• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • प्रपंच की माया, मुक्ति के उपाय
    • सच्चिदानंद रूप है हमारी जीवात्मा
    • ज्योतिस्वरूप मानव का उपचार भी प्रकाश ही करेगा
    • गुरु ही जीवन की पूर्णता है
    • नारीशक्ति की अस्मिता की रक्षा का पर्व
    • गुरु का ध्यान ही प्रेम की कसौटी
    • प्रेम के रूप में परिवर्तन (Kahani)
    • सृष्टि का जन्मोत्सव पर्व
    • गायत्री उपासना के मूल में निहित वैज्ञानिक सत्य
    • तीर्थयात्रा का उद्देश्य देवदर्शन नहीं (Kahani)
    • आत्मचिंतन का महापर्व : स्वाधीनता दिवस
    • वेद की अनधिकारिणी
    • मानस का मर्म
    • सार्थक आयु (Kahani)
    • एक वैदिक सत्य, जो बन रहा है वैज्ञानिक सत्य
    • यही है ब्रह्म (Kahani)
    • ऋषिचेतना के ज्ञान प्रसार का माध्यम लेखन कला
    • रणक्षेत्र में उतर जाना चाहिए (Kahani)
    • रिक्ता ही है, परम सिद्धि
    • मृत्यु ही जीवन और अमरता (Kahani)
    • यौगिक जीवन ही स्वस्थ मन दे सकेगा
    • विवेकपूर्ण सदुपयोग (Kahani)
    • राखी के कच्चे धागे ने बदला इतिहास
    • ‘सत्यं वद’ (Kahani)
    • पैंसठ वर्ष की एक अनंत यात्रा के प्रारंभिक पड़ाव
    • VigyapanSuchana
    • दुःख की चोटें बनाती हैं आदमी को
    • सद्गुरु से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिए से एकाकार होना
    • प्रभू के संदेश की अवहेलना (Kahani)
    • बस। मन को साक्षी भर बना लो
    • गुरुसत्ता के महाप्रयाण के बाद मातृसत्ता का संदेश
    • Quotation
    • भविष्य उज्ज्वल बनाने का अवसर (Kahani)
    • कर्मसंन्यास व कर्मयोग में कौन-सा श्रेष्ठ है
    • ब्राह्मण सिर धुनकर पछताता रहा (Kahani)
    • द्रष्टा स्तर की प्रेम से लबालब सत्ता
    • सेवा और कर्तव्यपरायणता (Kahani)
    • केंद्र के समाचार-क्षेत्र की हलचलें
    • भागवत भूमि का सेवन
    • एक महान सृजन सेनानी गुरुतत्त्व में विलीन
    • गायत्री परिवार का संगठनात्मक ढाँचा अब ऐसा होगा
    • आत्मबोध
    • आत्मबोध (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • प्रपंच की माया, मुक्ति के उपाय
    • सच्चिदानंद रूप है हमारी जीवात्मा
    • ज्योतिस्वरूप मानव का उपचार भी प्रकाश ही करेगा
    • गुरु ही जीवन की पूर्णता है
    • नारीशक्ति की अस्मिता की रक्षा का पर्व
    • गुरु का ध्यान ही प्रेम की कसौटी
    • प्रेम के रूप में परिवर्तन (Kahani)
    • सृष्टि का जन्मोत्सव पर्व
    • गायत्री उपासना के मूल में निहित वैज्ञानिक सत्य
    • तीर्थयात्रा का उद्देश्य देवदर्शन नहीं (Kahani)
    • आत्मचिंतन का महापर्व : स्वाधीनता दिवस
    • वेद की अनधिकारिणी
    • मानस का मर्म
    • सार्थक आयु (Kahani)
    • एक वैदिक सत्य, जो बन रहा है वैज्ञानिक सत्य
    • यही है ब्रह्म (Kahani)
    • ऋषिचेतना के ज्ञान प्रसार का माध्यम लेखन कला
    • रणक्षेत्र में उतर जाना चाहिए (Kahani)
    • रिक्ता ही है, परम सिद्धि
    • मृत्यु ही जीवन और अमरता (Kahani)
    • यौगिक जीवन ही स्वस्थ मन दे सकेगा
    • विवेकपूर्ण सदुपयोग (Kahani)
    • राखी के कच्चे धागे ने बदला इतिहास
    • ‘सत्यं वद’ (Kahani)
    • पैंसठ वर्ष की एक अनंत यात्रा के प्रारंभिक पड़ाव
    • VigyapanSuchana
    • दुःख की चोटें बनाती हैं आदमी को
    • सद्गुरु से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिए से एकाकार होना
    • प्रभू के संदेश की अवहेलना (Kahani)
    • बस। मन को साक्षी भर बना लो
    • गुरुसत्ता के महाप्रयाण के बाद मातृसत्ता का संदेश
    • Quotation
    • भविष्य उज्ज्वल बनाने का अवसर (Kahani)
    • कर्मसंन्यास व कर्मयोग में कौन-सा श्रेष्ठ है
    • ब्राह्मण सिर धुनकर पछताता रहा (Kahani)
    • द्रष्टा स्तर की प्रेम से लबालब सत्ता
    • सेवा और कर्तव्यपरायणता (Kahani)
    • केंद्र के समाचार-क्षेत्र की हलचलें
    • भागवत भूमि का सेवन
    • एक महान सृजन सेनानी गुरुतत्त्व में विलीन
    • गायत्री परिवार का संगठनात्मक ढाँचा अब ऐसा होगा
    • आत्मबोध
    • आत्मबोध (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 2002 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


