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Magazine - Year 1998 - Version 2

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शरीर से कुरूप भले ही हों, चरित्र होना चाहिए

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पंजाब के एक शहर में महाराजा रणजीत सिंह की सवारी निकल रही थी। रास्ते में हाथी पर बैठो हुए महाराजा के सिर पर एक पत्थर आकर लगा और अगले ही क्षण आस-पास के सैनिकों ने एक बालक को पकड़ा, जो इस शोभायात्रा से बेखबर होकर सड़क के किनारे लगे बेर के पेड़ से फल गिराने के लिए पत्थर फेंक रहा था।

सैनिकों ने राजदरबार में उस बालक को उपस्थित किया। वह बहुत डर रहा था। महाराजा के सिर पर पट्टी बँधी हुई थी, सैनिकों ने शोभायात्रा के समय घटित घटना का विवरण कहा। महाराज ने फैसला दिया, जब पेड़ भी पत्थर लगने पर फल देता है, तो मैं ही इसे दण्ड क्यों दूँ। उसने मुझे लक्ष्य कर तो पत्थर मारा नहीं था, भूल से वह लग गया, इसमें बालक का कोई दोष नहीं है, इसे भेंट देकर वापस भेज दो।”

महाराजा रणजीत सिंह के इस निर्णय पर सबको आश्चर्य हुआ और सुखद हर्ष भी। उनकी क्षमाशीलता के ऐसे कई किस्से सुने जाते है। वे उतने ही क्षमाशील थे जितने कि वीर। क्षमा ही तो वीर का भूषण कहा गया है। अपने प्रति भूल से या जानबूझकर भी अपराध करने वालों को क्षमा कर देना बहुत बड़ा गुण है।

महाराजा रणजीत सिंह शरीर से बिल्कुल भी आकर्षक नहीं थे। उनका कद छोटा था। चेहरा चेचक के दागों से भरा हुआ और एक आँख भी नहीं थी। इतने कुरूप व्यक्ति की प्रतिष्ठा भी भारत के इतिहास में अति सुन्दर वीर के रूप में हुई है। वस्तुतः सौंदर्य का शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है, वह तो व्यक्तित्व और चरित्र का ही अंग है। नाटे कद के व्यक्ति से नियति ने एक आँख छीन ली, किन्तु सूझ-बूझ और नीर-क्षीर विवेकी-बुद्धि के रूप में संसार का अद्वितीय नेत्र इनके पास था। उनका चेहरा चेचक के दाग से भद्दा लगता था, परन्तु उस पर देदीप्यमान दिव्य गुणों की आभा अच्छे चेहरों को मात दे देती थी और इस नैसर्गिक सौंदर्य को प्राप्त किया जाता था उन्होंने अपने समझदार पिता से। पालन-पोषण में उनके माता-पिता ने इस ओर विशेष ध्यान दिया था, वह भी जन्म से ही कुरूप होने के कारण।

1780 ई. में पंजाब की एक रियासत के अधिपति महाराजा मानसिंह के यहाँ उनका जन्म हुआ। जन्म के समय उनका शरीर बड़ा बेडौल और कुरूप था। लोगों की आम धारणा थी कि एक राजकुमार को सुन्दर होना चाहिए। इसलिए राजपरिवार के अन्य सदस्यों और सर्वसाधारण को स्वाभाविक ही क्षोभ और चिन्ता हुई, जिसे उन्होंने महाराज मानसिंह के सामने व्यक्त किया। मानसिंह को दुःख तो था, परन्तु उतना नहीं। उनकी मान्यता थी कि कोई भी चेहरे से सुन्दर नहीं कहा जाना चाहिए, बल्कि सुन्दरता का मापदण्ड तो उसका पराक्रम, शौर्य और साहस समझना चाहिए। सहानुभूति जताने और राजकुमार को कुरूप होने पर अपनी व्यथा कहने के लिए दरबार के कुछ उनके पास पहुँचे तो उन्होंने ललकार कर कहा-मुझे इस बात का जरा भी दुःख नहीं है कि मेरा बेटा सुन्दर नहीं है। पुरुष का पुरुषार्थी और पराक्रमी होना ही उसका सुन्दर होना है। और मैं निश्चय ही अपने बेटे को ऐसा बनाऊँगा।”

