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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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वृक्ष-वनस्पतियों में भी होती है संवेदनशीलता

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प्रकृति सृष्टि की माता है। उसके आँचल में पादप एवं जीव अपने स्तर पर पल्लवित एवं विकसित होते हैं। अब यह सर्वमान्य है, पौधों में संवेदना होती है। इसी वजह से ही वे मनुष्य के स्पर्श, विचार एवं भावनाओं को समझ जाते हैं। सद्भावना का सिंचन कर इनकी क्रियाशीलता में वृद्धि की जा सकती है। इस पर अनेकों वैज्ञानिक प्रयोग भी हुए हैं। सजीवों की भाँति पौधों में भी तंत्रिका-तंत्र तथा सूक्ष्म-रसायन का अनोखा संसार होता है, हालाँकि यह बहुत ही सरल रूप में होता है। पौधे खतरों से सावधान होने के लिए विशिष्ट सांकेतिक भाषा का प्रयोग भी करते देखे गये हैं।

पेड़-पौधों में चेतना का स्तर एक विशेष प्रकार का होता है और यह जीव-जन्तुओं से भिन्न होता है। इस मान्यता के जनक थे प्रसिद्ध भारतीय वनस्पतिविद् जगदीश चन्द्र बसु। इन्होंने पौधों में संवेदनशीलता के अस्तित्व का सफल प्रयोग करके अनुसंधान का एक नूतन आयाम जोड़ा। इससे वनस्पति जगत में खोज की एक प्रक्रिया चल पड़ी। जगदीश चन्द्र बसु के इस प्रयोग का अनेकों वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म विश्लेषण किया। आधुनिकतम अन्वेषणों से भी पता चला है कि पौधों में संवेदना होती है। उच्चवर्ग के पौधों में यह विकसित होती जाती है। निम्नवर्ग के जंतुओं में संवेदना मिश्रित होती है। अतः विकास की प्रक्रिया एक सीधी रेखा में चलती है, जो पादप से प्रारम्भ होती है। भाव-संवेदन उसके तंत्रिका तंत्र के आधार पर निर्भर करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार पौधों का तंत्रिका सरल होता है, इसमें जटिलता नहीं पाई जाती।

ऐसे कई पौधे हैं, जो स्पर्श मात्र से सिकुड़ जाते हैं। छुईमुई, विनसफ्लाइट्रेप इसके अच्छे उदाहरण हैं। कुछ पौधों को समय का भी ज्ञान होता है। सूर्यमुखी जो सूर्य की दिशा के साथ गति करता है। कमल दिन में खिलता है तथा कुमुदिनी रात में। आखिर ऐसा क्या है, जो ये पौधे जीवों के समान क्रियाशील होते हैं। इस सूक्ष्म कार्य के बारे में काफी कुछ अनुसंधान-अन्वेषण किया गया है। डार्विन ने देखा किडायोनिया म्यूसीपोला को छूने से यह सिकुड़ जाता है। इसका अध्ययन करते हेतु डार्विन ने पौधे को यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लन्दन के विश्व प्रसिद्ध मेडिकल फिजियोलॉजिस्ट जीन वर्डन सैर्ण्डसन को सौंपा। सैर्ण्डसन ने इसकी गतिविधियों को जानने के लिए पौधे को एवं छुईमुई को इलेक्ट्रोड के माध्यम से विद्युत परिपथ से गुजारा। इसके अनुसार जब इन पौधों को छुआ जाता है, तो इसकी पत्तियों के बाहरी किनारे पर विद्युत आवेश की प्रबल धारा बह उठती है। इसे जीवों के न्यूरान के समान प्रदर्शित किया। अंततः सैर्ण्डसन ने स्पष्ट किया कि पौधों में भी जीवों के समाज तंत्रिकातंत्र होता है।

