• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्रज्ञावतार की पुण्य बेला
    • युगसन्धि का विशिष्ट अवसर -परिवर्तन का महापर्व
    • युगपरिवर्तन का ठीक यही उपयुक्त समय
    • नई रोशनी (Kahani)
    • सृष्टिक्रम में स्रष्टा की अवतरण- प्रक्रिया
    • युगावतार -प्रज्ञावतार
    • यदा यदा हि धर्मस्य
    • दीपक का कर्तव्य (Kahani)
    • युगसन्धि का आरम्भ, मध्य और अन्त प्रसिद्ध ज्योतिर्विदों की दृष्टि में
    • शक्ति का आधार संयम (Kahani)
    • मूर्धन्यों के अभिमत एवं अंतर्ग्रही प्रभावों की प्रतिक्रिया
    • मनुष्य जाति पर गहराते संकट के बादल
    • प्रचण्ड-पुरुषार्थ से नए भाग्यविधान की रचना (Kahani)
    • आस्था-संकट की विभीषिका और उससे निवृत्ति
    • स्वामिनाथन की सीख (Kahani)
    • युद्धलिप्सा कितनी घातक हो सकती हैं
    • समस्त समस्याओं के समाधान का सुनिश्चित आधार
    • कर्तव्यपालन मानव-जीवन की सर्वोपरि सम्पदा (Kahani)
    • श्रद्धा और विवेक का संगम ही करेगा युगपरिवर्तन
    • महर्षि चरक की नैतिकता (Kahani)
    • अवतार के प्रकटीकरण के पर्याप्त प्रमाण
    • नवयुग का आधारः श्रद्धा-संवर्द्धन
    • चट्टान की सी जिन्दगी (Kahani)
    • प्रज्ञावतार का महाप्रयास
    • भाग्यवान और अभागा (Kahani)
    • कल्पवृक्षों की नई पौध उग रही है
    • मलिन विचारों वाले हृदय में ईश्वर भक्ति कैसे रहेंगी (Kahani)
    • युगदेवता की दो प्रत्यक्ष प्रेरणाएँ
    • जीवन का उत्सर्ग (Kahani)
    • युगशक्ति का अवतरण-नवयुग के अभ्युदय के लिए
    • संक्रान्तिकाल एवं इष्ट का वरण
    • त्याग की परिभाषा (Kahani)
    • विशिष्ट प्रयोजन के लिए विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज
    • संसार का प्रेतवास बनना (Kahani)
    • युगपरिवर्तन में अन्तरिक्ष-विज्ञान का उपयोग
    • आगे बढ़ते रहे.. ( kahani)
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - प्रज्ञावतार की सत्ता का आश्वासन
    • अपनों से अपनी बात- 3 - महाकुम्भ की पावन बेला एवं आगामी विशिष्ट सत्रों की श्रृंखला
    • अपनों से अपनी बात-2 - भावी आयोजन अब इस रूप में संपन्न होंगे
    • अपनों से अपनी बात-3 - नई भूमि में क्या बनने जा रहा है, क्या संकल्पना है?
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्रज्ञावतार की पुण्य बेला
    • युगसन्धि का विशिष्ट अवसर -परिवर्तन का महापर्व
    • युगपरिवर्तन का ठीक यही उपयुक्त समय
    • नई रोशनी (Kahani)
    • सृष्टिक्रम में स्रष्टा की अवतरण- प्रक्रिया
    • युगावतार -प्रज्ञावतार
    • यदा यदा हि धर्मस्य
    • दीपक का कर्तव्य (Kahani)
    • युगसन्धि का आरम्भ, मध्य और अन्त प्रसिद्ध ज्योतिर्विदों की दृष्टि में
    • शक्ति का आधार संयम (Kahani)
    • मूर्धन्यों के अभिमत एवं अंतर्ग्रही प्रभावों की प्रतिक्रिया
    • मनुष्य जाति पर गहराते संकट के बादल
    • प्रचण्ड-पुरुषार्थ से नए भाग्यविधान की रचना (Kahani)
    • आस्था-संकट की विभीषिका और उससे निवृत्ति
    • स्वामिनाथन की सीख (Kahani)
    • युद्धलिप्सा कितनी घातक हो सकती हैं
    • समस्त समस्याओं के समाधान का सुनिश्चित आधार
    • कर्तव्यपालन मानव-जीवन की सर्वोपरि सम्पदा (Kahani)
    • श्रद्धा और विवेक का संगम ही करेगा युगपरिवर्तन
    • महर्षि चरक की नैतिकता (Kahani)
    • अवतार के प्रकटीकरण के पर्याप्त प्रमाण
    • नवयुग का आधारः श्रद्धा-संवर्द्धन
    • चट्टान की सी जिन्दगी (Kahani)
    • प्रज्ञावतार का महाप्रयास
    • भाग्यवान और अभागा (Kahani)
    • कल्पवृक्षों की नई पौध उग रही है
    • मलिन विचारों वाले हृदय में ईश्वर भक्ति कैसे रहेंगी (Kahani)
    • युगदेवता की दो प्रत्यक्ष प्रेरणाएँ
    • जीवन का उत्सर्ग (Kahani)
    • युगशक्ति का अवतरण-नवयुग के अभ्युदय के लिए
    • संक्रान्तिकाल एवं इष्ट का वरण
    • त्याग की परिभाषा (Kahani)
    • विशिष्ट प्रयोजन के लिए विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज
    • संसार का प्रेतवास बनना (Kahani)
    • युगपरिवर्तन में अन्तरिक्ष-विज्ञान का उपयोग
    • आगे बढ़ते रहे.. ( kahani)
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - प्रज्ञावतार की सत्ता का आश्वासन
    • अपनों से अपनी बात- 3 - महाकुम्भ की पावन बेला एवं आगामी विशिष्ट सत्रों की श्रृंखला
    • अपनों से अपनी बात-2 - भावी आयोजन अब इस रूप में संपन्न होंगे
    • अपनों से अपनी बात-3 - नई भूमि में क्या बनने जा रहा है, क्या संकल्पना है?
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


