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Magazine - Year 1998 - Version 2

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सबसे प्यारा, सबसे न्यारा, भारतवर्ष हमारा

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भारतवर्ष की स्थापना से ही इसका मूल स्वरूप साँस्कृतिक माना जाता रहा है। राजनीति नहीं, अध्यात्म-नैतिक उसकी मूल प्रेरणा स्रोत रही है। धर्म हमारे राष्ट्र के कण-कण में संव्याप्त है इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के रूप में जाना जाता रहा है। यहीं कारण रहा है कि हमारे ऋषियों ने भारत भूमि को माता कहा है। “माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्याः” वाला यह राष्ट्र ही हैं जहाँ ऋषियों ने ब्रह्मज्ञान पाया व ब्रह्मसाक्षात्कार किया। विश्व को परिवार मानने की सुंदर कल्पना भी इसी भूमि से उपजी है।

राष्ट्र का शाब्दिक अर्थ है-रातियों का संगम स्थल। राति शब्द देने का पर्यायवाची है। राष्ट्रभूमि और राष्ट्रजनों की यह संयुक्त इकाई राष्ट्र इसीलिए कही जाती है कि यहाँ राष्ट्रजन अपनी-अपनी देन राष्ट्रभूमि के चरणों में अर्पित करते है। स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र को व्यष्टि का समष्टि में समर्पण कहते हुए इसकी व्याख्या की है। आध्यात्मिक राष्ट्रीयता के उद्घोषक श्री अरविंद ने कहा है-राष्ट्र हमारी जन्मभूमि है। यह जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं, न ही एक शाब्दिक नाम है, न मन की कपोल कल्पना है। यह वह विराट शक्ति है, जो लाखों-लाख लोगों की शक्तियों का, जिससे राष्ट्र बनता है, समुच्चय है। श्री माँ के शब्दों में जैसे महिषासुर मर्दिनी सहस्रों देवताओं की सम्मिलित शक्ति से उद्भूत है, राष्ट्र उसी से अभिपूरित है। भवानी अनंतशक्ति का रूप है। वे शाश्वत से निकलकर शाश्वत भाव से भारत के भीतर विद्यमान है।

हमारी मातृभूमि भारतभूमि का हृदय संस्कृति सत्य से अनुप्राणित है और इसी में परमात्मा का निवास है। आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत संस्कृति की अधिष्ठात्री होने के कारण हमारी मातृभूमि हम सबके लिए पूज्य है। मनुस्मृति हमारे देश की साँस्कृतिक यात्रा की ओर संकेत करती है। भगवान मनु कहते हैं कि भारतवर्ष रूपी यह पावन अभियान सरस्वती और दृषद्वती नामक दो देवनदियों के मध्य देव विनिर्मित देश ब्रह्मवर्त से आरंभ हुआ। इस प्रकार मनु महाराज राजतंत्र से इस देश के विकास की बात नहीं कहते। सदाचार, नैतिकता देवत्व के सम्वर्द्धन प्रचार प्रसार में विश्वास रखने वाली भारतीय संस्कृति का उद्गम भी अध्यात्म से हुआ बताया गया है।

तस्मिन्देशे य आचारः पारर्म्पयक्रमागतः। वर्णानाँ सान्तरालानाँ स सदाचार उच्यते॥

मनुस्मृति का अगला श्लोक ब्रह्मवर्त का, आगे कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पांचाल आदि क्षेत्रों में संव्याप्त होने का वर्णन करता है। मनुस्मृति कहती है-

एतद्देशप्रसूतस्य सकाशाद ग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेनूपृथिव्याँ सर्वमानवाः॥

इस ब्रह्मर्षि देश का विस्तार हिमालय से विंध्याचल पर्वत के बीच के प्रदेश तक हुआ। मध्य देश नाम से परिचित इस देश से यह यात्रा साँस्कृतिक रूप में निर्भाव बढ़ती हुई अपना अगला चरण आर्यावर्त के रूप में पूर्ण करती हुई चली गयी। इस आर्यावर्त के उत्तससर में उत्तुंग हिमालय की पर्वत श्रृंखला तथा दक्षिण में नर्मदा, कृष्णा, कावेरी स्थित है। पूर्वी तथा पश्चिम सीमाएँ विशाल सागरों से घिरी हुई है।

