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Magazine - Year 1998 - Version 2

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जिसकी हर श्वास राष्ट्र की स्वतंत्रता हेतु थी

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गंगा का सुहाना तट। संध्या की लाली गंगा की लहरों पर धीरे-धीरे तैरती जा रही थी और गंगा की धारा सिंदूरी रंग डूबता-उतरता लालिमा में परिणत हो रहा था। उस दृश्य को अपने नेत्रपटल पर समेट लेने को तत्पर एक गौरवर्ण, उन्नत मस्तक, ऊँचे कद-काठी के संन्यासी अपने साथ चल रहे युवक शिष्य से कह रहे थे-श्याम! मुझे ऐसा लगता है कि प्राच्य संस्कृति का सूर्य भी पाश्चात्य सिंदूरी रंग में डूबता हुआ, कहीं इस प्रकार कालिमा में गुम न हो जाय।

“नहीं, स्वामी जी! ऐसा नहीं होगा।” श्याम ने सम्मानपूर्ण प्रतिवाद किया। “आप जैसे समर्थ पुरुष के रहते यह अनर्थ नहीं होगा। “मैं अकेला क्या कर सकता हूँ और और कहाँ तक यह संभव हो सकेगा। “ संन्यासी ने अपने अंतर्व्यथा को गति दी-आज हमारी संस्कृति दासता और हीनता रोगों से ग्रस्त होकर दिन-प्रतिदिन जर्जर होती जा रही है। कोई ऐसा रणबाँकुरा नहीं दिखायी देता जो अपने देश से बाहर जाकर अपने संस्कृति सूर्य की आभा से अन्य देशवासियों को आलोकित कर सके।

युवक चुप रहा। परंतु उसका अंतर आंदोलित हो रहा था। संन्यासी, जो अपने समय में भारतीय संस्कृति के उत्कर्ष तथा रक्षण में यदि और योद्धा दोनों की ही भूमिका निभा रहे थे, युवक शिष्य को कुछ निर्देश दे रहे थे। प्रखर तेज से भरे इस संन्यासी का नाम स्वामी दयानंद। जो निर्देश स्वामी दयानंद ने श्याम को दिये, उसे शिरोधार्य कर वे सम्पूर्ण समर्पित भाव से लंदन जाने की तैयारी में जुट गये। संयोग ही था कि ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी को संस्कृति भाषा के अध्यापन कार्य हेतु एक योग्य और विद्वान प्राध्यापक की आवश्यकता थी। इसके लिए यूनिवर्सिटी के प्रबंधकों ने स्वामी दयानंद से सहयोग माँगा था। संस्कृत के विद्वानों की कमी नहीं, परंतु स्वामी जी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में केवल संस्कृत का अध्यापक ही भेजना नहीं चाहते थे, बल्कि यह भी चाह रहे थे कि जो व्यक्ति इस कार्य के लिए नियुक्त किया जाय, वह सच्चे अर्थों में भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि भी हो।

अपने युवा और मेधावी शिष्य श्यामकृष्ण वर्मा में स्वामी दयानंद ने आवश्यक सभी विशेषताएँ देखी और लंदन जाने की प्रेरणा देते हुए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के व्यवस्थापकों को उनका नाम भी प्रस्तावित कर दिया। श्यामकृष्ण वर्मा की यह पहली विदेश यात्रा थी। श्याम ने विद्यालय के साथ-साथ स्वतंत्र अध्ययन भी जारी रखा था। यद्यपि उन्होंने विद्यालय में भी इसी तरह के विषय चुने थे, जिनसे धर्म और संस्कृति की शोध एवं अनुसंधान में सतत् संलग्न रह सके। पर स्वतंत्र रूप में भी वे अपने प्रिय विषयों-संस्कृत साहित्य तथा भारतीय शास्त्रों के अध्ययन में निरंतर जुटे रहते। अनवरत अध्यवसाय और गहरी लगन के प्रभाव से उद्धत उनकी यह प्रतिभा देर तक छुपी न रह सकी और उनकी प्रतिभा चमकने लगी। उन्हें जगह-जगह प्रवचन-उद्बोधन के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। प्राचीनतम शैली को अधुनातन शैली में परिवर्तन कर प्रतिपादन करने की उनकी अद्भुत क्षमता को देखकर तत्कालीन विद्वानों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रहा। स्वामी दयानंद जैसे पारखी ने उनकी प्रसुप्त प्रतिभा को बहुत पहले ही परख लिया था। स्वामी दयानंद श्याम की विद्वता के अतिरिक्त व्यक्तित्व की सरलता से अत्यधिक प्रभावित थे। वे सतत् उन्हें अपने पास बुलाकर देश व समाज संबंधी भावी योजना के प्रति दिशा-निर्देश देते रहते थे।

स्वामी दयानंद की प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर जब श्याम लंदन आ गये और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी पहुँचे तो सभी उन्हें देख हैरान हो गये। श्याम धोती-कुर्ता पहनकर विशुद्ध भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। अंग्रेज अधिकारियों की कल्पना ठीक इसके विपरीत थी, वे तो इस भारतीय विद्वान को कोट-पैन्ट और टाई पहने हुए आने की सोच रहे थे। गुलाम देश को अपनी अस्मिता का कहाँ भान होता है। किसी परतंत्र राष्ट्र के नागरिक को अपनी संस्कृति की क्या पहचान हो सकती है? इन्हीं मान्यताओं के कारण वे ऐसा सोच रहे थे। इन मान्यताओं से उत्पन्न कल्पनाओं की तस्वीर जब टूटी तो वहाँ के अधिकारी हतप्रभ से रह गये।

पारस्परिक चर्चा में एक अवसर पर श्यामजी ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा भी था-भारत राजनीतिक दृष्टि से भले ही पराधीन है, पर उसकी आत्मा आज भी उन्मुक्त है। यद्यपि वह सो गयी है, पर आज दिन जाग्रत होगी उस दिन तमाम बेड़ियाँ अपने आप खुल जायेंगी और भारत माता की हुंकार सारे विश्व में झंकृत होने लगेगी। फिर समस्त विश्व उसके चरणों में नतमस्तक हो जायेगा। भारतीय संस्कृति की अमर पताका फिर से फहराने लगेगी।

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत अध्यापक के पद पर नियुक्त होकर, श्याम वर्मा अपना कर्तव्य तो पूरा करते रहे, परंतु उन्होंने अपने आप को अध्यापन कार्य तक ही सीमित नहीं रखा, वरन् स्वयं भी गंभीर अध्ययन में तन्मयतापूर्वक जुट गये। उन्होंने पश्चिमी साहित्य, संस्कृति, धर्म और सामाजिक प्रवृत्तियों को गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया। इस दौरान उन्हें कई महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगे। उन्होंने पाया कि यूरोपीय देशों के निवासियों में देशभक्ति, प्रगतिशीलता, श्रम निष्ठा और कर्तव्यपालन का भाव कूट-कूटकर भरा है। जबकि भारतीय लोगों ने इन तत्वों को विस्मृत कर दिया है। ये दिव्यगुण एवं विशेषताएँ यदि भारतीय समाज में भी विकसित हो सकें, तो भारत निश्चय ही अपने पुरातन गौरव को प्राप्त कर सकता है।

लंदन प्रवास में वर्मा जी वेदज्ञ विद्वान मैक्समूलर के संपर्क में आये। मैक्समूलर तब वैदिक साहित्य पर शोध कार्य कर रहे थे। वर्मा जी ने देखा की उनका दृष्टिकोण व्यापक नहीं हैं एवं काफी पूर्वाग्रहयुक्त है। उनने यही सोचा कि इसके लिए मैक्समूलर स्वयं दोषी भी नहीं है क्योंकि उनके अध्ययन का आधार संस्कृत न होकर विदेशी भाषाएँ तथा व्याख्याएँ ही रही है, जो किसी भी प्रकार प्रमाणिक या असंदिग्ध नहीं कही जा सकती थीं। वर्मा जी ने मैक्समूलर से घनिष्ठ संपर्क बढ़ाया और उन्हें मूल भाषा में वेदों के अध्ययन की प्रेरणा दी। इसके लिए उन्हें संस्कृत सीखने में सहयोग प्रदान किया और भारतीय धर्म पर वस्तु परक दृष्टिकोण भी बताया। यह संपर्क अधिक दिनों तक बना रहता, तो शायद मैक्समूलर के भाष्यों में विसंगतियाँ नहीं होती। अपनी समस्त प्रतिभा एवं क्षमता इस महत्वपूर्ण सूत्र को व्यवहारिक रूप में देने के लिए नियोजित कर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में अपना सेवाकाल पूरा होने के तत्काल बाद ही वे अपनी मातृभूमि वापस लौट आये।