जीवधारियों की सबसे बड़ी विशेषता है उनमें सन्निहित क्रियात्मक आवेग। वनस्पति जगत में उसकी मात्रा कम होती है, परन्तु जीव-जंतुओं में अधिक। पौधों में पूर्ण विकसित तंत्रिका-तंत्र तथा न्यूरान का सुसंचालित व विकसित जाल का अभाव होने के कारण ही क्रियात्मक आवेग में कमी पायी जाती है। इस आवेग को सर्वप्रथम सन 1960 से 70 के दशक में आणुविक और कोशिकीय आधार पर ज्ञात किया गया। सन् 1970 के बाद इस विषय पर अनेकों अनुसंधान हुए। अमेरिकन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने स्वीकारा कि यह आवेग कोशिका के प्लाज्मोडेस्मेटा द्वारा प्रसारित होता है। कोशिकाभित्ति पर अवस्थित सूक्ष्मरन्ध्र को ही प्लाज्मोडेस्मेटा कहते हैं। आवेग इन्हीं छिद्रों के माध्यम से गुजरता है। जब किसी संदेश का प्रसारण होता है, तो इन छिद्रों के कुछ दूरियों पर अनेक जंक्शन बन जाते हैं। यह जंक्शन ही संदेश को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने में सहयोग करते हैं। जीवों में यह प्रक्रिया त्वरित एवं जटिल होती है।

पौधों के तंत्रिका-तंत्र में रासायनिक तत्वों का विशेष महत्व होता है। इन रसायनों को न्यूरोट्राँसमीटर कहा जाता है। हर न्यूरान में न्यूरोट्राँसमीटर भिन्न होता है तथा विशिष्ट कार्य को सम्पादित करने के लिए प्रयुक्त होता है। इसके नेटवर्क की एक विराट टेलीफोन एक्सचेंज से तुलना की जा सकती है। सन् 1960 में विनस फ्लाइट्रेप तथा छुईमुई जैसे पौधों पर प्रयोग किया गया। इनके सिकुड़ने की पूरी प्रक्रिया को विश्लेषित किया गया, स्पर्श के पश्चात् सिकुड़ने की पूरी प्रक्रिया में आयनों की क्रियाशीलता महत्वपूर्ण होती है। छूने के साथ ही इनमें प्रतिक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। सर्वप्रथम कैल्शियम आयन सक्रिय होकर क्रिया को प्रारम्भ करता है। इसके उद्दीपन से पोटैशियम तथा क्लोराइड आयन एक छिद्र से दूसरे छिद्र तक पहुँचते हैं। जीव-जन्तुओं में पोटैशियम के स्थान पर सोडियम आयन को जिम्मेदार माना जाता है। इसके बारे में ओटावा के कॉल्ट्रन यूनिवर्सिटी के फिजियोलॉजिस्ट स्टुअर्टजैकबसन ने स्पष्ट किया है कि जब इन पौधों को स्पर्श किया जाता है, उस स्थान पर विद्युत आवेश कम पड़ जाता है, तथा ध्रुवीकरण की स्थिति बन जाती है। इसी वजह से पत्तियाँ ढीली होकर बंद हो जाती हैं।

अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार विनस फ्लाइट्रेप तथा छुईमुई के जल में पाए जाने वाले अल्ड्रोवाण्डा भी इस तरह की क्रिया को प्रदर्शित करता है। कई प्राणियों की कोशिकाएँ भी ऐसे ही कार्य करती हैं। इसका अच्छा उदाहरण है, अंतःकरण के काक्लीया के रोए। इनमें ध्वनि कम्पन से क्रियात्मक आवेग उत्पन्न होता है। इसकी संचालन- पद्धति भी ठीक ऐसे ही होती है, परन्तु इसमें गति तीव्र एवं जटिल होती है। अकशेरुकी जीव सीलेण्ट्रेटा परिवार के सी-एनीमोन व जेलीफिश का तंत्रिका-तंत्र भी इसी तरह माना जाता है। यह विशेषता वनस्पति जगत के हजारों जातियों तथा पुष्पोद्भिदों के कई परिवारों में देखी गई है। इसके अंतर्गत ड्रोसेरा, कीटभक्षी पौधे, बायोफीटम, नेप्चूनीया की पत्ती, स्पर्मेनीया, बरबरीस, मोहनीया पुष्प आदि आते हैं, जिन्हें स्पर्श करने पर क्रियात्मक आवेग का जन्म होता है।