दुःख की चोटें बनाती हैं आदमी को

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 26 28 Last
हवाओं में गर्मी का तीखापन था। मन को बेचैन करने वाली उमस अग-जग में सब ओर पसरी थी। लू के थपेड़े पल-पल में पथ पर चलने वाले बटोहियों के तन पर चोट करके चले जाते थे। इन चोटों से आने-जाने वालों का तन ही नहीं मन भी विकल हो उठता। इनमें से कई तो यह भी सोचने लगते कि शायद झुलसाने वाली गर्मी की पीड़ा से भरी हुई इन राहों की ही तरह जीवन की राहें भी हैं। किधर भी जाओ, कहीं भी पाँव बढ़ाओ गर्म हवाओं की चोटें लगेगी ही। दर्द के तीखे थपेड़ों को सहना ही पड़ेगा। समझ में नहीं आता कि जिन्दगी की राहों में इतना दर्द क्यों है? विश्व के वास्तुकार ने पीड़ा के चौबारे क्यूँ खड़े किए हैं? क्या इस दर्द का भी कोई अर्थ है? इसके बढ़ते-घटते, उभरते-उफनते रूपों का क्या रहस्य है।

इन प्रश्न कंटकों के साथ पाँवों ने ब्रह्मवर्चस से शान्तिकुञ्ज का सफर कब तय कर लिया, पता ही नहीं चला। उधेड़-बुन तो तब टूटी, जब द्वार-दरवाजे पार करने और सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद परम पूज्य गुरुदेव के दर्शन हुए। वह अपने कमरे में टहल रहे थे। वातावरण की बेचैन करने वाली गर्मी से वह सर्वथा अप्रभावित थे। चारों ओर के लू के थपेड़ों के बीच उनकी स्थितप्रज्ञता निष्कल्प, अचंचल एवं अडिग थी। कमरे में गर्मी की तपन तो थी, पर यह उनके महातप के सामने क्षुद्र, नगण्य और अस्तित्वहीन हो गयी थी। कमरे का पंखा ठहरा हुआ था। इस तीखी गर्मी में भी उन्हें इसकी कोई आवश्यकता नहीं महसूस हो रही थी।

जबकि आने वाले पसीने से लथ-पथ थे। गर्मी की विकलता से उनका चेहरा लाल हो रहा था। ‘अपने प्रति कठोरता-दूसरों के प्रति उदारता’ सूत्र के सूत्रकार गुरुदेव ने उनकी दशा समझकर मुस्कराते हुए पंखा चला दिया। पंखा चलाने के साथ ही वह अपने पलंग पर बैठ गए। पंखे की बढ़ती गति के साथ आने वालों को राहत मिलती गयी। उनकी सोच में कहीं यह भी अंकुरित हुआ कि दर्द और पीड़ा से भरी राहों में शायद कहीं सुख की छाँव भी है। भले ही इसकी अवधि कितनी भी क्यों न हो? पंखों की हवा में कुछ पल गुजारने के बाद उन्होंने लेख सुनाने का संकेत किया। लेख की पंक्तियाँ शुरू करने के साथ ही वह अपने पलंग पर लेट गए। लेटे हुए उनकी चेतना की चिन्तन धारा अविराम थी। पर साथ ही वह लेख की पंक्तियाँ भी सुन रहे थे।

जहाँ तक याद पड़ता है- उस दिन लेख की पंक्तियाँ कुछ यूँ थी- ‘संसार में सुख नहीं है, सुख स्वयं में है।’ यह सुनकर गुरुदेव बोले- इस बात का मतलब समझते हो? उनके इस प्रश्न को सुनकर लेख सुनाने वाला रुक गया। उसमें उम्मीद जगी कि गुरुदेव कुछ विशेष बताएँगे। उम्मीद के इस आँगन को अपनी शब्द किरणों से प्रकाशित करते हुए वह कहने लगे- संसार का मतलब ही यह होता है, जो स्वयं से चूक गया और दूसरे पर जिसकी नजर अटक गयी। तुम संसार का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझते। तुम समझते हो संसार का मतलब, ये वृक्ष, ये पहाड़, ये चाँद-तारे, ये बाजार, ये दुकान, यह संसार है। तुम संसार का मनोवैज्ञानिक अर्थ नहीं समझते।