नवयुग का आधारः श्रद्धा-संवर्द्धन

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 21 23 Last
अश्रद्धा अर्थात् आदर्शवादिता की अवमानना अन्धश्रद्धा अर्थात् व्यक्तियों क्रियाओं या देवभूतों की विलक्षण में आसक्ति। श्रद्धा अर्थात् उत्कृष्टता की सर्वोपरि उपलब्धि के रूप में अवधारणा। इस व्याख्या को समझ लेने पर अवधारण। इस व्याख्या को समझ लेने सकना भी सम्भव होता है। आदर्शों की अवमानना का अर्थ है-उस रिक्तता को पशुवृत्तियों से भरना। जो भला नहीं होगा, उसे बुरा होना चाहिए। जब दिन नहीं होता तब रात रहती है। अन्धकार और प्रकाश की मध्यवर्ती और कोई रेखा नहीं है। अश्रद्धा की प्रतिक्रिया चिन्तन की भ्रष्टता और आचरण की दुष्टता भयावह रूप धारण करती और श्मशान में होने वाले प्रेत–पिशाचों के नृत्य जैसा जीवनक्रम एवं वातावरण विनिर्मित करती है। धर्म-क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों तथा बुद्धिमान के नाम पर पनपी भ्रान्तियों ने इन दिनों अश्रद्धा की भावनात्मक अराजकता उत्पन्न की है। परिणाम सामने है। मनुष्य क्रमशः नरपशु, नरकीटक, नरपिशाच बनता और पतन के गर्त में गिरता चला जा रहा है।