कई पौधे ऐसे होते हैं, जिनमें संवेदनशीलता स्पष्ट देखी जा सकती है। इस बारे में ओहियो के स्पेश यूनिवर्सिटी के सुप्रसिद्ध वनस्पतिविद् मार्डेचाई जैफे ने उल्लेख किया है कि संवेदनशीलता हर पौधे में पाई जाती है, परन्तु उसके क्रियाशीलता के अनुपात में भिन्नता हो सकती है। इन्होंने मटर के प्रतान का हवाला देते हुए स्पष्ट किया है। मटर का प्रतान आधार को स्पर्श करते ही स्वतः इसमें लिपट जाता है। यह क्रिया अपने आप होती है। इसमें क्रियात्मक आवेग इतना अधिक होता है कि आधार के स्पर्श किए बिना भी प्रतान कुण्डलित हो जाता है। जैफे ने इसको और स्पष्ट करने के लिए एक पौधे को प्रयोग के लिए चुना। पौधे को स्पर्श करने पर इसमें भारी परिवर्तन देखा गया। प्रतिदिन इसे हल्का सा छुआ जाता था। सूक्ष्म रूप से यूं तो इनकी प्रतिक्रिया प्रति 30 मिनट पश्चात् देखी गई, परन्तु कुछ माह के बाद इसमें परिवर्तन परिलक्षित हुआ। अंत में पौधे का तना मोटा, पत्तियाँ चौड़ी तथा अन्य कई प्रकार के लक्षण देखे गए। यह उसी जाति के एक अन्य पौधे से एकदम भिन्न विकास कर रहा था।

जैफे ने इस विषय में गहन अनुसंधान किया। इस प्रयोग को आगे बढ़ाने के लिए हॉर्टीक्लचर रिसर्च इण्टरनेशनल वेर्ल्सड के नार्मन विडिंगटन तथा टोनी डियर मेन आगे आये और उन्होंने कई शोधें की। इनके अनुसार पौधों को छूकर इनकी उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है। पालसिमन्स ने 17 अक्टूबर, 92 के न्यू साइंटिस्ट अंक में ‘द सीक्रेट फीलिंग्स ऑफ प्लाण्टस’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था। इसमें उल्लेख किया है कि अकाल, ओलावृष्टि तथा अनेक प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित पौधों को स्पर्श के द्वारा बचाया जा सकता है। कृषि के अपने प्रयोगों में उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई। सन् 1990 में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के जेनेट ब्राम और रोनाल्ड डेविस एरेबिडोप्सीस के जेनेटिक प्रभाव पर अध्ययन किया और पाया कि स्पर्श करके इसके विकास में एक तिहाई से अधिक वृद्धि होती है। इन प्रयोगों से पता चलता है कि स्पर्श से पौधों में वाष्पोत्सर्जन कम तथा मेटाबॉलिज्म और प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया अधिक होती है। रूस और अमेरिका में फूलों के परागकण और उससे शहद उत्पादन में इस विधा का उपयोग किया जा रहा है। कोब यूनिवर्सिटी जापान के ताकुफुमी हिरोमी और सोनासुडा ने तो परागकण के लिए स्पर्श को एक नितांत व महत्वपूर्ण अंग माना है।

मानवी स्पर्श पौधों के लिए वरदान साबित हुआ है जब किसी पुष्पीय पादप को छुआ जाता है, तो बड़ी मात्रा में एथिलीन गैस निकलती है, जो विकास हार्मोन को स्रवित करने में सहयोग करती है। पर्याप्त मात्रा में हार्मोन का स्रवण पौधों की वृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उससे तना लम्बा, पत्तियाँ घनी तथा फूल एवं फल अधिक लगते हैं। एथिलीन की थोड़ी - सी मात्रा भी हार्मोन को उत्सर्जित करने में सहायक होती है। प्रति लाख बूँदों में एथिलिन की कुछ बूँदें ही पर्याप्त होती हैं। इसके कारण फ्लोएम में शर्करा व खाद्य-पदार्थ तेजी से बढ़ते हैं व फल-फूल और बीज का उत्पादन अधिकतम होता है।

पौधों में स्पर्श द्वारा संवेदनात्मक स्वरूप को जानने के लिए जर्मनी के ‘वान इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड फिजिक्स’ ने एक यंत्र बनाया है। यह यंत्र पौधों से उपार्जित एथिलीन पर आधारित है। इस यंत्र में एक इन्फ्रारेड लेजर किरणों का पुँज होता है। यह अति सुग्राही होता है, जिसे प्रति सेकेण्ड 2000 बार बंद अथवा चालू किया जा सकता है। इस गैस के अणु इन्फ्रारेड प्रकाश से उत्सर्जित हो जाते हैं। उद्दीप्त एथिलीन अणु से ऊर्जा-तरंगें निकलती हैं और वातावरण में एक सूक्ष्म कम्पन होने लगता है। यह कम्पन 2000 हट्ज आवृत्ति का होता है, अतः इसे परिवर्धित करके सुना जाता है। इस यंत्र से स्पष्ट होता है कि जब पौधों को सद्भावपूर्ण स्पर्श किया जाता है, तो कम्पन अधिक होता है। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि संभवतः पौधे इसका जवाब मूक भाषा में देना चाहते हों। सर्वप्रथम इस तकनीक का प्रयोग नीदरलैण्ड में किया गया था।