भारत लौटने पर सबसे पहले उन्हें आर्थिक साधनों के अभाव का सामना करना पड़ा। क्राँति का हर कदम कँटीले काँटों और धधकते अंगारों पर रखकर ही चलना पड़ता है। ये परिस्थितियाँ भी उसी की एक स्वरूप थी। उन्होंने अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनी प्रतिभा के आधार पर आर्थिक समाधान जुटाने का प्रयास किया। वर्मा जी सतत् अपने लक्ष्य के प्रति सचेत रहे और निष्काम कर्मयोगी के रूप में वकालत के क्षेत्र में उतर पड़े। मुम्बई हाईकोर्ट में कुछ समय वकालत करने के पश्चात् उन्होंने अजमेर में इसे आगे बढ़ाया। कुछ समय तक वर्मा जी देशी रियासतों में भी उच्च प्रशासकीय पदों पर भी कार्यरत रहे।

भारत में रहते हुए उन्होंने अनुभव किया कि वे भारतीय स्वतंत्रता के लिए यहाँ की अपेक्षा विदेशों में रहकर अच्छी तरह इसे अंजाम दे सकते थे, अंततः वर्मा जी तमाम संचित साधनों को खपाकर अपनी योजनाओं को लेकर विदेश चले गये। वहाँ उन्हें पूर्व का कटु अनुभव काम आया और कठोर अग्नि परीक्षाओं से गुजरते देश की स्वतंत्रता का बिगुल बजाते भ्रमण करने लगे। इंग्लैण्ड में उन्होंने इण्डिया हाउस का गठन किया। इस संस्था के माध्यम से वे भारतीय मूल के छात्रों को एकत्रित एवं संगठित कर उन्हें भारतीय संस्कृति में दीक्षित करना चाहते थे। उनके मार्गदर्शन में सभी के दिलों में देशभक्ति का अरमान और शिराओं में उमंगों का उफान उफनने लगा। वर्मा जी ने लंदन प्रवास के दौरान आये दादा भाई नौरोजी तथा काँग्रेस के संस्थापक सर ए.ओ. ह्यूम से भी संपर्क स्थापित किया। परंतु क्राँति का तीव्र वेग कहाँ समझौतावादी एवं मंथर गति के विचारों को प्रश्रय देता। भारतीय स्वतंत्रता को समर्पित वर्मा जी के नेतृत्व में युवाशक्ति अपने इस प्रयास पुरुषार्थ में और भी तीव्रगति से कार्य करने लगी।

वर्माजी ने लंदन में पढ़ रहे भारतीय छात्रों में उसी स्तर की क्राँतिकारी भावनाएँ आरंभ कीं तथा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ने की प्रेरणा भरी। छात्रों को प्रेरित एवं जागृति करने के लिए उन्होंने दयानंद, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप के नाम पर तीन छात्रवृत्तियाँ आरंभ की। छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाले छात्र अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा करते थे।

वर्मा जी लंदन में ही रहकर होमरुल लीग बनाई और इण्डियन सोसियोलॉजिस्ट नामक मासिक पत्रिका भी निकालने लगे। इसके साथ ही वे प्रतिवर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की जयंती भी मनाते। उनके इन प्रयासों ने इंग्लैण्ड सरकार की नींद हराम कर दी। अंग्रेज सरकार उनकी गिरफ्तारी का षड्यंत्र रचने लगी। चौकन्ने वर्मा जी ने इसकी भनक लगते ही अपना कार्य क्षेत्र स्थानान्तरित कर कर दिया और वे फ्राँस आ गये।

फ्राँस सरकार भी इनको किसी षड्यंत्र की योजना में गिरफ्तार करने पर विचार कर रही थी। ठीक उसी दौरान 31 मार्च 1930 को जिनेवा में उनकी स्थूलकाया पंचतत्व में विलीन हो गयी। आजीवन राष्ट्र को समर्पित इस अमर शहीद ने मृत्यु के समय भी व्रत नहीं त्यागा और अपने परिवारजनों के लिए वसीयत में लिखा- “मेरी समस्त सम्पत्ति को संस्कृति को समर्पित किसी यूनिवर्सिटी को अर्पित कर दी जाय, ताकि उसका सही उपयोग हो सके।”

सम्पत्ति के नाम पर इनके पास एक अच्छा-खासा पुस्तकालय था। वर्मा जी के मरणोपरान्त यह पुस्तकालय पेरिस विश्वविद्यालय विभाग को सौंप दिया गया। जहाँ आज भी हजारों छात्र उसके सान्निध्य में भारतीय संस्कृति और धर्म का परिचय व प्रकाश प्राप्त करते हैं। श्री श्यामकृष्ण वर्मा जी सदैव इतिहास के पृष्ठों पर एक मौन राष्ट्रभक्त व संस्कृति सेनानी के रूप में याद किये जाते रहेंगे।

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