अन्धश्रद्धा ने भ्रान्तियों के जंजाल में चिन्तन को उलझाया और कष्कारण भूल-भुलैया में भटकाया हैं। भोले -भावुक व्यक्तियों को चतुर लोग अन्धश्रद्धा के रस्से बाँधकर ही अनुपयुक्त मान्यताओं के गर्त में धकेलते हैं। निहित स्वार्थों का व्यवसाय अन्धश्रद्धा की अन्धेर नगरी में जिस सफलता के साथ चलता है, उतना अन्यत्र कहीं नहीं। भीरुता और बौद्धिक अपंगता मिलकर एक ऐसा दल-दल प्रस्तुत करती हैं, जिसमें, जादू-टोना देवभूत, ज्योतिष से लेकर सामाजिक कुरीतियों जैसी विकृतियाँ ही पल्ले पड़ती हैं। तथाकथित प्रगतिशीलता अश्रद्धा में और पिछड़ी मनःस्थिति अन्धश्रद्धा में भटकती है। आस्था-संकट इन्हीं दोनों के समन्वय का नाम है। चेतना की क्षमता को अनर्थ में धकेलने और निरर्थक बनाने की दुरभिसंधि इन दोनों ने ही मिलकर रची है। भटकी और बौराई मनुष्य जाति को इन्हीं दोनों के अभिशाप सहने पड़ रहे हैं। प्रज्ञायुग में श्रद्धा को मानवी अन्तरात्मा में प्रतिष्ठित होने का अवसर मिलेगा। इन उपलब्धियों से जो कितना सम्पन्न होगा उसे उसी अनुपात में अपने दृष्टिकोण एवं आचरण का स्तर ऊँचा उठाने का सुअवसर प्राप्त होगा। कहना न होगा कि इसी सौभाग्य के सहारे व्यक्तित्व में प्रखरता उत्पन्न होती है और भौतिक सफलताओं से लेकर आत्मिक विभूतियों की अनेकानेक सुसम्पन्नताएँ उपलब्ध होती है। आत्मकल्याण और लोक-कल्याण के दोनों ही जीवन-लाभ मात्र श्रद्धालु ही प्राप्त करते है।

श्रद्धालु अपने का आत्मा मानता है और उसके सन्तोश एवं कल्याण के लाभ को प्रमुखता देता हैं। शरीर उसे मात्र वाहन, उपकरण प्रतीत होता है। अतएव उसके भरण-पोषण का समुचित ध्यान रखते हुए भी शरीराध्याय की कीचड़ में कृमि-कीटकों की तरह आत्मसात् नहीं करता। इन्द्रियों की अनुभूत क्षमता से जीवनचर्या में सहयोग तो लेता है पर ऐसी स्थिति नहीं आने देता कि इन्द्रियाँ ही अधिपति बन बैठे और उन्हीं की वासनातृप्ति के लिए शारीरिक मानसिक सन्तुलन ही नहीं नीति-मर्यादा तक को गँवाना पड़े। श्रद्धालु मस्तिष्क की लगन काम में रहती है और उसे उच्छृंखल घोड़े जैसा आचरण नहीं करने देता। संग्रह की तृष्णा, बड़प्पन की अहंता, उपभोग की लिप्सा परिजनों में आवश्यक आसक्ति ईर्ष्या, द्वेश, मद, मत्सर जैसी व्याधियाँ दिशाहीन भटकन जैसी वितृष्णाएँ निरन्तर मानसिक सन्तुलन को अस्त-व्यस्त करती रहती है। उद्विग्नता की अनेकानेक परतें मनःक्षेत्र को विक्षुब्ध बनाये रहती हैं तनाव और खोज ही चमड़ी की सुन्दरता रहते हुए भी विद्रूप और कुरूप लगता रहता हैं यह स्थिति शारीरिक रुग्णताओं का पहाड़ टूट पड़ने से भी अधिक दुःखदायी होती है। इसका समग्र उपचार उन्मूलन निराकरण श्रद्धा की रामबाण औषधि ही कर सकती है। गुण ग्राहकता-सौंदर्य-दृष्टि-विधायक-चिन्तन उदार-आत्मीयता अभिनेता जैसी मनःस्थिति बन जाने पर परिस्थिति में जी हलका रखा जा सकता है। ऐसा हलका मन रहने पर ही गुत्थियों के समाधान और प्रगति के निर्धारण सही रूप में सम्भव हो सकते हैं। कहना न होगा कि सौजन्य और सौमनस्य श्रद्धा तत्त्व के ही दो प्रतिफल है। मनीषी प्रकारान्तर से श्रद्धालु को ही कहते हैं। विवेक मात्र उन्हीं के मस्तिष्क में रहता है। द्रष्टा एवं तत्त्वदर्शी उन्हीं को कहा जाता है।