राजकुमार के कुछ बड़ा होने पर महाराजा मानसिंह सचमुच ही ही अपने पुत्र को बहिरंग जगत का विजेता एवं सौंदर्यशाली बनाने में जुट गए। वे रणजीत सिंह को घोड़े पर बिठाकर घुमाने ले जाते, घुड़सवारी करवाते, निशाना सिखाते और बन्दूक चलाना सिखाते, बताते। रणजीत सिंह को उन्होंने ऐसे वातावरण में रखा, जो वीरता और साहस की प्रेरणा देता था। रात को सोते समय भी मानसिंह अपने लाड़ले को राम-लक्ष्मण की शौर्य कथाएँ सुनाया करते थे।

ऐसा करने का उनका एक-दूसरा उद्देश्य भी था। पंजाब उस समय कई छोटे-बड़ी रियासतों में बँटा हुआ था। कुल मिलाकर बारह राज्य थे, जो आपस में ही लड़-मरकर अपनी शक्ति नष्ट करते रहते थे। सिक्ख जाति सदा से ही देशभक्ति और बहादुरी की परम्पराओं को पालन करती रही है। गुरुगोविन्द सिंह ने पूरे सिक्ख ने पूरे सिक्ख समाज को सैनिकीकरण किया, इससे बड़े-बड़े साम्राज्य तक भय खाते थे परन्तु बाद में इस सशक्त संगठन को भी फूट और वैमनस्य के संक्रामक रोग ने ग्रसित कर लिया, जिसके परिणामस्वरूप पूरा पंजाब छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया और उस सबकी शक्ति क्षीण होने लगी।

महाराजा मानसिंह बुद्धिमान और विचारशील भी थे। उन दिनों अंग्रेज सेनाओं की छोटी-छोटी टुकड़ियाँ जिस प्रकार सिक्ख जनता और भारतीय जन-जीवन को संत्रस्त किया करती थीं, उसे देखकर उनका मन बड़ा व्यथित होता। भारतीय समाज में घुस आए इन विकारों को दूर करने की ठानकर मानसिंह ने सर्वप्रथम पंजाब में एक संगठित राज्य का स्वप्न देखा। उसे साकार करने के लिए प्रयत्न भी किया। अपने पुत्र रणजीत सिंह को वीर योद्धा के रूप में तैयार करने की साधना भी इन्हीं प्रयत्नों की एक कड़ी थी।

रणजीत सिंह को युद्धविद्या में निष्णात करने के साथ-साथ उन्होंने अपने पुत्र के चरित्रगठन की ओर भी ध्यान दिया। क्योंकि जनस्तर पर प्राप्त ही तो स्थायी रख सकता है, अन्यथा इस ओर और कोई ध्यान न देने वाला उन सफलताओं के कारण अहंकारी और अभिमानी ही बनता। व्यक्तिगत रूप से पुत्र को सच्चा सौंदर्य प्रदान करने के लिए तथा उसे सामाजिक हित के लिए उपयोगी बनाने हेतु महाराजा मानसिंह ने अथक प्रयत्न किया।

सन् 1792 में उनका देहान्त हो गया। उस समय रणजीत सिंह की आयु मात्र बारह वर्ष की थी। भारत राष्ट्र का का भावी उद्धारक असमय में ही अनाथ ही अनाथ हो गया। परन्तु माता ने सूझबूझ से काम लिया और रणजीत को अपने संरक्षण में लेकर इसी उम्र में राजगद्दी सौंप दी। राजकाज देखने के लिए उन्होंने अपने एक विश्वासपात्र दरबारी लखपत राय को दीवान नियुक्त कर दिया। रणजीत सिंह का राज्याभिषेक हुए अधिक समय नहीं हुआ था कि राजपरिवार के सभी सदस्य उन्हें अपने हाथों का खिलौना बनाने के लिए तरह-तरह की योजनाएँ बनाने लगे। उन्होंने तथा उनकी माता ने बड़ी सावधानी बरती और षड्यंत्रों को विफल किया।

