
गायत्री उपासना के मूल में निहित वैज्ञानिक सत्य
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मंत्र विज्ञान ध्वनि विज्ञान पर आधारित एक विधा है। हमारे पूर्वज ऋषि इसके उद्भट जाता थे। उन्होंने ध्वनि तरंगों की विशिष्टता और महत्ता को पहचाना था। उस आधार पर उन्हें विशेष सम्मान और स्थान दिया। गायत्री मंत्र का महामंत्र संबोधन इसी तथ्य को उजागर करता है और बताता है कि आरोग्यशास्त्र की दृष्टि से यह कितना अप्रतिम और अद्भुत है।
सर्वप्रथम ‘गायत्री’ शब्द के अर्थ पर विचार करें। ऋषियों ने इसे ‘गायन्त त्रायते इति गायत्री’ कहकर परिभाषित किया है अर्थात् जो गाने वाले का त्राण करे, वह ‘गायत्री’ है। पिछले दिनों तक इसे एक शास्त्रीय मान्यता भर माना जाता था और आप्तवचन से अधिक कुछ नहीं स्वीकारा जाता था। अब जबकि गायत्री मंत्र पर अध्ययन-अनुसंधान हो रहे हैं, तब विदित हुआ है कि उक्त परिभाषा में सूत्रकार की कितनी अंतर्दृष्टि सम्मिलित है। वास्तव में यह सूत्र ‘गायत्री’ की शाब्दिक व्याख्या भर ही नहीं है, अपितु उसमें एक ऐसा वैज्ञानिक सत्य छिपा हुआ है, जो दिव्य सृष्टि संपन्न ऋषि से अविज्ञात न रह सका और उसे ज्यों का त्यों शब्दों में अभिव्यक्त कर दिया कि इसे जपने वाले का यह त्राण करती है, किंतु यह त्राण किसी प्रकार से होता है, बुद्धिवादियों के लिए यह रहस्य ही बना रहा। ऐसे ही ‘गायत्री कामधेनु है’, ‘गायत्री कल्पवृक्ष है’, ‘गायत्री पारसमणि है’ आदि कितनी ही धार्मिक धारणाएँ इस संबंध में प्रचलित हैं, पर उनका कोई वैज्ञानिक आधार स्पष्ट न होने से बौद्धिक लोग उन्हें तथ्य के रूप में अंगीकार करने में संकोच अनुभव करते रहे। अब जबकि ध्वनि विज्ञान के आधार पर गायत्री मंत्र का विश्लेषण हो चुका है, तब पता चला है कि उसमें शब्दों और अक्षरों का क्रम विन्यास कुछ इस प्रकार का है कि जब उसका उच्चारण किया जाता है, तो उससे ऐसी तरंगें निःसृत होती हैं, जो संपूर्ण शरीरतंत्र पर अनुकूल प्रभाव डालती हैं। इस तथ्य के प्रकाश में जब गायत्री विषयक मान्यताओं पर मनन किया गया, तो सभी बुद्धिसंगत प्रतीत हुई। वह गाने वाले का त्राण उसे समग्र रूप से स्वस्थ बनाकर करती है।
कामधेनु के संबंध में यह प्रचलित है कि उसके समक्ष कोई भी कामना अधूरी नहीं रहती। गायत्री कामधेनु कैसे है? इस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि गायत्री मंत्र के जप से जब व्यक्ति हर प्रकार से स्वस्थ-नीरोग बनता है, तो निश्चय ही धनोपार्जन के संबंध में उसकी स्थिति सर्वसाधारण से अच्छी होगी। वह औरों की तुलना में धन-संग्रह में कहीं अधिक समर्थता और सशक्तता का परिचय देगा। धनी व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी प्राप्त कर सकना असंभव नहीं, कारण कि वैभव भौतिक जगत् का सर्वोपरि बल है। इससे व्यक्ति अपनी समस्त आकाँक्षाओं को पूरा कर सकता है, इसलिए गायत्री को यदि कामधेनु कहा गया है, तो भौतिक दृष्टि से यह किसी भी प्रकार असंगत नहीं है। ‘गायत्री कल्पवृक्ष है’, ‘गायत्री पारसमणि है’ इन सभी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
