिन बाद में यह अनुपात उलटकर स्त्रियों के पक्ष में हो जाता है, क्योंकि स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा मजबूत होती हैं।

प्रकृति से लड़कर जीतने वाली नारी को पुरुष की बर्बरता, नृशंसता के कारण लगातार जान गँवानी पड़ती है। इसलिए नहीं कि वह पुरुषार्थ की तुलना में अक्षम है, बल्कि इसलिए क्योंकि वह बर्बर और नृशंस नहीं है। वह अपने अन्तः करण की कोमल संवेदना, भावना एवं सदाशयता के हाथों विवश है। ध्वंस नहीं सृजन उसकी विवाह गुड़ियों का खेल नहीं, यह प्रेम की वह व्यवस्था है जो हमारी मानसिक, शारीरिक तथा आध्यात्मिक इन्द्रियों का विकास करता है। जहाँ यह आवश्यकता पूरी न हो यह मानना चाहिए वहाँ विवाह नहीं खेल होता है।

-स्वामी विवेकानन्द

मूल वृति है। सम्भवतः इसी कारण वह अपने ऊपर होने वाले अपराधों एवं अत्याचारों को सहती जा रही है। परन्तु अधिक नहीं, सहने की भी एक सीमा होती है। अच्छा यही है, अपराधी पुरुष समय रहते चेत जाएँ। ऐसा न हो कि महाकाली की अंशधर देवी शक्तियाँ अपना प्रचण्ड रूप प्रकट कर दें और उसमें अपराधी पतंगों की तरह जलने, भुनने भस्म होने लगें। विचारशीलता यही कहती है, पुरुष के पौरुष की गरिमा नारी को संरक्षण देने, संस्कृति को अभिवर्द्धित करने में है। इसी में हम सुसंस्कृत एवं समुन्नत कहला सकते हैं। नारियाँ अपना प्रचण्ड रूप प्रकट करें, इससे पहले ही हम अपने व्यवहार से प्रमाणित कर दें कि हम सभ्य एवं सुसंस्कृत हैं।

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