कुछ वर्षों बाद अफगानिस्तान की राजगद्दी पर शाहजहाँ नाम का एक महत्त्वाकाँक्षी युवक बैठा। उसने सुना कि पंजाब जैसे धन-धान्य सम्पन्न प्रान्त के सीमान्त क्षेत्र का राजा एक किशोर युवक है, तो उसके मुँह में पानी भर आया और रणजीत के राज्य को जीतने के लिए उसने लाहौर पर आक्रमण कर दिया। इस आसन्न संकटकाल में राजमहल के षड्यन्त्र खुलकर बाहर आ गए। सत्रह-अठारह वर्ष के अवयस्क रणजीत सिंह के सम्मुख विकट समस्या उठ खड़ी हुई।

रणजीत सिंह ने धैर्य से काम लिया। इस संकटकाल में उनकी बचपन की शिक्षा काम आई। माता के परामर्श एवं स्वयं की सूझ-बूझ से उन्होंने स्वयं को स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया और सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए। शाहजमाँ के पास काफी बड़ी सेना थी और रणजीत सिंह के पास गिने-चुने किन्तु राजभक्त सिपाही। सेना नेतृत्व उन्होंने स्वयं सँभाला और शाहजमाँ का डटकर मुकाबला किया। आततायी सत्ता लोलुपता को विशुद्ध राष्ट्र भक्ति के हाथों पराजित होना पड़ा। शाहजमाँ लाहौर छोड़कर भागा। किन्तु महाराज रणजीत सिंह ने शत्रु के प्रति उदारता का व्यवहार किया। उन्होंने युद्ध के दौरान नदी में डूब गई शाहजमाँ की तोपें, हथियार और छीना गया गोला-बारूद वापस कर दिया। अफ़गान सरदार को इस विचित्र व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसका हृदय भी अवसाद से भर गया, परन्तु पंजाब विजय की लालसा अभी मिटी नहीं थी। अगली बार पूरी तैयारी के साथ आने की खिसियानी धमकी देकर वह अफगानिस्तान लौट गया।

इस युद्ध के कारण महाराजा रणजीत सिंह का आत्मविश्वास बढ़ गया। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया। माँ ने पिता की उस चिरकालिक इच्छा के सम्बन्ध में बताया जिसके अनुसार वे पंजाब को एक राष्ट्र के रूप में उदय होते देखना चाहते थे। उनके मन में भी राष्ट्र के संगठन की संगतिकरण की प्रबल प्रेरणाएँ उठा करती थीं। अपने विश्वासपात्र सैनिकों को लेकर उन्होंने आस-पास के छोटे-छोटे राज्यों का नवीनीकरण कर संघराज्य की स्थापना का अभियान छेड़ा।

इस विजययात्रा में उन्हें अकल्पित सफलता मिली। इन छोटे-छोटे राज्यों ने जल्दी ही हथियार डाल दिये और महाराजा रणजीत सिंह की अधीनता स्वीकार कर ली। एक विशाल राज्य की सुरक्षा के लिए एक सशक्त एवं आधुनिक शस्त्रास्त्रों से लैस सेना भी चाहिए। एक ओर से अंग्रेजों की बढ़ती हुई शक्ति का भय था तो दूसरी ओर अफगानिस्तान के महत्त्वाकाँक्षी राजा शाहजमाँ का। इन दोनों सम्भावित शत्रुओं से रक्षा का प्रबन्ध करने के लिए उन्होंने सेना का विस्तार करना प्रारम्भ किया। पंजाब की उर्वरा भूमि तो सोना उगलती थी। इसलिए व्यय की कोई खास चिन्ता नहीं थी।