श्रद्धा, संगम और अनुशासन द्वारा शरीर को स्वस्थ और दीर्घजीवन प्रदान करती है। श्रद्धा में सद्विचारणा और सद्भावना का अभ्यास होता है। फलतः सामान्य स्तर का मस्तिष्क भी ऋषिकल्प मेधा से भरा रहता है। वे चन्दन की तरह महकने और वातावरण को शीतल, सुव्यवस्थित बनाये रहते हैं। चिन्तन की क्रियाधारा उत्कृष्टता की ओर प्रवाहित होती है। इसका परिणाम उस स्तर की सफलता बनकर सामने आता है, जिसे सामान्यतया वरदान या चमत्कार की संज्ञा दी जाती है।

श्रद्धा की परिणति आत्मियता और सुव्यवस्था में होती है। परिवारों का आनन्द और उत्साह, सहयोग और सौजन्य इसी मनःस्थिति में सम्भव रहता है। ऐसा वातावरण जिन कुटुंबों में रहेगा उन्हीं में श्रेष्ठ नागरिक और नररत्न होते हैं। धन से विलासिता और वैभव के साधन बढ़ सकते हैं, पर उसमें उद्धत अहंकार का पोषण होने के अतिरिक्त और कुछ बनता नहीं, ऐसी सड़न में विकृत व्यक्तित्व ही जन्मते और पलते हैं। ऐसे कुटुम्ब बाहर से एक बाड़े में रहने की तरह इकट्ठे भले ही दीखें, पर पारस्परिक स्वभाव और उपयुक्त वातावरण के अभाव में दुरभिसंधियाँ ही पनपती हैं, ऐसे कुटुम्ब पालने की अपेक्षा एकाकी रहने वाले अपेक्षाकृत अधिक सुखी रह सकते हैं।

श्रद्धा ही वह तत्त्व है, जो छोटे कुटुंबों को आत्मीयता के सूत्र में बाँधता है और विवेक-उल्लास के साथ गरीबी में भी अमीरों से कहीं अधिक सन्तोश प्रदान करता है। पति-पत्नी के बीच, भाई-बहिन के बीच, अभिभावक-संरक्षकों के बीच जो आत्मीयता और उदार सेवा-साधना की भाव-सम्वेदनाएँ मचलती रहती हैं उन्हीं पर कुटुम्ब का आनन्द और उत्थान टिका हुआ है। श्रद्धातत्व हटा देने के बाद कुटुम्बियों के बीच आपाधापी, खींचतान, उठक-पटक रोष-प्रतिशोध घृणा-ईर्ष्या के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। परिवार संस्था की गरिमा श्रद्धा-सद्भावना के अतिरिक्त किसी प्रकार न तो स्थिर रह सकती है और न बढ़ सकती है।