भारतभूमि की धूलि का एक-एक कण दिव्यता से ओत-प्रोत व पावन है। हर भारतवासी की अभिव्यक्ति सम्पूर्ण व अखण्ड राष्ट्र के लिए अभिव्यक्ति होती हैं। शिव का भक्त काशी से रामेश्वर तक जाता है और विष्णु का अनुयायी समस्त देश की चतुर्दिक् तीर्थयात्रा करता है। गंगा का जल जो गोमुख से लेकर जाया जाता है, रामेश्वर पर चढ़ाया जाता है। साँस्कृतिक एकता और अखण्डता को मजबूत करने के लिए ही अद्वैतवादी जगद्गुरु शंकराचार्य ने देश के चारों सीमाओं पर चार तीर्थों का निर्माण किया। भारत राष्ट्र ने अपनी साँस्कृतिक व धार्मिक चेतना को उसके बाद सर्वत्र फैलाया ही है।

अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त को विश्व का पहला राष्ट्रगान कहा जा सकता है। उसमें मातृभूमि के स्वरूप और उसके साथ बहुमुखी विविधता में समाहित एकता का बड़ा सूक्ष्म वर्णन हुआ है। भूमि के पुत्र के रूप में ही उसका वर्णन है।

सानः माता भूमि। भूमे माताः। नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम। माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः॥

वेदों का संदेश है कि मातरं भूमि धर्माणा धृताम के अनुसार यह हमारी धर्मभूमि है। साथ ही सत्कर्मों की प्रेरणा भरने वाली कर्मभूमि और मनुष्य को भगवत् दर्शन कराकर उसका जीवन सार्थक कराने वाली मोक्षभूमि भी। संभवतः भारतभूमि की इसी महानता के लिए स्वामी विवेकानंद के हृदय से यह उद्गार निकले हों-यदि पृथ्वी पर कोई ऐसी भूमि है, जिसे मंगलदायिनी पुण्यभूमि कहा जा सकता है, जहाँ ईश्वरप्राप्ति की अभीप्सा रखने वाली हर आत्मा को अपना अंतिम आश्रयस्थल प्राप्त करने हेतु आवागमन करना ही पड़ता है, तो वह भारत राष्ट्र ही है।

भारत राष्ट्र रूपी यह हमारी मातृ भूमि सदा से सबका भरण-पोषण करती आयी है- अन्नादि के द्वारा, औषधियों के द्वारा। इस पवित्र धरा ने न केवल हमें भौतिक सम्पदा से परिपूर्ण किया है, बल्कि आध्यात्मिक रीति-नीति का पाठ भी पढ़ाया है। इस मातृभूमि ने वेदों के अनुसार सात महाशक्तियों को धारण किया हुआ है, ये हैं- बृहद्सत्य, ऋतु, क्षमाशक्ति, दीक्षा, तप, ब्रह्मशक्ति और यज्ञ।

सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो, ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति।

ये सात महाशक्तियाँ ऐसी सम्पत्तियाँ हैं, जिन पर सारे राष्ट्र को खड़ा किया जा सकता है, स्थिर रखा जा सकता है व सारे विश्व का मार्गदर्शक उसे बनाया जा सकता है। सब ओर सब प्रकार की उन्नति करा सकने की सामर्थ्य उसमें विद्यमान है। इसी कारण हमारे राष्ट्र की अवधारणाएँ, स्थापनाएँ आदर्श कोटि की हैं।

भारतभूमि से अध्यात्म का अटूट और अविच्छिन्न सम्बन्ध रहा है। यहीं पर हमारे पूर्वजों ने जीव जगत और ब्रह्म का साक्षात्कार किया। उनके गूढ़ रहस्यों को अनावृत्त कर सारे जगत को ज्ञान का नव आलोक दिखाया। हमारे ऋषि तप की प्रचण्ड महत्ता से परिचित थे। इस तपोभूमि के कण-कण पर हमारे पूर्वजों की तपोगाथा अंकित है और यह पावन तीर्थस्थली के रूप में प्रतिष्ठित है। अपने पूर्वजों की इसी अध्यात्म-साधना के कारण यह सम्पूर्ण भू-खण्ड आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु रहा। महाभारत के भीष्म पर्व में भारत की यशोगाथा का वर्णन कुछ इस तरह हुआ है-