उस समय जब वे अपनी सेनाओं का गठन कर रहे थे, अंग्रेजी सरकार ने इस बड़े साम्राज्य को हस्तगत करने के प्रयत्न किए, परन्तु वे विफल रहे। अंग्रेजों को मुँह की खानी पड़ी। अब वे महाराजा रणजीत सिंह से भय खाने लगे व उन्हें अपना मित्र बनाने के लिए प्रस्ताव रखा। परिणामस्वरूप 1809 में अमृतसर में दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों में संधिवार्ता हुई और अँगरेजों तथा सिक्खों में समझौता हुआ।

हृदय से तो महाराजा रणजीत सिंह नहीं चाहते थे कि एक विदेशी शासक को अपना मित्र बनायें, परन्तु उस समय सैन्यशक्ति कमजोर होने के कारण समझौता करना ही उचित समझा। अमृतसर की संधि के अनुसार महाराजा रणजीत सिंह ने यह वचन दिया कि वे पूर्व दिशा की ओर अपना राज्य नहीं बढ़ाएँगे। इसके बदले में अंग्रेज जनरल एलार्ड और कोर्ट की सहायता से उन्होंने अपनी सेनाओं के आधुनिकीकरण का प्रस्ताव रखा। यह काम पुरा होने के बाद वे अपने वायदे के अनुसार पूर्व में तो नहीं बढ़े, परन्तु पश्चिम और उत्तर दिशा में कई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।

सन 1809 में अफगानिस्तान का बादशाह शाहजमाँ उनके पास आया। वह इस बार खाली हाथ आया और अकेला था। कारण कि उसे गद्दी से उतार दिया गया था। महाराजा रणजीत सिंह की दयालुता और उदारता के गुणों के बारे में सुनकर वह उनके पास आया था। रणजीत सिंह ने उसकी सहायता की, जिसके बदले में निर्वासित शाह ने कोहिनूर हीरा भेंट में दिया। इधर उनका एक राष्ट्र को संगठित करने का अभियान जारी रखा, धीरे-धीरे उन्होंने अटक, काँगड़ा, मुलतान, कश्मीर और पेशावर को भी अपने राज्य में मिला लिया।

इतने बड़े साम्राज्य के अधिष्ठाता और कुशल शासक होते हुए भी महाराजा रणजीत सिंह एकदम अनपढ़ हुए थे। फिर भी उन्होंने पढ़े-लिखे और उच्चशिक्षितों से अधिक काम किया और सफल हुए। इस सफलता का श्रेय उनके उच्चविचार, महान जीवन और उत्कृष्ट चरित्र को ही दिया जाना चाहिए। वे एक साथ वीर योद्धा, कुशल राजनीतिज्ञ और उदार धर्मप्राण सदैव आगे रहकर अपनी सेनाओं का पथ-प्रदर्शन तथा सम्वर्द्धन किया। पिता से सुनी हुई कहानियों द्वारा उन्होंने राजनीति के मर्म को बहुत गहराई से समझा था।

निष्ठावान् सिक्ख होने के कारण उन्होंने कभी भी सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से किसी के साथ पक्षपात नहीं किया। साथ ही उनमें प्रतिभाओं को समझाने और पहचानने की भी अच्छी क्षमता थी। सिक्ख, हिन्दू, मुसलमान सभी सम्प्रदाय के व्यक्तियों को आगे बढ़ने का वे अवसर देते थे। उनके राजदरबार में मुसलमानों को भी वही स्थान प्राप्त था, जो इनके सहधर्मी हिन्दुओं को। लोकसेवा के लिए रात-रात जागने वाला यह महामानव 26 जून 1839 को सदा के लिए सो गया। इन्होंने आजीवन संघर्ष करते हुए राष्ट्रीयता और एकता की भावना को मूर्तिमान् किया, जो कि आज के स्वाधीन भारत के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है।

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