संसार का अर्थ है, किसी दूसरे में सुख, किसी और में सुख, कहीं और सुख। इस तरह की जो अज्ञान दशा है, उसका नाम संसार है। और जो इस अज्ञान दशा में चलता जाता है, चलता जाता है, संसरण करता है- वह संसार में जी रहा है। अज्ञान दशा में संसरण करने वाला सोचता है, इधर नहीं मिला, उधर मिलेगा, वहाँ पहुँच जाता है। वहाँ भी नहीं मिलता तो और आगे बढ़ जाता है। ऐसे संसरण करने की प्रक्रिया का नाम संसार है।

जिस दिन तुम यह जाग कर समझ लोगे, कि सुख कहीं नहीं मिलता, न यहाँ और न वहाँ। जब तुम्हें ऐसा बोध होगा और तुम जागकर खड़े हो जाओगे। तुम्हारा होश का दीया जलेगा। आंखें दूसरे से हटकर अपने पर पड़ेंगी। तुम्हारी ज्योति तुम्हें ज्योतिर्मय करेगी, उसी क्षण सुख है।

जिन्दगी में जो दुःख की चोटें हैं, वे इसी सुख की ओर मोड़ने के लिए हैं। हर चोट इसी सच्चाई को बताने के लिए है। यदि अपना चिन्तन सही रखा जाय तो जीवन का प्रत्येक दुःख व्यक्ति को आध्यात्मिक बनाता है। दुःख की चोटों से मनुष्य की अन्तर्चेतना में निखार आता है। तो दर्द एकदम व्यर्थ नहीं है, दुःख एकदम व्यर्थ नहीं है। दुःख है बाहर, लेकिन वही चोट निहाई बनती है, हथौड़ा बन जाती है। वही चोट छेनी बन जाती है। वही चोट तुम्हारे भीतर जो-जो व्यर्थ है, बेकार है, उसे काट देती है, जला देती है। वही चोट तुम्हें जगाती है।

एक पंक्ति में इतना जीवन दर्शन है, इसका प्रबोध गुरुदेव के शब्दों से हुआ। दर्शन के लिए दृष्टि चाहिए। दृष्टि हो तो दर्शन है। दृष्टि न हो तो अंधियारे के सिवा और कुछ नहीं। और यह दृष्टि सद्गुरु कृपा से मिलती है। सद्गुरु कृपा के बिना इसका मिलना किसी भी तरह सम्भव नहीं है। सामान्य समझ दुःख में हमेशा दोष ही दोष देखती है। लेकिन दुःख का भी कोई उद्देश्य है, यह सत्य पहली बार पता चला। यह सच्चाई जीवन में पहली बार उजागर हुई कि दुःख का भी एक दर्शन है। बस इसे देखने वाली दृष्टि चाहिए।

हवाओं में अभी भी वैसी ही गर्मी थी। लू के थपेड़े अभी भी वातावरण में यथावत चोटें कर रहे थे। पर अब गुरुदेव के शब्द इन्हें अर्थ दे रहे थे। वह कह रहे थे- बेटा! गर्मी की विकलता ही बरसात की सुरम्यता बनती है। गर्म हवाएँ ही फसलें पकाती हैं। लू के थपेड़ों से ही धरती का जल वाष्पीभूत होकर मेघों का रूप लेता है। जीवन में भी कुछ ऐसा ही है। इसकी राहों में मिलने वाले दर्द का अगर थोड़ा समझपूर्वक उपयोग किया जाय तो इससे बहुत कुछ हो सकता है। इसी की चोटों से तुम्हारे भीतर छिपी हुई मूर्ति प्रकट होगी। दुःखों की आग जब तुम्हें जलाएगी, और जलाएगी, और जलाएगी, तभी तुम्हारा स्वर्ण निखरकर कुंदन बनेगा।