गायत्री संबंधी भौतिक चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अब यह देखते हैं कि पिछले दिनों उस पर जो शोध-अनुसंधान हुए हैं, उनसे उसकी ‘गायन्तं त्रायते’ संबंधी मान्यता की कितनी पुष्टि होती है। इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य ‘जबलपुर हास्पिटल एंड रिसर्च सेंटर’ में हृदय रोग विभाग के प्रमुख एवं मूर्द्धन्य हृदय रोग विशेषज्ञ डॉ.आर.एस. शर्मा ने किया है। एक हृदय रोग विशेषज्ञ होने के नाते डॉ.शर्मा ने अध्ययन के लिए सर्वप्रथम हृदय रोग और उससे संबंधित उच्च रक्तचाप को चुना और उसमें औषधि सेवन के साथ-साथ गायत्री मंत्र जप को भी अनिवार्य बना दिया। कई रोगियों पर अनेक महीनों तक परीक्षण करने के उपराँत जो नतीजे सामने आए, वह काफी उत्साहवर्द्धक थे। पाया गया कि जिन रोगियों ने दवा और मंत्रजप दोनों को साथ-साथ अपनाया था, उनके और केवल दवा पर आश्रित रोगियों के स्वास्थ्य में भारी फर्क था। मंत्रजप को औषधि के साथ अनुपूरक चिकित्सा के रूप में अपनाने वाले मरीज शरीर, चेहरे और सक्रियता की दृष्टि से बिलकुल सामान्य प्रतीत हो रहे थे, जबकि केवल दवा पर निर्भर रोगियों के मुखमंडल निस्तेज ओर थके हुए मालूम पड़े और बीच-बीच में अन्य रोग भी उभरते रहे।
इन परिणामों से डॉ.शर्मा काफी उत्साहित हुए और उन्होंने गायत्री मंत्र का हृदय रोग और रक्तचाप पर पड़ने वाले प्रभावों का साँगोपाँग अध्ययन करने को सोचा। उसके लिए उन्होंने दो भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले लोगों का चयन किया। एक दल में ऐसे व्यक्ति रखे गए, जो आध्यात्मिक प्रकृति के थे एवं जो नियमित रूप से गायत्री मंत्र का जप करते थे। दूसरे ग्रुप में उन लोगों को सम्मिलित किया गया, जिनकी जीवन शैली एवं चिंतन एकदम भौतिक था। वे न तो गायत्री मंत्र का जप करते थे, न जीवन में कभी किसी अन्य मंत्र की उपासना की थी। दोनों का एज-ग्रुप 25-35 वर्ष के बीच रखा गया। दोनों ग्रुपों के सभी लोगों की स्वास्थ्य-परीक्षा कर यह सुनिश्चित कर लिया गया कि वे पूर्णतः स्वस्थ है। उनमें से किसी को भी न रक्तचाप संबंधी रोग था, न हृदय संबंधी। आध्यात्मिक ग्रुप के लोगों को यह सलाह दी गई कि वे अपना जीवनक्रम हर स्थिति में आध्यात्मिक बनाए रखें और गायत्री मंत्र का जप नियमित रूप से प्रतिदिन करते रहें। जप अनुबंध कर्म-से-कम पाँच माला का रखा गया। कंट्रोल ग्रुप पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था। अध्ययन तीन वर्ष तक चला। इस बीच दोनों ग्रुपों के लोगों का नियमित स्वास्थ्य-परीक्षण होता रहा। तीन वर्ष उपराँत जो परिणाम सामने आया, वह चौंकाने वाला था। गायत्री मंत्र का नियमित जप करने और आध्यात्मिक जीवन शैली अपनाने वाले दल के लोगों में हृदय अथवा रक्तचाप संबंधी किसी प्रकार की कोई शिकायत नहीं पाई गई, जबकि कंट्रोल ग्रुप में से अनेकों में इनके लक्षण उभर आए थे। आध्यात्मिक ग्रुप शाकाहारी था, जबकि कंट्रोल ग्रुप को आमिष-सामिष दोनों प्रकार के भोजन की छूट थी।
इसके अतिरिक्त डॉ.शर्मा ने उन हृदय रोगियों पर भी गायत्री मँत्र को आजमाया, जिनकी हृदय-गति या तो तीव्र थी या अनियमित। उन्होंने ऐसे बीमारों से सामान्य जाग्रत् अवस्था के 16 घंटों में से हर दो घंटे पर गायत्री मंत्र की एक माला जपने को कहा। एक माह तक यह प्रक्रिया चलाने के बाद मंत्र-जप को 24 घंटे में चार बार कर दिया गया। इसमें प्रातः सोकर उठने के बाद, रात्रि में सोने से पूर्व और बीच के दिन वाले हिस्से में दो बार, इस प्रकार का क्रम अपनाया गया। दूसरे महीने में जप-संख्या बढ़ाकर तीन माला कर दी गई। इसके बाद इसी प्रक्रिया को आगे के महीनों में जारी रखा गया। इससे कुछ ही महीनों में हृदय गति सामान्य होती देखी गई। प्रयोग में गायत्री मंत्र के ‘ऊँ’ वाले हिस्से के प्लुत उच्चारण (लंबा खींचकर) पर जोर दिया गया, साथ ही इस बात का भी ध्यान रखा गया कि बीमार की हृदय-गति 50 से और रक्तचाप 90-60 से कम न हो।
इससे हृदय-गति एवं उसकी दूसरी अनियमितताएँ सामान्य कैसे होती है? इस संबंध में उनका कहना है कि उक्त मंत्र के शब्द विन्यास में ही चमत्कार है। उन शब्दों के क्रमिक रूप से बोलने या उच्चारण करने से कुछ असाधारण स्तर की ध्वनि तरंगें पैदा होती हैं, जो आटोनोमस नर्वस सिस्टम के सिंपैथेटिक वाले भाग को प्रभावित करना आरंभ करती है। तंत्रिका तंत्र के उस हिस्से के सक्रिय होते ही हृदय-गति एवं रक्तचाप सामान्य होने लगते हैं और रोगी स्वस्थ अनुभव करने लगता है।
अपने इन अध्ययनों के आश्चर्यजनक परिणामों को देखते हुए डॉ.शर्मा ने इनकी एक विस्तृत रिपोर्ट अखिल भारतीय भेषज विज्ञान विशेषज्ञ के सम्मेलन में भेजी, जो उन दिनों गुवाहाटी में संपन्न होने जा रहा था। शोध-पत्र स्वीकार कर लिया गया, जिसे बाद में ‘जरनल ऑफ एसोसिएशन ऑफ फिजीशियन्स’ नामक भेषज विज्ञान शोध-पत्रिका में प्रकाशित किया गया। सम्मेलन में शोधपत्र की काफी प्रशंसा हुई तथा गायत्री मंत्र को अन्य रोगों में भी आजमाने की अनुशंसा की गई।
गायत्री मंत्र एक वैदिक मंत्र होने के नाते उसके जप में संपूर्ण बाह्य शुचिता का विधान है, पर जो रोगग्रस्त हैं, उनके लिए इसमें इतनी भर छूट है कि वे चलते-फिरते, उठते-बैठते एवं लेटे हुए कहीं और किसी भी स्वच्छ-अस्वच्छ स्थिति में इसका मौन-मानसिक जप कर सकते हैं।
उनको गायत्री मंत्र से रोग-निवारण की प्रेरणा कब और कैसे मिल? इस संदर्भ में वे कहते हैं कि अपने लंबे चिकित्सीय जीवन में उनने अनेक युवा हृदय रोगियों का इलाज किया। इस क्रम में उनने देखा कि कई बार ऐसे रोगियों के साथ उनके माता-पिता अथवा दूसरे बड़ी उम्र के संबंधी होते। वे इतनी आयु में भी बिलकुल स्वस्थ दिखलाई पड़ते। उन्हें जिज्ञासा हुई कि आखिर पुत्र इस अल्पवय में ऐसी प्राणघातक व्याधि का शिकार कैसे हो गया, जबकि माता-पिता इस ढलती आयु में भी तंदुरुस्त बने हुए हैं? जिज्ञासा ने चर्चा का रूप लिया, तो कुछ ऐसी जानकारियाँ मिलीं, जो उनके जीवनक्रम में अभिन्न रूप से सम्मिलित थीं। वे शाकाहारी थे। इसके अतिरिक्त ब्रह्ममुहूर्त में उठना और संध्योपासना करना उनकी नियमित दिनचर्या थी। उपासना में वे गायत्री मंत्र का जप और अनुष्ठान करते और यदा-कदा गायत्री यज्ञों में भाग लेते।