मानवी-स्पर्श द्वारा विकास के इस तकनीक का प्रयोग जल में पाए जाने वाले शैवाल, कारा और नीटेला पौधों में भी किया गया। विशेषज्ञ विकास के लिए स्पर्श को बड़ा महत्वपूर्ण मानते हैं। इसका परिणाम बड़ा ही आश्चर्यजनक रहा। जो शैवाल मात्र कुछ ही मिलीमीटर का होता है। उसे छूने पर 1.5 सेमी. लम्बा व 1.5 मिलीमीटर चौड़ा हो गया। कोशिका के अन्दर साइटोप्लाज्म व रिक्तिका सुविकसित होने लगे। गति में भी एकाएक परिवर्तन होता है। कैल्शियम आयन में बड़ी वृद्धि होती है तथा कोशाभित्ति के बीच वोल्टेज बढ़ जाता है। कैल्शियम की अधिकता एक्टीन और मायोसीन प्रोटीन को कम कर देती है तथा पौधों में विकास की दर बढ़ने लगती है। जीव- जन्तुओं की माँसपेशियों में भी ठीक ऐसी ही प्रक्रिया होती है।

मूर्धन्य वनस्पतिविदों ने स्पर्श के द्वारा पौधों के जेनेटिक परिवर्तन को भी विश्लेषित किया है। इस कार्य में उन्हें आशातीत सफलता भी मिली है। ब्राम और डेविस के अनुसार ऐरेबिडोप्संस में पाँच प्रकार के जीन प्रभावित होते हैं। उसमें से एक है काल्मोडूलीन। यह जीन जीवों और पौधों के प्रोटीन अणुओं को नियमित एवं नियंत्रित करता है। काल्मोडूलीन स्तनधारियों के मस्तिष्क में न्यूरल प्रक्रिया हेतु प्रयुक्त होता है। यह पौधों की कोशिकाओं में कैल्शियम को स्रवित करके अन्य बायोकेमिकल संकेतों को प्रसारित करता है। एडीनबर्ग विश्व विद्यालय के मार्कनाइट ने इसे बड़े स्पष्ट ढंग से प्रतिपादित किया है। इसके अनुसार स्पर्श से पौधों में कैल्शियम का प्रवाह फूट पड़ता है। पौधे मानवी स्नेह और ममता का प्रत्युत्तर कैल्शियम नामक रसायन द्वारा देते हैं। स्पर्श से इसकी क्रियाशीलता अद्भुत एवं आश्चर्यजनक हो जाती है।

एक अन्य आश्चर्यजनक तथ्य यह भी सामने आया है कि स्पर्श से जीवों के अंतः करण, त्वचा तथा माँसपेशियों में हलचलें होती हैं। अब तो इस प्रभाव का उपयोग लाल रक्त कणिका और अण्डाणु तक में किया जाने लगा है। जिस प्रकार पौधों के परागकण में यह बड़ा ही उपयुक्त साबित हुआ है, ठीक उसी तरह जीव-जन्तुओं के निषेचन में भी इस विधा को उपयोग में लाया जा रहा है।

पौधों के इस भावसंवेदना को उद्दीप्त करके उनके विकासक्रम को बढ़ाया जा सकता है। इस संदर्भ में गोटिंगम यूनिवर्सिटी के डेनियल कासग्रेव तथा रेनर हेडरीक नामक वैज्ञानिकों ने पत्तियों के स्टोमेटा के क्रिया–कलापों का गहन अनुसंधान किया है, उनके अनुसार पौधों की संवेदना को झंकृत करते ही तीन प्रकार के चैनल बन जाते हैं, जो मुख्यतया क्लोराइड- पोटैशियम और कैल्शियम से संबंधित होते है। पौधों का वातावरण से सहज सम्बन्ध होता है। तूफान के आते ही पौधे अपने बचाव के लिए स्टोमेटा को बंद कर देते है। पानी की अधिकता के कारण भी स्टोमेटा स्वतः बंद हो जाता है। यह प्रक्रिया पत्तियों के आवेग को उद्दीपन प्रदान करती है। यह पौधे की वृद्धि और विकास में भी सहायता प्रदान करती है।

कोशिका - विभाजन के समय तो उस प्रभाव को सुस्पष्ट ढंग से देखा जा सकता है। मैरोलैण्ड यूनिवर्सिटी के वनस्पतिविद् पालडस्चोप और हाडकुक ने क्लीड्रोक हेटेरीफाइला नाम पौधे पर गहन अध्ययन, किया, उनके अनुसार पौधों में पत्तियाँ अति संवेदनशील होती हैं। अतः मनुष्य अपने संवेदनात्मक, स्पर्श के द्वारा पत्तियाँ के आकार में परिवर्तन ला सकता है। इन वैज्ञानिकों ने पत्तियों को आकार में लम्बा व कटा हुआ तथा चौड़ा और छोटा दो तरह की भिन्नताएँ प्रकट करके दिखाई भी है। इसी तरह कुछ वैज्ञानिकों ने संवेदना द्वारा पौधों के निषेचन को प्रभावित कर पाने में सफलता पाई है। निषेचन एक सूक्ष्म व महत्वपूर्ण अवस्था होती हे। क्रियात्मक आवेग पूरी प्रक्रिया में एक विद्युतधारा प्रवाहित करता है, जो नर परागकण से होकर अण्डाणु तक पहुँचता है। इसमें अण्डाणु में दाहिने भाग से विभाजन व विखण्डन प्रारम्भ होता है। यह विशेषता कवक, पौधे एवं जीव जन्तुओं में भी पायी गयी है। स्पर्श संवेदना इनके आनुवंशिक गुणों में भी परिवर्तन ला सकती है। बोरिस मार्टीनेस ने तो इसका प्रभाव जीवाणु तक में रेखांकित किया। मार्टीनस के अनुसार, जीवाणु में स्पर्श से आयन का प्रवाह फूट पड़ता है।

शरीर क्रियाविज्ञानी स्पर्श को एक नूतन विधा के रूप में विकसित करने में उन्होंने पाया है। कि संवेदना से जीवों का न्यूरोट्राँसमीटर एसीटीलकोलाइनह आँखों का ऐडाप्सिन, काल्मोडूलीन आदि विशेष रूप से प्रभावित होते है। पैरामीशियम के कोशिकाभित्ति से आयन स्राव होने लगता है और इसको तैरने के लिए उद्दीपन नहीं जन्तु - जगत भी प्रभावित होता है।

अति प्राचीनतम जीव पैरामीशियम, छुईमुई, फ्लाइट्रेप हो अथवा मटर का प्रतान, निषेचन की क्रिया हो या जल का नियंत्रण, सभी सम्वेदनाओं से निर्विवाद रूप से प्रभावित होते है। यह पौधे के विकास एवं वृद्धि के लिए आवश्यक माना जा रहा है। पौधे मात्र बाहरी स्पर्श से ही क्रियाशील होते हों, ऐसी बात नहीं है। प्रकृति ने इन्हें अनेकों प्रकार की विशेषताओं से भी अलंकृत किया है। ये स्वयं भी प्रकृति में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का आकलन कर लेते हैं तथा इसके अनुरूप अपना बचाव व सुरक्षा का उपक्रम करते हैं तथा संकट के समय एक - दूसरे को चेतावनी भी देते हैं। पेड़ों पर ज्यों ही क्षतिकारक कीड़े-मकोड़े पहुँचते हैं, वे एल्केलाइड तथा टर्मिनाइड जैसे रसायनों का उत्पादन शुरू कर देते है। ये रसायन पत्तियों को विषाक्त कर देते है, जो खाने के योग्य नहीं रह जो। यही नहीं वह प्रोटीन भी जिसे कीड़े अपने भोजन के रूप में पेड़ों से प्राप्त करते हैं, इन रसायनों के कारण दूषित हो जाता है। इस तरह पेड़ इन कीड़ों से अपना बचाव कर लेते है। यह सब पेड़ों को पूर्व से ही पता चल जाता है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि आक्रान्ताओं से सुरक्षा हेतु रसायनों का स्रवण वहाँ से तीस-चालीस मीटर की दूरी पर अवस्थित अन्य पेड़ भी करने लगते है।, जिसके कारण वे पूर्व सूचना प्राप्त कर लेते है।

पेड़- पौधे वातावरण से बहुत प्रभावित होते है। वातावरण और वनस्पति जगत का सम्बन्ध बहुत गहरा एवं विस्तृत है। दोनों ऐ-दूसरे पर अन्योऽन्याश्रित है। पेड़ वातावरण की सूक्ष्म हलचलों को ग्रहण करने की सामर्थ्य रखते है। वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि सृष्टि-संचालन प्रक्रिया में एक कोड होता है, जो समस्त गतिविधियों को अपने में समाहित किए रहता है। इन्हें कास्मिक कोड टाइम कोड, माइण्ड कोड तथा रिंग कोड आदि के रूप में जाना जाता है। रिंग कोउ पौधों के वार्षिक वलय के तहत विनिर्मित होता हैं। वनस्पतिशास्त्रियों के मतानुसार पेड़-पौधे वातावरण तथा इसके संपर्क में आने वाले हर सजीव के तरंगों से गहरा तादात्म्य स्थापित रखते है। यह समस्त विवरण उनके रिगकोड में संचित होता रहता है। अगर उसे डिकोड करने की तकनीकी ज्ञान हासिल हो सके तो वातावरण के गुप्त रहस्यों को अनावृत किया जा सकता है। यह तथ्य स्पष्ट करते है। कि पौधे अति सुग्राही तथा संवेदनशील होते है।

संत लूथरबरबैक अमेरिका के प्रख्यात वनस्पतिशास्त्री रहे है। उन्होंने अपने प्रेम और संवेदना के बल पर पौधों के शुल्क तथा प्रस्तर रूपी तरंगों को जाग्रत करने में अभूतपूर्व सफलता पाइरै योगानंद ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘ योगीकथामृत’ में संत लूथर बरबैक के साक्षात्कार का विस्तार से वर्णन किया है। बरबैक ने आने उद्गार व्यक्त करते हुए कहा है कि वैज्ञानिक ज्ञान से भिन्न वनस्पति- संवर्द्धन का गुप्त रहस्य है और वह है प्रेम। साँतारोजा कैलीफोर्निया के अपने बगीचे में कंटकहीन थूहर को दिखाते हुए उन्होंने बताया कि अपनी भावसंवेदना उड़ेलते हुए कँटीले पौधे के शुष्क संवेदना को जाग्रत कर मैंने कहा - “ तुम भय मत करो, तुम्हें आत्मरक्षा के लिए काँटों को आवश्यकता नहीं है। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। धीरे-धीरे यह रेगिस्तानी पौधा कंटकहीन किस्म में परिणत हो गया।”

संत बरबैक ने पौधों की संवेदना को सृजनात्मक दिशा में मोड़कर वनस्पति जगत को सैकड़ों वर्णसंकर वनस्पतियाँ प्रदान की है। उन्होंने अख़रोट के वृक्ष पर प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया था कि संवेदना व प्रेम से प्राकृतिक विकासक्रम की गति को अत्यन्त तीव्र किया जा सकता है। इनके बगीचे में केवल सोलह वर्ष में अख़रोट फल देना शुरू कर देता है। सामान्यतः 30.32 साल में इसमें फल आना प्रारम्भ होता है। बरबैक ने अपने प्रसिद्ध शोध ग्रंथ ‘ द ट्रेनिंग ऑफ द ह्यमेन प्लाण्ट’ में स्पष्ट किया है कि पौधों की इच्छाशक्ति की तुलना में मनुष्य की इच्छाशक्ति अत्यंत कमजोर है। ताड़ की कुछ किस्में इतनी दृढ़ हैं कि कोई भी मानवीशक्ति अभी तक उसमें परिवर्तन नहीं जा की। इसके अतिरिक्त इस सम्पूर्ण वृक्ष की जीवनव्यापी दृढ़ता केवल एक नए जीवन का संयोग करा देने से टूट जाती है। वर्णसंकरता या कलम के द्वारा इसके जीवन में पूर्ण और शक्तिशाली परिवर्तन घटित हो जाता है। दृढ़ता टूट जाने पर धैर्य के साथ लम्बे समय तक देख-भाल के द्वारा नए परिवर्तन को स्थापित किया जाता है। प्रेम और संवेदना से यह क्रिया तीव्रता के साथ होती है। अच्छा हो हम पेड़ -पौधों को स्नेह और ममता भरी दृष्टि से देखें और उनका संवर्द्धन करें। इनके विकास में ही हमारी प्रगति सन्निहित है।

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