गुरुदेव के इन शब्दों में उनकी प्राण चेतना की अभिव्यक्ति थी। उनके जीवन के अनुभवों का जीवन्त सार था। वह जो कह रहे थे- वह केवल शब्दों का बन्धन नहीं था। उसमें उनकी चेतना की चमक थी। बड़ा गहरा अर्थ और भाव था उनके शब्दों में। वह बता रहे थे- जीवन में दर्द तो है, पीड़ा तो है, मगर यही पीड़ा निखारती है, माँजती है, सजाती है, संवारती है। जो लोग इस पीड़ा से पीछा छुड़ाकर किसी सुख की तलाश में भागते हैं। वे कहीं भी क्यों न जाएँ, पर संसार में ही भटकते हैं। और जो इस पीड़ा की सघनता में जागते हैं, वे अध्यात्म में जीते हैं। सुख की तलाश में भागे तो संसार। और यदि पीड़ा में जागे तो अध्यात्म। यह अच्छी तरह से जान लो कि अध्यात्म पीड़ा से भागने वाले कायरों का कर्म नहीं है। यह तो दर्द और पीड़ा की चोटों को सहते हुए जागने वालों वीरों का धर्म है।

अपनी बातों का सार निष्कर्ष बताकर गुरुदेव मौन हो गए। उन्होंने इन लोगों को वापस लौटने का संकेत करते हुए पंखे का स्विच ऑफ कर दिया। पंखे की गति मन्द पड़ने लगी। ये लोग भी उन्हें भक्ति पूर्ण प्रणाम करने के बाद अपने निवास की ओर चल पड़े। राहें अभी भी झुलसाने वाली गर्मी से घिरी थी। पर वापस लौटने वाले किसी एक की शान्त-शीतल अन्तर्चेतना में बोध के ये स्वर फूट रहे थे-

जीवन दर्द का झरना है जो भी जीते हैं दर्द भोगते हैं लेकिन हमें दर्द भोगते हुए जागना है यही तो जीवन की सत्य-साधना है दर्द नियति के आँगन में पड़ी निहाई है दर्द भगवान् के हाथों का हथौड़ा है भगवान् हम पर चोटें देकर हमें संवारता और गढ़ता है यह बात सुनिश्चित है कि आदमी दर्द में विकसित होता खूबसूरत बनता और बढ़ता है।

First 26 28 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • प्रपंच की माया, मुक्ति के उपाय
  • सच्चिदानंद रूप है हमारी जीवात्मा
  • ज्योतिस्वरूप मानव का उपचार भी प्रकाश ही करेगा
  • गुरु ही जीवन की पूर्णता है
  • नारीशक्ति की अस्मिता की रक्षा का पर्व
  • गुरु का ध्यान ही प्रेम की कसौटी
  • प्रेम के रूप में परिवर्तन (Kahani)
  • सृष्टि का जन्मोत्सव पर्व
  • गायत्री उपासना के मूल में निहित वैज्ञानिक सत्य
  • तीर्थयात्रा का उद्देश्य देवदर्शन नहीं (Kahani)
  • आत्मचिंतन का महापर्व : स्वाधीनता दिवस
  • वेद की अनधिकारिणी
  • मानस का मर्म
  • सार्थक आयु (Kahani)
  • एक वैदिक सत्य, जो बन रहा है वैज्ञानिक सत्य
  • यही है ब्रह्म (Kahani)
  • ऋषिचेतना के ज्ञान प्रसार का माध्यम लेखन कला
  • रणक्षेत्र में उतर जाना चाहिए (Kahani)
  • रिक्ता ही है, परम सिद्धि
  • मृत्यु ही जीवन और अमरता (Kahani)
  • यौगिक जीवन ही स्वस्थ मन दे सकेगा
  • विवेकपूर्ण सदुपयोग (Kahani)
  • राखी के कच्चे धागे ने बदला इतिहास
  • ‘सत्यं वद’ (Kahani)
  • पैंसठ वर्ष की एक अनंत यात्रा के प्रारंभिक पड़ाव
  • VigyapanSuchana
  • दुःख की चोटें बनाती हैं आदमी को
  • सद्गुरु से मिलना जैसे रोशनी फैलाते दिए से एकाकार होना
  • प्रभू के संदेश की अवहेलना (Kahani)
  • बस। मन को साक्षी भर बना लो
  • गुरुसत्ता के महाप्रयाण के बाद मातृसत्ता का संदेश
  • Quotation
  • भविष्य उज्ज्वल बनाने का अवसर (Kahani)
  • कर्मसंन्यास व कर्मयोग में कौन-सा श्रेष्ठ है
  • ब्राह्मण सिर धुनकर पछताता रहा (Kahani)
  • द्रष्टा स्तर की प्रेम से लबालब सत्ता
  • सेवा और कर्तव्यपरायणता (Kahani)
  • केंद्र के समाचार-क्षेत्र की हलचलें
  • भागवत भूमि का सेवन
  • एक महान सृजन सेनानी गुरुतत्त्व में विलीन
  • गायत्री परिवार का संगठनात्मक ढाँचा अब ऐसा होगा
  • आत्मबोध
  • आत्मबोध (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj