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Magazine - Year 2002 - Version 2

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ऋषिचेतना के ज्ञान प्रसार का माध्यम लेखन कला

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हाथों में थमी हुई लेखनी बड़ी सुघड़ता से कोरे-कागज पर अक्षरों व शब्दों की चित्रकारी करती है। इस कलात्मकता में भावनाओं और विचारों के अनेकों रंग उभरते एवं निखरते हैं। इन क्षणों में अपने पाठकों व परिजनों की आँखें अखण्ड ज्योति पत्रिका के जिन पृष्ठो को निहार रही है, उनमें भी लेखन कला का ही महिमामय प्रकाश है। अन्तर्चेतना के भावनात्मक सौंदर्य को इसी से अभिव्यक्ति मिलती है। विपुल साहित्य राशि का उद्गम स्रोत यही है। स्याह अक्षरों से ज्ञान की सफेदी फैलाने वाली यह लेखन कला अपने देश में कब और कैसे जन्मी? यह जिज्ञासा प्रायः सभी विबुध जनों की है। इसके समाधान में विभिन्न देशों में अनेकों वर्णन, विवरण प्राप्त होते हैं।

भारतीय साहित्य में नारद स्मृति के एक श्लोक को इतिहासवेत्ताओं ने प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। इस श्लोक के अनुसार-

ना करिष्यति यदि ब्रह्म लिखितं चक्षुरुामम्। तत्रेयमस्य लोकस्य नाभविष्यत् शुभाँगति॥

अर्थात्- यदि ब्रह्म लिखने के द्वारा उत्तम नेत्र का विकास नहीं करते, तो तीनों लोकों को शुभ गति प्राप्त नहीं होती।

बृहस्पति स्मृति में भी इसी प्रकार यह लिखा है कि पहले सृष्टिकर्त्ता ने अक्षरों को पत्तों पर अंकित करने का विधान किया। क्योंकि छः मास में किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में स्मृति विभ्रमित हो जाती थी। बौद्ध ग्रन्थों में ललित विस्तार का काफी महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें 64 लिपियों का उल्लेख किया गया है। उनमें सबसे पहले ब्राह्मी लिपि का उल्लेख है। जैन ग्रन्थों में भी एक प्रसंग मिलता है कि आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ को एक लड़की थी। उसका नाम बम्पी था। इसको पढ़ाने के लिए उन्होंने ब्राह्मी लिपि विकसित की। जैन साहित्य के समवायण सूत्र व पणवणासूत्र में 18 लिपियों का वर्णन मिलता है, जिसमें प्रथम नाम ब्राह्मी का है। इन्हीं सब प्रमाणों के आधार पर प्रख्यात इतिहासविद् डॉ. राजबली पाण्डेय, डॉ. गौरीशंकर ओझा एवं डॉ. ए.सी. दास आदि, भारतीय लेखन कला को विश्व परिदृश्य में पूर्णतया मौलिक एवं प्राचीनतम माना है। पुरातत्त्वविदों को वादामी के उत्खनन से ब्रह्म तथा सरस्वती की एक खड़ी युगल मूर्ति प्राप्त हुई है। इसमें सरस्वती के हाथ में एक मुड़ी हुई पुस्तक है। तथा ब्रह्म के हाथ में ताड़ पत्र का एक गुच्छा है। पुराविदों ने इन दोनों को भारतीय लेखन कला की पुरातनता का द्योतक माना है।

भारतीय लेखन कला को विश्व में प्राचीनतम बताने वाले प्रमाण अन्य देशों की परम्पराओं व अनुश्रुतियों में भी प्राप्त होते हैं। ऐसे देशों में चीन का स्थान सर्वोपरि है। भौगोलिक स्थिति तथा राजनीतिक, धार्मिक आदि सम्पर्कों से भारत तथा चीन एक-दूसरे के अत्यन्त समीप रहे हैं। इसी से एक-दूसरे की परम्परा परस्पर संचित है। चीन के साहित्य से ज्ञात होता है कि भारतीय लेखन कला विश्व में सबसे अधिक पुरातन है। चीन के विश्वकोश फा-वान-शू-लिन में लिखा है कि पुरातन विश्व में केवल तीन लिपियाँ ही प्रचलित थी। जिनमें सबसे प्राचीन लिपि ब्राह्मी थी। यह फस (ब्रह्म) द्वारा आविष्कृत थी। इसे बांई से दांई ओर लिखा जाता था और यह सभी लिपियों में सर्वोत्तम थी। ह्वनसाँग ने भी अपने भारत यात्रा-विवरण में लिखा है कि लेखन कला का प्रादुर्भाव सबसे पहले भारत वर्ष में ही हुआ था।

अरब देश में भी भारतीय लेखन से सम्बन्धित कई अनुश्रुतियाँ प्रचलित है। इन अनुश्रुतियों से पता चलता है कि भारत में वैदिक काल से ही लेखन की व्यवस्थित परम्परा थी। इतिहासकार अलबरूनी ने लिखा है कि भारतीय लोग कई कारणों से लेखन कला भूल गए थे, जिसे बाद में महर्षि व्यास ने पुनः अविष्कृत किया। यह कथन स्वतः ही इस बात का प्रमाण है कि महर्षि व्यास के पहले के युगों में भी भारत के लोग लेखन कला से परिचित थे।

यूनानी परम्पराओं व अनुश्रुतियों में भी भारतीय लेखन की प्राचीनता का भली भाँति उल्लेख है। सिकन्दर के साथ आने वाले यूनानी कर्मचारियों एवं इतिहासकारों ने यहाँ की कतिपय परम्पराओं व अनुश्रुतियों को अपने साहित्य में स्थान दिया है। नियार्कस नामक एक सेनापति ने लिखा है कि भारतवासी चिथड़ों तथा रुई से कागज बनाना जानते थे। कागज का प्रयोग लेखन सामग्री के लिए होता था। यह ऐतिहासिक तथ्य भारत की विकसित लेखन कला की ओर संकेत करता है। कर्टियस नाम के एक अन्य यूनानी यात्री ने भी अपने वर्णन में भारतीय लेखन का उल्लेख किया है। उसके अनुसार भारतवासी वृक्ष की छाल पर लिखते थे। इस क्रम में उसने भोजपत्र का उल्लेख भी किया है। पश्चिमी इतिहासविद् ब्यूलर ने इन तथ्यों का विश्लेषण करते हुए कहा है कि इन सभी तथ्यों से यह स्पष्ट संकेत मिलता है, कि यूनानियों के आगमन के समय भारत में लेखन कला न केवल प्रचलित थी, बल्कि सुविकसित थी।

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहने वाले यूनानी राजदूत मैगस्थनीज के उद्धरणों से ज्ञात होता है कि सड़कों के किनारे मील के पत्थर 10-10 स्टेडिया की एक निश्चित दूरी पर लगे हुए थे। जिससे सड़क की दूरी तथा ठहराव का ठिकाना ज्ञात होता था। इस तथ्य से भारतीय लेखन कला का परिचय मिलने के साथ यह भी पता चलता है कि भारतवासी गणना से सुपरिचित थे। मैगस्थनीज ने आगे यह भी कहा है कि भारतीय जन्म-कुण्डली देखकर वर्ष फल बतलाते थे। तथा स्मृतियों के आधार पर न्यायिक मसलों का निर्णय करते थे। यहाँ जन्म-कुण्डली के अध्ययन का उल्लेख यह संकेत करता है कि भारतवासी गणना की व्यवस्थित एवं उच्चतम स्थिति से परिचित थे। यहाँ स्मृति का अर्थ कुछ लोगों ने स्मरण शक्ति से लिया है, किन्तु डॉ. ब्यूलर का कहना है कि स्मृति का अभिप्राय स्मृति ग्रन्थों से है। डॉ. राजबली पाण्डेय ने भी इसका समर्थन किया है।

परम्पराओं व अनुश्रुतियों के इस क्रम में लंका देश का भी महत्व है। लंका में सुरक्षित त्रिपिटक साहित्य में न केवल ‘लेखा’ शब्द का प्रयोग मिलता है। अपितु इसमें ‘लेखक’ शब्द का उल्लेख किया गया है। यह इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि लेखन की परम्परा चिर अतीत से विकसित थी। जिसमें पारंगत लोग एक विशेष नाम ‘लेखक’ से सम्बोधित किए जाते थे।

विभिन्न देशों की इन परम्पराओं व अनुश्रुतियों के अलावा साहित्यिक साक्ष्य भी भारतीय लेखन कला की प्राचीनता को स्वीकार करते हैं। डॉ. राजबली पाण्डेय एवं डॉ. डी.आर. भण्डारकर ने वैदिक साहित्य के अनेक साक्ष्यों का उल्लेख करते हुए यह प्रमाणित किया है कि लेखन कला वैदिक काल में ज्ञात थी। ऋग्वेद में गायत्री, त्रिष्टप, वृहती, विराज, अनुष्टप आदि अनेक छन्दों का उल्लेख इस तथ्य का प्रमाण है कि ऋग्वेद के लेखन में इन छन्दों का प्रयोग किया गया था। यजुर्वेद में भी लेखन सामग्री के साथ लम्बे अंकों का उल्लेख किया गया है। अथर्ववेद में तो बहुत ही स्पष्ट रीति से कहा गया है- हे पृथ्वी, हम तुम्हें भौतिक बन्धनों से आबद्ध कर देंगे। तुम्हारा शरीर दो योग का है- कृसमानी और वित, जो कुछ भी तुम पर लिखा गया है, वह एक विशिष्ट वस्तु से लिखा गया है- जिससे यह अर्जित ज्ञान शीघ्र ही लुप्त न हो जाय। इस उद्धरण से यही स्पष्ट होता है कि लेखन कला अथर्ववेद के रचना काल में पूर्ण विकसित थी। इसका कारण ज्ञान को स्थायी बनाना था।