वे कहते हैं कि गायत्री के संबंध में थोड़ी-बहुत जानकारी उन्हें भी थी। उनने सुन रखा कि गायत्री ब्राह्मणों अर्थात् सात्विक चिंतन वालों की कामधेनु है। इसके अतिरिक्त अथर्ववेद में कहा गया है, ‘ऊँ स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयन्ताँ पावमानी द्विजानाम्। आयुः प्राणं प्रजाँ पशुँ कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्।’ गायत्री मंत्र की फलश्रुति विषयक यह श्लोक भी उनका ध्यान खींच रहा था।
इन सब तथ्यों पर गहन विचार-मंथन के उपराँत उनने निर्णय लिया कि गायत्री मंत्र का स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर अध्ययन किया जाए। इस निश्चय के बाद उनने अपने ही रोगियों पर उक्त अध्ययन करना शुरू किया और जो परिणाम सामने आया, वह ऊपर वर्णित है। उनके कथानुसार इस प्रक्रिया द्वारा वे सैकड़ों हृदय रोगियों को स्वस्थ कर चुके हैं और अनेक ऐसे हैं, जो ठीक होने की स्थिति में आ गए हैं।
उनका कहना है कि चिकित्सा की इस विधा को दूसरे रोगों में भी अपनाकर उन क्षेत्रों में के भेषज विशेषज्ञों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि क्या उनमें भी गायत्री मंत्र का वैसा ही प्रभावकारी असर होता है अथवा नहीं? वे इस संबंध में अपना निजी मत व्यक्त करते हुए कहते हैं कि संभव है वहाँ भी यह चिकित्सा सफल साबित हो। इस सोच के पीछे उनकी अपनी धारणा है। वे कहते हैं कि यह संपूर्ण जगत् दोलायमान है। यहाँ की हर वस्तु कंपन कर ही है। अपना शरीर भी उससे पृथक् नहीं। वह भी तरंगित हो रहा है और उसके हर अवयव की इसमें हिस्सेदारी है। सभी अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी गति में सूक्ष्म रूप से प्रकंपित है। उनके इस कंपन में जब कभी व्यवधान या व्यतिक्रम उपस्थित होता है, तो वह अपनी स्वाभाविक अवस्था खो देते हैं और एक असहज दशा में आ जाते हैं यह असहज स्थिति ही व्याधि का कारण बनती और बाद में स्थूल रूप में प्रकट होकर व्यक्ति को बीमार बनाती है।
ऐसा आदमी जब गायत्री मंत्र का जप करता है, तो मंत्र जप से उद्भूत तरंगें रोगग्रस्त अंग की अव्यवस्थित तरंगों को पुनर्व्यवस्थित करती हैं। इस प्रकार कुछ काल की गायत्री उपासना के पश्चात् जब बीमार अवयव अपना स्वाभाविक स्पंदन प्राप्त कर लेता है तो वह स्वस्थ हो जाता है और व्यक्ति नीरोग। इसलिए डॉ.शर्मा का विश्वास है कि गायत्री-चिकित्सा की यह विधि हर रोग और हर परंपरा के लोगों के लिए सफल एवं कारगर सिद्ध होनी चाहिए, क्योंकि यह तरंग प्रधान चिकित्सा भी है। यदि साथ में आस्था और जुड़ जाए, तब तो यह सोने में सुहागे की तरह असर दिखाता है, किंतु न जुड़ने पर भी यह निष्फल नहीं जाता और धीरे ही सही, स्वास्थ्य-लाभ संबंधी प्रयोजन पूरा करके रहता है। इस तरह ‘गायन्त त्रायते’ संबंधी इसकी शास्त्रीय मान्यता सिद्ध हो जाती है।
ध्वनि तरंगों में कितनी शक्ति है, अब यह कोई छिपा तथ्य नहीं। इन्फ्रासोनिक और अल्ट्रासोनिक तरंगों के रूप में विज्ञान इनकी शक्ति को जानता है। मंत्र शास्त्र में इनका चिकित्सीय उपयोग हुआ है। गायत्री मंत्र इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। हममें से प्रत्येक को इस मंत्र की उपासना अवश्य करनी चाहिए। इससे एक साथ तीन लाभ प्राप्त होंगे-स्वास्थ्य, समृद्धि और आत्मिक प्रगति, ऐसा गायत्री महाविद्या के आचार्यों का कथन है।