अत्रतेकीर्तयिष्यामिवर्षभारतभारतम्। प्रिययमिंद्रस्यदेवस्यमनोवैंवस्वतस्यच॥

पृथोस्तुराजन्वैन्यस्यतथेक्ष्वाकोर्महात्मनः। ययातेरंबरीषस्यमाँधातुर्नहुषस्यच॥

तथैवमुचुकुँदस्यशिबेरौशीनरस्वच। ऋषभस्यतथैलस्यनृगस्यनृपतेस्तथा॥

अर्थात् “हे भारत! अब मैं तुम्हें उस भारतवर्ष की कीर्ति सुनाता हूँ, जो देवराज इन्द्र को प्यारा था, जिस भारत को वैवस्वत मनु ने अपना प्रियपात्र बनाया था, आदिराज बेनु ने जिस भारत को अपना प्रेम अर्पित किया था, महात्मा इक्ष्वाकु को जिससे हार्दिक प्रीति थी, नहुष जैसे तेजस्वी पुरुषों ने जिसे अपने हृदय में स्थान दिया, सम्राट मुचुकुन्द, औशीनर, शिवि, ऋषभ ऐल और नृपति नृग जिस भारत को भक्तिभाव से पूजते थे, महाराज कुशिक, महाराज गाधि, व्रती दिलीप के लिए जो भारत प्राणों से प्यारा था, जिस भारत को अनेक बलशाली क्षत्रियों ने अपने बलिदान से सींचा, जिसे सम्पूर्ण जनता अपने हृदय से चाहती है।”

रामायण, महाभारत एवं समस्त पुराण भारत भक्ति की प्रेरणा से भरे हुए हैं। भारतीय राष्ट्रवाद की व्याख्या करते हुए विष्णुपुराण कहता है-

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमादे्रश्चैत दक्षिणम्॥ वर्षं तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥

सभी पुराणों में लगभग इसी प्रकार की अनुगूँज है। भारत के गौरवपूर्ण तीर्थों, दिव्य नदियों, पावन पर्वतों के प्रति अपूर्व श्रद्धा-भाव प्रकट किया गया है। वह श्रद्धा और भावना उसकी आध्यात्मिक धरोहर के प्रति समर्पित हुई है। वृक्षों, जंगलों, वनस्पतियों से आच्छादित होने के कारण राष्ट्र को ‘विश्वधायाः’ कहते हैं। यह सारे विश्व का पालन-पोषण करने में समर्थ है। यह राष्ट्र की अमूल्य सम्पत्ति है। वहाँ मौलिक समृद्धि का महत्व तो है, परन्तु भौतिकता को यहाँ कभी भी धर्म से अधिक महत्व नहीं दिया गया। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की यह धारा धर्माचरण का मार्ग दिखाती रही है। इसलिए भूमि की महत्ता को विष्णुपुराण ने बड़े सुन्दर ढंग से शब्दों में गूँथा है।

गायन्ति देवाः किल गीताकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे। स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषः मुरत्वात्॥

देवता भी कहते हैं - धन्य हैं वे लोग, जिन्हें भारतभूमि में जन्म लेने का सौभाग्य मिला। देवता भी इस पुण्यभूमि में पुण्यार्जन करने हेतु बार-बार जन्म लेने को उत्सुक रहते हैं। इसी कारण जब भी जन्म मिले, भारत वतन मिले का अमर उद्घोष करके क्राँतिकारी फाँसी के फंदे पर झूल जाते थे। मोक्षप्राप्ति व गूढ़ आध्यात्मिक साधना हेतु भारतभूमि को ही उपयुक्त साधनास्थली माना जाता रहा है। भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली गीता कहती हैं-

ते तं भुवत्वा स्वर्गलोक विशालंक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति एवं त्रयीधर्मपनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते॥

इस श्लोक से भी संकेत मिलता है कि स्वर्ग में पुण्यकर्म के क्षीण होने पर हम इसी लोक में वापस आते हैं। विष्णु पुराण और गीता में अधिदैव से अध्यात्म की, भारत की ज्ञान यात्रा का सुन्दर चित्रण हुआ है। इस यात्रा का अंत ब्रह्म से तादात्म्य स्थापित होकर ही हुआ है। यही विद्या बाद में ब्रह्मविद्या या वेदान्त के रूप में प्रतिष्ठित हुई। इस प्रकार इतिहास की यात्रा को देखने से स्पष्ट पता चलता है कि यह राजनीति से प्रेरित न होकर विशुद्ध साँस्कृतिक और आध्यात्मिक यात्रा थी।

उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय चिन्तन ने राष्ट्रीयता को राजनैतिक अवधारणा के रूप में स्वीकार करने पर विवश कर दिया। राजसत्ता को ही राष्ट्र निर्माण का मुख्य माध्यम माना गया। स्पष्ट किया गया कि राष्ट्र निमार्ण हेतु भाषा, नस्ल और राज्य की एकता अनिवार्य है। इस चिन्तन ने भारतीय साँस्कृतिक विविधता को अस्वीकार कर दिया एवं इसकी एकता और अखण्डता को खण्डित करने का प्रयास किया। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् यूरोप और अमेरिका में राष्ट्रीयता की अवधारणा के बारे में पुनः चिन्तन प्रारम्भ हुआ। डब्ल्य, नैस्सन सीनियर ने उल्लेख किया है कि यूरोपीय राष्ट्रीय चिन्तन बर्बरतापूर्ण है एवं राष्ट्र की प्रगति के लिए घोर अभिशाप है। इसके द्वारा कोई भी राष्ट्र विकसित व पल्लवित नहीं हो सकता। सी.जे.एच. ह्येज हेंस कोहन आदि अनेक विद्वानों ने राष्ट्रीयता की इस व्याख्या को अवैधानिक और अनैतिक भी प्रमाणित कर दिखाया। इस पुनः चिन्तन से राष्ट्रीयता की परिभाषा एक समूह चेतना के रूप में की गयी, जो किसी भूखंड पर रहने वाले समाज को उसकी अनेक बाह्य विविधताओं के होते हुए भी एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया के फलस्वरूप उस भूमि के प्रति माता-पुत्र भाव से जोड़ देती है।

इसी शताब्दी में ‘राष्ट्र धर्म के बिना राष्ट्र नहीं हो सकता।’ ‘राष्ट्र, धर्म से ही आधारित रहा करता है।’ स्वामी रामतीर्थ ने अपना उद्गार इस तरह व्यक्त किया। कोई मनुष्य परमात्मा से अपनी एकात्मता तब तक अनुभव नहीं कर सकता, जब तक कि समग्र राष्ट्र के साथ तादात्म्य उसके शरीर के रोम-रोम में जोश न भरती हो। एक बार महात्मा गाँधी ने बुनकरों की एक सभा में भाषण देते हुए कहा था- मेरी मान्यता है कि कोई भी राष्ट्र धर्म के बिना वास्तविक प्रगति नहीं कर सकता। हमारे राष्ट्र के पीछे साँस्कृतिक झाँकियाँ दृष्टिगोचर होती है, इसलिए सहस्रों आक्रान्ताओं के आक्रमण के बावजूद यह अखण्ड और एक राष्ट्र है।

श्री अरविन्द ने ‘वंदेमातरम्’ में राष्ट्रीयता के स्वरूप को रेखांकित किया है। उनके अनुसार राष्ट्रीयता केवल एक राजनैतिक कार्यक्रम नहीं है। राष्ट्रीयता एक धर्म है, जो ईश्वरप्रेरित है। राष्ट्रीयता एक सिद्धान्त है, जिसके अनुसार हमें जीना है। राष्ट्रवादी बनने के लिए, राष्ट्रीयता के इस धर्म को स्वीकार करने के लिए हमें पूर्ण आस्तिक बन धार्मिक भावना का पूर्णपालन करना होगा। श्री अरविन्द ने राष्ट्र को एक दैवीसत्ता मानने की अपनी कल्पना के अनुरूप राष्ट्रीयता को “एक आध्यात्मिक आदर्श-एक धर्म माना है। इस आध्यात्मिक राष्ट्र का परिचय है- साधना, तपस्या, ज्ञान और शक्ति।” आगे उन्होंने कहा- “राष्ट्रीयता स्वयं परमात्मा से उद्भूत एक धर्म है। उसका दमन नहीं हो सकता और न हो सकेगा। राष्ट्रीयता अमर है, क्योंकि वह मर्त्य मानव की सृष्टि नहीं है।”

आत्मिकी-आध्यात्मिकता भारतीय जीवन की कुँजी है। इस राष्ट्र के अतीत में सर्वत्र कभी भी समाप्त न होने वाले जीवन के आनन्द का वर्णन एवं उसके लिए अकल्पनीय रचनाओं का प्रयास हमें आश्चर्यचकित कर देता है। अपने समग्र रूप में यह राष्ट्र सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिकता और अनुभूति के स्वतंत्र एवं सहिष्णु समन्वय का परिचायक है। एकमेव सत्य को उसके अनेक स्वरूपों में देखते हुए भी उसने किसी भी स्वरूप के लिए अपने द्वार बन्द नहीं किए। इस राष्ट्र ने न तो अपने को विशेष नाम दिया और न अपने अंगभूत मतों और विभागों के लिए पृथक् नामों को स्वीकारा। वह स्वयं अपनी चिरन्तन जिज्ञासा के विषय - ‘ब्रह्म’ की खोज ही करता रहा।

राष्ट्रनिर्माण के प्रथम मन्त्रदृष्टा स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - “धर्म इस राष्ट्र के लिए शाश्वत सत्य है। त्याग, सर्वस्व त्याग इस राष्ट्र का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च आदर्श है। भारतीय राष्ट्र समस्त राष्ट्रों में अत्यधिक सदाचारी और धार्मिक राष्ट्र है। जीवात्मा, परमात्मा और ब्रह्माण्ड के ये सब अपूर्व, अनन्त, उदात्त और व्यापक धारणाओं में निहित जो महान तत्व हैं, ये भारतभूमि में ही उत्पन्न हुए हैं। “

युगनायक स्वामी विवेकानन्द ने इस आध्यात्मिक राष्ट्र के प्रति अपना श्रद्धाभाव समर्पित करते हुए उद्घोष किया था - यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई राष्ट्र है जिसे हम धन्य पुण्यभूमि कह सकते हैं, यदि ऐसा कोई स्थान है, जहाँ पृथ्वी के सब जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है, यदि ऐसा कोई स्थान है, जहाँ भगवान की ओर उन्मुख होने के प्रयास में संलग्न रहने वाले जीवमात्र को अन्ततः आना होगा, यदि ऐसा कोई देश जहाँ मानवजाति की क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सत्प्रवृत्तियों का सर्वाधिक आत्मान्वेषण की पद्धतियों का विकास हुआ, तो बस वह यही पुण्य भारतभूमि है। यही वह राष्ट्र है, जहाँ पर धर्म, व्यावहारिक और यथार्थ था और केवल यहीं पर मानवता ने इस विश्व का अध्ययन एक अविच्छिन्न एकता के रूप में किया। इसका हर स्पन्दन परमात्मसत्ता का स्पन्दन है। हमारी मातृभूमि - दर्शन, धर्म, आचारशास्त्र, मधुरता, कोमलता और प्रेम से सनी हुई भूमि है। यह राष्ट्र नीति एवं अध्यात्म में इसके राष्ट्रों से बहुत ऊँचा है।

भारत आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का द्योतक है। आज भी प्रत्येक मंगलकृत्य के अवसर पर वेदोक्त मंत्रों में इन्हीं सूक्तों का उच्चारण किया जाता है। ब्रह्मा, कल्प, मनवन्तर और चतुर्युगों की लम्बी काल- यात्रा इसी का प्रचार - प्रसार करती रही है। इस राष्ट्र का अध्यात्म एवं धर्म हर जन के प्राणों में प्रकट हो। यह ऋषियों की कल्पना हम सब आने वाले संधिकाल के वर्षों में साकार करें।

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