वेदों के अलावा रामायण में भी एक प्रसंग आया है, जब हनुमान जी लंका गये और वहाँ उन्होंने अशोक वाटिका में माता सीता के सामने भगवान् राम की मुद्रिका गिराते हुए कहा-

रामनामाँकितं चेदि पश्य देवि अंगुलीयकम् । - वाल्मीकि रामायण

(तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुन्दर - मानस)

इतिहासवेत्ता डॉ. भण्डारकर ने इस तथ्य का विवेचन करते हुए कहा है कि रामायण काल में भी लिखने की कला प्रचलित थी, अन्यथा अंगूठी पर राम का नाम कैसे अंकित होता। इसी तरह महाभारत में भी ‘लिख, लेखन, लेखक’ आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। आदि पर्व में तो इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख मिलता है महर्षि व्यास ने इसको लिखने के लिए लेखन कला में कुशल ‘गणेश’ को चुना। बर्नेल के अनुसार लेखन सम्बन्धी ये सभी तथ्य पूर्ण विश्वसनीय है।

इन सभी साहित्यिक साक्ष्यों के अलावा अनेकों पुरातात्त्विक प्रमाण भी भारतीय लेखन की प्राचीनता एवं मौलिकता को सिद्ध करते हैं। पुराविद् डॉ. गौरीशंकर ओझा ने अशोक कालीन अभिलेखों के पूर्व उत्कीर्ण दो अभिलेखों का विवरण प्रस्तुत किया है। इसमें एक अभिलेख अजमेर का है तथा दूसरा नेपाल घाटी का। इनमें से पहला अभिलेख तीर्थंकरों से 84 वर्ष पूर्व अंकित किया गया था। अर्थात् इसका काल 443 ई. पू. है। दूसरा अभिलेख डॉ. ब्यूलर के अनुसार 487 ई. पूर्व का है। इसकी पुष्टि इस तर्क से होती है कि अशोक के अभिलेखों में अंकित है कि उसने अपने लेखों को पत्थर पर इसलिए खुदवाया कि ये स्थायी बने रहें। इससे स्पष्ट होता है कि इसके पूर्व भी लेख लिखे जाते थे। पर वे किसी ऐसे आधार पर लिखे जाते थे। जिससे उसका स्वरूप स्थायी नहीं होता था। अशोक के पूर्व के कुछ अभिलेख- सौहगौरा, महथानगढ़, पिपरहवाँ में मिले भी हैं।

डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार के अनुसार इन सभी प्रमाणों से कहीं ज्यादा मुखर एवं प्रखर प्रमाण है। सिन्धु घाटी के पुरावशेष। सिन्धु घाटी के ठीकरों पर प्राप्त उभरे हुए चिह्नों को पुराविशेषज्ञों ने लेख माना है। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि यह चित्रात्मक लिपि है। इस सम्बन्ध में डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार का कहना है कि यह लिपि भले ही आँशिक रूप से चित्रात्मक हो, पर इससे अक्षरों का भी बोध होता है। यह तथ्य भारतीय लेखन कला की प्राचीनता को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है। सर जॉन मार्शल के अनुसार यह काल 3000 ई. पूर्व हो सकता है। क्योंकि पुरातात्त्विक तथ्यों के अनुसार सिन्धु घाटी की सभ्यता इतनी ही प्राचीन है।

प्रमाण एक नहीं अनेक हैं, जो भारतीय लेखन कला की प्राचीनता एवं मौलिकता को प्रमाणित करते हैं। विख्यात विचारक विंटरनिब्ज का कहना है कि लेखन कला के ज्ञान के कारण ही भारत देश ज्ञान-विज्ञान में सबसे अग्रणी बना। यही वह वजह है कि भारतीय संस्कृति प्रथम होने के साथ ही विश्वव्यापी बनी। भारत देश विश्व गुरु के प्रतिष्ठित आसन पर आसीन हुआ। भारतीय एवं पश्चिमी विचारक एक स्वर से लेखन कला को एक दैवी विभूति बताते हुए यह प्रमाणित करते हैं कि यह जगत् स्रष्ट ब्रह्म से वेदों के द्रष्ट ऋषियों को मिली। इसी से ज्ञान का विस्तार हुआ। ज्ञान के प्रसार व विस्तार के लिए ऋषियों की यह परम्परा सर्वकालिक एवं शाश्वत है। इस लेखन कला के द्वारा ही अखण्ड ज्योति के पृष्ठ शाश्वत को सामयिक अभिव्यक्ति देकर ऋषि चिन्तन को विश्वव्यापी बना रहे हैं।

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