धन दुधारी तलवार है। उसका सदुपयोग बन पड़े तो व्यक्ति का भी कल्याण है और समाज का भी। दुरुपयोग होने लगे, तो बढ़ी हुई सम्पदा के कारण उससे हर प्रकार हानि ही हानि होती है। दुर्व्यसन बढ़ने, दुर्गुण पनपने और कुकृत्य बन पड़ने में दुर्जनों का आर्थिक सुविधा सम्पन्न होना भी एक बड़ा कारण है। धन एक शक्ति है। दुर्बुद्धि के हाथों उसका उपयोग अनाचरण एवं विनाश के लिए ही हो सकता है। श्रद्धातत्व अन्तःकरण में रहने पर धन के उपार्जन और उपयोग में पूरी-पूरी सावधानी बरतनी होती है। कठोर परिश्रम के द्वारा ईमानदार के साथ मात्र उपयोग कार्य करके ही आजीविका कमाई जाए, यह दृष्टि सर्वप्रधान है। इस प्रकार यदि स्वल्प-उपार्जन होता है, तो इतने में ही काम चलाने की तैयारी आरम्भ से ही कर ली जाती है। इसका एकमात्र उपाय है-ब्राह्मण जीवन,सादगी का निर्वाह,औसत भारतीय के स्तर पर गुजार करने में गर्व -गौरव की अनुभूति, मितव्ययिता,सादगी,श्रमशीलता और ईमानदारी इन चारों का समन्वय हैं। ऐसे श्रद्धालु व्यक्ति न तो ठाट-बाट बनाते है, न सन्तान की संख्या बढ़ाकर अनावश्यक भार वहन करने की मूर्खता बरतते है। योग्यता बढ़ाने,मनोयोगपूर्वक श्रम करने और मितव्ययिता बरतने की नीति अपना लेने पर किसी को भी आर्थिक तंगी नहीं भुगतनी पड़ती। ऋण लेने,याचना करने अथवा कुकृत्यों पर उतारू होने की उन्हें आवश्यकता ही नहीं पड़ती। ऐसे लोग सीमित आजीविका रहने पर भी यथा- सम्भव दूसरों की मदद कर सकते है। लोभ और मोह की मात्रा बढ़ जाने, संग्रह एवं उपभोग की महत्त्वाकाँक्षा अनियन्त्रित हो जाने पर ही अनीति - उपार्जन का सिलसिला चलता है। सौम्य -निर्वाह भर के साधनों में सन्तुष्ट रहने वाला न तो दरिद्र होता है, न दुर्व्यसनी,न कुकर्मी धन की मर्यादा का निर्वाह महत्वपूर्ण है,। संग्रह का परिमाण नहीं। उपार्जन उपयोग में ही न लगे वरन् उसमें पिछड़ेपन को दूर करने, असमर्थों को सहायता देने तथा सत्प्रवृत्तियों को सींचने का तथ्य भी सुनिश्चित रूप से जोड़ रखा जाए। खर्च की सामान्य मद में ही उदार दानशीलता को भी एक अनिवार्य आवश्यकता मानकर चला जाए। इन्हीं तथ्यों का समावेश अर्थक्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली श्रद्धा का रहता है। प्रज्ञावतरण की प्रेरणा अन्याय क्षेत्रों की तरह अर्थक्षेत्रों में भी श्रद्धा का समन्वय करने की रहेगी।फलतः अनेक दुष्प्रवृत्तियों की जननी दरिद्रता ओर उद्धतता का कहीं कोई अस्तित्व ही न रह जाएगा।

सामाजिक क्षेत्र की बुराइयाँ कुरीतियाँ, अनैतिकताएँ,मूढ़ -मान्यताएँ प्रकारान्तर से व्यक्तियों में भरी हुई निजी निकृष्टताओं का सामूहिक प्रदर्शन मात्र है। समाज का अलग से कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं। मनुष्यों की सामूहिकता ही समाज है। श्रेष्ठ नागरिकों के बिना समुन्नत समाज बन ही नहीं सकता। प्राचीनकाल में पंचायतें समाज -व्यवस्था बनाती थी। आजकल सारी शक्ति सिमटकर शासन के हाथ में चली गई है। पंचायतें भी मुकदमा निपटाने अथवा सफाई जैसी छुट-पुट व्यवस्था बनाने में सीमित हो गई। शासन के कानून अपराधों को रोकने भर के लिए बने है। सत्परम्पराओं का प्रचलन करने की न तो उसमें आकांक्षा रह गई। और न सामर्थ्य। सुरक्षा,शिक्षा, चिकित्सा,उद्योग, परिवहन जैसे कार्यों की साज - सँभाल ही उसके काबू से बाहर होती जा रही है। सहकारिता को उद्योगों में समाविष्ट करने तथा नीति-शिक्षा को पुस्तकीय पाठ्यक्रम में जोड़ने, रेडियो-टेलीविजन आदि पर कुछ प्रचार कर देने जैसे बालप्रयास ही शासन के द्वारा वर्तमान स्थिति में बन सकते है। पंचायतें भी शासन का अंग भर रह गई हैं और भौतिक प्रयोजनों की ही यत्किंचित् देख-भाल कर पाती हैं। समाज-व्यवस्था लड़खड़ाने का कारण ऐसे तन्त्र का अभाव है, जो जन-समुदाय में आदर्शवादी आस्थाओं को उभार सके, जिसमें दुष्प्रवृत्तियों को सहन करने तथा समर्थन देने वालों को लोकमत का तिरस्कार भाजन बनना पड़े। न्याय और औचित्य एवं उच्छृंखलता का मानमर्दन करने की प्रखरता जन-जन में उत्पन्न होने पर ही स्वस्थ समाज की संरचना हो सकती है। श्रेष्ठ प्रचलनों की, सत्परम्पराओं की प्रतिष्ठा तभी सम्भव है जब व्यक्ति के निजी जीवन में आदर्शवादिता अपनाने की उत्कृष्ट श्रद्धा बनी रहे। इसके अभाव में वह अपने पापों पर पर्दा डालेगा। अवांछनीय तत्त्वों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करेगा तथा हेय परम्पराओं से जूझने के स्थान पर उनके समर्थन का ही उपक्रम करता रहेगा।

वस्तुस्थिति समझ लेने के उपरान्त समाज की एक ऐसी सम्भावना आवश्यक हो जाती है, जो सामाजिक प्रचलनों और वैयक्तिक आदर्शों को उत्कृष्टता की दिशा में उछाल सके। अनौचित्य के विरुद्ध असहयोग एवं विरोध का वातावरण बना सके ऐसा समाज अध्यात्म- दर्शन एवं धर्म - प्रचलन जैसे उच्चस्तरीय आदर्शों के लिए बने संगठनों द्वारा ही विनिर्मित हो सकता है। जो व्यक्ति के अन्तराल को स्पर्श करेगा, जो उस मर्मस्थल में सदाशयता का बीजारोपण कर सकेगा, उसी के लिए देव-समाज की कल्पना कर सकना और तदनुरूप ढाँचा खड़ा कर सकना सम्भव होगा। समाज में सत्परम्पराओं का प्रचलन सृजन पक्ष है और दुष्प्रवृत्तियॉं का उन्मूलन निषेध पक्ष, दोनों को मिलाने से ही समग्रता बनती है। धर्मतन्त्र का संगठन ऐसा होना चाहिए जो व्यक्ति और समाज के अन्तराल को झकझोरने में, उत्कृष्टता के ढाँचे में ढाल सकने में भावना और क्रिया को साथ लेकर चल सके।

व्यक्ति और समाज में धर्मधारणा का बहुत बड़ा स्थान है। मनुष्य के आदिम प्रयत्नों से लेकर आधुनिकतम प्रतिपादनों में धर्मतत्त्व का समावेश सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप होता रहा है। यह आत्मा की आवश्यकता और अन्तः-करण की पुकार है। इसका दमन न तो बुद्धिवाद कर सकता है, न प्रत्यक्षवाद, न उपयोगितावाद। धर्म की, कर्तव्य की, उत्कृष्टता की आवश्यकता ईश्वरवादी-अनीश्वरवादी सभी को समान रूप से अनुभव होती है। अस्तु, नवयुग की साज-सज्जा में धर्मधारणा को प्रमुखता देने से ही काम चलेगा। देवसमाज की परिकल्पना को मूर्तिमान करने में धर्मतन्त्र की पवित्रता, प्रखरता और संगठनों के तीनों ही पक्ष उच्चस्तरीय बनाये जाने चाहिए। जिस दिन इस आवश्यकता को गम्भीरतापूर्वक समझा जाएगा और उसके लिए भावभरी तत्परता का उपयोग किया जाएगा, उसी दिन से उज्ज्वल भविष्य का सुनिश्चित आरम्भ हो जाएगा।

मोटी दृष्टि से अनेकों समस्याएँ और विपत्तियाँ व्यक्ति एवं समाज के सम्मुख खड़ी दीखती हैं। वे परिस्थिति-जन्य प्रतीत होती है। फलतः उनके उपाय भी उसी स्तर के होते रहते हैं। गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, अपराध, विग्रह, आक्रमण जैसे बड़े कारण ही लोक-नेताओं के मस्तिष्क पर छाये रहते है। उनके निराकरण का उपाय साधनों की सहायता से खोज निकालने का प्रयत्न करते है। राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों की सारी शक्ति सरकारों के हाथ में केन्द्रित है। अस्तु उस मंच को हथियाने अथवा उसी आधार पर गुत्थियों को सुलझाने में मूर्धन्य वर्ग का सारा ध्यान और प्रयास केन्द्रीभूत बना रहता है। गुत्थियों को सुलझाने की वर्तमान पद्धति यही है। स्थूल दृष्टि उससे अधिक न तो कुछ सोच सकती है और न कुछ कर ही सकती है। जो हो रहा है, होता रहा है वह कम नहीं है, पर गुत्थियाँ सुलझने के स्थान पर उलझती ही जा रही है। एक छेद सीने का काम पूरा नहीं हो पाता कि दस नये सिरे से उभरते सामने आ खड़े होते है। यह क्रम चिरकाल से चला आ रहा हैं। बार-बार परखा-अपनाया जाता है, फिर भी निराशा के और व्यग्रता बढ़ने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता।

उपाय आज खोजा जाए या हजार वर्ष बाद, प्रयत्न आज किया जाए या हजार वर्ष बाद, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। व्यक्ति और समाज के सम्मुख खड़ी हुई अनेकानेक समस्याओं, विपत्तियों और विभीषिकाओं का हल निकलेगा तभी, जब मानवी अन्तःकरण में उत्कृष्ट आस्थाओं के बीजारोपण तथा परिपोषण का प्रयास युद्धस्तरीय तत्परता के साथ आरम्भ होगा। इसके लिए न राजनीति से काम हो सकेगा। उसे मात्र धर्मतन्त्र ही कर सकता है। आज धर्म का कलेवर उपहासास्पद और विद्रूप हो गया है, यह ठीक है किन्तु यह भी ठीक है कि इसी को परिष्कृत, प्रखर एवं सुनियोजित बनाने पर भावनात्मक नवनिर्माण करने के अतिरिक्त और कोई उपाय है नहीं। सम्पदा को अर्थतन्त्र, शरीर को चिकित्सातन्त्र, मस्तिष्क को शिक्षातन्त्र प्रभावित कर सकता है, परन्तु अन्तःकरण को प्रभावित करने की क्षमता धर्मतन्त्र के अतिरिक्त और किसी में भी है नहीं। टूटे को सुधारा जाए या उसे नये सिरे से ढाला जाए, यह तकनीकी प्रश्न है। मूल तथ्य जहाँ का तहाँ रहता है कि विपत्तियों से छुटकारा पाने और उज्ज्वल भविष्य को मूर्तिमान् करने में धर्मतन्त्र की सहायता लिए बिना काम किसी भी प्रकार नहीं चल सकता। बहस शब्द की नहीं, विवेचना तथ्य की है। किसी को धर्म-अध्यात्म से चिढ़ हो तो उनको सन्तुष्ट करने वाले शब्द दूसरे शब्दकोश में ढूँढ़ निकाले जा सकते है। पर करना यह होगा कि व्यक्ति एवं समाज की अनेकानेक दिशाधाराओं को प्रभावित करने वाले अन्तःकरण को उत्कृष्टता की सम्पदा से सुसम्पन्न बनाया जाए, मानवी-संस्कृति के अवमूल्यन का अन्त किया जाए, श्रद्धा और विवेक के समन्वय को, दृष्टिकोण को आधारभूत तथ्य बनाया जाए।

प्रज्ञावतार का प्रयोजन यही है। उसका कार्यक्षेत्र जन-जन की आस्थाओं को अध्यात्म के आधार पर और आदतों को धर्म-धारणा के सहारे परिष्कृत करना है। उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धा-संवर्द्धन उसका प्रधान कार्यक्रम है। यह गतिचक्र जितनी तेजी से परिभ्रमण करेगा, नवयुग के दिव्यदर्शन की पुण्यवेला उतनी ही समीप आती चली जाएगी।

First 21 23 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • प्रज्ञावतार की पुण्य बेला
  • युगसन्धि का विशिष्ट अवसर -परिवर्तन का महापर्व
  • युगपरिवर्तन का ठीक यही उपयुक्त समय
  • नई रोशनी (Kahani)
  • सृष्टिक्रम में स्रष्टा की अवतरण- प्रक्रिया
  • युगावतार -प्रज्ञावतार
  • यदा यदा हि धर्मस्य
  • दीपक का कर्तव्य (Kahani)
  • युगसन्धि का आरम्भ, मध्य और अन्त प्रसिद्ध ज्योतिर्विदों की दृष्टि में
  • शक्ति का आधार संयम (Kahani)
  • मूर्धन्यों के अभिमत एवं अंतर्ग्रही प्रभावों की प्रतिक्रिया
  • मनुष्य जाति पर गहराते संकट के बादल
  • प्रचण्ड-पुरुषार्थ से नए भाग्यविधान की रचना (Kahani)
  • आस्था-संकट की विभीषिका और उससे निवृत्ति
  • स्वामिनाथन की सीख (Kahani)
  • युद्धलिप्सा कितनी घातक हो सकती हैं
  • समस्त समस्याओं के समाधान का सुनिश्चित आधार
  • कर्तव्यपालन मानव-जीवन की सर्वोपरि सम्पदा (Kahani)
  • श्रद्धा और विवेक का संगम ही करेगा युगपरिवर्तन
  • महर्षि चरक की नैतिकता (Kahani)
  • अवतार के प्रकटीकरण के पर्याप्त प्रमाण
  • नवयुग का आधारः श्रद्धा-संवर्द्धन
  • चट्टान की सी जिन्दगी (Kahani)
  • प्रज्ञावतार का महाप्रयास
  • भाग्यवान और अभागा (Kahani)
  • कल्पवृक्षों की नई पौध उग रही है
  • मलिन विचारों वाले हृदय में ईश्वर भक्ति कैसे रहेंगी (Kahani)
  • युगदेवता की दो प्रत्यक्ष प्रेरणाएँ
  • जीवन का उत्सर्ग (Kahani)
  • युगशक्ति का अवतरण-नवयुग के अभ्युदय के लिए
  • संक्रान्तिकाल एवं इष्ट का वरण
  • त्याग की परिभाषा (Kahani)
  • विशिष्ट प्रयोजन के लिए विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज
  • संसार का प्रेतवास बनना (Kahani)
  • युगपरिवर्तन में अन्तरिक्ष-विज्ञान का उपयोग
  • आगे बढ़ते रहे.. ( kahani)
  • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - प्रज्ञावतार की सत्ता का आश्वासन
  • अपनों से अपनी बात- 3 - महाकुम्भ की पावन बेला एवं आगामी विशिष्ट सत्रों की श्रृंखला
  • अपनों से अपनी बात-2 - भावी आयोजन अब इस रूप में संपन्न होंगे
  • अपनों से अपनी बात-3 - नई भूमि में क्या बनने जा रहा है, क्या संकल्पना है?
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj